Friday 09 October 2020 04:36 PM IST : By Pushpa Bhatia

आडंबर

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मां जब तक जीवित रहीं, उनके बेटों ने उनकी जिम्मेदारी से किस तरह मुंह मोड़ा, यह शांता अच्छी तरह जानती थी। फिर उनकी मृत्यु के बाद दान-पुण्य का यह अाडंबर क्यों?

कितनी नेक महिला थीं ममा ! मिलनसार, परोपकारी और हंसमुख ! राग-द्वेष तो जैसे छू ही नहीं गया था। मृत्यु के समय भी उनका चेहरा कैसा शांत और निर्विकार था।

‘‘शी वॉज ए ग्रेसफुल लेडी।’’

‘‘सचमुच, ममा वॉज ग्रेट। जैसे कायदे और सम्मान से वे जीती थीं, उसी कायदे और सम्मान से उनका अंतिम संस्कार भी होना चाहिए।’’

शांता के कान में अपने भाई-भाभियों के ये शब्द हथाैड़े से बज रहे थे। क्या मरने के बाद इंसान का ओहदा इतना ऊंचा हो जाता है जीते जी ममा को कदम-कदम पर पीडि़त और अपमानित करनेवाले ये सब एकाएक इतने सहृदयी कैसे बन गए कि उनका गुणगान करते नहीं अघा रहे।

ड्रॉइंगरूम के फर्श पर चिरनिद्रा में सोयी ममा एेसी लग रही थीं, जैसे बरसों का थका देनेवाला सफर तय करके राहत की सांस ली हो उन्होंने। सिरहाने गेहूं के ढेर पर देसी घी का जलता हुअा दीपक रखा था। अगरबत्तियों की भीनी-भीनी सुगंध से पूरा कमरा सुवासित था। कुछ ही समय में पूरा घर मेहमानों से भर गया। चाची, ताई, बुअा, मौसी खबर मिलते ही अपने अपने बाल-बच्चों के साथ पहुंच गयी थीं। घर में भीड़ तो थी, पर एक अजब सी खामोशी थी। कहीं बुअा-चाची की कानाफूसियां थीं, तो कहीं मर्दों का जमावड़ा। बस नहीं थी तो ममा ! शांता के विवाह के समय लोगों की अावभगत करती ममा, एकांत में बेटी के विछोह में स्नेह विगलित दुख के आंसू पोंछती ममा ! भंडार से सामान निकालती ममा !

छोटी सी थी शांता तब। पापा के साथ सामाजिक पार्टियों में आती-जाती, क्लबों, दाेस्तों, गोष्ठियों के बीच उठती-बैठती, समय से पहुंचती, पिकनिक, सैर-सपाटों वगैरह में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती ममा का दपदप करता चेहरा उसे आज भी याद है। 3-3 बेटों की मां होने का अभिमान, इतने बड़े चीफ इंजीनियर की पत्नी होने का अभिमान। हर आगंतुक का सम्मान भी इतना करतीं कि वह ढेरों आशीषें देता हुआ जाता। ममा एक ही बात कहतीं, ‘‘भैया, एक मेरे माथे की बिंदिया चमकती रहे और दूसरे राम, लक्ष्मण, भरत जैसे मेरे तीनों बेटे दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करें।’’

लेकिन देनेवालों के आशीष शायद फल ही नहीं पाए, क्योंकि भरी जवानी में ही उनकी बिंदिया पोंछ दी गयी। पापा के पीछे दौड़ने की आदी ममा एकदम से असहाय हो गयीं। ना जाने कितनी रातें उन्होंने यही सोचते और छटपटाते हुए काटीं कि दिन-वर्षों की जर्जर नाव खेने के लिए मजबूत पतवारें कहां से लाएंगी। दुश्चिंताअों और कम खाने-पीने से उनका चेहरा समय से पूर्व ही पक गया था। बस सोचना और चुप रहना। शहर में अनगिनत रिश्तेदार मौजूद थे, लेकिन महज सौजन्य की खातिर भी कोई नहीं आता था। सच्चे अर्थों में कोई आत्मीय भी तो नहीं था। पापा की तेरहवीं के बाद तो किसी ने खोज-खबर तक नहीं ली। बहुत सी काली परछाइयां, उदासी के ढेरों वृत्त, पूरे घर के कोल्हू को चलाने में पस्त सांसें।

