भरे मन से रिसीवर रख कर मैं सोफे पर ही निढाल सी लेट गयी, मां का फोन था। आजकल मां से बात कर मेरा सिर भारी होने लगता है, मन करता है फोन ही ना उठाऊं। मां का ही क्यों, विनय भैया, सुधा दी किसी से बात करने का मन ही नहीं होता। मन ही मन कलपती घूमती रहती हूं इधर से उधर, निखिल मेरे मन की परेशानी समझते हैं। हमारे दोनों बच्चे यशस्वी और सिद्धी बड़े हो रहे हैं, वे दोनों भी मुझे बहलाने की कोशिश तो करते हैं, पर मेरे मन की यह उदासी दूर होने का नाम ही नहीं ले रही। कई बार सोचती हूं अगर मैं भी मां, दी और भैया की तरह मुंहफट, रूखे स्वभाव वाली, कुछ पत्थर दिल इंसान होती, तो शायद मैं इन बातों पर दुखी ना रहती, जो बातें सालभर से मुझे उदास कर रही है। काश, पापा होते!
मैं 13 साल की थी जब वे नहीं रहे। वे अध्यापक थे, मां भी अध्यापिका थीं, कुछ दिन पहले रिटायर हुई हैं। दीदी मेरठ में अपने बेटे-बहू के साथ खुश और व्यस्त हैं। मां, विनय भैया और नीता भाभी, उनके दोनों बेटे सहारनपुर में जिस घर में रहते हैं, मेरा जन्म वहीं हुआ था।
मैं यहां मुंबई में अपने परिवार में हंसी-खुशी ही जी रही थी, पर मेरी दिन-रात की परेशानी का सिलसिला तब शुरू हुआ, जब कुछ दिन पहले मां का फोन आया। कह रही थीं, ‘‘अब बहुत हो गया, विनय और नीता का इलाज मैं करके रहूंगी। नीता को क्या लगता है, मेरे साथ बुरा व्यवहार करके इस घर की मालकिन बन जाएगी। यह मकान इतनी आसानी से नहीं मिलेगा उसे।’’
मैंने कहा था, ‘‘पर इतना गुस्सा होने की क्या बात है मां, छोटे-मोटे झगड़े तो हर घर में चलते ही रहते हैं।’’
‘‘मुझे कुछ नहीं पता, मैं उनका ऐसा इलाज करूंगी कि याद रखेंगे पति-पत्नी।’’
मैंने उन्हें हंसाने की कोशिश की थी, ‘‘पति-पत्नी! मां वे आपके बेटे-बहू हैं।’’
पर मां को मेरी कोई बात समझ ही कहां आयी कभी, उनकी नजर में मैं हमेशा से इमोशनल फूल हूंं, पापा की तरह। हो सकता है मां सच कहती हैं। मुझे उनका यह कहना कभी बुरा नहीं लगा, उलटा मुझे हमेशा खुशी होती है कि मैं अपने स्वर्गीय पापा की तरह भावुक, शांत और अपने काम से काम रखने वाली इंसान हूं।
मां के फोन के बाद भैया का फोन आया था, ‘‘जया, मां को पता नहीं कितना घमंड है इस मकान का, उनके तानों से दुखी हो गया हूं।’’
मैंने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, उनकी बात एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल दिया करो, आखिर मां हैं हमारी।’’
‘‘क्या मां ऐसी होती है जया, हर समय गुस्सा, कलह और ताने सुनाने के मूड में रहती हैं।’’
मां-बेटे का झगड़ा दीदी के पास भी पहुंचा, तो उन्होंने भी दोनों को काफी समझाया था और आखिर में आपसी झगड़े और तूतू-मैंमैं से घर के आंगन के बीच में दीवार खड़ी हो गयी, जो उस घर में नहीं मेरे दिल पर एक बोझ की तरह बनी।
डोरबेल बजी, तो मैं वर्तमान में लौटी। निखिल ऑफिस से आ गए थे। आते ही उतरा चेहरा देख कर बोले, ‘‘क्या हुआ, फिर कोई फोन आ गया मायके से।’’
मुझे हंसी आ गयी, ‘‘बहुत अच्छे, कैसे पता चला।’’
‘‘अरे, मेरी पत्नी को मायके की पंचायत के अलावा और गम ही क्या है। सच जया, किसी घर में मैंने इस तरह की बातें नहीं सुनीं, बड़ा अजीब लगता है।’’
मैं सिर हिलाते हुए उनके लिए चाय बनाने किचन की तरफ बढ़ गयी। निखिल ठीक ही तो कह रहे हैं, उन्हें तो अजीब लगता ही होगा। मेरे ससुराल में तो जब तक सास-ससुर जीवित रहे, शांति और प्यार ही रहा सबके बीच, अब भी देवर और ननदों से हमारे संबंध मधुर हैं। मायके से ज्यादा अपनापन प्यार और शांति मुझे ससुराल में मिली है, कोई सुनेगा तो उसे यकीन नहीं होगा, पर सच यही है।
निखिल फ्रेश हो कर किचन में ही आ गए, ‘‘क्या सोच रही हो।’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘क्या बात हुई मां से?’’
