बहस के बाद केस फैसले के लिए लग गया। पांच पेशियां तो टल चुकी थीं, पर अब इस पेशी को टाला नहीं जा सकता था। बहस भी निरी संभावनाओं पर ही तो आधारित थी, जिससे मेरा वकील मस्तिष्क संतुष्ट नहीं हुआ था। पूरे मुकदमे के दौरान कहीं भी कोई ठोस सूत्र पकड़ में नहीं आ रहा था, जिससे मैं श्यामिली को हत्या के जुर्म से बरी करा पाती। संदेह का लाभ दिला पाना भी संभव नहीं था, क्योंकि विपक्ष के सबूत इतने मजबूत थे कि उंगली रखने की भी गुंजाइश नहीं थी। मेरी जिरह से चोपड़ा की पत्नी तो यहां तक बौखला गयी कि मुझ पर ही लांछन लगाने लगी थी, ‘‘मैडम, आप एक औरत हो कर भी औरत के पाप को छिपाने की कोशिश कर रही हैं।’’
घर पहुंच कर श्यामिली के केस को ले कर हम दोनों पति-पत्नी के बीच अच्छी-खासी बहस छिड़ गयी। सौमित्र ने प्रश्न किया, ‘‘एक बात बड़ी ही विचित्र है, नंदी। चोपड़ा की हत्या करते समय उसने एक बार भी नहीं सोचा होगा कि ऐसा जघन्य अपराध करते समय उसका जीवन बर्बाद हो जाएगा। एक नहीं, 2-2 हत्याएं।’’
मैं ऊपर से जितनी अस्थिर लग रही थी, भीतर से उतनी ही स्थिर थी। बोली, ‘‘अपराध करते समय मनुष्य ऐसी मनोस्थिति में होता ही कब है, जो सही-गलत का निर्णय ले सके। हां, पूर्व नियोजित तरीके से किसी को मारा जाए, तो वह अलग बात है। श्यामिली जैसी सीधे-सरल स्वभाव वाली महिला किसी कीड़े को तो मार नहीं सकती, सोच-समझ कर हत्या करेगी। विश्वास नहीं होता।’’
‘‘आलोक से मिल चुका हूं मैं। निहायत ही शरीफ और मृदुभाषी इंसान था वह।’’
‘‘डॉ. सौमित्र, हर जो चीज चमकती है, वह सोना नहीं होती।’’
शुरू से ही मुझे लगता था श्यामिली निर्दोष है। उसके जुर्म के पीछे कोई गहरा राज है। दरअसल, उसकी ओर से कोई केस लड़ने वाला नहीं था और मुझे सरकार की ओर से पामर (अपने बचाव के लिए जो लोग वकील नहीं रख सकते, उन्हें न्याय हित के दृष्टिकोण से सरकार अपने खर्च से वकील देती है। उसे पामर कहते हैं।) नियुक्त किया गया था।
जिस प्रकार डॉक्टर मरीज को जिंदा रखने की कोशिश तब तक करता है, जब तक उसके दिल की धड़कन रहती है, ठीक उसी तरह वकील भी आखिरी दम तक जी-जान से केस जीतने की कोशिश करता है, रात-दिन एक करके अपने फेवर की रूलिंग खोजता है और जब केस हार जाता है, तो मुवक्किल काे फिर लड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है। इन दोनों व्यवसायों में बस एक ही अंतर है कि मरीज की धड़कन बंद होते ही डॉक्टर का काम खत्म हो जाता है, लेकिन वकील का काम खत्म नहीं होता। वह अपील पर अपील कर बरसों उस केस को चलाता है।
किंतु श्यामिली के केस में मैं ऐसा नहीं कर पा रही थी। मुझे चुटकीभर उजाला चाहिए था, जिससे मैं बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ सकूं। कितनी ही घटनाएं स्मृति पटल पर कौंधने लगीं, जिन्हें जीवन की व्यस्तताओं ने भुला ही दिया था, वही सब चलचित्र की तरह आंखों के सामने मुखर हो उठा था। सामने के जंग खाए फाटक के भीतर पीले टूटे हुए से मकान में श्यामिली की गृहस्थी थी, जहां बाहर झुलंगी सी रस्सी पर आठ-दस मटमैले कपड़े हमेशा टंगे रहते थे। आलोक के घर से निकलते ही उसके घर से सिलाई मशीन की चपड़-चूं शुरू हो जाती थी और तब तक जारी रहती, जब तक आलोक वापस घर नहीं लौटता था। सिलाई के कपड़े लेने-देने का काम आलोक की उपस्थिति में ही होता था।
