Tuesday 02 May 2023 05:16 PM IST : By Indira Rathore

कहां खो रहा है कमबख्त वक्त

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हाल के दिनों में महिला साथियों-परिचितों से हुई बातों और सार्वजनिक स्थलों पर होने वाली महिलाओं की आपसी बातचीत को सुनते हुए एक बात नोटिस की कि समय की कमी सबकी आम समस्या है। ये अलग-अलग उम्र वाली महिलाएं हैं, जिनमें छोटे बच्चों या टीनएजर्स की मांओं के अलावा ऐसी महिलाएं भी थीं, जिनके बच्चे नौकरियों में आ चुके हैं। एक युवा मां की शिकायत थी कि कोविड के बाद से अब तक पति का काम घर से ही चल रहा है, लिहाजा वह दिनभर व्यस्त रहती है। बच्चे का स्कूल खुल गया है, लेकिन टीचर्स अब भी वॉट्सएप ग्रुप पर मैसेज या प्रोजेक्ट की जानकारियां भेजते रहते हैं। कोविड के दौरान तो ना जाने कितने वॉट्सएप ग्रुप बन गए, जो अब भी चल रहे हैं। मायके-ससुराल, स्कूल-कॉलेज, किटी ग्रुप, सोसाइटी, ऑफिस के अलावा डाइरेक्ट मार्केटिंग से जुड़े ग्रुप भी इसमें शामिल हैं। अब तो सारे ग्रॉसरी स्टोर, बैंक और ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स वाले भी वॉट्सएप पर मैसेज भेजने लगे हैं। इस मां की शिकायत थी कि वह दिनभर या तो घरेलू कार्यों या फिर वॉट्सएप के नोटिफिकेशंस में ही लगी रह जाती है और जरूरी काम छूट जाते हैं।

एक हमउम्र दोस्त इस बात से परेशान थी कि उसके पास पार्लर जाने तक का वक्त नहीं है। बढ़ते वजन से चिंतित हो कर योगा क्लास जॉइन की थी, लेकिन मुश्किल से एक हफ्ते जा सकी। बेटी पास के रेजिडेंशियल कॉलेज में पढ़ती है, तो हर वीकेंड उससे मिलना होता है। बेटे का वर्क फ्रॉम होम है, तो दिनभर उसके खाने-पीने और अन्य सुविधाओं का खयाल रखना होता है। पति सुबह जाते हैं, तो देर शाम ही लौटते हैं। घर के सभी जरूरी काम उसे निपटाने होते हैं।

एक रिश्तेदार महिला भी वक्त ना मिलने से परेशान हैं। एक हेल्थ समस्या है, लेकिन चेकअप का वक्त नहीं मिल पा रहा। बेटा-बहू घर से काम करते हैं। सुबह 10 बजे दोनों के लैपटॉप खुल जाते हैं। घर में एक छोटी बच्ची है, उसके आगे-पीछे दिनभर दौड़ना होता है। मेड आती-जाती हैं, तो उन्हें भी देखना, काम समझाना होता है। पूरा दिन कैसे निकल जाता है, पता ही नहीं चलता।

समय ना होना बहाना तो नहीं

जरा अपनी दिनचर्या पर गौर करें और देखें कि समय की कमी के कारण कितने जरूरी काम छूट जाते हैं। फिल्म बहुत अच्छी है-देख लो-टाइम नहीं है। एक्सरसाइज-योग-वॉकिंग... वक्त ही नहीं मिलता, रीडिंग-राइटिंग-म्यूजिक... ओह, अरसा गुजर गया कुछ अच्छा पढ़े, देखे या सुने हुए, दोस्त से मुलाकात-कभी वे बिजी कभी हम बिजी, हेल्थ चेकअप्स-जब वक्त होगा तो देखेंगे...।

अब थोड़ा गौर करें कि वाकई हमारे पास वक्त की कमी है या फिर कई बार इस जुमले को हम ढाल की तरह इस्तेमाल करते हैं। समय की कमी जैसी शिकायतों के पीछे कुछ वाजिब वजहें हो सकती हैं, लेकिन कुछ शुद्ध बहाने भी होते हैं। कुछ कारण ऐसे भी हैं-