‘‘बस वही जिद कि घर के हिस्से कर दूंगी, तो पता चलेगा विनय को।’’
‘‘क्या!’’ चौंके निखिल, ‘‘अब तो दीवार है ना बीच में, अब क्या हिस्से की बात।’’
‘‘मां कह रहीं थी कि दीवार खड़ी होने के बाद भी उन्हें शांति नहीं मिल रही है, अब वे अपना हिस्सा बेच कर कहीं और रहने चली जाएंगी।’’
‘‘ओह नो, यह क्या-क्या होता रहता है वहां।’’
इतने में मेरा मोबाइल बज उठा। सुधा दीदी का फोन था। निखिल की तरफ देखा, तो उन्होंने कंधे उचका दिए। दीदी कह रही थीं, ‘‘जया, मां का फोन आया था। मैंने मां से साफ-साफ कह दिया है मकान बिकेगा, तो एक हिस्सा मेरा भी होगा।’’
मैं बुरी तरह हैरान हुई, ‘‘क्या दीदी, ऐसा कहा आपने।’’
‘‘तो क्यों ना कहूं, कानून है यह, तेरा भी है चौथा हिस्सा, छोड़ना मत। यह हक है हमारा,’’ दीदी ने कहा।
मेरी तो बोलती बंद हो गयी, यह तो मैं सोच भी नहीं सकती थी। मैं हां-हूं करती रह गयी। निखिल को बताया, तो वे मुस्करा दिए, ‘‘कई बार सोच कर हंसी आती है, कहां तुम, कहां तुम्हारे मायके वाले! इतनी अलग कैसे हो तुम उन सबसे।’’
मैं कुछ नहीं बोली, निखिल अकसर यह कहते हैं। बच्चे भी आ गए, तो मैं व्यस्त हो गयी। उनकी बातें, घर के काम, फिर चारों ने डिनर किया, फिर हम दोनों रोज की तरह थोड़ा घूम-टहल कर आए। सोने की तैयारी करने लगे, तो विनय भैया का फोन आ गया। मैंने सिर पकड़ लिया। इस समय वहां किसी से बात करने का मेरा मन नहीं था, मेरा यह समय निखिल के लिए था।
फोन उठाते ही भैया की झुंझलाहट शुरू हो गयी, ‘‘जया, दीदी का फोन आया था, कह रही थीं मकान में उनका भी हिस्सा है। बता जया, क्या कमी है उन्हें, दीदी कितनी लालची हैं, मां को समझाने की जगह उन्होंने अपने हिस्से की बात शुरू कर दी है, तू क्या कहती है।’’
‘‘भैया, मैं क्या कहूं, आप सब मुझसे बड़े हैं। मैं यह सब सोचना ही नहीं चाहती, बस यही चाहती हूं वहां प्यार और शांति हो।’’
भैया ने रूखे स्वर में कहा, ‘‘शांति और यहां! हम लोगों में से किसी के मरने के बाद ही होगी यहां शांति।’’
मेरी आंखें भर आयीं, भरे गले से यही निकला, ‘‘यह कैसी बात कर रहे हैं आप, क्या शांति से रहना इतना मुश्किल काम है दुनिया में।’’
‘‘बस, तू मुझे यह बता तुझे भी चाहिए अपना हिस्सा?’’
‘‘भैया, मुझे कुछ नहीं चाहिए।’’
‘‘पक्का।’’
‘‘हां, भैया।’’
‘‘ठीक है, अब देखता हूं मां चौथेे हिस्से का क्या करेंगी।’’ मैंने अपना सिर पकड़ लिया और मेरे फोन रखते ही जैसे ही निखिल ने मेरे सिर पर हाथ रखा, मैं सिसक पड़ी। मैं नहीं चाहती मेरे मायके की कड़वाहट का असर मेरी गृहस्थी पर हो, पर ना चाहते हुए भी जाने-अनजाने मेरे खराब मूड से घर में एक उदासी पसर ही जाती है और अब तो रात में आने वाले ये फोन हमारे बेडरूम में अजीब सा सन्नाटा फैलाने लगे हैं। वह तो निखिल बहुत अच्छे इंसान हैं, पत्नी की मनोदशा समझते हैं, हंसी-मजाक कर मूड हल्का कर ही देते हैं।
अब यही सिलसिला शुरू हो गया था, मां फोन पर कहतीं, ‘‘तुझे मेरा साथ देना है, विनय से मत कहना तुझे हिस्सा नहीं चाहिए, इससे मेरा केस कमजोर होगा।’’
मैं चौंकी, ‘‘केस?’’