फिर कुछ ही दिनों में उनका दूसरा ही रूप दिखायी देने लगा, जैसे किसी ने उनमें प्राण फूंक दिए हों। बिना पिता के 4-4 बच्चों को पालने के लिए जो जीवट चाहिए, वह ना जाने कहां से उनमें उतर आया। संघर्ष की चट्टान पर उम्र को कसते हुए उन्होंने हार नहीं मानी। बड़े भैया को डॉक्टर, मंझले भैया को इंजीनियर और छोटे विक्रम को वकील बनाने में जुट गयीं वे।

शांता के लिए पापा के एक मित्र ने अपने सीए बेटे के लिए हां कर दी, तो इससे निवृत्त हो ली थीं। शांता अपनी गृहस्थी में मगन हो गयी और तीनों भाई अपने-अपने कैरिअर में, फिर उनका भी ब्याह हो गया।

जब तक ममा की जरूरत थी, तब तक परदा पड़ा रहा, लेकिन बीवियों के आते ही संपत्ति का विवाद शुरू हो गया। वकीलों ने अपनी जेबें गरम कीं और किसी तरह मामले को निपटाया गया। बड़े भैया अपना हिस्सा ले कर सिविल लाइंस शिफ्ट हो गए और वहीं पर अपना क्लीनिक भी खोल लिया। उन्हीं की देखादेखी मंझले भैया भी एक थ्री बीएचके का फ्लैट ले कर शिफ्ट हो गए। विक्रम और उसकी पत्नी ने स्वेच्छा से पापा के इसी पुश्तैनी घर में रहने का निर्णय ले लिया था।

संपत्ति तो सबने बांट ली, मां को कौन रखे? बड़ी भाभी बोलीं, ‘‘माता-पिता को रखने का फर्ज छोटे बेटे का होता है। ममा शुरू से ही इस घर में रही हैं अतः उन्हें विक्रम के पास ही रहना चाहिए।’’

इस पर छोटी भाभी तुनक कर बोली, ‘‘यह किसी कानून की किताब में तो लिखा तो नहीं है कि छोटा बेटा ही मां को संभाले। जब तीनों बेटों को एक सा पाला है, एक सा व्यवहार किया है, संपत्ति दी है, तो मां को संभालने का दायित्व भी सभी का होना चाहिए। मंझली भाभी धीरे से बोलीं, ‘‘आप दोनों ही आपस में निबटाएं, हमें क्यों बीच में घसीट रहे हैं।’’

जब ममा की तीनों बहुअों में से एक बहू ने भी उन्हें रखने के लिए सहर्ष हामी नहीं भरी, तो बड़े भैया ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, ‘‘एेसा करते हैं बारी-बारी से ममा को हर एक के पास एक-एक महीना रहने दें। अगले महीने दूसरा स्वयं आ कर उन्हें अपने घर ले जाए।’’

विक्रम की बीवी तो फौरन तैयार हो गयी, बड़ी भाभी ने भी मन मसाेस कर प्रस्ताव मान लिया, लेकिन मंझली भाभी बड़ा कुनमुनायीं। बमुश्किल अलग घर-गृहस्थी बसा कर वे सुख से जिंदगी जीने के अपने सपने देख रही थीं। अब हर तीसरे महीने यह जबर्दस्ती की मुसीबत वे क्यों कर झेलतीं। वैसे भी उनकी ममा से पटती भी नहीं थी। छोटी-छोटी बातों पर झड़प या तकरार हो ही जाती थी। बौखला कर बोलीं, ‘‘आप लोग अपने निर्णय जबर्दस्ती हम पर क्यों थोप रहे हैं, एक बार ममा से पूछ तो लीजिए।’’

