Tuesday 15 June 2021 11:54 AM IST : By Neelam Rakesh

विजातीय बहू

हल्की गुनगुनी जाड़े की धूप में तख्त पर बैठे बैठे चारों ओर नजर घुमायी। आज कितने दिनों बाद वे इस घर की चारदीवारी के भीतर आयी थीं। यह बदला हुआ माहौल उनके मन को सुकून दे रहा था। जानती थीं रात को वापस जाना है अपने घर। पार्वती देवी ने एक लंबी सांस ली। पिछले कुछ महीनों में कितना कुछ बदल गया है। आंखें बंद करके अतीत में विचरण करने लगीं। 

‘‘राम-राम भौजी... क्या बैठे-बैठे ही सो रही हो,’’ पड़ोसिन राधा की बुलंद आवाज से चौंक कर पार्वती ने आंखें खोल दीं।

‘‘अरे... राधा... आओ-आओ,’’ मुस्कान बिखेरते हुए पार्वती ने पड़ोसिन का स्वागत किया। पास रखी कुर्सी पर आसन जमाते हुए राधा बोली, ‘‘आज तो आपको देख कर बहुत अच्छा लग रहा है। उस समय तो आपको देख कर कलेजा मुंह को आता था।’’ 

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‘‘हां, अब मैं बहुत ठीक हूं। इप्सिता ने मेरी बहुत सेवा की है।’’ 

‘‘इप्सिता ने... छोड़ाे भाभी, तुम भी कैसी बात कर रही हो... वो मेम और सेवा... भाभी, आप तो सत्य बोलने के लिए जानी जाती हैं, फिर यह लीपापाेती क्यों?’’ मुंह बना कर राधा बोली।

‘‘सत्य ही बाेल रही हूं राधा। तुम तो जानती ही हो रवि की पसंद के मैं कितना विरुद्ध थी। मैं तो सदा ही अपनी राय बेबाक ढंग से रखती आयी हूं।’’

‘‘हां, पर तुम्हारा विरोध कहां काम आया था। रवि ने शादी तो अपनी पसंद की इंजीनियर लड़की से ही की थी।’’ 

‘‘राधा, बिलकुल सही कह रही हो तुम। अब लगता है कि बेटे की उस बगावत को मैं मन से क्षमा नहीं कर पायी थी।’’ 

‘‘भाभी, कैसी बात कर रही हो... सारी दुनिया ने देखा था आपने कितने धूमधाम से रवि का ब्याह किया था। कितना तो खूबसूरत जड़ाऊ सेट मुंहदिखाई में अपनी विजातीय बहू को दिया था आपने।’’

अतीत में डूबते हुए पार्वती बोलीं, ‘‘और खूब तारीफ बटोरी थी मोहल्ले में और परिवार में। परंतु सच तो यही है कि मैं बेटे की इस पसंद को अब जा कर अपना पायी हूं... और अपनाया भी क्या उसने अपनी सेवा से मुझे जीत लिया है।’’ 

भौंचक्की सी राधा पार्वती के चेहरे पर आते-जाते भावों को देखे जा रही थी। 

‘‘राधा, सच तो यह है कि रवि की शादी के बाद मैंने एक निष्ठुर सास की तरह अपनी छोटी बहू में कमियां निकालने का कभी भी कोई मौका नहीं छोड़ा। उसके बनाए हर खाने में नुक्स, उसके किए हर काम में नुक्स...।’’

‘‘भाभी...’’ राधा की आंखों अविश्वास में तैर रहा था। होता भी क्यों नहीं, मोहल्ले की न्यूज एजेंसी कहलाने वाली राधा हर घर की अंदरूनी बातों की खोज-खबर रखती थी। फिर पाक साफ इमेज रखने वाली पार्वती भाभी के बारे में इतनी धमाकेदार खबर की उसे हवा भी नहीं लगी। 

