Friday 19 July 2024 04:54 PM IST : By Pama Malik

मृगतृष्णा

mrigtrishna

जैसे ही श्रद्धा ने दरवाजा खोला, दीदी को सामने देख कर उसका दिल धक से रह गया। उसने मुस्कराने का प्रयास किया, किंतु सफल नहीं हुई। दरवाजे पर सन्न खड़ी श्रद्धा रास्ता देने का सामान्य शिष्टाचार तक भूल गयी। सामने खड़ी बहन ने पूछा, ‘‘अंदर आने दोगी, या यहीं खड़ी रहूं, ‘‘अरे सॉरी दीदी, आओ,’’ श्रद्धा जल्दी से अलग हट कर खड़ी हो गयी। दीदी पूरे आत्मविश्वास व अधिकार से अंदर आ गयी, इधर-उधर नजरें घुमायीं। श्रद्धा समझ गयी वह किसे खोज रही है, बोली, ‘‘मनन ऑफिस गए हैं।’’

‘‘मैं मनन को नहीं देख रही हूं,’’ दीदी ने खिसिया कर कहा, ‘‘मैं देख रही हूं, कितना अस्तव्यस्त कर रखा है तूने घर को।’’

‘‘अभी बच्चे गए हैं स्कूल, मैंने सोचा किचन का काम निपटा लूं तब यहां समेटूंगी। आप अचानक!’’

‘‘हां, मैंने सोचा सरप्राइज देती हूं।’’

‘‘अच्छा किया, बैठिए चाय बनाती हूं।’’

श्रद्धा के जाते ही वह जड़वत सामने लगे मनन की फोटो को देखने लगी। वह और मनन दो शरीर एक प्राण थे। पूरे कॉलेज में उनके प्रेम प्रसंग की चर्चा थी, किंतु तीव्र बुद्धि मुग्धा और औसत दर्जे का मनन पढ़ाई में अच्छा परिणाम देते थे, इसलिए अध्यापक व अभिभावकों को उनके नजदीकियों से विशेष परेशानी ना थी। वह पढ़ाई में अव्वल रहती, मनन उसके नोट्स पढ़ कर पास हो जाता। मुग्धा वस्त्र व केशविन्यास पर ज्यादा ध्यान देती। उसे मनन की विकलता और दीवानगी अपूर्व सुख देती। वे साथ पढ़ते, घूमते। कुछ देर गंभीरतापूर्वक पढ़ने के बाद उनकी चुहलबाजी शुरू हो जाती, किंतु वे अपनी सीमा जानते थे, जिसके अतिक्रमण का उन्होंने कभी प्रयास नहीं किया। कभी-कभी व्यग्र हो कर मनन कहता, ‘‘चलो शादी कर लेते हैं, साथ पढ़ेंगे, नौकरी करेंगे।’’

‘‘मनु, अपनी मंजिल तय किए बिना मैं शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती।’’

मनन जब कभी उसके घर आता, मुग्धा की छोटी बहन श्रद्धा पूरे समय उससे चिपकी रहती, ‘‘मनन जी, आप तो हीरो दिखते हैं, आपकी तो हर अदा निराली है। काश, दीदी की जगह मैं आपकी गर्लफ्रेंड होती।’’

‘‘अच्छा, अब तू चलती बन यहां से, हमें पढ़ाई करने दे।’’

रात में जब वह मुग्धा से मनन के बारे में पूछती तो वह उसे चिढ़ाती, ‘‘लगता है तेरा दिल मनन पर आ गया है।’’

‘‘हां दीदी, वे मुझे अच्छे लगते हैं,’’ वह साफगोई से स्वीकार करती। बात आयी गयी हो गयी, किंतु किसे पता था मनन श्रद्धा की ही झोली में जा गिरेगा।

उन दिनों ग्रेजुएशन के बाद सभी विद्यार्थी अपनी मंजिल पाने के लिए कठोर मशक्कत कर रहे थे। मुग्धा ने पीसीएस प्री क्वॉलीफाई कर लिया था। वह फाइनल की तैयारी में व्यस्त थी। मनन को काफी समय अपने पिता के व्यापार में साथ देना पड़ता था, उनकी फ्रिज, कूलर, टीवी की बड़ी शॉप थी। एक दिन वह आंखों में आंसू भरे मुग्धा के सामने आ खड़ा हुआ। मुग्धा घबरा गयी, ‘‘क्या हुआ मनु?’’

