Wednesday 27 March 2024 02:24 PM IST : By Poonam Pathak

सही निर्णय

sahi-nirnay

‘‘ठीक है वकील साहब, आप कल आ जाएं, हम बैठ कर बात करते हैं,’’ वंदना ने कह तो दिया, पर सच यही था कि अभी भी वह अनिर्णय की स्थिति में थी। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इस स्थिति में उसे क्या निर्णय लेना चाहिए।

मायके में कुल जमा 4 लोग थे - मां, बाऊ जी, बड़े भैया और वह। शादी के बाद वह अपने पति के साथ रह रही थी। उधर बड़े भैया भी शादी के बाद मां-बाऊ जी से अलग अपनी गृहस्थी बसा चुके थे। बीस साल से उसके मां-बाऊ जी छोटे से किराए के घर में अकेले रह रहे थे। चूंकि तीनों घर एक ही शहर में थे, लिहाजा मेल-मुलाकात होती रहती थी।

सब कुछ ठीक चल रहा था। पर पिछले कुछ समय से मां के गिरते स्वास्थ्य ने सबको चिंता में डाल दिया था। उम्र के इस पड़ाव पर बाऊ जी भी काफी अशक्त हो चले थे। घर के सभी काम, तिस पर मां की देखभाल अब उनसे सधती ना थी।

पहले वह मां-बाऊ जी को अपने यहां बुला कर कुछ दिनों उनकी देखभाल कर लेती थी। उन दोनों का मन भी थोड़े दिनों के लिए बहल जाता था। लेकिन घर-गृहस्थी की बढ़ती जिम्मेदारियों की वजह से अब यह संभव नहीं हो पा रहा था। वैसे भी मां-बाऊ जी को अब एक स्थायी सहारे की जरूरत थी। चूंकि मायके में कोई और था नहीं, इसलिए उसने बड़े भैया से बात करने का मन बनाया।

‘‘देखो, अभी मेरे पास बहुत उलझनें हैं। बच्चों की पढ़ाई का तगड़ा खर्च। तो ना ही मेरे पास पैसा है और ना ही इतनी जगह कि मैं मां-बाऊ जी को रख सकूं। हां, ज्यादा से ज्यादा तुम कहो, तो महीने के कुछ रुपए मैं उन्हें दे सकता हूं, वह भी अपने खर्चों में कटौती करके,’’ बड़े भैया ने जैसे हाथ खड़े कर दिए।

‘‘भैया, बात पैसे की नहीं है। क्या आप देख नहीं पा रहे कि मां और बाऊ जी बिलकुल अशक्त हो चले हैं। इस उम्र में पैसे से अधिक उन्हें किसी सहारे की आवश्यकता है और हमारे सिवा उनका है ही कौन। आप तो जानते हैं कि अभी तक मुझसे जितना बना, मैंने उनकी देखभाल की, पर अब मुझ पर भी तमाम बढ़ती जिम्मेदारियों का दबाव है। अगर आप उन्हें अपने साथ रख लें, तो... रही पैसे और दूसरी कोई भी मदद, तो मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूंगी कि आपकी भरपूर सहायता कर सकूं,’’ वंदना ने बेचारगी से कहा।

‘‘देखो, अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हारे पति से बात कर सकता हूं। वैसे भी जब तुम्हें जरूरत पड़ती है, मां-बाऊ जी महीनों तुम्हारे घर रुकते हैं, तो अब क्या हो गया। क्या अब तुम्हें उनकी जरूरत नहीं है,’’ भैया की व्यंग्यात्मक टिप्प्णी वंदना को चुभ गयी।

