Wednesday 26 June 2024 11:40 AM IST : By Sarojini Nautiyal

अम्मा सूरज हैं

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अम्मा उम्मीद से ज्यादा जी गयीं। कथाशिल्पी शरतचंद्र मरने पर अपनी सारी संपत्ति अपनी जीवनसंगिनी हिरण्यमयी के नाम कर गए, इस शर्त के साथ कि वह आजीवन उसका भोग कर सकती है, पर बेच नहीं सकती। तदुपरांत संपत्ति शरत के छोटे भाई के परिवार की होगी। हिरण्यमयी पति के बाद बीस वर्ष और जीवित रहीं। तब इसे सभी ने सुदीर्घ काल माना था। मगर अम्मा तो इस हिसाब से बेहिसाब जी लीं। उनके पति को बैकुंठवासी हुए अर्धशतक से ज्यादा हो गया और अम्मा हैं कि अभी हाड़-मांस के साथ यहीं हैं। बहुएं तो बहुत पहले से ही उनकी मोक्ष-कामना करने लगी थीं। लेकिन अब बेटों ने भी मुख खोल दिया। जैसे-जैसे समय गुजरता गया, अम्मा के परलोक-गमन की कामना मुखर होती गयी। अब तो इसमें बेहूदगियां भी प्रवेश कर गयीं। मंझली बहू ने तो पांच पंडित तक जिमा दिए। तीन बेटों के बीच चार-चार महीने की बारी में जब अम्मा वहां रहतीं, अम्मा की मुक्ति की उठापटक नित्य नए रूपों में दृष्टिगोचर होने लगती। अम्मा आजकल वहीं हैं। दो-चार दिनों से तो उनके हाथों गोदान की सुगबुगाहट भी है।

अम्मा का बारी-बारी से तीनों बेटों के घरों में रहना होता है। ऐसा बहुत पहले से होता रहा है, फर्क केवल यह आया कि पहले वे सक्रिय थीं, अपनी इच्छा और अगले की जरूरत के हिसाब से एक से दूसरे बेटे के पास चली जाती थीं। उनका अपना रुतबा था। तन-मन-धन की मजबूती ने उनको अपनी शर्तों पर जीने का आत्मबल दिया था। वे अपनी ताकत और अहसास को स्थायी मानती थीं, मगर समय की तो अपनी परतें होती हैं, जो एकाएक फड़फड़ा जाएं या हौले-हौले खुलती चली जाएं... अम्मा के जीवन-अध्याय का जो पृष्ठ अभी फड़फड़ा रहा है, वह अम्मा के मिजाज को आहत करने वाला ही है।

किसी जमाने में पिता के खरीदे दो बीघे में दो नए मकान बने। पुराने वाले को भी नयी रंगत मिली। आवास से नर्सिंग होम और फिर आवास बनने की यात्रा में उसने कई बदलाव झेले। पहले खुला बरामदा था, जो कवर्ड हो गया। पहले कोई भी आवाज दे कर घर में चला आता था। अब सब बंद सा है। घंटी बजाने पर भी देर तक कोई प्रकट नहीं होता। कई बार तो अम्मा भी ठिठक जाती हैं। उनकी आवाज तो वैसे ही महीन है। उम्र ने दम और खींच लिया। इसलिए उधर कम ही पैर बढ़ाती हैं। छोटे के यहां से ज्यादा अम्मा बेटियों के यहां रह आती थीं।

ऐसा नहीं कि पति उनके लिए जमीन-मकान का इंतजाम किए बिना ही दुनिया से कूच कर गए। देहरादून में दो बीघे का भूभाग ही नहीं खरीदा, एक अदद मकान भी बनाया। अम्मा जवानी की ढलान पर अपने आवास में आयीं। उत्साहहीन सी, कारण कि पति असमय दुनिया से चले गए। जिस मकान को बनाने में दिन-रात खपते रहे, उसमें एक रात गुजारने का सौभाग्य ना मिला। गृहप्रवेश से पहले ही वे सड़क दुर्घटना में काल कवलित हो गए। अम्मा मकान में अकेली ही आयीं। पेंशन और मकान के रूप में पति का संरक्षण उनके साथ रहा। थोड़ा-बहुत मायके की स्नेह-दृष्टि का संबल भी बना रहा। तीन भाइयों की इकलौती बहन अम्मा पर भाइयों का प्यार बरसता था। अब जिम्मेदारी का भाव भी आ जुड़ा।