‘‘मेरी मां को आंत का कैंसर हो गया है, उनके पास समय कम है, किंतु वे मेरे सिर पर सेहरा देख कर मरना चाहती हैं। हमें जल्द से जल्द शादी करनी होगी।’’

‘‘बहुत दुख हुआ यह सुन कर, मनु। लेकिन मेरा पूरा कैरिअर खत्म हो जाएगा, मैं किसी कीमत पर शादी नहीं कर सकती।’’

‘‘मेरी मरती हुई मां की कीमत पर भी नहीं?’’

‘‘यह तो इमोशनल ब्लैकमेलिंग है, उन्हें इस तरह बेवजह जिद करनी ही नहीं चाहिए। फिर तुम्हारी खुद कोई नौकरी नहीं है।’’

‘‘वे बिजनेस से लाखों इनकम का हवाला दे रहे हैं। मुग्धा शादी कर लो, शादी के बाद भी तुम प्रिपरेशन कर सकती हो।’’ मुग्धा के इनकार करने पर उसने कहा, ‘‘तुम्हें नहीं, किंतु मुझे तो अपनी जन्मदात्री की अंतिम इच्छा की परवाह है, मैं किसी और से शादी कर लूंगा,’’ मनन हो कर जाने लगा।

‘‘रुको मनन,’’ मुग्धा ने आवाज लगायी।

‘‘क्या हुआ अब,’’ जाते हुए मनन पलटा। सामने मुग्धा खड़ी थी, आंखों में आंसू, उत्तेजना में थरथर कांपती, ‘‘तुम मेरी बहन से शादी कर लो।’’

‘‘मुग्धा, तुम ऐसे प्रस्ताव रखोगी, मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था।’’

‘‘तुम अन्यत्र शादी करो उससे अच्छा है तुम मेरी बहन को अपना लो। वह तुम्हें पसंद करती है, मनन। मैं अपने सपनों से समझौता नहीं कर सकती।’’

मनन वहां से लौट गया, किंतु मृत्युशैया पर पड़ी अपनी मां का अनुरोध वह नहीं टाल सकता था। मुग्धा शादी ना करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थी, अतः मनन ने श्रद्धा से शादी के लिए हां कर दी। आननफानन में शादी हो गयी। मुग्धा विवाहपर्यंत वहां उपस्थित रही फिर कहीं चली गयी। उसने दुख, कष्ट, गम दरकिनार कर दिन-रात परिश्रम किया और 3 वर्ष के अंदर एसडीएम बन कर अवतरित हुई। जहां वह पोस्टेड थी वहां से मनन व श्रद्धा का घर पास ही था। मनन वहां बैंक में था। उसने शादी के बाद अपने परिश्रम से इस नौकरी को हासिल किया। इधर मुग्धा प्रशासनिक नौकरी, बंगला, गाड़ी, नौकर-चाकर की भीड़ में भी स्वयं को नितांत अकेला पाती। सपना पूरा होने का संतोष कपूर बन कर उड़ गया। जीवन में रिक्तता, सूनेपन, असंतोष ने अपना साम्राज्य पसार लिया। पता नहीं किस तृष्णा में अकसर वह मनन व श्रद्धा के जीवन में दखल डालने पहुंच जाती। बड़े यत्न से स्वयं को श्रद्धा के पति के रूप में स्वीकारने का मनन का सपना धराशायी हो जाता। वह श्रद्धा के घर बेधड़क पहुंच जाती और उसे सूचित करती, ‘‘मैं और मनन जरा बाहर घूमने जा रहे हैं, कुछ बातें करनी है।’’

अहसान तले दबी श्रद्धा अपने विवश पति को दीदी के साथ जाते देखती रहती। मनन शर्मिंदा महसूस करता। किसी बढि़या होटल में अच्छे लंच के बीच में वह रोना रोती, ‘‘तुम्हारे बिना मेरा जीवन अधूरा है, मनन।’’