परोक्ष में मंझली भाभी ने काफी समझदारी से काम लिया था, क्योंकि वे जानती थीं कि ममा की विक्रम और उसकी पत्नी से अच्छी बनती है, इसीलिए वे उन्हीं के साथ रहना पसंद करेंगी और ममा ने अपनी स्वीकृति दे भी दी थी।

सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित हुआ। महीने की हर पहली तारीख को दोनों भाई ममा की मेंटेनेंस का खर्चा आधा-आधा करके विक्रम की बीवी की हथेली पर रख दिया करेंगे और इस तरह दोनों भाइयों-भाभियों ने अपने-अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली।

शांता को याद अाया, ममा कहा करती थीं, ‘‘एक तेरी ही चिंता है री शांता, बाकी तो मेरे तीनों बेटे हैं। इनके कंधों पर चढ़ कर चली जाऊंगी, तो स्वर्ग के द्वार खुले मिलेंगे।’’

स्वर्ग-नर्क तो किसने देखा फिलहाल ममा तीनों बेटों के बीच बंट गयी थीं। शांता कभी छुटि्टयों में मां से मिलने आती, तो बुझे मन से लौट जाती। विक्रम की बीवी ममा से एेसा कटुतापूर्ण व्यवहार करती कि उससे ममा की दुर्दशा देखी नहीं जाती थी। बात-बेबात टोकना जैसे उसका शगल हो गया था। कभी कहती, ‘इतना सारा तेल सिर में डाल लिया है। चादर-तकिए का क्या हाल होगा।’ कभी कहती ‘पता नहीं कितनी बार साबुन से हाथ-मुंह धोती हैं। अब इस उम्र में इतना बनने-संवरने का ना जाने क्या शौक चढ़ा है।’
कैसा बुरा लगता था। मां से मिलने का लोभ ही था, जो नैहर की इन गलियों में खींच लाता था उसे। समझ नहीं पाती थी ममा के जिस व्यक्तित्व का रुअाब दूसरों पर बरसों तक पड़ता रहा था, वह अपने ही घर में कहां गुम हो गया था। कभी-कभी इन व्यंग्यबाणों से तंग अा कर ममा का मन करता, बड़े या मंझले भैया के घर हो अाएं, पर कोई बुलाता तब तो जातीं।

एक दिन विक्रम भैया का बेटा सनी टॉफियां खा रहा था। ममा ललचायी नजरों से उसे देख रही थीं। शांता दूसरे कमरे में कपड़े रखने गयी, तो अचानक उसने जो सुना, उस पर उसे विश्वास ही नहीं हुअा। वह ममा ही थीं, जो सनी से टॉफी मांग रही थीं, ‘‘एक टॉफी दे दे सनी।’’

‘‘बड़ी मां, तुम्हारे दांत खराब हो जाएंगे।’’

‘‘मेरे दांत तो हैं ही नहीं पगले, खराब क्या होंगे।’’

‘‘अच्छा ठहरो, मैं मम्मी से पूछ कर अाता हूं।’’

‘‘एे शैतान, मम्मी से पूछेगा, तो क्या वह मुझे देगी।’’

‘‘पर मम्मी से पूछे बिना दूंगा, तो वे हम दोनों को डांटेंगी।’’

आगे की बात सुनने की सामर्थ्य शांता में नहीं थी। शाम को बाजार जा कर उसने ढेर सारी टॉफियां खरीदीं और घर लौट अायी। दुनिया की भूख मिटानेवाली अन्नपूर्णा एक टॉफी के लिए तरस रही हैं। ममा के पास टॉफियां रख कर बोली, ‘‘बच्चों के लिए लायी हूं, तुम बांट देना।’’

ममा की नजरें झुक गयीं। शायद वे समझ गयी थीं कि सुबह का वार्तालाप बेटी ने सुन लिया है, लेकिन फिर भी वे बेटे का पक्ष लेना नहीं भूली थीं।

‘‘शाम को विकी आएगा, तो उससे पैसे ले लेना। शांता, तू इस घर की बेटी है, तेरा पैसा इस घर में नहीं लगना चाहिए।’’

