Friday 22 January 2021 11:36 AM IST : By Sonia Nishant Kushwaha

जूठन

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‘छन्न ’ ... आंगन से आयी थाली गिरने की आवाज से बहू सुमित्रा दौड़ती हुई वहां पहुंची, ‘‘क्या हुआ अम्मा थाली काहे गिरा दी,’’ बमुश्किल शब्द निकले सुमित्रा के मुख से। ‘‘ना जाने कौन घड़ी में तू निकम्मी हमार गले पड़ गयी, अरे। चार आदमी का खाना बनाने में भी मौत आती है तुझे। जूठी थाली में ही खाना निकाल लायी मेरा,’’ सावित्री देवी ने मुंह से शोले बरसाते हुए जवाब दिया। गुस्से से उनका शरीर कांप रहा था। आवाज में इतनी गरज कि नयी नवेली बहू सुमित्रा की रुलाई फूट पड़ी। रुंधे गले से ही उसने क्षमा याचना की, ‘‘गलती हो गयी अम्मा, साफ ना हुई होगी थाली सही से। आगे से ना होगा।’’

‘‘अपनी थाली उठा और चलती बन यहां से। मेरे गुस्से का इम्तिहान ना ले...’’ अम्मा फिर गरजी।

बहू सुमित्रा ने सुबकते हुए थाली उठायी और रसोई घर की ओर चल दी। इधर अम्मा सावित्री देवी लगीं रगड़-रगड़ कर नहाने। ‘‘ना जाने किसकी जूठन खिला दी मुझे। अपवित्र कर दिया निकम्मी ने,’’ अम्मा बड़बड़ाती जा रही थीं। दो-चार दिन बीते, तो अम्मा कुछ सामान्य हो गयीं, लेकिन बहू सुमित्रा को अम्मा का यह व्यवहार खटक गया था।

अम्मा जी यानी सावित्री देवी बड़े ही रोबीले व्यक्तित्व की महिला हैं। उनकी कड़कती आवाज से गांवभर में लोग घबराते हैं। हंसते-मुस्कराते कम ही दिखायी देती हैं। खेत-खलिहान, जमीन-जायदाद किसी बात की कोई कमी नहीं है। उनके दो बेटे रमेश और सुमेर हैं। बड़े बेटे रमेश की अभी कुछ दिन पहले ही शादी हुई है। सुमित्रा अम्मा जी की नयी नवेली बहू, एक गरीब परिवार से है, इसलिए अम्मा हमेशा ही उसको दबा कर रखने की कोशिश करती हैं। बड़ा बेटा तो मानो मां की परछाई है। मां कहे दिन तो दिन, रात तो रात। पत्नी को प्रेम और सम्मान देना तो उसने सीखा ही नहीं है। बात-बात पर ताने देना, छोड़ देने की धमकी देना या यों ही बिना कुछ सोचे पत्नी को किसी के भी सामने लताड़ देना उसके लिए बेहद सामान्य सी बात है। इतना अपमान और जिल्लत सहन करके भी सुमित्रा अपने पति को ही अपना सर्वस्व समझती थी। अम्मा की सेवा करने में कोई कसर नहीं छाेड़ती थी।

अठारह बरस की कमसिन सी सुमित्रा अपनी मां की इकलौती संतान थी। गरीबी ने उसे पत्थर की तरह मजबूत बना दिया था। कमर तोड़ मेहनत और ऐसे छोटे-मोटे प्रहार जिनसे आम लड़कियों का स्वाभिमान चूर-चूर हो जाया करता है, सुमित्रा बिना माथे पर शिकन लाए सह जाती थी। ऊपरवाले ने भी फुरसत से गढ़ा था उसे। गुलाबी रंगत, लंबे घुंघराले बाल, पतली कमर और ऊंचा-लंबा कद। अम्मा ने एक नजर में उसे अपने रमेश के लिए पसंद कर लिया था।

‘‘ यों तो अम्मा कड़क स्वभाव है, यह मैं समझ रही हूं, लेकिन जरा सी बात पर अन्न का अपमान कुछ ज्यादा ही अजीब बर्ताव किया अम्मा ने,’’ सुमित्रा अपने पति को बता रही थी।