बाल-बच्चों और बाग-बगीचों के साथ अम्मा जीवन के सुंदर समतल में पीयूष स्रोत सी बहती रहीं। समय के साथ बच्चे किशोर से युवा हुए। बड़े की नौकरी लगते ही घर का चेहरा बदलने लगा। दो बहनों की शादी पिता के सामने हो गयी थी। नौकरी के साथ ही एक बहन और दो भाइयों की जिम्मेदारी अनायास बड़े के हिस्से आ गयी। बड़े की ठीक नौकरी थी, लेकिन पिता का साया ना होना उसको बांध कर रखता। युवावस्था थी, जेब में पैसे भी थे, लेकिन साथियों की तरह गुलछर्रे नहीं उड़ा पाया। सिनेमाघरों में टिकट की लाइन में खड़े होने से बचता रहा। पांच रुपए का टिकट, दो-चार रुपए गरम-ठंडा, कुल आठ-दस रुपए की चोट। इतने में तो छोटी की फ्रॉक बन जाती है। विवेक और मन के पलड़ों में विवेक का पलड़ा भारी पड़ता। वह आशा पारेख, वैजयंती माला और वहीदा रहमान जैसी सिने तारिकाओं को पोस्टरों में देख कर तसल्ली कर लेता और रेडियों में फिल्मी गाने सुन कर अपनी कल्पना से कहानी बुन लेता। देवानंद, राजकपूर के उस जमाने में फिल्मों से दूरी बना कर केवल शेक्सपीयर और टैगोर की रचनाओं में मन को रमाना अपने प्रति ज्यादती ही तो कही जा सकती है। वह जिनके लिए अपनी उम्र को नजरअंदाज कर रहा था, वे कमाने से पहले ही सिगरेट-मदिरा के स्वाद चख रहे थे।

दरअसल छोटा मेडिकल में था, एक बार उसकी अस्वस्थता का समाचार पा कर बड़ा मेडिकल कॉलेज जा पहुंचा। चिट्ठी छोटे के दोस्त नित्यानंद ने भेजी थी। सुनते ही अम्मा बिस्तर में पड़ गयीं। तुरंत तार भेज कर बड़े को सूचित किया गया। तार यानी अल्टीमेटम। जान पर बन आती थी लोगों की। आनन-फानन छुट्टी की दरख्वास्त लिख कर बड़ा पहाड़ से उतरा और सुध-बुध खो कर बिना रिजर्वेशन के संगम में चढ़ गया। इलाहाबाद स्टेशन से रिक्शा पकड़ा और चल दिया मेडिकल कॉलेज। धड़कते दिल से कई गलियारे पार करते हुए हॉस्टल के उस कमरे में भी पहुंचा। जिस पहले व्यक्ति से भाई के हॉस्टल रूम के बारे में पूछा, उसने जिस सहज भाव से थर्ड इयर के बैच का खंड बताया, उससे बड़ा थोड़ा आश्वस्त हो गया। आगे पूछता-पूछता कमरे तक जा पहुंचा। दस्तक दी। अचानक बड़े को देख छोटा चौंक कर घबरा गया, ‘‘भाई, आप !’’

‘‘तू ठीक है ! नित्यानंद की चिट्ठी आयी थी।’’

‘‘ओह, मैंने तो उसे बताने को मना किया था।’’

छोटे भाई को सलामत देख कर बड़े की जान में जान आ गयी थी। उसे थोड़ा बुखार था, मलेरिया।

‘‘कमजोर हो गया है, अब तो ठीक है ना !’’