‘‘मैंने तुमसे कितना अनुरोध किया था, किंतु अपनी महत्वाकांक्षा के चलते तुमने मेरी एक ना सुनी।’’

‘‘किंतु बहन के लिए मैंने यह त्याग किया।’’

‘‘तुम्हारी बहन ने कभी मुझे तुमसे छीनने का प्रयास नहीं किया था, यह तुम थी, जिसने शादी के लिए ना किया था। मैं तो विवश था, मुझे शादी करनी ही थी।’’

‘‘मनन, मैं जो तिल-तिल जल कर मर रही हूं, उसका क्या।’’

‘‘तुम्हारी बहन अब मेरी पत्नी है, अग्नि के फेरे लिए है मैंने उसके साथ, अब उसके साथ मैं धोखा क्यों करूं।’’

‘‘कैसा धोखा! वह मेरे अहसान तले दबी है, तुम यदि मुझे पत्नी का स्थान दोगे, तो वह कुछ भी नहीं कहेगी।’’

‘‘तुम पागल तो नहीं हो गयी हो, मुग्धा।’’

‘‘मनन, तुम भूल गए हमने साथ जीने-मरने की कसमें खायी थीं, तुम मेरे बगैर एक पल नहीं रह पाते थे।’’

‘‘हां, लेकिन अपने प्रति मेरी भावनाओं को तुमने ही आहत किया। मेरे सपने तुमने तोड़े और तुम्हारी बहन तक पहुंचने का रास्ता तुमने ही मुझे दिखाया।’’

‘‘तुम सच कह रहे हो मनन, मैं क्षमाप्रार्थी हूं। मैंनेे बहुत बड़ी मूर्खता की। सब कुछ पा कर भी मेरी दशा एक भिखारिन सी है, कुछ करो मनन। मुझे अपना लो।’’

‘‘लेकिन कैसे, कंप्लेन हो जाएगी। हम दोनों ही सरकारी नौकरी में हैं। अरे 10 बज गए, चलो श्रद्धा प्रतीक्षा कर रही होगी।’’

‘‘इतनी चिंता है श्रद्धा की और मेरी...’’ मुग्धा सुबकने लगी, किंतु मनन उसे खींच कर घर ले आया। सचमुच श्रद्धा खाना बना कर इंतजार की मुद्रा में बैठी दोनों को शंकित निगाहों से घूरती रही। मुग्धा ने लापरवाही से कहा, ‘‘अरे, तुम अभी तक बैठी हो, हम दोनों तो खा कर आए हैं।’’ किंतु मनन मुंह बनाए बैठी श्रद्धा के पास उसके हाथ की बनी रोटी खाने बैठ गया। मुग्धा ने उसे अप्रसन्नता से देखा फिर सोने चली गयी।

इसी प्रकार मुग्धा अकसर छुटि्टयों में बहन के घर आ कर उनके शांत जीवन में खलल डालने का प्रयास करती। मनन का दोष मात्र यह था कि वह कभी उससे बहुत प्यार करता था। श्रद्धा पर वह उसके प्यार को छीन लेने का बेबुनियाद आरोप लगाती। कुछ वर्षों में श्रद्धा 2 प्यारे बच्चों रिया व परितोष की मां बन गयी। मुग्धा खूब रोयी कि प्यार वह उससे करता है, किंतु गृहस्थी उसकी बहन बसा रही है। आज भी मुग्धा मनन से मिलने आयी थी। श्रद्धा चाय ले कर पहुंची, ‘‘दीदी, तुम्हारी छुटि्टयां हैं क्या।’’