‘‘हां भैया, मानती हूं कि मां-बाऊ जी ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि उन्होंने आपके लिए कुछ कम किया है। फिर मैंने भी तो आज तक अपना बेटी धर्म ईमानदारी से निभाने का प्रयास किया है, मगर आपने तो...’’ कह कर वंदना ने एक उसांस ली। भैया के मन में अपने लिए इतना जहर देख कर उसकी आंखों में दर्द उभर आया। क्या जरूरत पड़ने पर बेटी की मदद करना मां-बाऊ जी का कोई गुनाह हो गया !
उसने तो इस तरह की बातें कभी सोची ही नहीं। बचपन से मां ने बड़े भैया को घर में एक विशेष दर्जा दिया। उनकी पढ़ाई की टेबल, उनकी जरूरत की कॉपी-किताबें, उन्हें हॉस्टल में रखना आदि सब उनकी मर्जी के मुताबिक ही तय होता था। जबकि वह कैसे भी, कहीं भी अपनी पढ़ाई कर लेती थी। उसे कभी किसी विशेष सहूलियत की आवश्यकता नहीं पड़ी।

सालों से घर के हर छोटे-बड़े फैसले में बड़े भैया को आगे रख उनकी बात का सम्मान रखा जाता था। स्वयं बड़े भैया उससे कई बार कह चुके थे कि बेटा, तुम इस घर के मामलों में मत पड़ा करो। हम आपस में सब निपट लेंगे। तुम अपना घर संभालो, इस घर की और मां-बाऊ जी की चिंता हम पर छोड़ दो, तो अब क्या हो गया, अब वे क्यों अपनी ही कही बात और जिम्मेदारी से मुकर रहे हैं। फिलहाल वह इतना समझ चुकी थी कि भैया के मुंह से निकलने वाले ये शब्द असलियत में उसकी भाभी के दिमाग की उपज हैं। सब समझते हुए वंदना ने आखिरकार खामोशी अख्तियार कर ली।

बात आयी गयी हो गयी थी, पर वंदना की चिंता दिनों दिन बढ़ने लगी। ‘एक बार अमन से बात कर देखूं। हो सकता है वे मेरी परेशानी को समझें। आखिर मैंने भी तो उनके घर वालों के लिए इतना कुछ किया है। सालों से इस घर और ससुराल के प्रति अपनी पूरी जिम्मेदारी निभायी है। क्या मेरा इस घर में कोई हक नहीं बनता। मां-बाऊ जी उसके साथ उसके घर में रहेंगे, तो उसकी सारी टेंशन खत्म हो जाएगी। हां, थोड़ा काम बढ़ जाएगा। पर देखा जाएगा... सोच कर उसने पति से बात करने का निश्चय किया।

‘‘क्या मूर्खों जैसी बातें करती हो। अपने भाई की जिम्मेदारी अपने कंधों पर क्यों लेना। बेटे के रहते वे लोग बेटी के पास रहें, तो लोग क्या कहेंगे। आखिर सामाजिक नियम-कायदे भी कोई चीज है,’’ छूटते ही अमन ने सामाजिक मान्यताओं के नाम पर जैसे पल्ला झाड़ लिया।

‘‘पर मां-बाऊ जी ने सदा ही वक्त पड़ने पर हमारी सहायता की है। आज उन्हें हमारी जरूरत है, तो हमें भी अपना फर्ज निभाना चाहिए। भूल गए हमारे बच्चे के जन्म पर मां ने आ कर पूरी डिलीवरी अकेले संभाल ली थी। घर के कामों के अलावा मेरी और परी की देखभाल कितने अच्छे से की थी,’’ वंदना ने पुरानी याद ताजा करनी चाही।

‘‘अरे, हर मां अपनी बेटी के लिए यह सब करती ही है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि इस अहसान के बदले हम उनकी जिंदगीभर की जिम्मेदारी ओढ़ लें, वह भी उनके बेटे के होते हुए,’’ अमन ने बेपरवाही से कहा।

ओह... वंदना को रंचमात्र भी हैरानी ना हुई। इतने सालों से साथ रहते वह अमन को इतना तो जानने लगी थी, पर मन का एक कोना अभी भी इस भूल में था कि उसने हर मुश्किल परिस्थिति में अमन का साथ दिया है, तो शायद उसे निराश ना होना पड़े।