‘‘देख तू ज्यादा दिमाग मत चला और आइंदा कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए तेरी। एक बात की गांठ बांध ले, अम्मा को जूठन से सख्त चिढ़ है। ध्यान रहे, उनको किसी की उतरन और जूठन तनिक ना छूने पाए। अगर छुई, तो तू जाने और अम्मा जाने। मैं तो उठा कर तेरे बाप के पास पटक आऊंगा। जो लुगाई मेरी मां का ध्यान ना रख सके, उसे क्या फोड़े पर घिस कर लगाऊंगा मैं।’’ त्योरियां चढ़ाते हुए रमेश ने सुमित्रा को फटकार लगा दी। बाप के घर पटक देने की बात से सुमित्रा थोड़ी असहज हो गयी थी। कौन सा सगा बाप था उसका। सौतेला बाप, वह भी पूरा कसाई। जरा भी भनक लगी कि ससुराल में कुछ ऊपर-नीचे हुआ है, उसके साथ-साथ उसकी मां की भी जिंदगी नरक बना देगा वह।

‘‘ना जाने माई ने भी कौन से जन्म की सजा भुगती उस नशेड़ी से ब्याह करके। सारा जीवन रो कर ही काटा। दो रोटी खाने के लिए दिनभर खेत में मजदूरी करती उस पर भी घर आ कर बाप से गाली सुनती।’’ अनायास ही उसकी आंखों के कोर भीगने लगे। अगले ही पल खुद को संयत करते हुए वह घर के कामकाज में लग गयी। इस घटना के बाद सुमित्रा थोड़ी सावधान रहने लगी। उसे समझ में आ गया था कि रमेश मां के ही कहने में चलेगा। और अम्मा तो जो थीं सो थीं ही। ले-दे कर बस घर में एक देवर ही था जो उससे कुछ इज्जत और प्यार से बात करता। वह भी लल्ला जी कह उसकी सारी फरमाइश पूरी करती। रमेश को शहर में गाड़ी चलाने का काम मिल गया था। हफ्ते में एक ही दिन वो घर आता। बाकी दिन अम्मा और सुमित्रा ही अकेले रहते। सुमेर के होते अम्मा का कोई डर भी नहीं था। छह फुट का बांका नौजवान था सुमेर। भाई की अनुपस्थिति में घर, खेत और जमीन सबका ख्याल रखता। रात में जब घर लौटता तो अम्मा लाड़ में उसका सिर सहलातीं, फिर अपने कमरे में जा कर सोतीं। सुमित्रा अपने कमरे में खड़ी मां-बेटे का प्यार देख कर भावविभोर हुई जाती।

आखिरी बार उसने कब मां का प्रेमभरा स्पर्श महसूस किया था, उसे याद ही नहीं था। पहले पिता ने गर्भवती मां को छोड़ दूसरी शादी कर ली थी। कितने ही साल तो मां ने समाज में नाक रगड़-रगड़ कर सबको अपनी पवित्रता साबित करने में बिता दिए। पुरुषों के इस समाज में किसी स्त्री को अगर पुरुष छोड़ दे, तो समाज स्त्री में ही खोट ढूंढ़ना प्रारंभ कर देता है। सत्रह बरस की कच्ची उम्र में शादी, तलाक और बिना पति के कोख में एक बच्चा लिए उसने दर-दर की ठोकरें खायीं। मर्दों की अच्छी-बुरी नजरों का सामना किया। वह भीतर से टूट रही थी, ऐसे में एक आदमी ने उसे सहारा दिया। ब्याह करके अपने घर ले गया। उसने फिर से जीने की कोशिश की ही थी कि एक बार फिर सचाई ने अपना भोंडा रूप दिखाना शुरु कर दिया। मां का ये नया पति हर रात उसकी अस्मत को कुचलता, मारपीट करता और दिन चढ़ते ही बोतल खोल कर बैठ जाता। जब अपना पेट पालने के लिए वह मजदूरी करने लगी तो उसकी मेहनत की कमाई भी वह छीन कर दारू में उड़ा देता। उसने कब का मुस्कराना छोड़ दिया है, शायद उसे अब कोई आस ही नहीं जीवन से।