‘‘हां, 2 दिन की, सोचा मनन से मिल आऊं,’’ मुग्धा ने जवाब दिया। वह कभी श्रद्धा, बच्चों का नाम नहीं लेती थी और बड़ी साफगोई से स्वीकार करती थी कि उसे केवल और केवल मनन से मतलब है। श्रद्धा उसकी हिम्मत और धैर्य की दाद देती कि 5-6 वर्ष बीत गए, किंतु फिर भी वह मनन से सकारात्मक उत्तर की आस लगाए बैठी थी। उसे बुरा भी लगता, किंतु मनन ने कभी उसका निरादर नहीं किया, तो वह कैसे करती। खाना खा कर मुग्धा ने गहरी नींद ली फिर बढि़या ड्रेस पहन कर, गहरा मेकअप करके बैठक में बैठ कर मनन की प्रतीक्षा करने लगी। उसने स्कूल से लौटे रिया, परितोष के मौसी-मौसी की रट और बालसुलभ प्रश्नों को भी अनसुना कर दिया। मनन ने बाहर से ही मुग्धा की आवाज सुन ली थी। वह जितना अपनी गृहस्थी में रमने का प्रयास करता, मुग्धा की उसको पाने की ललक उतनी ही बढ़ती जा रही थी। उसने नैतिकता-अनैतिकता सब ताक पर रख दी थी। थके हुए क्लांत मनन को देख कर प्रसन्न मुग्धा उससे लिपट गयी और इतरा कर पूछा, ‘‘कैसा लगा मेरा सरप्राइज!’’ बच्चों, पत्नी की घूरती आंखों के सामने मुग्धा का यह आचरण मनन को जरा भी नहीं भाया, उसने धीरे से परे हटाया, ‘‘तुम्हें बता कर आना चाहिए, यदि हम घर पर ना होते।’’

‘‘तब की तब देखी जाती, कैसी लग रही हूं।’’

‘‘सुंदर, सुबह आयीं?’’

‘‘हां, तुम्हारे ऑफिस जाने के बाद। तुम फ्रेश हो कर आओ, चाय तैयार है। आज मैंने श्रद्धा से कह कर तुम्हारे लिए दही-भल्ला बनवाया है।’’

शाम की चाय के समय मुग्धा ही ज्यादा मुखर थी, बाकी सब शांत थे। मुग्धा का प्रयास यह था कि मनन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर सके। वह उससे पहले की भांति दीवानावार प्यार की अपेक्षा करती थी, जो अब कतई संभव नहीं था। वह अकेले मनन के साथ बाहर घूमना चाहती थी। उसने कई बार निश्चय किया था इसी प्रकार अकेले कहीं जा कर वह स्वयं को मनन को सौंप देगी, वह ना नहीं कर पाएगा, किंतु इस बार मनन ने उसके अकेले बाहर घूमने के प्रस्ताव को ही नकार दिया। मुग्धा उससे बात करने को बैचैन थी। खाना बनाती श्रद्धा से उसने कहा, ‘‘बच्चों को होमवर्क करने बैठाओ, मुझे मनन से अकेले में कुछ बातें करनी है।’’

‘‘लेकिन उनके पापा ही उनकी होमवर्क में मदद करते हैं।’’

‘‘पापा-पापा नहीं सुनना चाहती मैं, हटाओ उन्हें वहां से,’’ मुग्धा ने विषैले स्वर में कहा। श्रद्धा ने किसी तरह बच्चों को पापा के पास से हटाया। मनन बाहर लॉन में चहलकदमी कर रहा था, मुग्धा लपक कर वहां पहुंच गयी, किंतु उसके ठंडे रवैए से रुष्ट हो गयी, ‘‘मनु, तुममें पहले जैसी बात नहीं रही।’’

‘‘कैसे रहेगी, अब मैं विवाहित हूं, 2 बच्चों का बाप हूं।’’

‘‘तुम्हारी पत्नी, बच्चों की चर्चा से मैं ईर्ष्या से जल जाती हूं, तुम्हें अकेले पाना चाहती हूं।’’

‘‘मुग्धा, कभी-कभी मुझे संदेह होता है कि तुम एक दायित्वपूर्ण अधिकारी के पद पर हो, तुम्हारी बातें, निश्चय, सपने बचकाने हैं। तुम्हें बच्चों और श्रद्धा के सामने संयमित आचरण करना चाहिए।’’

‘‘तुम श्रद्धा, बच्चों को रखो बस मुझे पत्नी के अधिकार दो, मैं इतना ही चाहती हूं।’’