‘‘हां राधा, सच यही है। हमेशा आदर्श का चोला ओढ़ कर मैं कहती जींस-टॉप पहननेवाली लड़की भला किसी घर की आदर्श बहू कैसे हो सकती है। परंतु राधा, हकीकत ये है कि वो बेचारी तो मेरी अच्छी बहू बनने की पुरजोर कोशिश करती रही और मैं ही आदर्श सास नहीं बन सकी... आदर्श तो छोड़ो अच्छी सास भी नहीं बन पायी।’’

‘‘पर भौजी, तुम्हारी ये नौकरीपेशा बहू तो एक साल में ही अलग हो गयी थी।’’ 

‘‘नहीं, छोटी कभी अलग नहीं होना चाहती थी। मैंने ही तीनों को अलग-अलग मकान ले कर रहने को कहा था। पता नहीं क्यों मैं ऐसा ही चाहती थी। मेरी शह पर जेठानियां भी उस पर हावी थीं।

‘‘बड़ा बेटा पुश्तैनी मकान में रहा, तो मैं उसी के साथ रही, इसलिए वह आदर्श बेटा कहलाने लगा। मंझली जब आती दूर से ही सिर पर पल्ला डाल कर आती। पूरा मोहल्ला देखता, तो वह भी आदर्श हो गयी। छोटी कभी पति के साथ कार से आती, कभी खुद कार चला कर आती। कभी सूट पहनती, कभी जींस-टॉप, तो उसके जाने के बाद हमेशा मोहल्ले में खुसरपुसर होती, जिसे मैंने कभी रोकने की कोशिश नहीं की।’’

‘‘भाभी, तुम्हारी बड़ी बहू तो उस हादसे के बाद तुम्हारी सेवा ना कर पाने के कारण बहुत दुखी रहती है, जब-तब रोती है। कोई मोहल्ले वाला उसके पास आ जाता, तो वो बेचारी रोती ही रहती। तुम्हारे लिए बहुत दुखी थी।’’

‘‘राधा, जानती हूं यह सब। सुनती रही हूं। लायक बहू का खिताब तो मैंने ही उसे दिलाया है। अब वह उसे बनाए रखना चाहती है और तरीके भी उसे आते हैं।’’ 

‘‘हाय-हाय भाभी, आज तो आप कैसी बातें कर रही हैं,’’ राधा ने और कुरेदा। 

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‘‘राधा, मेरी तीनों ही बहुएं ठीक हैं। लेकिन इनमें जिसे मैं खोटा सिक्का समझ रही थी, वही इप्सिता सबसे अच्छी है। वक्त पड़ने पर वही हीरा निकली। इस हादसे में तुम तो जानती ही हो मेरे दोनों पैर टूट गए थे। मैं पूरी तरह से अपने बच्चों पर आश्रित हो गयी थी। और इस कठिन घड़ी में सबकी असलियत सामने आ गयी।’’
राधा अब सब जान लेना चाहती थी सो बोली, ‘‘कैसे भाभी। क्या बड़ी दोनों बहुअों ने आपकी सेवा करने से मना कर दिया।’’ 

‘‘नहीं राधा, मना तो नहीं किया, परंतु उनके पास मेरी सेवा ना कर पाने के अपने-अपने कारण थे, मजबूरियां थीं।’’

‘‘मतलब?’’ माथे पर सिलवटों के साथ राधा ने पूछा।

‘‘उस दिन को कैसे भूल सकती हूं मैं जब अस्पताल से डाॅक्टरों ने मुझे घर ले जाने की इजाजत दे दी, तो सबसे पहले मेरी बड़ी बहू ने मुंह खोला और अपनी दोनों देवरानियों से बोली, ‘‘ये तो मेरा सौभाग्य होता, जो मैं मां जी की सेवा कर पाती। लेकिन दोनों पैरों से लाचार मां जी को बहुत देखभाल की जरूरत होगी। मेरी बेटी की इस वर्ष बोर्ड की परीक्षा है। ऐसे में घर में इस तरह का मरीज हो, तो पढ़ाई पर असर आएगा। बेटी की परीक्षा के बाद मैं मां जी को अपने पास ले आऊंगी। तब तक तुम दोनों इस जिम्मेदारी को उठाओ।’’

राधा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था वह मुंह बाए सुन रही थी। बोली, ‘‘अच्छा भौजी, फिर इन दोनों ने क्या कहा?’’

