Friday 23 October 2020 01:03 PM IST : By Rashmi Kao

शुद्ध देसी तकरार

tauliya-takrar

अपनी बात शुरू करूं, इससे पहले यह बता दूं कि मैं अपने हसबैंड को ‘जे’ कह कर बुलाती हूं। आप कहेंगे यह भी कोई नाम हुआ । तो मित्रो, पहली बात यह कि उनका स्कूल, कॉलेज और दफ्तर का नाम तो जगदीश माथुर है, लेकिन मुझे हसबैंड को परमेश्वर की पदवी देना मंजूर नहीं। दूसरे मेरा ‘जे’ यशोदा बहू और कुसुम की मम्मीवाला ‘जे’ नहीं। मेरा ‘जे’ पूरी तरह अंग्रेजी स्टाइल में डूबा ‘रा गा’ वाला ‘जे’ है। ‘जे’ फॉर जैकाल वाला ‘जे’। मेरी बात सुन कर आप मुझे भला-बुरा कह सकते हैं, पर यह तो सच है कि हसबैंड नाम के प्राणी में थोड़े गुण रंगे सियार के तो होते ही हैं। अब अगर आपको यह लगे कि मैं जरूर किसी बात से जली-भुनी बैठी हूं इसीलिए एेसा कह रही हूं, तो आप बिलकुल सही हैं।

हुआ यह कि पतिदेव अभी-अभी ‘बाय’ कह कर तेजी से ऑफिस के लिए निकले हैं और मैं सिर पकड़े कमरे में बैठी बिस्तर पर पड़े उनके गीले तौलिए को घूर रही हूं। कल जरूरी मीटिंग थी। ऑफिस जल्दी पहुंचने के चक्कर में तौलिया बिस्तर पर ही भूल गए। परसों बेटू की स्कूल बस मिस हो गयी। उसे स्कूल छोड़ना पड़ा, तो तौलिया बेड पर ही छूट गया। उससे एक दिन पहले कुछ तो हुआ था, जो गीला तौलिया मुझे फिर बिस्तर पर ही पड़ा मिला। लेकिन आज क्या हुआ है। दिल्ली का दंगल तो निपट चुका है, पर बिस्तर पर पड़े गीले तौलिए को देख कर मुझे घर में किसी नए दंगल का दखल दूर से नजर आ ने लगा।

मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आयी कि बेडरूम से बालकनी तक के साढ़े तीन कदम हसबैंड श्री पार क्यों नहीं कर पाते। सात फेरों के सात कदम दौड़ कर पूरे करनेवाले ‘जे’ गीले तौलिए या मैली कमीज को ठिकाने पर रखने के लिए कुछ कदम क्यों नहीं चल पाते। क्या रहस्य है कि बेड पर रखा गीला तौलिया रोज मुझे मुंह चिढ़ाता मिलता है। मैं भी ऑफिस जाती हूं, भागती-दौड़ती अपने तौलिए के साथ उनका तौलिया भी फैलाती हूं, पर क्यों? रोज-रोज क्यों? कल से नहीं करूंगी... बिलकुल नहीं करूंगी... पड़े रहने दो यहीं... सड़ने दो... मुझे इस निगोड़े गीले तौलिए से आ जादी चाहिए... मैं शायद ‘जे’ को सबक सिखाने के मूड में आ चुकी थी।

मैंने भी जिद पकड़ ली। आ जकल तो वैसे भी जिद करना अच्छी बात है। फिर मैं तो बीवी हूं। जिद तो इस रिश्ते का बर्थ राइट है, अच्छा असर करेगी। गीला तौलिया वहीं बिस्तर पर छोड़ मैं भी अपने ऑफिस निकल गयी।