उन्हीं दिनों उस मकान में कड़क और झकझकाते सफेद कुरते-पाजामे में एक ऐसा व्यक्ति आने लगा। जब तक वह भीतर से लौट कर नहीं आता था, तब तक मानो सबका वक्त वहीं लोहे के जंग खाए फाटक पर चिपक कर रह जाता था। यह अनचाहा व्यक्ति महेश था, जिसने श्यामिली को तमाम आलोचनाओं और अवहेलनाओं का केंद्र बना दिया था। श्यामिली मेरे लिए पूर्ण रूप से अपरिचित थी, फिर भी मेरे दिल के किसी कोने में उसके प्रति सहानुभूति का भाव हमेशा बना रहता था। समझ में नहीं आता था किसी निठल्ले व्यक्ति की तरह कॉलोनी के लोग उसके जीवन में क्यों ताकझांक करते रहते थे, ‘श्यामिली अच्छी औरत नहीं है। उसका पति निकम्मा-नाकारा है, अपने परिवार का भरण-पोषण सही तरीके से नहीं कर सकता।’ महेश सदा मोहल्ले की जिज्ञासा का केंद्र बना रहा। मां की निषेधाज्ञाओं और वर्जनाओं के बाद भी तुलसी के बिरवे को सींचते हुए या आलोक के लिए दरवाजा खोलते-बंद करते समय खिड़की का परदा हटा कर या दरवाजे की ओट में खड़े हो कर मैंने श्यामिली के दिव्य रूप को निहारा था। हाथ के इशारे से अभिवादन भी किया था, लेकिन उसके घर के अंदर जाने की हिम्मत कभी जुटा नहीं पायी थी। उस दिन कॉलेज से मैं जल्दी घर लौट आयी थी। घर का दरवाजा खुला हुआ था और वहां सांझ सुकून की तरह पहुंच चुकी थी। सामने दुबली-पतली महीन, किंतु सलीकेदार साड़ी पहने श्यामिली बैठी थी। माथे पर कत्थई बिंदी और चेहरा सजल सरल।
अभिवादन की अौपचारिकता संपूर्ण होते ही वह बोली, ‘‘मैं तो पेंटिंग देख रही थी। सचमुच आपने बनायी है।’’ लौटते सूरज का सिंदूरी अक्स पेड़ों से छन कर खिड़की के शीशों को चीरता हुआ... दीवार पर टंगी पेंटिंग पर बिखरा हुआ था। आंखों की पारदर्शी दीवार पर सागर-सागर में मिलता केशों से झरता रंगहीन वक्त।
बेटी की प्रशंसा से पुलकित मां के चेहरे पर आड़ी-तिरछी रेखाएं उभरने लगीं थी। श्यामिली के सामने मेरा ठहर जाना मां के लिए अब असुविधाजनक होने लगा था, जिसे श्यामली समझ गयी थी। उसका प्रसन्न कौतूहल भावहीनता में बदल चुका था। बिना किसी अौपचारिकता के वह उठी और सहज होने का दिखावा करती हुई लौट गयी। अब मुझे लगता है, मां भी जरूर जानती होंगी कि वैसा कुछ नहीं है जैसा उन्होंने कहा था, लेकिन खुद को संभ्रांत नागरिक प्रमाणित करने के लिए कालोनी वासियों की हां में हां मिलाने की इससे अच्छी आड़ उनके पास नहीं थी। ब्याह के बाद मैं न्यू शिमला छोड़ कर दिल्ली चली आयी। नया घर, नया जीवनसाथी अपने-अपने व्यवसाय के लिए नए आयाम ढूंढ़ते हुए पुरानी यादें भी धूमिल पड़ने लगी थी। मां भी भैया-भाभी के साथ उनके गुड़गांव स्थित फ्लैट में शिफ्ट हो गयी थीं।
एक दिन गोल्फ कोर्स की पार्टी में वह मुझे अचानक मिल गयी। नाभिदर्शना साड़ी, कटे हुए बाल, गहरे कटावदार ब्लाउज पहने श्यामिली के एक हाथ में शराब से लबालब भरा गिलास था और दूसरे में सिगरेट। फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हुए जब वह डांस फ्लोर पर आयी, तो ना जाने कितनी आसक्त निगाहें उसके अधनंगे शरीर पर रेंगने लगी थीं। पास ही खड़ी महिलाओं के झुंड में से एक स्वर उभरा, ‘‘सही कह गए हैं सयाने कि हर पुरुष की सफलता के पीछे उसकी पत्नी का हाथ होता है। सुना है धंधा करती है।’’
