आए दिन बहार के... आप कहेंगी कि मुझे घर और ऑफिस के बीच मास्क के अंडरकवर में रह कर बहार कहां और किस कोने से आती नजर आ रही है? तो दोस्तो, बिना चवन्नी खर्च किए बहार को बुलाने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप अपनों से स्माइल शेअर कर खुशियों को इन्विटेशन दें। वायरस के डर को खूब देख-झेल लिया। उसके डर में जी भी लिया, लेकिन अब वक्त आ गया है कि मास्क और सैनिटाइजर को बरकरार रखते हुए जाने भी दो यारों वाला नजरिया अपनाया जाए।
सच कहूं, तो कोरोना काल में मैंने खुद के अंदर कई बदलाव देखे। मुझे पता है, ये बदलाव आपने भी महसूस किए होंगे। घर सजाना मेरा खास शौक रहा है, पर पता नहीं कैसे घर को रीअरेंज करना, रीडेकोरेट करना इन दिनों मेरे लिए फिर से अहम हो गया। शायद इसलिए कि घर सजाना हमें रिलैक्स करता है, हमारा स्ट्रेस कम करता है, हमें अंदरूनी खुशी देता है, जिससे हमें अपने अंदर मुस्कराहट घुलती सी महसूस होती है और जिसे हम अपनों से शेअर कर पाते हैं। यही खुशी अपने अंदर सभी दुखों और परेशानियों से जूझने की एंटीबॉडीज पैदा करने में हमारी मदद भी करती है।
अगर कोई मुझसे पूछे कि अपनी खुशियों को रीचार्ज करने और स्माइल को शेअर करने की सबसे खास जगह घर में कौन सी होती है, तो मेरा जवाब होगा, ‘घर की डाइनिंग टेबल।’ आज भी मुझे अपनी डाइनिंग टेबल से प्यार है। मैं इसे अपने घर का पावर स्टेशन मानती हूं। यहां पर शेअर की गयी स्माइल दिनभर साथ रहते हुए सभी को फ्रेश रखती है। डाइनिंग टेबल ही है, जहां हम बच्चों को बड़ा होते देखते हैं। यहीं तो हम उनका बदलता टेस्ट पकड़ पाते हैं। दुनिया की तरफ उनका बनता, बदलता नया नजरिया हमें यहीं पर सबसे पहले नजर आता है। फैमिली का दिल यहीं तो एक साथ धड़कता है। कभी-कभी तो मेरा मन करता है कि फैमिली की मजबूती, स्थिरता, एकजुटता का सारा श्रेय मैं अपनी डाइनिंग टेबल को ही दे दूं, क्योंकि इतने सालों से घर की सभी यादों को इसने अपने आपमें समेटे रखा है। इसी टेबल पर कितनी बार छोटी-बड़ी शिकायतों के अंबार लगे। इस टेबल के दाग-धब्बे तक प्यारे लगते हैं। धब्बे जो मिट गए, वे भी याद हैं, जो नहीं मिटे उनकी कहानियां आज भी ताजा हैं। कब गरम दूध का गिलास गिरा...कब मिर्च तेज होने पर अांखों से अांसू बहे... कब जुकाम में आइसक्रीम का एक स्कूप ज्यादा खाने की छोटी सी जिद बड़ा झगड़ा बन गयी... कब गरारे के गरम पानी का गिलास टेबल पर अौंधा लुढ़का मिला... कब पालक की सब्जी पिज्जा से पिट गयी...कब लौकी का झोल सभी का मुंह सुजा गया... क्या-क्या नहीं गुजरा मेरी डाइनिंग टेबल पर... मन कहता है कि आज भी कहीं छोटी-छोटी हथेलियाें की छाप छिपी होगी। यहीं लूडो खेली और दीवाली पर तीन पत्ती भी खेली... जीत की खुशी में कभी चीखे, तो कभी हार पर खीजे भी... कभी यूनिफॉर्म प्रेस की, तो कभी यहीं रातभर बैठ कर बच्चों के स्कूल प्रोजेक्ट आपकी तरह मैंने भी पूरे किए। डाइनिंग चेअर से चिपक कर यूनिट टेस्ट के लेसंस का बच्चे को रट्टा तक लगवाया।
मेरा मानना है कि नेक्स्ट जेनरेशन लीडर्स के दिमाग को तेज बनाने में घर की डाइनिंग टेबल बड़ा साथ देती है। गेम चेंजर और चेंज मेकर सभी यहीं से हो कर आगे बढ़ते हैं। जानते हैं, मेरे घर की डाइनिंग टेबल जब तब लैंग्वेज क्लास का सेंटर भी बनती रही है। आज ‘सिर्फ हिंदी’ बोलनी होगी और कल ‘इंग्लिश स्पीकिंग डे’ होगा का ड्रामा भी इस टेबल पर खूब चला है। इंटरव्यू पर जाने से पहले शर्ट की इस्तरी भी यहां हो चुकी है... बड़े होते बच्चों के इमोशनल घोटाले और घुटन को अनलॉक होते हुए भी इसने देखा है। यही नहीं बच्चों के लैला-मजनूं दोस्तों को भी इसने कई बार झेला है।