सुमित्रा की शादी तय करते समय भी मां बिलकुल संवेदनहीन सी खड़ी थी। उसने कोई विरोध भी नहीं किया था, ना ही खुशी जाहिर की थी। जिंदा लाश बन कर जीती उसकी मां अब सुख-दुख का अहसास ही भूल चुकी है। उसका हृदय खाली हो चुका है जिसमें ना प्रेम है ना नफरत। सुमित्रा ऐसे ही बिना ममता की छांव के बड़ी हुई है, इसलिए मां- बेटे का प्रेम देख अकसर भावनाओं में बह जाती।

भाई के कमरे में अकेली सोती जवान खूबसूरत भाभी को देख सुमेर की नीयत बदलने लगी थी। रातबेरात वह सुमित्रा को किसी ना किसी बहाने से बुलाता और कोई काम पकड़ा देता। सुमित्रा भी लल्ला जी के काम को कभी इनकार नहीं करती। पूरी तन्मयता से वह काम में जुट जाती। उधर सुमेर बदनीयती से उसे घूरता रहता। दिन में भी सीधे पल्ले की भारी भरकम साड़ी और सिर पर पल्लू ओढ़े रहनेवाली सुमित्रा रात में हल्की जॉर्जेट की साड़ी पहन लेती। उस पर भी उसका बेफिक्री से उड़ता आंचल और खुले बालों की लटें उड़-उड़ सुमेर के दिल में हलचल पैदा कर देती थीं। अम्मा को सुमेर का यों सुमित्रा से बोलना-बतलाना बुरा ना लगता था। ना ही उन्होंने कभी सुमित्रा को बिना घूंघट के सुमेर से बात करने को मना किया था। सुमेर के हंसीमजाक को भी वे उसका बचपना समझ कर नजरअंदाज कर देती थी।

सुमित्रा के मन में कोई खोट ना था। वह तो बस दो मीठे बोल की प्यासी थी, जो उसने अपने जीवन में कभी सुने ही नहीं थे। पहले बाप और फिर पति भी गर्ममिजाज मिल गया था। किस्मत में अगले पल क्या होने वाला था इसका अंदाजा नहीं था सुमित्रा को। समय बीत रहा था। सुमेर की गिद्ध दृष्टि भी सुमित्रा पर बढ़ती जा रही थी। एक दिन खबर मिली कि अम्मा की खास सहेली चकोरी की हालत गंभीर है। रात का समय था। अम्मा की बेचैनी देख सुमेर ने कहा, ‘‘काहे चिंता करती है अम्मा, मैं तुझे अभी मौसी के पास पहुंचाए देता हूं।’’ आधी रात ही अम्मा सुमेर को लिए निकल पड़ीं। चकोरी के घर पहुंच कर अम्मा ने सुमेर को वापिस घर लौटने को कहा, ‘‘बहू को घर में अकेले नहीं छोड़ सकते, तू अभी घर के लिए निकल। यहां की खबर मैं टेलीफोन पर दूंगी।’’

सुमेर देर रात को घर पहुंचा। सुमित्रा को अपना ही इंतजार करते पाया। ‘‘मौसी ठीक तो है ना लल्ला जी, चिंता में नींद ही नहीं आ रही थी,’’ सुमित्रा ने कहा।

‘‘ठीक क्या... उनका आखिरी वक्त समझो...’’

‘‘ओह...’’

‘‘भाभी एक कप चाय बना दोगी थकान बहुत हो गयी।’’

‘‘अभी लायी...’’ आंचल समेटते सुमित्रा रसोई की ओर बढ़ गयी। पानी चढ़ाया ही था कि सुमित्रा को अपने पीछे एक साया सा लहराता दिखायी दिया। पलट कर देखा तो सुमेेर उसके बिल्कुल नजदीक खड़ा था। वासना से भरी नजर उसने सुमित्रा पर डाली, सुमित्रा एक पल को असहज हो गयी। दिमाग ने चेताना चाहा, लेकिन दिल ने मानने से इनकार कर दिया। नहीं-नहीं, लल्ला जी ऐसी नजर से कभी नहीं देख सकते। चाय का कप सुमेर को थमा कर वह अपने कमरे में चली आयी। पीछे-पीछे फिर से वही पदचाप सुनायी पड़ने लगी। अगले ही पल सुमेर उसके ठीक सामने खड़ा था।