बहरहाल, अपनों द्वारा छली जा रही वंदना इस समय भारी उलझन में थी। अपने जन्मदाताओं की फिक्र उसे अधमरा किए दे रही थी। कोई आसरा, कोई सहारा ना दिखता था। सपने में भी मां-बाऊ जी की चिंता उसे डराती थी। पूरी-पूरी रात उसे नींद नहीं आती। ‘हे भगवान... मां-बाऊ जी के स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा करना, वे कभी बेबस और लाचार ना हों। हमेशा स्वस्थ रहें, किसी की दया के मोहताज न हों...’ प्रार्थना करते हुए वह सिसक पड़ती।

एक-एक दिन बीता जा रहा था। मां की बीमारी, बाऊ जी की तीमारदारी और वंदना की लाचारी बढ़ती जा रही थी। क्या करे, किसे अपनी व्यथा कहे, कौन है, जो उसके जख्म पर मरहम रख सकता है? क्या कहीं भी मां-बाऊ जी को इज्जत की दो रोटी नहीं मिल सकती?
आखिरकार वंदना ने एक कड़ा फैसला लिया। समाज और खानदान की परवाह किए बिना पास ही एक वृद्धाश्रम जा कर अपने मां-बाऊ जी के लिए बात कर सभी औपचारिकताएं पूरी कर आयी। मन में ज्यादा खुशी ना सही, पर आत्मसंतोष था कि अब मां-बाऊ जी बेसहारा तो ना रहेंगे।

ऐसे में एक दिन उसे वह मनहूस खबर मिली कि मां को चेकअप के लिए हॉस्पिटल ले जाते वक्त उन दोनों को एक जीप ने टक्कर मार दी। मां ने तो सड़क पर ही दम तोड़ दिया और अस्पताल ले जाते-जाते बाऊ जी की सांसों ने भी उनका साथ छोड़ दिया।

एकदम से आ पड़ी इस आपदा ने सभी को विस्मित कर दिया। जिसने भी इस खबर को सुना सन्न रह गया। नाते-रिश्तेदारों में सभी की आंखें नम थीं। भाई-भाभी तो फूट-फूट कर रो रहे थे। अमन भी अपने आंसुओं को बहने से नहीं रोक पा रहे थे। खुद उसके बच्चे भी नाना-नानी को याद कर एक कोने में बैठे सिसक रहे थे। पर वंदना की आंखों में एक बूंद आंसू ना था। पता नहीं, पर इस असह्य वेदना और दुख की घड़ी में भी उसके मन में जाने कैसी असीम शांति छायी थी। अपने इस कुकृत्य के लिए वह समाज और परिवार के कोपभाजन का शिकार भी हुई, पर उस पर किसी के व्यंग्य-बाणों और तानों का कोई असर ना हुआ।
परसों ही मां-बाऊ जी की तेरहवीं निपटी थी। बीच में एक बार वकील साहब आ कर उससे मिल कर जा चुके थे। दरअसल मां-बाऊ जी की इंश्योरेंस पॉलिसी के 10 लाख रुपए उसे मिलने थे, क्योंकि मां-बाऊ जी ने उसे ही नॉमिनी बनाया था।

आज मां-बाऊ जी वाले किराए के घर को खाली किया जा रहा था। ज्यादा कुछ सामान तो था नहीं, बस रसोईघर में कुछ बरतन और बरसों पुराना उनका पलंग और अलमारी, साथ ही कुछ छोटा-मोटा सामान, कमरे के एक कोने में स्टूल पर करीने से लगी मां-बाऊ जी की फोटो। यह फोटो उनकी जवानी के दिनों की थी, जिसमें बाऊ जी के भव्य चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें और मां की कजरारी, भोली चितवन देखते ही बनती थी।

मां की अलमारी देखते वक्त मां की पसंदीदा साड़ी पर वंदना की निगाह ठहर गयी। यह साड़ी बाऊ जी ने उन्हें शादी की 50वीं सालगिरह पर दी थी। लाल बूटों से सजी सुनहरे गोटे वाली यह साड़ी मां को अत्यंत प्रिय थी। वह साड़ी उठा कर वंदना ने अपने सीने से चिपका ली। पलभर को ऐसा महसूस हुआ कि मानो वह मां के सीने से जा लगी हो। तभी उस साड़ी की तह से एक पर्ची सरकती हुई नीचे जा गिरी। कौतूहलवश वंदना ने उसे उठाया। यह मां के हाथों लिखी एक छोटी सी चिट्ठी थी, जिसे पढ़ कर वंदना की आंखों से अश्रुधारा बह चली।