‘‘खाना तैयार है,’’ तभी श्रद्धा ने उनकी बातों में खलल डाला और मनन की जान बच गयी।

श्रद्धा का मूड भी ठीक नहीं था, रात में बच्चों के सोते ही वह मनन पर फट पड़ी, ‘‘दीदी मेरे और बच्चों के सामने प्रेम का स्वांग करती है और आप उसको समझाने के बजाय प्रश्रय दे रहे हैं।’’

‘‘श्रद्धा, मैं केवल उसका लिहाज कर रहा हूं।’’

‘‘आप उसे सख्ती से मना करें, अन्यथा वह ऐसे झूठे आश्वासन तले सपने बुनती रहेगी।’’

‘‘तुम चिंता ना करो, मैं कई महीने से इस मसले का समाधान ढूंढ़ रहा हूं, कल ही देखना।’’
अगले दिन मनन जल्दी बैंक चला गया। शाम को जब आया, तो उसके साथ उसी की उम्र का एक प्रबुद्ध व्यक्ति भी था। श्रद्धा प्रसन्न लग रही थी, चाय-नाश्ते की व्यवस्था कर रही थी। मुग्धा को कुछ अटपटा लग रहा था।

‘‘मुग्धा, इनसे मिलो सुबोध सहाय, डीजीएम सेल्स इन राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड।’’

‘‘नमस्ते,’’ मुग्धा ने अनमने भाव से कहा।

‘‘और ये हैं मुग्धा सरीन, एसडीएम सीतापुर, यूपी। तुम दोनों बातें करो, मैं आया।’’ मनन ने दोनों का परिचय दिया और किचन में खिसक गया।

‘‘मैं मनन से एक समारोह में मिला था, तबसे हम दोनों अच्छे मित्र हैं। मुझे उसने आपके बारे में बताया था तभी से मैं आपसे मिलने को उत्सुक था,’’ सुबोध ने कहा।

‘‘क्या बताया है,’’ मुग्धा शंकित हो गयी।

‘‘सब कुछ, आप दोनों में घनिष्ठता थी फिर परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उसे कहीं और शादी करनी पड़ी।’’

‘‘उसने यह सब आपको क्यों बताया,’’ मुग्धा व्याकुल हो गयी।

‘‘मुग्धा जी, जिंदगी अकेले नहीं कटती। मेरे साथ तो कुछ ऐसा हुआ, जिसे मैं दुर्भाग्य भी नहीं कह सकता। जिस लड़की से मेरी शादी हुई वह किसी और को चाहती थी। मैंने भी उसे शादी के बंधन से मुक्त कर दिया। वर्षों मेरा रिश्तों से मोहभंग रहा। मनन से मेरा संपर्क बना रहता है, क्योंकि इस शहर में मेरे माता-पिता रहते हैं। उसने मुझे आपके बारे में बताया था।’’

‘‘लेकिन क्यों बताया था और आप पहली ही भेंट में यह सब बातें मुझे क्यों बता रहे हैं।’’

सुबोध चुप था। निश्चिंत भाव से चाय की चुस्कियां लेता रहा, फिर उसने भरपूर दृष्टि से मुग्धा को देखा, ‘‘क्या आपको नहीं लगता कि इस घर में आप एक अनिच्छित अतिथि हैं।’’

‘‘यह मेरी सगी बहन का घर है।’’

‘‘किंतु आप तो उसके पति को उससे छीनने का प्रयास कर रही हैं, एक बसे-बसाए घर को तोड़ने का प्रयास कर रही हैं।’’

‘‘मैं यह सब कहने का अधिकार आपको नहीं देती। आप हैं कौन और किस हक से ये सारी बातें मुझसे बोल रहे हैं।’’

‘‘मनन मेरा प्रिय मित्र है। उसके, उसकी पत्नी व बच्चों के साथ होते अन्याय को रोकना चाहता हूं।’’

‘‘हाउ रबिश। बिना जाने-समझे बोले जा रहे हैं। अरे मनन प्यार करता है मुझसे, मेरे बिना जी नहीं सकता वह। आपको क्या लगता है मैं एकतरफा प्यार कर रही हूं उससे।’’