‘‘हां भाई, बिलकुल ठीक हूं। मैं जरा चाय देखता हूं, आप थक गए होंगे,’’ कहता हुआ छोटा असहज भाव से कमरे से निकल गया।

बड़े ने आश्वस्त हो कर एक नजर कमरे में डाली। जगह-जगह किताबों का ढेर देख छोटे भाई पर तरस भी आया। कोने की मेज पर कुछ पत्र भी आड़े-तिरछे धरे थे। बड़ा कौतुक से उठ खड़ा हुआ। चिट्ठियां देखने की एक अजीब इच्छा हो गयी। लेकिन लिफाफे का हस्तलेख नितांत अपरिचित लगा। खोला तो वह प्रेमपत्र था। पढ़ ना सका, बस नीचे नाम देखा- कविता। मन में जाने क्या-क्या तिर गया। चोर दृष्टि से इधर-उधर झांका। ना चाहते हुए भी वह सब दिख गया, जिसे देखने की इच्छा तो क्या, चेष्टा भी नहीं की थी। सिगरेट की डिब्बी, गत्ते के डिब्बे की ऐश ट्रे। अलमारी में किताबों के पीछे व्हिस्की की एक छोटी बोतल।

छोटे को 300 रुपए पकड़ा कर बड़ा शाम की गाड़ी से ही देहरादून चल दिया। बस मन पर बोझ बढ़ गया था। सिगरेट की डिब्बी और चिट्ठियों के रंग ने सब कुछ उघाड़ कर रख दिया था। दो सौ सत्तर और सात रुपए मनीऑर्डर शुल्क। उसकी हथेली नम हो गयी। सफर लंबा था। नींद भी आ गयी। फिलहाल मां की चिंता दूर करनी थी तो बता दिया कि चिंता की कोई बात नहीं। इसके अलावा जो कुछ था, वह बड़े ने अपनी जेब में रख लिया।

मंझला भले ही पढ़ाई पूरी कर नौकरी के लिए धक्के खा रहा था, मगर छोटे के मेडिकल में आने से परिवार का मिजाज बदल गया था। अम्मा की आवाज कड़क हो गयी थी। अपनी जेठानी से मुंह उठा कर बात करने लगी थीं। बड़े ने पिता को याद किया और अपनी छह सौ तीस रुपए की पगार से हर महीने दो सौ सत्तर छोटे को भेजने का बंदोबस्त किया। मंझला अभी इंटरव्यूज दे रहा था, दिल्ली उसके लिए दूर ही थी। ठीक रिजल्ट ना देख मंझले ने ट्यूशंस देना शुरू किया। फिजिक्स में एमएससी था। दो बच्चों से शुरुआत हुई और जल्दी ही 40 की संख्या पार कर गयी। यह सिलसिला लंबा नहीं चला। इधर बड़े की शादी हुई, उधर मंझले का नियुक्ति पत्र आया। सबने नयी बहू पर आशीषों की झड़ी लगा दी। कितनी शुभ है, कदम पड़े नहीं कि मंझला सर्वे में अधिकारी बन गया था। परिवार की ताकत बढ़ी, महत्वाकांक्षाएं भी। छोटी एमए कर चुकी थी। बड़े ने पीएचडी करने को कहा। आठ साल पिता को गुजरे हो गए थे तो बड़े का विवाह होना जरूरी था। लेकिन उसने पत्नी को जिम्मेदारी नहीं बनने दिया। अखबार में आने वाली शिक्षक भरती की विज्ञप्तियां देखता रहा। पत्नी में भी लगन थी। बिना अधिक समय गंवाए वह सरकारी टीचर बन गयी। पहली नियुक्ति सुदूर पहाड़ में जोशीमठ। दांपत्य का यह विलगाव आखिर तक चलता रहा।