‘‘इतनी रात को मेरे कमरे में... लल्ला जी कुछ चाहिए क्या?’’ ‘‘तुम्हारा लल्ला नहीं हूं मैं, सुमेर भी बुला सकती हो। लेकिन तुम समझती कहां हो मेरी जरूरत।’’ सुमेर कुटिलता से मुस्कराया।

सुमित्रा पर घड़ों पानी गिर गया मानो। इतनी बेशऱमी... इतना दुस्साहस... ‘‘भूल रहे हो तुम्हारे बड़े भाई की पत्नी हूं। अभी निकलो यहां से, नहीं तो अम्मा जी को सब बता दूंगी,’’ गुस्से में चीख पड़ी थी सुमित्रा।

‘‘अच्छा और तुम्हें लगता है अम्मा तुम्हारी बात सुनेंगी। एक मिनट में निकाल बाहर करेंगी तुम्हें, झूठी-मक्कार बता कर। फिर बताती रहना अपने शराबी बाप को अपनी आपबीती।’’ वो ढीठपने से मुस्कराया।

‘‘चुपचाप मेरी बात मान लो, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा।’’

‘‘मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूं आप जाइए यहां से...’’ सुमित्रा गिड़गिड़ायी।

मतलब तुम प्यार से नहीं मानोगी। एक ही झटके में उसने सुमित्रा को बिस्तर पर गिरा दिया। सुमित्रा जाल में फंसे पंछी की तरह उसकी पकड़ से छूटने को छटपटा रही थी। ये पाप है... छोड़ दो मुझे...अम्मा जी... अम्मा जी... कोई बचाओ...’’ सुमित्रा विलाप कर रही थी।

अचानक दरवाजा खुला, देखा तो सामने अम्मा खड़ी थीं। कमरे में रोती-बिलखती बहू, अर्धनग्न हालत में बेटा और लगभग वैसे ही हालात में बहू भी।

‘‘सुमेर...’’ अम्मा गरजी।

‘‘अम्मा, मेरी कोई गलती ना है ये सुमित्रा ही मुझे बहला फुसला कर...’’, सुमेर ने कहानी बनानी शुरू की। उसे पूरा यकीन था अम्मा अपने लाड़ले बेटे की बात को टाल ही नहीं सकती। उधर अम्मा जड़ हुई खड़ी थीं। आंखों के आगे अंधियारा छाने लगा, कुछ होश संभाला, तो 25 बरस पहले की घटना एक के बाद एक आंखों के आगे घूमने लगी।

‘‘मुझे माफ कर दो भाई मेरी कोई गलती नहीं है। मैंने तो रमेश के बापू के अलावा कभी किसी मरद को आंख उठा कर भी ना देखा। ये कलेवा खुद मेरे कमरे में घुसा चला आया। मेरे साथ जोर जबर्दस्ती की। इसमें मेरा क्या कसूर बताओ।

आप ही कुछ बोलो ना रमेश के बापू। मेरा भरोसा करो। माई आप तो औरत हो, समझती हो सब। ऐसे अन्याय ना करो मेरे साथ। मैंने कभी इसको ना बुलाया, ये पहली बार मेरे कमरे में घुसा है। आपके एक बेटे ने मेरे साथ दुराचार किया और दूसरा मेरे ही चरित्र पर उंगली उठा रहा है।’’ युवा सावित्री गिड़गिड़ा रही थी।

‘‘तू सच बोले या झूठ, किसी की जूठन इस घर की लक्ष्मी नहीं बन सकती। तू एक जूठन है बस, इससे ज्यादा तेरी कोई औकात नहीं यहां। कल सुबह होते ही इसे पूरे गांव में काला मुंह करके घुमाना, फिर उठा कर यहां से बाहर फिंकवा देना। पता तो चले इस कलंकिनी को बदचलनी का क्या परिणाम होता है,’’ माई ने फैसला सुना दिया था। सावित्री रोती-चिल्लाती रही। किसी ने उसकी एक ना सुनी। सारा कुनबा खड़ा उसे जूठन बुला रहा था। वह असहाय सी घुटनों में मुंह छिपाए नीचे बैठी थी। बड़े घर की बहू थी, गहनों की कोई कमी नहीं थी। कमरे में आ कर उसने अपने सारे गहने एक पोटली में बांधे और रमेश को उठा कर आधी रात में ही वहां से भाग निकली। दूर के भाई की मदद से सारे जेवर बेच कर सुदूर क्षेत्र में जमीन खरीदी और वहीं खेतीबाड़ी करने लगी। अकेले ही रमेश और अपने अजन्मे बच्चे के लिए सहारा बनीं। दोनों को पाला पोसा, पति के होते हुए भी जीवनभर विधवा का जीवन बिताया। पति, ससुराल, मायका सब पीछे छूट गया था। अगर नहीं छूटा था, तो वह था जूठन का दाग। जो उसके दामन को कलंकित कर गया था। गलती ना होने पर भी सारा जीवन खुद को ही दोषी समझ दंड देती रही थी सावित्री। आज भी जूठन देख उसे अपने कानों में वही जूठन वाली आवाज सुनायी देने लगी और वह विचलित हो गयी।