‘‘वह आपसे प्यार करता था, अब नहीं करता। उसने मुझे इसलिए यहां बुलाया, ताकि आपकी गृहस्थी बस जाए और उसकी बच जाए। बहरहाल, आप मुझे पसंद हैं, यदि आपके विचार भी नेक हों, तो खबर करिएगा,’’ कहते हुए उसने मिठाई का एक टुकड़ा उठा लिया और खाते-खाते चला गया। जाते-जाते उसे विश करना नहीं भूला। चेहरे पर वही दिल में उतर जाने वाली सदाबहार मुस्कराहट। मुग्धा सन्न बैठी थी फिर वह उठी और दनदनाती हुए अंदर गयी और मनन पर बरस पड़ी, ‘‘तो इस तरह तुमने मुझे अपनी जिंदगी से निकालने की योजना बनायी।’’

‘‘दीदी, तुम उनकी जिंदगी में थी कहां, एक मृगतृष्णा में जी रही हो तुम, यह जितनी जल्दी खत्म हो जाए उतना अच्छा।’’

‘‘ओ तो तुझे भी जबान मिल गयी है। तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे सामने बोलने की, भूल गई मैंने अपना प्रेमी तुझे खैरात में दी थी, अहसानफरामोश।’’

‘‘दीदी, तुमने स्वार्थवश इनका साथ छोड़ा और अब उपकार का बदला लेने के बहाने हमारे जीवन में विष घोल रही हो। यदि तुम सचमुच इनसे प्यार करती, तो इनकी और इन्ही की मृतप्रायः मां की इच्छा का सम्मान करती। जब इन्होंने घर बसा लिया, 2 बच्चे हो गए, तो किस मंतव्य से यहां भागी चली आती हो।’’

श्रद्धा के प्रथम बार के कड़े रुख पर मुग्धा आगबबूला हो गयी, ‘‘श्रद्धा, थप्पड़ जमा दूंगी तुझे, तेरा पति प्यार करता है मुझे, निरुद्देश्य नहीं भागी चली आती। तुझे, तेरे बच्चों को नहीं चाहता वह, चाहे तो पूछ ले मेरे सामने। बिना प्यार की कैसी गृहस्थी।’’

‘‘थप्पड़ कैसे जमाओगी, तुम्हारी जायज-नाजायज मांगों को मानते रहे इसलिए, दो टूक कह देते, तो भ्रमवश तुम अपनी जिंदगी बर्बाद ना करती, अभी पूछो कौन किसे प्यार करता है।’’

‘‘मनन, बता दो श्रद्धा को कि तुम मुझसे प्यार करते हो, मेरे बिना जी नहीं सकते,’’ मुग्धा ने आत्मविश्वास से कहा।

‘‘नहीं मुग्धा, मैं तुमसे प्यार नहीं करता। तुम्हारा आगमन सदैव मेरे घर में एक अप्रिय माहाैल बना देता है। मेरी बहुत बड़ी गलती यह है कि तुम्हें सचाई से अवगत नहीं कराया, मेरी हिम्मत नहीं पड़ी,’’ मनन ने स्पष्ट स्वर में कहा।

मुग्धा कटे वृक्ष की तरह सोफे पर गिर पड़ी, आंसू गंगा-जमुना से बह चले। अपराधभाव से ग्रस्त मनन ने कहा, ‘‘मुग्धा, सुबोध एक बहुत अच्छा इंसान है, उसका हाथ थाम लो।’’ मुग्धा ने कोई जवाब नहीं दिया, किंतु श्रद्धा, मनन के मनाने के िलए बढ़े हाथ को हर बार झटक दिया। बिना खाए-पिए वह रातभर वहीं पड़ी रही। श्रद्धा, मनन रातभर उठ-उठ कर उसकी निगरानी करते रहे। सुबह उठते ही मुग्धा जाने के लिए तैयार हो गयी। उसके चेहरे पर अपने ओहदे वाली सख्ती थी। उसने जाते-जाते श्रद्धा का हाथ थामा, ‘‘सचाई बताने के लिए धन्यवाद, लेकिन यह काम तुम लोगों को पहले ही कर देना चाहिए था।’’