उस दिन चुपचाप जेब में जो स्क्रिप्ट धरी थी, जल्दी ही उसका मंचन होने लगा था। दिल्ली की वह लड़की साधारण घर की अति साधारण कन्या थी। परिवार की आकांक्षा के समक्ष कहीं नहीं टिकी। लेकिन, छोटा अकेले ही घोड़ी चढ़ गया। मां नहीं गयीं, मगर कार्ड तो उन्हीं के नाम से छपवाए थे। भाई जा नहीं पाए। जब तक खबर मिली, शादी निबट गयी थी। परिवार ने डॉक्टरनी बहू का जो स्वप्न सहेज कर रखा था, वह चूर-चूर हो गया। हालांकि बड़ा पहले से ही इसके लिए तैयार था। मंझला नयी-नयी शादी के रंग में डूबा था।

छोटे की जिद से अम्मा बहुत दुखी थीं। कोई समझाता तो अपना आपा खो बैठतीं। जिस बेटे पर उनका सबसे बड़ा दांव था, वह इतने सस्ते में हाथ से निकल गया। शहर के जाने-माने परिवारों में अम्मा के परिवार की चर्चा होने लगी थी। चार-छह माह पूर्व दून अस्पताल के सर्जन डॉ. विशंभर नाथ भी सपत्नीक अम्मा से मुलाकात कर चुके थे। उनकी बेटी पिछले साल ही मेडिकल में सलेक्ट हुई थी। अब तो अम्मा हाथ मल कर रह गयीं। आंखें छलक जातीं तो बरबस मुख से निकल जाता, ‘जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि रहिये।’ बहनें भी मायूस हो गयीं। ऊपर से अम्मा को समझातीं, मगर भीतर से उनका खुद का दिल छलनी हुआ जा रहा था। सारा परिवार ही निरुत्साहित हो गया। मगर उनकी जेठानी खुश थी, उसने विवाह में शिरकत भी की।
अम्मा की नाराजगी 5 साल चली। उसके बाद जब सुनिश्चित हो गया कि छोटे की गैरहाजिरी से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा और उनकी गैरहाजिरी से छोटे पर कोई आफत नहीं आ रही तो उनका माथा ठनका। उसकी जिंदगी से केवल वही छिटकी हुई हैं। जेठानी का तो उससे बड़ा अपनापा है। आए दिन छोटा परिवार सहित ताई के यहां हाजिरी लगाता है। ताऊ-ताई को दवा-टॉनिक पहुंचाता है। अम्मा को समझने में देर लगी मगर समझ में आ गया था कि वे दो नहीं, तीन बहुओं की सास हैं। बस अम्मा ने रट पकड़ ली। पहली फुरसत पर ही बड़ा दिल्ली गया और भाई को बहू और नन्ही भतीजी के साथ घर ले आया। जब कोई आता है तो केवल भावनाएं नहीं आतीं, सामान भी आता है और व्यवहार भी। घर अस्त-व्यस्त हो गया। बड़े की बहू कसमसाने लगी। उसे नौकरी में जाना होता और रात को समय से सोना होता। सुबह का फैला काम और रात देर तक दोस्तों की महफिलें। ऊपर से मांस-मछली। बड़ी ने अम्मा को देखा, पर वे ना कुछ देखना चाहती थीं, ना सुनना। उनको तो खोया बेटा मिल गया था। ‘‘अब तू कहीं नहीं जाएगा, यहीं अपना क्लीनिक खोलेगा,’’ यही उनकी रात-दिन की रट हो गयी।

मंझले की शादी के बाद बड़े और मंझले ने मिल कर ऊपर दो कमरों का एक कामचलाऊ सेट बनवा दिया था। छोटे की अफरातफरी और अम्मा के मोह से निकल कर बड़ी अपनी अनुशासित दिनचर्या को ले कर ऊपर आ गयी। बच्चों की पढ़ाई की खातिर बड़ी मशक्कत से उसने देहरादून अपना ट्रांसफर करवाया था। मंझला अपनी नौकरी में फिलहाल परिवार सहित हैदराबाद में था।