‘‘अम्मा मेरी कोई गलती नहीं,’’ बहू हाथ जोड़े खड़ी थी। डर के मारे पैर कंपकंपा रहे थे। फैसला तो वह जानती थी सुमेर के पक्ष में ही होगा। मैं चार दिन पहले आयी गरीब घर की अनाथ, कौन मेरी सुनेगा। यहां से निकाली जाऊंगी, तो मेरे साथ ही मां का जीवन भी खराब हो जाएगा। सुमित्रा का मन अब खुद से ज्यादा मां के लिए व्यथित हो उठा।

‘‘मैं यहीं किसी कोने में पड़ी रहूंगी अम्मा, किसी से कुछ ना कहूंगी, मुझ अभागन पर तरस खाओ।’’ सुमित्रा बोलती चली जा रही थी।

‘‘जूठन... तू जूठन...’’ बमुश्किल कुछ शब्द फूटे अम्मा के मुख से।

पूरा साहस जुटा कर अम्मा फिर से बोलीं, ‘‘तू जूठन नहीं है मेरी बिटिया। ये बेगैरत है। मां समान बड़ी भाभी पर हाथ डालने की हिम्मत भी कैसे हुई तेरी। अभी इस घर से बाहर निकल जा। जो आदमी बहन-बेटी की इज्जत ना कर सके, वह घर तो क्या, समाज में भी रहने लायक नहीं होता। मुझे क्या पता था मैं औलाद नहीं सांप पाल रही हूं जो एक दिन घर की इज्जत को ही डस लेगा। गरीब की बेटी की इज्जत इतनी सस्ती नहीं होती कि कोई भी उसे अपने रुपए-पैसों से खरीद सके। तुझे क्या लगा था मैं इस गरीब, बिन बाप की लड़की को ही गलत समझूंगी। सही-गलत में खूब फर्क समझ आता है। दफा हो जा यहां से। कभी अपनी शक्ल मत दिखाना, नहीं तो पुलिस में दे दूंगी।’’ ‘‘लेकिन अम्मा आप यहां कैसे,’’ बहू ने सवाल किया।

‘‘ना जाने क्यों, मुझे घबराहट हो रही थी। मेरा दिल नहीं माना तो चकोरी का भांजा चंदू मुझे वापिस छोड़ गया। आज अनर्थ हो जाता, अगर मैं समय से ना पहुंचती। कैसे मुझसे नजर मिलाती। तू मेरे बेटे की अमानत है, इस घर की लक्ष्मी है। लक्ष्मी तो सदा ही पूजनीय होती है। किसी की गंदी नीयत या गंदे हाथों के छू लेने भर से वह अपवित्र नहीं हो जाती, जूठन नहीं हो जाती। इस हादसे ने मेरे मन में छिपे उस जूठन के दाग से मुझे मुक्ति दे दी।

कोई कुत्ता पागल हो कर काटने लगे, तो उसे ही गोली मारी जाती है, खुदकुशी नहीं की जाती। इससे पहले कि कोई महिला इन कुत्तों से डर कर खुदकुशी करे, इनको चुन-चुन कर गोली मार देनी चाहिए। अश्रु आज सारे बांध तोड़ बह जाना चाहते थे। ना जाने कितने बरस से इनको रोक कर रखा था सावित्री ने। सुमेर कब का गांव छोड़ कर भाग चुका था। इधर सुमित्रा अम्मा के गले लग कर बरसों की अपनी ममता की प्यास बुझा रही थी।