‘‘हां, वकील से बात कर रही हूं आजकल,’’ मां ने कहा।
‘‘क्या मां, किन चक्करों में पड़ रही हैं, आराम से रहो ना, यह आपकी उम्र है कोर्ट-कचहरी करने की।’’
‘‘तू मुझे उपदेश देने की कोशिश मत कर, विनय और नीता की अकड़ निकालनी है मुझे।’’
दीदी फोन करती, ‘‘मां-बेटे बहुत चालाक हैं, हम हिस्सा नहीं लेंगी, तो मजे से दोनों आधा-आधा बांट लेंगे।’’
‘‘तो क्या हुआ, बांटने दो, हमें क्या करना है,’’ मैं परेशान हो कर कहती।
‘‘ऐसे कैसे बांट लेंगे, हमारा भी हिस्सा है मकान में। और तुम्हें ज्यादा दानी बनने की जरूरत नहीं है, तुझे मेरा साथ देना है।’’
भैया फोन पर कभी सख्त, कभी नरम स्वर में कहते, ‘‘तू मां से कह दे तू मुझे अपना हिस्सा देगी, मुझे पता है तू मेरा साथ देगी।’’
दिन-रात मैं घर के काम छोड़छाड़ कर इन बातों को सुनने में अपनी सारी ऊर्जा और समय नष्ट कर रही थी। मैं कभी कहीं बाहर होती, मार्केट में, किसी के घर या घर पर ही कोई जरूरी काम कर रही होती, तो मेरे फोन पर इन तीनों के फोन आते। उठाना भी पड़ता, मोबाइल कब तक नहीं उठाती।
तीनों जब चौथे हिस्से की बात कर रहे होते, तो मुझे कभी आंगन में लगा अमरूद का पेड़ याद आ रहा होता, जिसके नीचे पता नहीं कितनी बार सहेलियों के साथ घर-घर खेली थी। कभी छत पर जाने वाली सीढि़यां याद आतीं, जिन पर बैठ कर मैंने गरमियों की दुपहरी में पढ़ाई की थी। कभी बरामदे का वह कोना याद आता, जहां लूडो की महफिलें जमती थीं। कभी पापा के स्टडी रूम की वह चेअर याद आती, जिस पर बैठ कर उन्होंने मुझे पढ़ाया था। पता नहीं अपने मायके की, अपने अधूरे से बचपन की कितनी बातों को याद कर आंखें भीगती रहतीं।
मेरे ऊपर रात-दिन चौथे हिस्से को अपनी तरफ करने का दबाव डाला जा रहा था। कई दिनों से यही चल रहा था, मैं अपने इतने प्यारे रिश्तों की आपसी कलह से मानसिक रूप से बुरी तरह थक चुकी थी। एक रात मैं करवटें ही बदलती रही, मैं बहुत बेचैन थी।
अगले दिन संडे था। मैं थकी सी सुबह उठ कर नाश्ता बना रही थी, निखिल और बच्चे डाइनिंग टेबल पर मेरा इंतजार कर रहे थे कि मां का फोन आ गया। मैंने नोट किया बच्चों का मुंह लटक गया, निखिल भी कुछ गंभीर से लगे। मेरे फोन उठाते ही मां शुरू हो गयीं, ‘‘कल वकील से बात हुई मेरी।’’
मेरा मन कसैला हुआ, ना कभी कोई मेरे हालचाल पूछता है आजकल, ना निखिल और बच्चों के बारे में। आजकल बातचीत की शुरुआत ही वकील, मकान और हिस्से से होने लगी है।
आज कुछ बुरी तरह चुभा था मुझे, मां कहती जा रही थीं, ‘‘पेपर पर साइन करने तुझे आना पड़ेगा,’’ और मैं पहली बार कुछ सख्त स्वर में बोल ही पड़ी, ‘‘नहीं मां, मैं कोई साइन करने नहीं आऊंगी। मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरे हिस्से का जो आप तीनों को करना है कर लें, कोई मुझे चौथे हिस्से के लिए फोन ना करे। मेरे हिस्से का जो सुख मुझे यहां अपने घर-परिवार में मिल रहा है, मैं उसी में खुश हूं, मैं इन बातों से थक गयी हूं, मां,’’ कह कर मैंने फोन ही स्विच ऑफ कर दिया। मैंने निखिल और बच्चों पर नजर डाली, मेरे साथ साथ तीनों ने जैसे चैन की सांस ली थी।