समय और खिसका। छोटे का तंबू तन चुका था। घर का रंग-ढंग बिलकुल बदल गया। अब वह अम्मा के साथ नहीं, अम्मा उसके साथ थीं। शहर भी पहले जैसा नहीं रह गया था। देहरादून अब शिक्षा का हब ही नहीं, स्वास्थ्य का भी अड्डा बन गया। जिधर देखो, नर्सिंग होम। छोटे के कुछ दोस्तों के भी नर्सिंग होम खुल चुके थे, जहां वह बतौर विजिटिंग डॉक्टर जाया करता था। नर्सिंग होम वैसे भी सेवा से अधिक व्यवसाय के लिए खुलते हैं। जैसे-जैसे धन का प्रवाह बढ़ता है, नर्सिंग होम की टीम-टाम बढ़ जाती है। दोस्तों के नर्सिंग होम की आय और प्रभाव, दोनों बढ़ रहे थे। छोटा जब-तब जिक्र करता तो अम्मा का दिल किलसने लगा। बड़े से कहतीं, ‘‘हम इस लायक नहीं कि एक अदद नर्सिंग होम खोल दें।’’

‘‘अम्मा नर्सिंग होम खोलना कोई हंसी-मजाक नहीं है,’’ कह कर बड़ा अम्मा को चुप करा देता। बड़ा बहुत कुछ देख रहा था, परिवार में अम्मा की उपेक्षा का बढ़ता ग्राफ भी महसूस कर रहा था। अम्मा ने दोबारा जिक्र किया तो चिढ़ कर बड़ा बोला, ‘‘जिसे खोलना है, खोल ले। आप क्यों परेशान हो रही हैं। मैं प्रोफेसर हूं, कल स्कूल खोलने की बात करूं तो क्या आप मेरे लिए स्कूल खुलवाएंगी। अम्मा, अब सोचो मत, आराम करो।’’

दरअसल, बड़ा छोटे के तौर-तरीकों से अप्रसन्न था। जब भी छुट्टी में आता, घर में घुसने की कोई सूरत नहीं दिखती। अंदर से बंद होता या बाहर से। ऊपर आता तो अम्मा वहीं मिलतीं। तो अम्मा भी निकल गयीं अब, यह बड़े के लिए असहनीय होता था। एक बात और थी, जिससे बड़े का मन ज्यादा खिन्न हुआ। छोटे ने एक छोटा-मोटा क्लीनिक घर में खोला था। मरीजों का तांता लगा रहता था, लेकिन डाक्टरी पेशे में जो प्रतिबद्धता चाहिए, वह उसमें नदारद थी। यार-दोस्त, सैर-सपाटे उसे समय सारिणी से नहीं बांध पाते। मरीज परेशान हो जाते थे। परिचारक का खर्चा अलग। क्लीनिक तो संभलता नहीं, नर्सिंग होम क्या संभालेगा।

बड़े की बेरुखी के बावजूद मकान को नर्सिंग होम बनाने की सलाह दे डाली, ‘‘दिल छोटा ना कर, तेरे पिता जी का मकान है, इसमें खोल नर्सिंग होम। बहुत जमीन है, तेरे भाई उसमें बना लेंगे मकान।’’ छोटे को बात जंच गयी। लोन की जानकारी हासिल की और मन बना लिया। अब नीचे मकान में नर्सिंग होम खुलेगा तो मकान खाली करना पड़ेगा। अम्मा खुल कर तो नहीं बोल पायीं, लेकिन दबी आवाज में बड़ी से कह दिया, ‘‘नीचे नर्सिंग होम होगा तो ऊपर डॉक्टर का रहना जरूरी है। सब थोड़ा-थोड़ा करेंगे, तभी तो कोई बड़ा काम होता है।’’

बड़ी बहू को अम्मा की बात समझने में जरा भी समय नहीं लगा। अम्मा उसे मकान से जाने के लिए कह रही हैं। नीचे खाली करने के चक्कर में पुराना पुश्तैनी सामान पहले ही ऊपर आ गया था। बड़ी वैसे ही भरी हुई थी, अम्मा की मंशा भांपते ही टका सा जबाव दे दिया, ‘‘आपने कहा था ना कि बहुत जमीन है, भाई मकान बना लेंगे। मकान बनाना पड़ेगा अब। जब मकान बना लेंगे, तब जाएंगे यहां से।’’

