Tuesday 02 March 2021 04:57 PM IST : By Rashmi Kao

एक था बचपन

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वह भोली सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप

क्या आ कर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप। -सुभद्रा कुमारी चौहान

क्या करूं प्रद्युम्न ठाकुर का चेहरा है कि नहीं भूलता। रेयान इंटरनेशनल स्कूल की दूसरी कक्षा के छात्र की हत्या के केस ने इंसानियत में विश्वास रखनेवाले हर व्यक्ति को हिला कर रख दिया। रोज एक नयी थ्योरी सामने आयी। स्कूल बस ड्राइवर द्वारा यौन उत्पीड़न करने की कोशिश को पहले इस हत्या की वजह बताया गया, फिर बाद में 1वीं के स्टूडेंट द्वारा पेरेंट्स-टीचर मीटिंग और एग्जाम को टालने की कोशिश हत्या की वजह बनी। क्राइम सीन और सीसीटीवी फुटेज बार-बार दोहराए गए। सभी बिखरे-बिगड़े सबूतों, सुरागों और कॉल डिटेल को खंगाल कर देखा गया। घटना की कडि़यां कभी तोड़ी व कभी जोड़ी गयीं। पुलिस की जांच में कई टि्वस्ट व टर्न भी आए। स्कूल प्रबंधन की ठसकेदार चुप्पी, पुलिस प्रशासन के काम की रफ्तार, पॉलिटिकल पार्टियों की जबानी सियासत और पावरफुल व्यक्तियों की मिलीभगत से सिर्फ यही लगता है कि 7 साल के प्रद्युम्न ठाकुर को हमारा समाज न्याय दिलवाने में नाकामयाब ही रहा। ऐसे में मुस्कराते प्रद्युम्न की खामोश तसवीर देख कर उसकी मां के दिल पर क्या गुजरती होगी, इसका अंदाजा सिर्फ एक मां ही लगा सकती है।

प्रद्युम्न के मामले में आरोपी 17 साल के किशोर की मानसिक दशा पर भी गौर करने की जरूरत है, क्योंकि सीबीआई ने इस किशोर के व्यवहार को ले कर भी बहुत छानबीन की है। सीबीआई ने 125 लोगों से बातचीत की, जिनमें स्कूल का स्टाफ, टीचर्स व बच्चे शामिल हैं। यही नहीं स्कूल छोड़ चुके कर्मचारियों से भी सवाल पूछे गए और यह बात सामने आयी कि आरोपी टीनएजर पढ़ाई में कमजोर होने के साथ-साथ बहुत गुस्सैल मिजाज भी है। आरोपी के घर में की गयी रेड के दौरान सीबीआई को कुछ संदिग्ध सामान भी मिले। लेकिन यहां मैं सिर्फ आरोपी की मनोदशा पर ही बात करना चाहूंगी।

बाल मनोविज्ञान पर हमारे देश में कितना काम होता है? हमारे यहां बचपन की भी एक मार्केट है, स्कूल भी बाजार हैं, शिक्षा भी दुकानदारी है। स्कूल सिर्फ अच्छे रिजल्ट से मतलब रखते हैं। बच्चों का मन पढ़ने की कोशिश कोई नहीं करता। फाइव स्टार स्कूलों में एडमिशन व सुपर साइज बस्ते बच्चों के कंधों पर लाद कर पेरेंट्स अपना फर्ज पूरा समझते हैं। बच्चा कुछ सीखे या ना सीखे, अच्छी अंग्रेजी बोलना अच्छी एजुकेशन समझा जाता है। 40-45 बच्चों की क्लास में स्कूल रट्टू तोते तैयार करता है। नंबरों और परसेंटेज के बीच पिसते बच्चे का मन पढ़ाई से उचटने लगे, तो वह किससे कहे? पेरेंट्स-टीचर मीटिंग और एग्जाम उसमें दहशत भरते हैं। पढ़ाई के प्रेशर के दौरान बच्चे को मेंटल हेल्थ के क्षेत्र में जो सपोर्ट मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। बच्चे से कब, कैसे, कोई गलत कदम उठ जाए, ये हादसे यही दर्शाते हैं। मेंटल हेल्थ को भी हमारे यहां सिर्फ एक शब्द ‘पागलपन’ में समेट दिया जाता है।

बाल मनोविज्ञान को ले कर हमारे यहां इतनी अज्ञानता है कि माता-पिता और टीचर दोनों ही इसके प्रति लापरवाह रहते हैं। पेरेंट्स पहले तो बच्चे की मानसिक स्थिति समझने को तैयार नहीं होते, उन्हें समस्या का आभास तक नहीं होता, जबकि उन्हें अपने बच्चे में आते बदलावों को सबसे पहले पकड़ना चाहिए। स्कूल में मौजूद काउंसलर व साइकोलॉजिस्ट भी बच्चे के मार्क्स गिनने और सब्जेक्ट चुनने में ही अपना थोड़ा-बहुत दिमाग लगाते हैं, क्योंकि उनकी सर्वोपरि प्राथमिकता बच्चे से ज्यादा स्कूल का नाम और स्कूल का रिजल्ट होता है।

यह आरोपी किशोर कमजोर और बीमार मन का सबसे बुरा उदाहरण है। क्या बच्चों के मन में एग्जाम और पीटीएम का डर इतना बलवान हो सकता है कि वह उससे हत्या तक करवा दे? यह कैसी शिक्षा है, जो पढ़ाई से डर पैदा करती है? इस देश में बच्चों को वादों के सिवा मिला ही क्या है? ना साफ हवा, ना साफ पानी, ना राजनीतिक प्रदूषण से मुक्त साफ-सुथरी शिक्षा और ना ही स्वस्थ तन व मन। इन सबके चलते हम अपने बच्चों से प्यार करने का दावा करते हैं। परिवार, समाज और हमारा एजुकेशन सिस्टम इस तरह के हादसों के लिए जिम्मेदार हैं। बचपन बदल रहा है या यों कहें कि बहुत बदल चुका है। बच्चा इतना शार्प हो चुका है कि उसे पेरेंट्स का पैसा, पावर, पहुंच समझ आने के साथ उनकी कमजोरियां भी समझ में आती हैं। माता-पिता और बच्चे के बीच ऑन डिमांड चलने वाला रिश्ता कैसे-कैसे खतरनाक मोड़ ले सकता है, यह परिवारों को समझना होगा।

बच्चा पानी की तरह होता है, यह परवरिश का फर्क ही है कि एक पढ़ाई में अच्छा चलता है और दूसरा एग्जाम टालने व पीटीएम से बचने के लिए गलत रास्ते अपनाता है। कोई भी बच्चा क्रिमिनल माइंड के साथ पैदा नहीं होता। परिवार और समाज का प्रेशर ही इसके लिए जिम्मेदार है। जरा सोच कर देखिए।