‘‘राधा, बड़की के चुप होते ही मंझली बोली, ‘‘आपकी समस्या तो देख रही हूं भाभी, लेकिन मेरी मजबूरी भी तो देखिए। दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ दोनों पैरों से लाचार बुजर्ग की सेवा-टहल कर पाना क्या संभव है। इप्सिता को ही मां जी को अपने पास ले जाना चाहिए। इसके पास ना तो अभी बच्चों की समस्या है और ऊपर से दोनों कमाते हैं, तो रुपए-पैसों की भी दिक्कत नहीं होगी। और फिर कभी कोई जरूरत होगी, तो हम तो हैं ही इसकी मदद के लिए। क्या कहती हैं भाभी आप?’’

बड़की दार्शनिक अंदाज में बोली, ‘‘हां, ठीक है, पर इप्सिता बोले इसे क्या कहना है।’’

इप्सिता मुस्कराते हुए बोली, ‘‘कहना क्या भाभी, मैं अपने पास रखूंगी मां जी को, उनकी सेवा करूंगी। आज उन्हें हमारी जरूरत है।’’ 

मैं अस्पताल के बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी प्रिय बहुअों के इस रूप को देख रही थी। कसमसा रही थी। उसी समय तीनों बेटे डाॅक्टर के पास से मेरी छुट्टी करा कर आए। आते ही मंझला बेटा बोला, ‘‘क्या गप्पें चल रहीं हैं भाई।’’

जवाब बड़की बहू ने दिया, ‘‘इप्सिता चाहती है कि पहले वह मां जी को अपने पास ले जाए। उनकी सेवा कर थोड़ा पुण्य कमाए।’’

बड़ा बेटा बोला, ‘‘इप्सिता की भावना की कद्र करता हूं, पर मां को हमारे घर ही जाना चाहिए। वे वहीं रह रही थीं। उनका सब कुछ वहीं है।’’

मंझली झट से बोली, ‘‘ये तो ठीक है भाई साहब, लेकिन इप्सिता प्रैक्टिकल बात कर रही है। उसका कहना है कि आपके घर में बिटिया की बोर्ड की परीक्षा है, उसकी पढ़ाई डिस्टर्ब हो जाएगी।’’

मंझला बेटा झट से बोला, ‘‘हां यह बात तो सही है। तब तक हम ले चलते हैं मां को अपने घर। इप्सिता नौकरी करती है वह कैसे कर पाएगी। और कर भी ले, तो दिनभर मां अकेली रहेंगी। हमारे यहां तो बच्चों के बीच में उनका मन लगेगा।’’

बड़ी बहू तुरंत मंझली की मदद में बोली, ‘‘पर मुझे इप्सिता की बात ही सही लगती है भैया। वह जानती है घर में कितने काम होते हैं। अतः वह व्यावहारिक बात कर रही है। उसका कहना है कि 2-2 छोटे बच्चों के साथ पूरी तरह से लाचार बुजुर्ग की सेवा करना ठीक से संभव नहीं है। अभी वह संभाल देगी। मुझे तो इसमें कोई हर्ज नहीं लगता।’’

बड़े बेटे ने इप्सिता से सीधे पूछा, ‘‘तुम बताओ इप्सिता, तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं होगी।’’

नजरें झुका कर छोटी बहू जेठ से बोली, ‘‘मां की सेवा में कैसी परेशानी भैया। मुझे खुशी होगी यदि मां जी मेरे घर चलेंगी तो।’’

मंझला बेटा गहरी सांस ले कर बोला, ‘‘तू बहुत भाग्यशाली है छोटे। खूब खुश रहो इप्सिता।’’

‘‘किसी ने मुझसे कुछ नहीं पूछा कि मैं कहां जाना चाहती हूं। बस अस्पताल से सीधे मुझे इप्सिता के घर ले आए। मैं बहुत असहज थी। मेरी अंतर्आत्मा जानती थी कि मेरा व्यवहार इस बहू के साथ बहुत ही बुरा था और अब मैं उसी पर आश्रित थी। सब रात तक रहे, खाना-पीना खाया और अपने-अपने घर चले गए। मैं अपनी दुश्चिंता और उलझनों के साथ नींद के आगोश में समा गयी। 