मुग्धा चली गयी। स्टेशन तक छोड़ने की श्रद्धा, मनन की पेशकश उसने निर्ममता से ठुकरा दी। वह चली गयी, किंतु श्रद्धा-मनन हृदय से चोटिल थे, उससे मुक्त होने की कोई प्रसन्नता ना थी उन्हें।

एक शाम सुबोध मनन से मिलने आया। मनन ने उदासी से कहा, ‘‘तू असफल रहा यार, नहीं मानी।’’

‘‘नहीं, वह तो मान गयी।’’

‘‘क्या!’’ मनन, श्रद्धा खुशी से चीख पड़े।

‘‘हां, मैंने उसे कई बार फोन किया, मुझसे बात करने को राजी नहीं हुई फिर मैं सीतापुर पहुंच गया। घर पहुंचा, बड़ी मुश्किल से उसके दीदार हुए। मैंने उससे कहा, ‘‘आप यह क्यों सोचती हैं कि दुनिया आपके हिसाब से चलेगी, सबको अपने ढंग से जीने का हक है, आपको भी।’’

‘‘ठीक है, तो मुझे अपने ढंग से जीने दें और यहां से चले जाएं,’’ उसने कहा।

‘‘चला जाऊंगा, मैं यहां रहने थोड़े ही ना आया हूं। भिलाई वापस जा रहा हूं, तो सोचा आपसे मिलता चलूं। बस एक बात कहनी थी आपसे, जिंदगी अकेले नहीं काटी जा सकती मतलब मुश्किल होती है। मेरे जैसा सुपात्र आपको नहीं मिलेगा। ईर्ष्या, द्वेष की भावना से उठाया कदम गलत होगा। जिंदगी आपके दरवाजे पर खड़ी है स्वागत कीजिए उसका।’’

‘‘मुझे कुछ भी नहीं सुनना, आप जाएं,’’ उसने कहा। सुबोध के रुकने पर मनन ने पूछा, ‘‘तू इतने दूर गया, चाय-नाश्ते के लिए भी नहीं पूछा।’’

‘‘नहीं, ऐसे तो उसने मेरी खूब आवभगत की, किंतु मेरे प्रस्ताव को ठुकरा दिया, मैं लौट आया। होटल में लेटा था अचानक रात 11 बजे फोन आया, तेरी साली महोदया थीं। बोली कि वह मेरे प्रस्ताव पर विचार करने को सहमत है, किंतु वह मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानती है। फिर मैंने उसे समझाया कि श्रद्धा-मनन ने उसके लिए मुझे पसंद किया है, तो कोई बात तो है मुझमें। उधर सन्नाटा छा गया फिर फोन कट गया। अगली सुबह जब मैं ट्रेन पकड़ने होटल से बाहर निकला, तो पाया तेरी साली महोदया सरकारी जीप में काला चश्मा लगाए बैठी मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं।’’

‘‘फिर क्या हुआ,’’ श्रद्धा-मनु ने समवेत स्वर में पूछा।

‘‘होना क्या था, बड़ी मुश्किल से उसने स्वीकारा कि मैं एक अच्छा इंसान हूं और वह हम दोनों के रिश्ते के प्रति सकारात्मक रुख रखती है।’’

‘‘अरे वाह! फिर तूने क्या कहा,’’ मनन ने पूछा।

‘‘मैंने कुछ नहीं कहा, केवल मुस्करा कर अपनी खुशी का इजहार किया। ज्यादा कहने पर वह संदेह में पड़ जाती। कुछ सामान्य वार्तालाप के बाद मैं वापस लौट आया।’’

मनन व श्रद्धा खुशी से नाच उठे। संभव था मुग्धा उनसे कोई संबंध ना रखना चाहती हो, यह भी कि सुबोध के साथ बने अपने रिश्ते में उन दोनों को ना शामिल करे, किंतु वह एक सही कदम उठाने जा रही थी, जिसमें श्रद्धा और मनन स्वयं को तहेदिल से सम्मिलित महसूस कर रहे थे।