मेट्रो में बैठी, तो मन भी दौड़ने लगा। बेतुके सवाल चमकने लगे। क्या लेडीज कंपार्टमेंट में बैठी ये सभी औरतें पति का गीला तौलिया उठा कर ही रोज ऑफिस के लिए निकलती हैं? क्या मैं घर में बिखरी चीजें उठाने के लिए ही बनी हूं... घर का फैला सामान मुझे ही क्यों नजर आ ता है... उन्हें क्यों नहीं दिखायी देता... कहीं मैं बौरा तो नहीं गयी... क्या मैं जानबूझ कर ‘जे’ से पंगा लेने लगी हूं... क्या हो रहा है मुझे... मैं दिन पर दिन बदल रही हूं क्या... मुझे लगा तौलिया तकरार कहीं बढ़ ना जाए... क्योंकि मैरिड लाइफ में टॉवल फाइट के तो कोई पॉइंट्स भी नहीं मिलते। स्कोर रख कर भी क्या करूंगी। ‘जे’ तो कोई सलमान खान भी नहीं हैं, जो टॉवल ले कर छोटा सा ठुमका भी लगा दें। क्या हमारी शादी डगमगा रही है? ‘जे’ से पूछूंगी, तो कहेंगे चलो ना मैच फिक्सिंग कर लेते हैं। तुम मंडे से फ्राइडे तक गीला तौलिया बिस्तर से उठाना और मैं सैटरडे व संडे को सूखा तौलिया बालकनी से उठा लाऊंगा। ‘शटअप’ मैंने जोर से कहा, तो बगल में ऊंघ रही महिला चौंक कर खड़ी हो गयी। मेट्रो मंडी हाउस स्टेशन पहुंच चुकी थी। मैं गीले तौलिए के ख्यालों में लिपटी हुई ही ऑफिस पहुंच गयी।

सोचा रागिनी से लंच टाइम में बात करती हूं... देखें वह क्या कहती है। यही वह वक्त होता है जब सभी लेडीज अपनी पति पॉलिसी के टिप्स आपस में शेअर करती हैं। शायद कुछ मदद मिल जाए।

लंच बॉक्स से पहले ही मैंने अपना दिल खोल कर सबके सामने रख दिया... पूछा, ‘‘क्या तुम सभी के हसबैंड गीला तौलिया बेड पर छोड़ते हैं?’’ सभी अवाक सी मुझे देखने लगीं। रागिनी में दम था, झट से बोली, ‘‘जेंडर सैलरी गैप के वक्त में यह श्री मर्दाना तौलिया महाराज की बात करना छोड़ दे। मर्दों में यह बीमारी तो हेरिडिटरी होती है, वंशानुगत, कुछ-कुछ डाइबिटीज की तरह... घर जा कर पूछना ‘जे’ के पापा ने तो क्या, पापा के पापा ने भी कभी बेड से तौलिया नहीं उठाया होगा। तुम्हारा ‘जे’ अगर प्रोग्रेसिव नहीं है, तो तुम तो प्रोग्रेसिव बनो। पड़ा रहने दो तौलिया... जहां छोड़ कर गया था वहीं से उठा लेगा। नेशन फर्स्ट के टाइम में तुम कहां तौलिया फर्स्ट करने में लगी हो।’’ लंच ब्रेक में सभी का ठहाका जोर से गूंज उठा और सभी ने अपने-अपने टॉवल किस्से वहीं ऑफिस में फैला दिए।

पर मेरी बैचेनी कम नहीं हुई। पता नहीं सुबह उठ कर किसका मुंह देखा था, शायद ‘जे’ का ही। फैसला किया एक कोशिश और करती हूं। मम्मी जी से पूछती हूं। क्या वाकई ‘जे’ के पापा और पापा के पापा, किसी ने भी अपना गीला टॉवल कभी नहीं उठाया। मम्मी जी से बात की, तो बोलीं, ‘‘तौलिया ही तो है... गीला है, तो फैला दे... सूखा है, तो तहा दे...। जग्गू का ही तो है, किसी गैर का तो है नहीं। क्यों छोटी-छोटी बातों को तूल देती है।’’ मैं और चिढ़ गयी। मैंने तय किया कि बस अब और नहीं। मुझे इस बार तो स्टैंड लेना ही है चाहे कुछ भी हो जाए। घर में आपकी सरकार है, पर फ्री फंड की इतनी आदत भी तो अच्छी नहीं। और मैं एक गीले तौलिए से हार जाऊं, यह मुझे मंजूर नहीं। कुछ ना कुछ तो करना ही होगा।