इससे हमारा अपराध-बोध कम होता है: सभी के पास ढेर सारी जिम्मेदारियां हैं और ऐसा नहीं है कि हम अपने प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते या अपने लिए वक्त नहीं निकालना चाहते। सचाई यह है कि हम व्यस्त दिनचर्या के गुलाम बन चुके हैं। ऐसे में जो जरूरी काम हम नहीं कर पाते, उनके लिए समय की कमी का बहाना बना कर अपने अपराध बोध को कम करने की कोशिश करते हैं।

खुद को महत्वपूर्ण दिखाने की भावना: आखिर कौन होगा, जो खुद को महत्वपूर्ण ना मानता हो। स्त्रियां अपवाद नहीं हैं। ‘समय नहीं है’ जैसा वाक्य बोल कर हम खुद को ही बहुत जिम्मेदार होने का मेडल देते हैं (कोई और नहीं देता ना !)। ‘मेरे बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता, हर किसी को मेरी जरूरत है, आखिर घर मेरी ही तो जिम्मेदारी है...’, ये सब सोचते हुए पता भी नहीं चलता कि खुद को महत्वपूर्ण समझने की यह खुशफहमी हमारा कितना नुकसान कर बैठती है।

हमारी प्राथमिकताएं तय नहीं हैं: हम वे सारे काम रोज करते हैं, जो हमारे अपनों के लिए जरूरी हैं, क्योंकि उन्हें किए बिना हमारा गुजारा नहीं है। हम नौकरी पर भी रोज सही समय पर जाते हैं, खाना बनाते हैं, कपड़े धोते हैं, घर की सफाई करते हैं... मगर सप्ताह में एक-दो दिन वॉक, एक्सरसाइज, रीडिंग, मेडिटेशन के लिए नहीं निकाल पाते, क्योंकि हमारी प्राथमिकता में ये सारी चीजें बहुत नीचे हैं। इन्हें हम अपना स्वार्थ समझते हैं और फिर हम अपने रुटीन में बंधते चले जाते हैं।

वक्त चुराना पड़ता है

एक बात तो तय है कि समय की कमी जैसा वाक्य अपनी काहिली को छिपाने के लिए इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। हो सकता है, आज आपको जो कुछ जरूरी लग रहा हो, कल उसकी जरूरत ना रहे और जो आज आपकी प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे है, वही सबसे जरूरी हो जाए। इसलिए उन कामों के लिए थोड़ा सा वक्त जरूर बचा कर रखें, जिन्हें वास्तव में करना चाहते हैं, जो आपकी रोजमर्रा की जरूरतों से थोड़ा हट कर भले ही हों, मगर उनसे वास्तव में खुशी मिलती हो। आज कोई हेल्थ समस्या छोटी लग रही है, मगर एक बार डॉक्टर से जरूर मिलें। यहां समय की कमी जैसा बहाना ना बनाएं, क्योंकि कल अगर समस्या बढ़ी तो हर काम से छुट्टी ले कर अस्पतालों के चक्कर काटने पड़ेंगे। आज अगर घरेलू जिम्मेदारियों में फंस कर अपनी फिटनेस के लिए वक्त नहीं मिल पा रहा है या उसे नजरअंदाज कर रहे हैं, तो याद रखें कि जिम्मेदारियों को सही ढंग से अंजाम देने के लिए फिटनेस ही काम आएगी। वैसे करने को इतने काम हैं कि जीवनभर भी करते रहेंगे तो कभी पूरे नहीं होंगे, लेकिन अपनी प्राथमिकताओं को समय-समय पर समझना और उनका आकलन करना जरूरी है।

