Monday 21 October 2024 05:27 PM IST : By Abha Srivastava

उनकी प्रेम यात्रा

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आठ साल की नौकरी, चार बार प्यार और तीन ब्रेकअप्स, तीन के साथ तो बस फ्लर्टिंग थी, लेकिन महुआ से प्रखर को सच में प्यार हो गया था। परी जैसी महुआ जिसने किसी को नहीं बताया था कि उसने अपनी चपटी नाक की ‘रीनोप्लास्टी’ करवा कर उसे नुकीली और आकर्षक करवा लिया है। ‘चिन आॅग्मेंटेशन’ से ठुड्डी का कटाव घुमावदार, सुघड़ करवाया है। तिस पर बड़ी-बड़ी बादामी आंखें, खुलता गेहूं जैसा रंग और सामान्य लंबाई। नित नए फैशन के कपड़े पहनना उसे भाता था।

अब आइए प्रखर से परिचय करते हैं - प्रखर ने पिछले 8 सालों में मुंबई की रग-रग पहचान ली थी। मुंबई का ना हो कर भी वह काफी कुछ मुंबईकर हो चुका था। सीए की डिग्री के साथ अगर वह नौकरी ना करके कहीं मॉडलिंग या एक्टिंग करता तो भी सफल हो जाता। साफ रंग और 5’9" की लंबाई के साथ औसत वजन वाला प्रखर एक सुदर्शन युवक था, जो हमेशा कैजुअल ड्रेस पहनता। फॉर्मल पहनता तो बहुत मजबूरी में। एक मस्तमौला व्यक्तित्व के मालिक प्रखर ने जिम जा कर अपने शरीर को हर तरह से सुगठित रूप दे रखा था। उन दोनों की कंपनी के ऑफिस एक ही बिल्डिंग में थे। दोनों अलग अलग, अपरिचित होते हुए भी ‘मेड फॉर ईच अदर’ थे, सो उन्हें मिलना ही था।

उस मल्टीस्टोरीड बिल्डिंग की दमकती चमकती पारदर्शी कैप्सूल लिफ्ट का दरवाजा खुला और परफ्यूम के झोंके के साथ सुंदरी महुआ ने प्रवेश किया। प्रखर को बाहर निकलना था, लेकिन महुआ को देख कर वह रुक गया। खूबसूरत लड़कियां उसे एनर्जी देती हैं। उसे कहीं भी सुंदर कन्या दिखे, तो उसका परिचय पाने के लिए वह अधीर, आकुल हो उठता है। उस समय लिफ्ट में बस वे दोनों ही थे। ग्रीन कलर का टॉप और क्रीम ट्राउजर में कितनी ग्लैमरस दिख रही थी वह। मोबाइल पर बात करते-करते ही अचानक उसका लैपटॉप स्लीव से फिसल गया। गिर कर टूट ना जाए, इसीलिए उसे उठाने के लिए प्रखर और महुआ एक साथ झुके और उनके सिर आपस में टकरा गए। शुक्र था कि लैपटॉप संभाल लिया गया। एक समवेत हंसी बिखर गयी। ...और इस तरह एक फिल्मी स्टाइल में परिचय हुआ। फिर दोस्ती, और दोस्ती की प्रगाढ़ता।

अब छुट्टियां साथ बीतने लगी थीं। कभी मॉल में घूमते, फिल्म देखते या महानगर के आउटस्कर्ट्स की नीरवता में खो जाते। उपहारों का आदान-प्रदान होता, राज की बातें शेअर होतीं। दोनों की रुचियां एक जैसी थीं। कभी बैडमिंटन या ताश खेलते। एक-दूसरे के कंधे पर सिर रखे, एक-दूसरे को महसूस करते हुए क्रिकेट मैच साथ में देखा जाता। वैसे तो वे दोनों हिंदी कम, अंग्रेजी अधिक बोलते, लेकिन हिंदी की कलात्मक फिल्में देखने का शौक दोनों को ही था। फिलहाल दोस्ती की सीमा रेखा पार करके वे लोग एक-दूसरे के बहुत कुछ बन चुके थे।