प्रिय बेटी वंदू,

हमारी जिंदगी की सांझ नजदीक है। ईश्वर ही जाने कि कितनी और सांसों की मोहलत बची है हमारे पास। बेटी, हमारी कोई वसीयत नहीं है, जिसे हम-तुम बच्चों के नाम करके जा सकें। मगर संस्कारों की जो दौलत मैंने तुम्हें दी थी, तुमने आज तक भली भांति सहेज रखी है। उसके अलावा जाने-अनजाने तुमने एक मां की पूरी विरासत अपने अंदर संजो ली, जो प्रतिपल मैंने तुम्हारे कर्मों के रूप में साकार होते हुए देखी। कितनी विचित्र बात है कि वसीयत देने वाले की इच्छा पर तथा विरासत लेने वाले की इच्छा पर निर्भर होती है। वसीयत हमारी कोई है नहीं और विरासत तुम अपने आप ही संभाल चुकी हो। तो इस नाते हमने तुम्हें अपनी बीमा पॉलिसी का नॉमिनी बनाया है। हमारा आशीर्वाद समझ कर पॉलिसी की इस छोटी सी रकम को तुम जहां जैसे चाहे खर्च करना। सदा खुश रहो मेरी बच्ची।

-तुम्हारी मां।
इतने दिनों का दर्द किसी फोड़े सा फूट कर बह निकला। जी भर कर रो लेने के बाद उसका मन बिलकुल हल्का हो चुका था। मां के इस पत्र ने जैसे उसे सही निर्णय लेने की क्षमता प्रदान कर दी थी। अब उसे बस सुबह वकील साहब के आने का इंतजार था।

‘‘दीदी, आप जो भी निर्णय लो, मुझे बस इतना कहना है कि मां-बाऊ जी की अंत्येष्टि से ले कर तेरहवीं तक आपके भैया ने अपने सारे फर्ज बखूबी निभाए हैं। पैसों की तंगी होते हुए भी उन्होंने हम सबकी इज्जत पर आंच ना आने दी और पानी की तरह पैसा बहाया है,’’ भाभी ने इशारों में अपनी बातें वंदना के आगे रख दी।

‘ओह भाभी ! तुम अभी तक नहीं समझ पायी मां-बाऊ जी के हृदय की पीड़ा को। उन्हें जीते जी हमसे थोड़ी सी देखभाल और अपनापन चाहिए था, ना कि मरने के बाद यह दिखावा। वैसे भी आपने यह सब मां-बाऊ जी के लिए नहीं, बल्कि समाज में अपनी साख बनाने के लिए किया है,’ सोचते हुए वंदना का मन उदास हो चला।

‘‘देखो वंदना, जो करना बहुत सोच-समझ कर। अपने बच्चे के भविष्य का सवाल है,’’ अमन ने इससे अधिक बोलना जरूरी नहीं समझा। आखिर वंदना उसकी पत्नी थी। वह जो भी फैसला लेगी, उसके पक्ष में ही होगा। उसे इस बात का पूरा विश्वास था।

‘‘वकील साहब, मां-बाऊ जी के बीमा की सारी रकम 10 लाख रुपए मैं उस वृद्धाश्रम में दान करना चाहती हूं, जहां हर तरफ से निराश हो कर मैंने उनके रहने की व्यवस्था की थी। मुझे नहीं लगता कि इस राशि के लिए इससे उपयुक्त पात्र कोई और हो सकता है,’’ वंदना ने दृढ़ शब्दों में अपना निर्णय सबके सामने रख दिया, जिसे सुनते ही वकील साहब के अलावा हर किसी के चेहरे पर मुर्दनी छा गयी।

वंदना ने कोने में रखी मां-बाऊ जी की फोटो पर निगाह डाली। उनके चेहरे की निर्मल मुस्कान जैसे अपने मन की असीम शांति की बयां कर रही थी और उसे सही निर्णय लेने पर बधाई दे रही थी।