शाम होने लगी थी। ‘जे’ के घर लौटने का टाइम पास आ ने लगा। ऑफिस फ्रेंड्स के टिप्स दिमाग में धमाचौकड़ी मचाने लगे। मेरा मन मुझे समझाने में लग गया... हर शादी के अपने-अपने तौरतरीके होते हैं। यह नहीं कि ‘जे’ हाथ नहीं बंटाते। सभी मोटे-मोटे काम उनकी ही तो जिम्मेदारी हैं। सिर्फ तौलिया ही तो नहीं उठाते। लेकिन घर में हजारों छोटे-छोटे काम भी बिखरे रहते हैं, जिन्हें वे इग्नोर कर देते हैं। मुझे ये सारे काम अनपेड लगते हैं। काम के घंटे भी लंबे और काम खत्म भी नहीं होते। रोज नए-नए खड़े हो जाते हैं। छुट्टी, छुट्टी नहीं लगती। मैं सोचने लगी, मेरे आराम का टाइम कब आ एगा। दिमाग एकदम बोला, ‘‘तेरा टाइम आ एगा... सबका आता है तो तेरा भी आएगा...’’ उम्मीद पर दुनिया कायम है, पर तौलिया तो सुबह से वहीं पड़ा है, जहां ‘जे’ छोड़ कर गए थे। मैंने तौलिए को मुंह चिढ़ाया, ‘पड़े रहो बच्चू, आज तुम यहीं सड़ो। आता होगा तुम्हारा बॉस।’

तभी डोरबेल बजी। बेटू ने दरवाजा खोला, मम्मी जी ने तुरंत मुंह खोला, ‘‘जग्गू, तुमने आज फिर तौलिया नहीं फैलाया?’’ मैंने दूर से देखा मम्मी जी इशारे से मेरी नाराजगी का नक्शा खींच रही थीं और ‘जे’ मुस्करा रहे थे। मैं चिढ़ कर किचन में घुस गयी। गुस्से में चाय का कप हाथ से छूट गया। ‘जे’ किचन के दरवाजे पर खड़े हो कर मुस्कराते हुए बोले, ‘‘क्या हम कोई बात बिना कप-प्लेट तोड़े नहीं कर सकते। कम से कम घर का मूड तो नेशनल मूड से अलग हो ही सकता है। घर की बगिया को शाहीन बाग मत बनाअो, प्रिये !’’ उनकी मुस्कराहट पर मेरा गुस्सा फट पड़ा, ‘‘एेसा नहीं है कि तुम समझते नहीं, सच तो यह है तुम समझना चाहते नहीं। राइट चलते-चलते अचानक लेफ्ट मत मुड़ जाया करो।’’

मेरी बात सुन कर ‘जे’ थोड़ा चौंके और बेचारी सी सूरत बना कर बोले, ‘‘मैं लेफ्ट रहूं या राइट, सभी टर्न तुम्हारे कहे मुताबिक ही तो लेता हूं। कभी अपनी मनमर्जी नहीं करता। तुमने तो मुझे झाड़ू की सींक सा सीधा रखा है। आम आदमी हूं, आम आदमी की तरह जीता हूं।’’

‘जे’ के दिमाग में अभी भी पॉलिटिकल सर्कस जारी है, जान कर मैं खीज गयी और बोली, ‘‘तुम झाड़ू का जामा पहनो या झाड़ू की सींक बनो, मुझे कोई फायदा होनेवाला नहीं। तुम कुछ भी कर लो मेरे बर्थडे पर मुझे तोहफे में दिल्ली तो देने से रहे। मौसम बदल चुका है। फिलहाल इतना करो कि अपनी इस आदत को तलाक दो, नहीं तो मुझे छोड़ दो।’’

इससे पहले मैं कुछ और कहती ‘जे’ जोर से 3 बार तलाक-तलाक-तलाक कह कर बिस्तर पर अौंधे मुंह पसर गए और मैं ‘जे’ के मुंह पर वही बासी गीला तौलिया फेंक कर कमरे से बाहर निकल आयी।