हंसी आयी शांता को। कहां का पैसा और कहां का विकी ! जो विकी तुम्हारे आंचल की छांह में पनाह मांगता था, तुम्हारे इर्दगिर्द गलबहियां डाल कर सोता था, वह ना जाने कहां गुम हो गया। अब वह अपनी पत्नी का पति है, 2 बच्चों का पिता है। बड़ा हो गया है तुम्हारा बेटा। शांता क्या जानती नहीं, विकी अब अपनी ममा की छाया से भी दूर भागता है। संवादों का माध्यम तो अब घर का नौकर कानाराम ही हो गया है। ममा का खाना तक उसी के हाथ भिजवा दिया जाता है। ममा बेचारी कभी तो अबोध बालक की तरह चुपचाप खा लेतीं, कभी जिद पर उतर आतीं, ‘‘हमें नहीं खानी ये बेस्वाद दाल, मरा ना कोई बघार ना कोई छौंक। घासफूस की रोटियां और बिना घी-तेल-मसाले की सब्जी। हम तो एेसा स्वादिष्ट भोजन पकाते थे कि खानेवाले उंगलियां चाटते रह जाते थे। ये बीमारों वाला खाना मेरे गले से तो नहीं उतरता।’’ लेकिन कानाराम ममा की शिकायत सुनने के लिए ठहरता ही कब था। वह भी जानता था भूख से बेहाल मां जी वही थाली भी चट कर जाएंगी।

जबसे विक्रम की पत्नी का साम्राज्य इस पूरे घर पर स्थापित हुअा है, ममा चिड़चिड़ी होती जा रही थीं। किसी की हर गतिविधि पर अंकुश लगाया जाएगा, तो इंसान चिड़चिड़ाएगा ही। और कुछ नहीं तो आंगन में बैठी ममा कई बार बेवजह ही चिल्लाने लगतीं, ‘‘बहू, ज्यादा सीटी ना लगाना, तुम्हारे कुकर में दाल लप्सी सी बन जाती है।’’ कमरे के अंदर बैठी अकेली ममा अंदाजा लगा लेतीं अब सब्जी कट रही होगी। ‘अरे कानाराम। भिंडी धो कर सुखा लेना, तभी कुरकुरी बनेगी। कल बैंगन-आलू के एक से टुकड़े कर दिए थे, तभी तो बैंगन गल गए, आलू कच्चे ही रह गए।’ जले बघार की गंध अाती, तो ममा तड़प कर रह जातीं। विकी कैसे खाएगा, एेसी दाल तो उसे पसंद नहीं है।

ममा की चिंता शुरू हो जाती, पर विडंबना यह होती कि विकी आ कर उसी दाल को बहुत सोंधा और स्वादिष्ट बताता और ममा के मुंह पर ताला पड़ जाता। एेसे समय में ममा की निरीहता और बढ़ जाती। वे समझ गयी थीं कि अब उनके अस्तित्व का उनके परिवार के लिए कोई महत्व रह ही नहीं गया है। अकेलेपन और सूनेपन से उन्हें खौफ सा महसूस होने लगा था। इस खौफ से निजात पाने के लिए वे जब-तब ईश्वर से प्रार्थना करतीं कि उन्हें अब इस संसार से उठा ले और ईश्वर ने उनकी सुन भी ली।

ममा को भयंकर हार्ट अटैक अाया। तीनों भाइयों ने मिल कर उन्हें शहर के सर्वोत्तम नर्सिंग होम में दाखिल करवाया। दोनों बड़ी भाभियां बारी-बारी से अस्पताल में रहीं। विक्रम की पत्नी भी स्वादिष्ट पकवान डिब्बों में भेज कर ममा की सेवा में अपना योगदान देती रही। मंझली भाभी मौका मिलते ही कह डालतीं, ‘‘अब जैसी भी हैं, हमारी मां ही हैं ना। सेवा करना हमारा फर्ज है और हम कर भी रही हैं, बाकी उन्होंने जैसा व्यवहार हमारे साथ किया है, हम ही जानते हैं...’’ लोग हैरानी से उन्हें देखते, अटकलें लगाते और चले जाते। ना जाने ममा ने कौन सा कहर ढाया था इनके ऊपर, शांता सोचती रह जाती।