छोटा पड़ोस में ही किराए के मकान में चला गया। परिवार और सामान सब चला गया। अम्मा यहीं छूट गयीं। कुछ दिनों तक नीचे खटर-पटर, ठोका-ठाकी होती रही। बरामदा बंद हो गया। कहीं रोशनदान चीने गए, कहीं डार्क रूम बनाया गया। बाहर दो टॉयलेट भी बने। महीने भर में ओपीडी, ओटी और चार बेड का नर्सिंग होम बन गया। गेट, दीवार व मकान में जगह-जगह साइन बोर्ड सज गए। एक गली के नुक्कड़ पर भी लगा दिया था।
अम्मा भी पुराने सामान के साथ ऊपर आ गयीं थीं। रात में नीचे अस्पताल के बेड में सो जातीं। अभी कोई भर्ती नहीं थी। चारों बेड अम्मा के थे। अम्मा का नहाना-सोना नीचे ही था। सुबह उठ कर परिचारक के आने से पहले ही अम्मा झाड़-पोंछ कर देतीं। दिन ऊपर कटता। अम्मा एक सपने के साथ जीने लगीं। मगर अफसोस, अम्मा में जो उत्साह था, वह छोटे में गायब था। मरीज आते, इंतजार करते फिर थक कर चले जाते। यह दृश्य आम हो चला। जल्दी ही सच मुंह चिढ़ाने लगा। नर्सिंग होम, क्लीनिक वृत्तांत का दूसरा संस्करण हो गया। साल गुजरते-गुजरते परिचारक का दिखना बंद हो गया। साजो-सामान दाएं-बाएं भेज दिया गया। दो-एक बोर्ड भी उतर गए। छोटा किराए से अपने घर आ गया। सब पूर्ववत हो गया। सब फिर से मकान में घुस गए। बस अम्मा ना घुस पायीं, बाहर ही रह गयीं। बच्चों की जरूरत के हिसाब से उनके पास रहने लगीं। साल भर तो हैदराबाद रह आयीं। मंझली बहू का गॉल ब्लैडर का ऑपरेशन हुआ था। उसके बाद मंझला रिटायर हो कर देहरादून आया तो ऊहापोह हो गयी कि कहां जाए। किस्मत से छोटी बहन का नया-नया मकान बना था, फिनिशिंग चल रही थी। घर से दूर भी ना था। ‘‘भाई, हमारा मकान है ना, आप कहीं नहीं जाओगे। हम तो अभी उधर आ नहीं रहे,’’ छोटी और उसके पति ने जोर दे कर कहा तो मंझले को टेक मिल गयी। बिना समय गंवाए पैतृक जमीन से मिले अपने हिस्से में उसने मकान बना दिया और छोटी बहन के प्रति अपना स्नेहाभार प्रकट कर साल निकलते-निकलते अपने मकान में आ गया। बड़े का घर वहां पहले से था। उसे रिटायर हुए 3 वर्ष हो गए। छोटे ने भी पुश्तैनी मकान से चिपका कर नए ढंग का किचन, बेडरूम और टॉयलेट बना कर मकान का विस्तार कर लिया। अब तीनों बेटे एक ही परिसर में आ गए। अम्मा बारी-बारी सबके पास रहने लगीं। दिक्कत यह थी कि उनके दैनिक उपयोग की चीजें बिखर गयीं। ऐन वक्त में तीनों घरों में उनकी ढूंढ़ मच जाती। गरमी के कपड़े किसके घर हैं तो जाड़े के कपड़े कहां ! उम्र सबकी हो रही थी, याद नहीं रहता। अम्मा के हाथ जो आता, उससे काम चलातीं।