‘‘अगली सुबह मेरी अपेक्षाअों के विपरीत मेरे जीवन में शीतल बयार ले कर आयी। इप्सिता ने ऑफिस से छुट्टी ले ली थी। वह दौड़-दौड़ कर मेरे सारे काम कर रही थी। मुझे मंजन कराना, तेल लगाना, नहलाना, कपड़े पहनाना, चोटी बनाना जैसे अनेक काम वह बिना शिकन के खुशी-खुशी कर रही थी। मैं सोच रही थी यह बहू कहां से विजातीय है। मेरी सजातीय बहुअों ने तो सास रूपी इस मुसीबत को बेचारी के सिर पर मढ़ दिया था। परंतु थोपी हुई इस मुसीबत को उसने गले लगा लिया था।’’
‘‘एक सप्ताह हंसी-खुशी बीत गया पता भी नहीं चला। उसकी छुट्टियां समाप्त हो गयीं। उसने मेरी देखभाल के लिए एक लड़की रख ली, ताकि जब वह ऑफिस जाए तब मैं अकेली ना रहूं। वह सुबह से उठ कर मेरे सारे काम अपने हाथों से करती। मुझे व्हील चेअर पर बैठा कर टीवी चला कर रिमोट मुझे दे जाती। दोपहर में कार चला कर आती, मुझे खाना खिला कर बिस्तर में लिटा देती फिर खुद ऑफिस चली जाती। शाम को आती, तो मुझे व्हील चेअर पर बैठा कर पार्क में सैर कराने ले जाती।’’

राधा उन्हें टोकती हुई बोली, ‘‘बड़ी दोनों आती तो होंगी ना दूसरे-तीसरे दिन... आखिर एक ही शहर में तो तीनों रहते हैं।’’

‘‘नहीं राधा, 15 दिनों तक तो दोनों ने आने का नाम ही नहीं लिया। शायद डर रही थीं कि छोटी उन्हें ले जाने को ना कह दे। बेटे दोनों रोज ऑफिस से लौटते हुए आ जाते थे। जब 15 दिन बाद दोनों बहुएं आयीं, तो साथ में समस्याअों का अंबार ले कर आयीं, ताकि ले जाने जैसी बात कोई कह ही ना पाए। पर इन 15 दिनों में मेरे मन का मैल धुल गया था। छोटी ने मेरा मन जीत लिया था और उसके साथ किए अपने व्यवहार पर मुझे दिल से पछतावा था। मुझसे पूछा गया होता कि मैं कहां जाना चाहती हूं, तो मैं छोटी के घर आने से मना कर देती। आयी तो मैं मजबूरी में थी, पर अब मैं सिर्फ उसी के पास रहना चाहती हूं। ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि जल्दी उसकी गोद भर दें।’’

राधा ने छेड़ा, ‘‘लगता है इप्सिता ने आप पर जादू कर दिया है।’’

‘‘राधा जादू तो है, पर ये प्यार का जादू है, सेवा का जादू है। इस घर में जहां हम बैठे हैं कितनी यादें जुड़ी हैं मेरी, पर अब ये अपना सा नहीं लगता। इप्सिता का घर ही मुझे अपना घर लगता है। राधा, घर चारदीवारों से नहीं बनता। वह बनता है अपनों के प्यार से, अपनेपन की भावना से, अपने मन के अहसास से... आज मैं बड़के की शादी की सालगिरह मनाने छोटे बेटे-बहू के साथ आयी हूं। रात में दावत खा कर अपने घर यानी इप्सिता के घर वापस चली जाऊंगी उस पर अपनी ममता लुटाने।’’

उठते हुए राधा बोली, ‘‘भौजी, भगवान करे ऐसी विजातीय बहू हर घर में आए और मकान को घर बना दे।’’ दोनों ने हाथ जोड़ा और अपने-अपने ख्यालों में खो गयीं।