पता नहीं उस दिन कुछ ग्रह-नक्षत्र ही खराब थे कि बात राई जितनी भी नहीं थी और पहाड़ बन गयी। एक मूवी देखनी थी महुआ को। रणवीर कपूर उसका फेवरिट हीरो। शाम साढ़े छह बजे के शो के लिए एडवांस बुकिंग करवा ली गयी थी। महुआ ठीक 6 बजे सिनेमा हॉल के सामने थी। प्रखर पूरी कोशिश में था कि समय से पहुंच जाए। छः बज कर 45 मिनट पर महुआ के मोबाइल पर मैसेज आया, “उफ... ये ट्रैफिक जैम...।’’ समय बीत रहा था। बेचैनी और अकुलाहट का पैमाना ऊपर जा रहा था। ज्यादा देर खड़े-खड़े, इधर-उधर डोलती महुआ की हाई हील पर टिकी पिंडलियां दर्द करने लगी थीं। प्रखर भयंकर ट्रैफिक जैम में फंसा था। सात बज कर 25 मिनट पर प्रखर दिखा। आते ही सॉरी बोलने लगा, लेकिन इंतजार और बेचैनी से महुआ का पारा चरम पर था। वह अपनी झुंझलाहट को दबाने की कोशिश में थी। प्रखर को देखते ही उसने कंधे उचकाए, होंठ फुलाए और इस तरह देखा जैसे आंखों से ही भस्म कर देगी। ऊंचे स्वर में बोल पड़ी, “ अब...? आधी फिल्म तो छूट ही गयी।’’ ... और हाई हील ठकठकाते हुए बहुत तेजी से दूसरी दिशा में चलती बनी। प्रखर पीछे दौड़ा, लेकिन बहुत देर हो चुकी थी।

और तब प्रखर ने जाना कि तितली, बिजली और लड़की किस तरह नखरे करती है, ऐंठती है, गुस्सा करती है। वह अवाक था। फोन मिलाता रहा, नहीं उठा। इस तुनकमिजाजी पर कौन फिदा होता है, जो प्रखर हो जाता। कई बार जी चाहा कि महुआ को सॉरी कह दे, फिर उसका ईगो आड़े आ जाता। चटक की आवाज तो नहीं आयी, लेकिन इस बार प्रखर का दिल जबर्दस्त टूटा। कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था। होते-होते 3 महीने बीते। फिर एक दिन मोबाइल पर महुआ का मैसेज देख कर उम्मीद की एक किरण जगी। उफ, ये तो महुआ ने अपनी शादी का कार्ड ही भेज दिया। प्रखर रो पड़ा फूट-फूट कर। कुछ देर तक रोता रहा फिर शांत हो गया।