बच्चों की हर शरारत की रिपोर्टिंग इसी टेबल पर की गयी है और डैडी जी की फैमिली एडवाइजरी भी यहीं से जारी होती रही है। फैमिली अफवाहों की आम सभा हो या फैमिली का फाइनेंशियल सिस्टम, राशन की लिस्ट से ले कर घर के बजट और खर्च कंट्रोल की बहस अकसर घर की डाइनिंग टेबल पर होती आयी है। कितने आइडिया एक्सचेंज इस टेबल ने देखे होंगे, अब याद नहीं। पर फैमिली नेटवर्किंग और साझा सोच का पहला कदम हमेशा यहीं से उठा है। फैमिली रीयूनियन के मौकों पर मेरी डाइनिंग टेबल कितनी ही बार खूब सजी भी है। यही मेज खुशियों और ख्वाहिशों की कई महफिलों की गवाह भी रही है। सेटरडे नाइट पार्टी फीवर में डूब कभी बड़ों, तो कभी छोटों को इसने अपने आसपास ठहाके लगाते भी देखा है। मां का प्यार उनके बनाए पकवानों तक में घुल जाता है। मां जिस जोश से स्वाद परोसती हैं, उसका गहरा असर परिवार के हर सदस्य की इम्युनिटी और मेंटल हेल्थ पर पड़ता है। डाइनिंग टेबल संस्कारों के प्रभाव, दवा और दुआ सभी का काम करती है। शायद परिवार का पहला आरोग्य सेतु यहीं से बनना शुरू होता है। किसी की उदासी, किसी की नाराजगी, किसी के डर सब घर की डाइनिंग टेबल पर बिखरे देखने को मिल सकते हैं। यह बदलते रिश्तों और इमोशनल जुड़ावों को भी पॉजिटिव मोड़ देने में मददगार होती है। नम अांखों में तैरते कितने ही ‘थैंक्यू’ और ‘सॉरी’ यहां देखने को मिलते रहे हैं।
कोलंबिया युनिवर्सिटी के द नेशनल सेंटर ऑन एडिक्शन एंड सब्सटेंस एब्यूज द्वारा किए गए अध्ययन में यह बात सामने आयी कि जो बच्चे हफ्ते में 3 दिन या उससे कम परिवार के साथ बैठ कर खाना खाते हैं, उनको क्लास में ज्यादातर सी ग्रेड मिलता है और स्कूल में उनकी दूसरी परफॉर्मेंस भी अच्छी नहीं होतीं। जो बच्चे हफ्ते में 5 से 7 बार परिवार के साथ भोजन करते हैं, उनका पढ़ाई में प्रदर्शन अच्छा रहता है। उनके ग्रेड्स ए या बी के बीच रहते हैं। जो परिवार साथ बैठ कर खाना खाते हैं, वे खाने में सही चीजें भी चुनते हैं। स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक परिवार के साथ खाना खानेवाले बच्चे ज्यादा तलाभुना और सैचुरेटेड फैट भी कम खाते हैं। वे फल और सब्जियां ज्यादा पसंद करते हैं।
पीडियाट्रिक्स मेडिकल जरनल में छपी एक रिपोर्ट यह भी बताती है कि जो बच्चे परिवार के साथ रोजाना डिनर या लंच एंजॉय करते हैं, उनको डिप्रेशन कम होता है और वे ड्रग्स की आदत का शिकार होने से बचे रहते हैं। चूंकि ‘जॉइंट पास’ करने का रिवाज खाने की मेज पर नहीं चलता। रिसर्च यह भी कहती है कि खाने की मेज पर साथ बैठने से परिवार में आपसी जुड़ाव बढ़ता है और रिश्तों को मजबूती मिलती है। वर्कप्लेस व स्कूल में कुछ वक्त के लिए व्यक्ति फैमिली से कट जाता है और खाने की मेज पर मिल कर बैठना, हंसते-बोलते हुए खाना सबको आपस में जोड़ता है। यही वह समय है जब हर सदस्य दिनभर के बाद एक-दूसरे से रीकनेक्ट होता है और पेरेंट्स बच्चों की जिंदगियों पर नजर रख पाते हैं कि उनकी जिंदगी में क्या चल रहा है।
सबसे अच्छी बात यह है कि फैमिली का वैल्यू सिस्टम बच्चे खुदबखुद सीखते जाते हैं। कभीकभार छोटे बच्चों के साथ खाना खाना मुसीबत हो जाता है। खुशी की बात यह है कि कितनी ही बर्थडे पार्टियां देख चुकी यह डाइनिंग टेबल अपने साइज में टस से मस नहीं हुई, जबकि इसके पास खड़े सभी अपने वजन को ले कर डगमगाते रहे हैं। और मैं हैप्पी बर्थडे टू यू... तो आज तक गा रही हूं। सारे फ्रेंड्स अभी भी यहीं इकट्ठे होते हैं... अब यहीं बैठ कर वीडियो कॉल करने का इरादा है, क्योंकि दीवाली की मुबारकबाद भी तो यहीं से देनी है, इसलिए स्माइल तो बनती है, क्योंकि डाइनिंग टेबल ही फैमिली के हेल्दी कम्युनिकेशन का सेंटर होती है।