ममा ने 2 दिन बाद ही दम तोड़ दिया था। आननफानन में उनका निर्जीव शरीर अस्पताल से स्थानांतरित कर घर ले आया गया। मोहल्ले और समाज-बिरादरी के लोगों का जमघट लग गया। तीनों भाभियां जोर-जोर से विलाप कर रही थीं। तेरहवीं के दिन महापात्र को सामान देते समय मुंह में दुपट्टा दबा कर सुबक पड़नेवाली शांता पीछे से आते समवेत रुदन को सुन कर हिचकियां दबाते हुए बड़े भैया से बोली, ‘‘भैया, आपने इन सबको ढोंग दिखाने के लिए क्यों बुला लिया। ये वही बुअा-चाची हैं, जो जिंदगीभर ममा को ताने मार-मार कर छीलती रही हैं।’’

पास ही संजीव भैया खड़े थे। अपना गुस्सा दबा कर बोले, ‘‘क्या कहें क्यों बुला लिया। ना बुलाते, तो शिकायतों का अटूट सिलसिला हमें उम्रभर जीने नहीं देता। हमें भी समाज में रहना है और यही लोग समाज हैं।’’ आज के सगे भाई-बहन कल रिश्तेदार और परसों समाज बन जाते हैं।

‘‘शांता, जरा गुड़िया को हलवाई से दो लड्डू दिलवा दे। कब से रो रही है,’’ पसीना पोंछती बड़ी भाभी आयीं और गुड़िया को शांता के हवाले करके कमरे से बाहर निकल गयीं।

‘‘भाभी, अभी रो कौन रहा था,’’ शांता ने तनिक हैरानी से मंझली भाभी से पूछा।

‘‘अरे, वह मैं ही थी,’’ मंझली भाभी बोलीं।

‘‘इस मौके पर जब कड़ाही में पहली पूरी पड़ती है, तो रोया जाता है। बड़ी भाभी जरा बाहर निकल गयी थीं, इसीलिए मुझे ही पहली पूरी डालने की रस्म निभानी पड़ी।’’

जीते जी दंगम दंगा मरे पछाए गंगा। शांता का चेहरा गुस्से से तमतमा गया, लेकिन ममा की तीनों बहुएं पल्ले से सिर ढांपती कमरे से बाहर निकल गयी थीं। कुछ ही देर में उनके औपचारिक रुदन का स्वर वातावरण में फैल गया। कुछ औरतें उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्हें चुप कराने लगीं।

तेरहवीं के दिन तीनों भाइयों ने बढ़चढ़ कर खर्चा किया। तरह-तरह की मिठाइयां, नमकीन, हलवा, पूरी लोगों को खिलाए गए, पंडितों को मुंहमांगी दक्षिणा दी गयी, अनाथालयों में दान दिया गया। जीते जी ममा को सम्मान, सेवा, आदर, प्रेमभाव ना देनेवाले ये तीनों भाई-भाभियां कल शायद अपने-अपने दायरे और अपनी-अपनी दुनिया में कैद हो जाएं, लेकिन तब क्या उन्हें उस निरीह वृद्धा का जो दुर्भाग्य से उनकी मां थीं, ख्याल नहीं अाएगा।

दया आ गयी शांता को उनकी नासमझी पर। बडे़ भैया और मंझले भैया हिसाब कर रहे थे। 200 कंबल भिखारियों को दिए, अनाथाश्रम 1000 रुपए, ब्राह्मण भोज पर 5000 रुपए लगे, शैया दान पर 9000 रुपए। कुल...

‘‘भैया, छोड़ो पैसे का चक्कर, मैं अभी 20 हजार का चेक काट देता हूं। बाकी आप देख लेना,’’ यह विक्रम था। ममा का छोटा लाड़ला बेटा। समाज के सामने इंसानियत और शराफत का मुखौटा चढ़ाए तीनों भाई स्वयं में फूले नहीं समा रहे थे। हंसी आयी शांता को। जीते दिए न कौरा मरे पछाए चौरा। उसकी आंखों के सामने सनी से टॉफी मांगती ममा की तसवीर घूम गयी।