ये वाला ब्रेकअप सचमुच सीरियस था। मन उचाट हो गया। नौकरी से ब्रेक लेने का सोचा। अपनी सेविंग्स टटोली। बिना कुछ किए साल भर आराम से कट सकता है उसका। मुंबई अब बेगानी लगने लगी थी। लेकिन कब तक ? लौटना तो यहीं था। फिर भी प्रखर जाना चाहता था- बहुत दूर ...एकांत और शांति के लिए। उसे क्या पता था कि वहां कुछ तारीखें, कुछ रिश्ते, कुछ रंग, कुछ खुशबुएं- उसकी प्रतीक्षा में थीं।
सब कुछ समेट कर निकला था मुंबई से उस छोटे से पहाड़ी गांव रुद्रपुर के लिए। होमस्टे में रुका था। छः महीने का किराया एक साथ दे दिया था मिसेज जोशी को। मिसेज जोशी के घर का गार्डन देख कर उसकी आंखें जुड़ा गयीं। गुलाब ही गुलाब, जिनके अनूठे रंग देख कर वह मुग्ध था। कुछ दिन स्थिर होने के बाद कैमरा निकाला। हवा में झूमते गुलाब उसे आकर्षित कर रहे थे। जामुनी, गुलाबी पंखुडि़यों वाला एक अकेला गुलाब दूर से ही उसे नायाब लगा। वह उसकी तसवीर खींच ही रहा था कि जामुनी ही सलवार कुरता चुन्नी ओढ़े एक लड़की जो शायद उसी पल उस गुलाब के पास आयी थी, दिख गयी। कैमरे में उसकी तसवीर भी आ गयी। अपनी तसवीर का लिया जाना वह लड़की नहीं भांप सकी। उस लड़की का कोमल चेहरा देख कर प्रखर अपने दुख भूल गया। जी चाहा कि मिल कर परिचय जान ले। लेकिन वह लड़की बस गुलाब को सहला कर घर के भीतर चली गयी। दरवाजा बंद हो गया और प्रखर की दृष्टि दरवाजे को टोहती रही। कुछ देर वहीं रुका रहा फिर लौट गया। कमरे में आ कर बड़ी देर तक मुग्ध सा उस लड़की की तसवीर देखता रहा। सादा, सुकुमार चेहरा। कस कर बंधे बालों से निकल कर एक चंचल घुंघराली लट माथे पर झूल रही थी। चेहरे पर एक टीस सी दिखती थी। अगले दिन प्रखर उसी समय फिर निकला कि शायद वह लड़की दिखे। लड़की तो नहीं दिखी, हां घर के बाहर, क्यारियों के पार दौड़ते हुए 2-3 खरगोश जरूर दिख गए। कैमरा क्लिक करते हुए एक बार फिर वह सुशोभना दिखी। मिसेज जोशी भी साथ थीं।

“कुछ चाहिए?’’ वे पूछ बैठीं।

“नहीं मिसेज जोशी, थोड़ा ऊब रहा था सो बाहर निकल आया। आपके खरगोश बहुत प्यारे हैं।’’

“अरे ये मेरे नहीं, कामना के हैं,’’ वे हंस पड़ीं, ”मेरा भी मन लगा रहता है इनके साथ। वरना हम मां-बेटी भी आपस में कितना बोलें, बतियाएं।’’

तो परिचय का इतना सूत्र तो मिला कि कामना मिसेज जोशी की बेटी है। मतलब पूरा नाम “कामना जोशी।’’ प्रखर का दिमाग सर्च मोड पर चलने लगा। फेसबुक पर कामना जोशी सर्च की जाने लगी। लेकिन वह फेसबुक पर होती तब ना मिलती।

मिसेज जोशी मिलनसार, बातूनी और हंसमुख थीं। फिर जब कुछ दिन कामना नहीं दिखी तो प्रखर पूछ बैठा, “ आपकी बेटी नहीं दिखायी दे रही ?”

“वह अपने घर गयी है।’’

प्रखर चकराया। उसके आश्चर्य को पढ़ कर मिसेज जोशी कहने लगीं, “ अगर मेरा बेटा जीवित होता, तो कामना मेरी बहू होती। दुर्भाग्य है कि इंद्रनील अब हमारे बीच नहीं है।’’

“क्या हुआ था इंद्रनील को?’’

“इंद्रनील और कामना का ब्याह तो हुआ था, लेकिन शायद मैं ही अपने वीतरागी बेटे का मन नहीं पढ़ सकी। विवाह की पहली रात ही वह कामना के नाम एक पत्र छोड़ कर कहीं चला गया। कहां?
पता नहीं। पर्स, घड़ी, मोबाइल सब यही धरे रह गए। बेचारी कामना- ना ब्याहता रही, ना विधवा। इंद्रनील को बहुत ढूंढ़ा, नहीं मिला। सोचती हूं- जो भी हुआ, उसमें इस मासूम का क्या ही दोष ? अब तो 5 साल होने को आए...। यहीं कॉन्वेंट में पढ़ाती है कामना। छुट्टियों में भाई-भाभी के पास चली जाती है,’’
मिसेज जोशी उदास हो आयी थीं। आंखें पोंछ कर उठ खड़ी हुईं।

