2024
वनिता के अगस्त, 2025 के होम कैरिअर विशेष में पढ़ें पारुल गुलाटी का खास इंटरव्यू
August-2025
कहते हैं, घर सिर्फ ईंट-गारे-पत्थरों से नहीं बनता, वह उसमें रहने वालों और मेहमानों से आबाद होता है। घर में रहने वाले खुश रहें, रिश्तेदारियां और यारियां निभायी जाती रहें, तो घर भी दिल से हंसता है।
पिछले 6 महीनों में भारतीयों ने पांच हजार करोड़ रुपए कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स पर खर्च किए हैं। बात सिर्फ लिपस्टिक व काजल तक ही सीमित नहीं है, अब प्राइमर, आई शैडो और कंसीलर जैसे प्रोडक्ट्स रोजमर्रा के मेकअप में जगह बना रहे हैं। पुरुष भी सौंदर्य पर खूब खर्च कर रहे हैं।
जिसके खयाल से भी होंठों पर मुस्कान आ जाए, जिसके सामने बोलने को शब्द तलाशने ना पड़ें, जिसके साथ जीवन का हर क्षण उल्लास से भर जाए, जिसे देख उदासी के बादल छंट जाएं और खुशी की धूप छितरा जाए... वही तो है सच्चा दोस्त। ऐसा दोस्त जिंदगी में हो तो फिर खुद को अमीर जानिए !
क्रिएटिविटी इंसान को ना सिर्फ जीवन के हर मोड़ पर संतुलित बनाए रखने में मददगार होती है, बल्कि ऐसे लोग कई बार दुनिया में बड़े काम भी कर जाते हैं। कई वैज्ञानिक संगीत के मर्मज्ञ रहे, तो गणित के धुरंधरों ने कैनवास पर रंगों का संसार रच दिया। आखिर रचनात्मकता है क्या!
अध्ययन बताते हैं कि महिलाएं घरेलू कार्यों में 7 घंटे से भी अधिक समय खपाती हैं, जबकि पुरुष घर में केवल दो घंटे काम करते हैं। आधी से ज्यादा शहरी महिलाएं दिन भर में एक बार भी घर से बाहर नहीं निकल पातीं, उनकी विशलिस्ट से फुरसत के पल गायब होते जा रहे हैं, जिसकी कीमत चुकानी पड़ती है उनकी शारीरिक व मानसिक सेहत को-
क्या करें, समय है कहां हमारे पास...ऐसे जुमले हम अकसर बोलते रहते हैं। ना जाने कितना वक्त गैरजरूरी कामों में गुजारते हैं और जरूरी मसलों पर घड़ी देखने लगते हैं। जरा गौर करें आखिर समय का पहिया इतना तेज कैसे चलने लगा कि हम उसके साथ चल ही नहीं पा रहे...
निर्भया कांड के 10 साल बाद क्या हमारे शहरों-गांवों-कस्बों की हालत कुछ सुधरी? महिला सुरक्षा सवालों पर कहां खड़े हैं आज हम? 2013 में गठित जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों पर कितना अमल हुआ और कितनी बातें अधर में रह गईं? हमारी व्यवस्था में क्या बुनियादी सुधार होने जरूरी हैं...हर स्त्री के लिए यह जानना जरूरी है-
कुछ दुख भुलाए नहीं भूलते। अनचाही स्थितियां कभी ना कभी पीड़ा देती ही हैं। लेकिन व्यक्ति को भूलने का वरदान मिला है। दुख चाहे जितना बड़ा हो, उससे उबरा जा सकता है। असहनीय-अविश्वसनीय और अनचाहे दुख का भी सामना किया जा सकता है।
आज जब लड़कियां खेल के मैदानों से ले कर साइंस, इंजीनियरिंग और बोर्डरूम तक अपनी निर्णायक उपस्थिति दर्ज करा रही हैं, तब क्या हमारे समाज में वह दृष्टि भी विकसित हो रही है, जो उनके चेहरे या शरीर से आगे बढ़ कर उनके हौसलों, जिजीविषा और जज्बे को सलाम कर सके?
वर्क फ्रॉम होम ने स्त्रियों की पब्लिक लाइफ को बुरी तरह प्रभावित किया है। उनकी दुनिया घर की चारदीवारी में सिमटती जा रही है। घर में रहकर काम करने से सुरक्षा-बोध तो होता है, लेकिन आत्मविश्वास कम होने लगता है। खुश रहने के लिए बाहरी दुनिया से संपर्क भी जरूरी है।
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