वैसे अम्मा बिलकुल ठीक थीं। बयासी से ऊपर थीं, मगर चलती-फिरती थीं। छह साल पहले मंझले के यहां एक हिलती कुरसी पर बैठीं तो गिर गयीं। जाने कैसी चोट लगी कि फिर पहले जैसी नहीं हो पायीं। अस्पताल में भरती रहीं। तीनों बेटों के चक्कर लगते रहे, जेबें भी खुलीं। अम्मा पहली बार ऐसी बीमार या घायल हुई थीं। घर में भूचाल आ गया। बेटियां उमड़ी चली आयीं। तब से अम्मा की 4-4 महीने के हिसाब से तीन घरों की परिक्रमा चल रही है। हर बार बहुएं सोचती हैं, यह आखिरी दौरा होगा, चलो निबट गए। मगर अम्मा सबको गलत साबित करते-करते 90 बरस में प्रवेश कर गयीं। अब बेटे 70 से ऊपर चले गए और बहुएं 65 से ऊपर। ‘हमारी भी तो उम्र हो गयी, सड़सठवां लग जाएगा अगले सितंबर से,’ साल भर पहले बड़ी के मुख से सुना था।

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रह-रह कर सेविका की बात उठने लगी, पर सहमति नहीं बन पायी। अम्मा असहाय होती गयीं। व्हीलचेअर पर आ गयीं। टट्टी-पेशाब की सुध-बुध खोने लगीं। बहुओं का धीरज टूटने लगा। उनकी जबान तीखी से भी अधिक कसैली होने लगीं, ‘मुक्ति भी नहीं मिल रही इनको। हमें मारेंगी पहले...’ जैसे वाक्यों ने जिह्वा पर आसन जमा लिया। एक-दो बार और संभलने के क्रम में गिर गयीं तो भय हो गया। सोते-सोते चिल्ला पड़तीं, ‘मैं गिर गयी। मैं गिर गयी।’ पहले-पहले तो घर वाले दौड़े फिर लापरवाह हो गए। इसी गफलत में एक बार सचमुच गिरीं तो देर तक पड़ी रह गयीं। वैसे वे ठीक हैं, खाना समय से मिल जाना चाहिए। स्वाद भी जीभ पर है, पनीर आज भी उसी चाव से खाती हैं। उनकी यह बात बहुओं को चिढ़ा देती। मुंह पर ही बोल देतीं, ‘‘टनों खा गयी हैं आप। अब क्या हमें खाएंगी। कभी तो कहो, आज मन नहीं है। साथ वाले कब के चले गए। इतनी लंबी उम्र भगवान किसी को ना दे।’’

अम्मा शायद बात को पकड़ नहीं पातीं या फिर इतनी आदी हो गयीं कि कुछ बोलतीं नहीं, निर्विकार भाव से कटोरी और प्लेट साफ करती रहतीं। बड़ा सब देख रहा था। बहुएं इस कदर बेबाक हो गयीं कि किसी के सामने भी अम्मा का पानी उतारने में गुरेज नहीं करतीं। छोटे के यहां अम्मा को 4 महीने होने को हुए तो उसने अम्मा का सामान समेटना शुरू कर दिया। लेकिन बड़े ने ऐलान कर दिया, ‘‘अब अम्मा कहीं नहीं जाएंगी। वह अपने घर में रहेंगी, उनके लिए फुलटाइम मेड रखी जाएगी। वह हम पर निर्भर नहीं हैं, उनकी पेंशन है। कम पड़ेगी तो हम देंगे। चार-चार महीने हम बारी-बारी से उनकी देखभाल करेंगे। अब अम्मा नहीं, हम चक्कर काटेंगे। बहुत हो गया। अम्मा का सारा सामान एक जगह रहेगा।’’

‘‘भैया, सारे मकान अम्मा के हैं। अम्मा कहीं भी रह सकती हैं,’’ मंझला बोला।

‘‘हां, मकान तो सब उनके हैं, पर बहुत समय से देख रहा हूं कि वे चकरघिन्नी बन गयी हैं। बस अब और नहीं, अम्मा कोई उपग्रह नहीं हैं कि हमारे चक्कर काटेंगी। वे सूरज हैं। अब से हम उनके चक्कर काटेंगे।’’