घर के सामने एक ऑटो रुका। कामना लौट आयी थी। प्रखर भी चलने को हुआ, लेकिन लड़खड़ा गया, “अरे... मेरे पैर में झुनझुनी चढ़ आयी है।’’

“आप सुन्न हुए पैर के अंगूठे के नाखून में सर्किल बनाएं। ठीक हो जाएगा,’’ भीतर आ चुकी कामना ने सहज भाव से बताया।

प्रखर मुस्करा दिया। कामना ने - एक युवक, गेहुंए चेहरे पर मासूमियत, शिष्टता और कुछ असमंजस। उसे प्रखर भला सा लगा था।

अगले दिन कामना के स्कूल के समय से पहले ही प्रखर ने पोर्टिको से गाड़ी निकाल ली। ऐसा दिखाया मानो यह बस संयोग ही है।

“मैं भी उधर जा रहा हूं। कहिए तो आपको ड्रॉप कर दूं?’’

कामना बिना कुछ कहे गाड़ी में बैठ गयी। गंतव्य पर उतर कर उसने प्रखर को धन्यवाद दिया।

“धन्यवाद आपको कि आपने मेरी गाड़ी को धन्य किया।’’ प्रखर ने शरारत से कहा। कामना सकुचा गयी।

“अपना फोन नंबर देंगी?’’

“लीजिए।’’

प्रखर ने अपने सेलफोन में कामना का नंबर फीड कर लिया। प्रखर अकसर कामना को स्कूल छोड़ने जाने लगा। मिसेज जोशी और कामना से उसकी निकटता बढ़ने लगी। अब वह उनके परिवार के सदस्य जैसा ही हो गया था।

कामना को प्रखर जितनी बार देखता, उसमें
एक स्थिरता, सहनशीलता पाता। एक दिन पूछ बैठा, “कामना, क्या कभी फिर से विवाह के लिए सोचा है?’’

“...’’

“नाराज हो गयीं ?’’

“ नहीं तो।’’

कामना के चेहरे का भाव ऐसा था मानो चोरी पकड़ी गयी हो। वह कैसे बताती कि प्रखर को देख कर उसके मन का अनुराग आंखों में झलक जाता है, जिसे छिपाने के लिए वह आंखें झुका लेती है। कैसे कहती कि वह भी चाहती है कि उसके जीवन में रस हो, रंग हो, रोमांच हो, रहस्य हो। वह प्रखर के सामने समर्पिता होना चाहती है। उसके मनुहार भरे बोल सुनना चाहती है। कामना अस्ताचल के सूरज को देख रही थी और प्रखर उस सूरज को देखती हुई कामना को। कामना ने पाया कि प्रखर की आंखों में सम्मोहन जैसा कुछ है।

प्रखर ने भी कामना को एकदम नयी दृष्टि से देखा। उसने हिम्मत करके कामना की ठंडी हथेली थाम ली। कामना अकुला उठी। इस तरह तो उसकी हथेली किसी ने नहीं थामी। उसने कोशिश की कि उसकी अकुलाहट प्रकट ना हो, लेकिन देह अपना कर्म कभी तजती है क्या ? हथेलियों में पसीना आ गया। उसने सोचा जब संयम से रहना सीख लिया, तब प्रखर बिसरा दी गयी उम्मीदों, आशाओं को जगाने क्यों आया? बड़ी कठिनाई से उसके मुंह से बोल फूटे, “मां से बात करनी होगी।’’

आहिस्ता से प्रखर ने उसे आलिंगन में समेट लिया। उस स्पर्श, उस आलिंगन में एक अभिव्यक्ति थी, एक प्रेम की भाषा, जिसे उन दोनों ने पढ़ लिया था। दोनों ही अपने अतीत की स्मृतियों को खारिज करना चाहते थे। वे दोनों मौन के आनंद में डूब गए। चुम्बित ... प्रतिचुम्बित ...