प्राथमिकता सूची बदल लें

जब कभी लगे कि वक्त हाथ में नहीं है, तो अपने एक दिन का विश्लेषण करके देखें कि समय अगर आपके हाथ में नहीं है, तो आखिर जा कहां रहा है। एक छोटे बच्चे की मां के लिए बच्चे की परवरिश पहली प्राथमिकता है, लेकिन बच्चों के बड़े होने के बाद भी अगर आप उन्हें बड़ा नहीं होने दे रहे, उनकी सारी जिम्मेदारियां खुद उठा रहे हैं, तो जान लें कि अपनी प्राथमिकता बदलने का वक्त आ चुका है। घर में हर सदस्य को अपनी जिम्मेदारी समझने दें। किचन में बेशक आप खाना बनाएं, लेकिन उसे परोसें भी खुद ही, यह जरूरी नहीं। दूसरों के वक्त का खयाल रखना अच्छी बात है, लेकिन अपने वक्त की कीमत भी समझें। घर साफ-सुथरा, व्यवस्थित रहे तो सभी को अच्छा लगता है, लेकिन यह व्यवस्था सिर्फ एक की जिम्मेदारी तो नहीं, घर में रहनेवाले हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है।

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रोज हर काम को मुस्तैदी से पूरा करती हैं, तो सप्ताह के एकाध दिन छोड़ कर भी देखें। इस समय कुछ अच्छा पढ़-सुन लें, हेल्थ चेकअप करा लें, मन-शरीर, चेहरे-बालों या दोस्तों की सुध लें। प्राथमिकता सूची में थोड़ी फेरबदल करें। जरूरी नहीं कि जो काम पांच साल पहले नंबर वन पर था, वह अब दो-तीन पायदान नीचे नहीं जा सकता। वक्त का क्या है, वह तो मेहमान की ही तरह आता है हमेशा, लेकिन खुद को अच्छे मेजबान की तरह पेश करके देखें। वक्त को पूरा अटेंशन दें तो सही, वह भी आपसे प्यार करने को मजबूर हो जाएगा।

स्क्रीन टाइम का रहे ध्यान

टेक्नोलॉजी और सोशल साइट्स वाले दौर में हर व्यक्ति हर समय ऑनलाइन रहने को बाध्य है। महिलाओं के दिन का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं साइट्स की भेंट चढ़ रहा है। वॉट्सएप नोटिफिकेशंस, इंस्टा रील्स, फेसबुक पोस्ट्स और फोटोज देखने के अलावा तमाम ग्रुप्स को गुड मॉर्निंग-गुड नाइट भेजने, फालतू संदेशों को सर्कुलेट करने जैसे बेकार कामों में भी वे खूब आगे हैं। जरा सोचें, एक्टर्स की प्रेगनेंसी हमारा मसला नहीं है, तो लगातार उससे जुड़ी फोटोज पर क्लिक कर, पोस्ट पढ़ कर अपना बैली फैट क्यों बढ़ा रहे हैं। शॉपिंग साइट्स पर घूमते रहने के बजाय क्यों ना दस मिनट कुछ अच्छा पढ़-लिख लें, संगीत सुन लें या हरियाली को निहार लें, मन को सुकून मिलेगा। ऐसी कई रिसर्च हैं, जिनमें कहा जा रहा है कि स्लीप डिस्ऑर्डर, डिप्रेशन, एंग्जाइटी, ओबेसिटी जैसी तमाम समस्याओं के पीछे प्रमुख कारण स्क्रीन पर बढ़ता समय है। टेक्नोलॉजी के अपने फायदे हैं, लेकिन इससे लोगों का स्ट्रेस लेवल बढ़ रहा है। इसमें भी महिलाओं का स्ट्रेस लेवल ज्यादा है, क्योंकि वे सोशल साइट्स पर अधिक समय बिताती हैं। युवा इस बात को समझ रहे हैं और डिजिटल डिटॉक्स की ओर बढ़ रहे हैं। सोशल साइट्स से उनका मोहभंग भी हो रहा है, क्योंकि इससे उनकी एकाग्रता में खलल पड़ रहा है। उनमें सुस्ती, आरामतलबी, जंक फूड के प्रति रुझान, खराब पोस्चर, मूड डिस्ऑर्डर, सिर दर्द जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं। आज के समय में पूरी तरह टेक्नोलॉजी फ्री तो नहीं रहा जा सकता, लेकिन इससे थोड़ी दूरी बरतना, इसका टाइम फिक्स करना सबकी मानसिक-शारीरिक और भावनात्मक सेहत के लिए जरूरी है।