‘‘छिः, सफलता पाने के लिए औरत ऐसी गलीच हरकत भी कर सकती है,’’ सौमित्र ने वितृष्णा से कहा, तो मैं सोच में पड़ गयी। जरूर कोई विवशता होती होगी कि सीधा चलता आदमी दिशाहीन हो जाता होगा। दूसरे आलोक के हावभाव देख कर भी ऐसा नहीं लग रहा था कि उसे कोई आपत्ति है, वह सहज था।
श्यामिली से मिलने की याेजना बना रही थी, पर मौका नहीं मिल रहा था। मिली भी तब, जब वह जेल के कटघरे में थी। कुछ देर चुप्पी का माहौल बना रहा। मैंने चुप्पी तोड़ी, ‘‘परसों तुम्हारा फैसला है श्यामिली...’’ मेरा कंठ भर आया। मुझे मालूम था उसे सजा होगी। वह भी समझ रही थी। उसी सपाट निर्विकार स्वर में उसने जवाब दिया, ‘‘नंदी जी, मैं और नहीं लड़ सकती थी अपने आपसे... मैंने उसे मार डाला, मैं हत्यारिन हूं... मुझे जेल ताे आना ही था।’’
अब तक सौमित्र भी संभल चुके थे। बोले, ‘‘श्यामिली, इन्होंने तुम्हारा केस इस तरह लड़ा है, जैसे सगी बहन का हो। नंदी तुम्हें बहुत चाहती हैं। पूरा विश्वास भी है इन्हें तुम पर। इसीलिए इतनी मेहनत भी की है।’’
श्यामिली ने शांत स्वर में उत्तर दिया। ‘‘ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूं तो क्या, पर सब समझती हूं। प्रेम की पहचान तो जानवर भी कर लेते हैं, रही सजा की बात, तो वह तो जन्म से भुगत रही हूं। जेल के भीतर रहूं या बाहर, फर्क क्या पड़ता है।’’
इतने दिनों बाद श्यामिली के मुख से तकलीफभरा वाक्य सुन कर मैंने फौरन लोहा गरम जान कर सवाल का हथौड़ा मारा, ‘‘तुम्हें क्या तकलीफ थी श्यामिली, तुमने यह जघन्य अपराध क्यों किया?’’
‘‘नंदी जी, मुझे सजा हो जाने दीजिए। अपील का समय निकल जाने दीजिए, उसके बाद मैं आपको सब बताऊंगी, पर अभी नहीं। आप मुझे मजबूर ना करें।’’ उसका उत्तर सुन कर मैं हैरान रह गयी।
फैसले का दिन भी आ गया। मेरी हिम्मत कोर्ट रूम तक जाने की नहीं हो रही थी। बेचैनी से कलेजा मुंह को आ रहा था। आखिर एसजे साहब का चपरासी मुझे बुलाने आया, तो मुझे जाना पड़ा। सेशन जज ने श्यामिली पर धारा 302 के तहत हत्या का अपराध कायम किया। उसे 10 साल बामशक्कत कैद की सजा सुना दी गयी। मैंने यंत्रचालित सी बेहोशी की हालत में ऑर्डर शीट पर दस्तखत किए और घर लौट आयी।
सौमित्र घर पर ही थे। मेरा उदास चेहरा देख कर मुझे समझाने लगे, ‘‘इस तरह सेंटिमेंटल होने से कैसे काम चलेगा, नंदी। तुम्हें तो इस फील्ड में आगे बढ़ना है।’’ पर मैं खुद को रोक नहीं पा रही थी। जी भर कर रोने के बाद मन जब हल्का हुआ, तो अगले दिन श्यामिली को अपील करने की सलाह देने मैं जेल पहुंच गयी। मुझे मालूम था वह कभी हामी नहीं भरेगी। लेकिन मुझे अपना कर्तव्य तो पूरा करना ही था।
जेल में श्यामिली ने ऊन सुलझाते-सुलझाते मन की गुत्थियों को भी सुलझा लिया था। मुझे देख कर वह चहक कर बोली, ‘‘नंदी जी, देखिए इस गलीचे का नमूना कितना सुंदर है। जब गलीचा पूरा तैयार हो जाएगा, तो आप इसे खरीद लेना।’’ मैंने कुछ तीखी नजरों से उसकी ओर देखा, तो उसकी आंखों से इतने दिनों का रोका हुआ सैलाब फूट पड़ा। मन की व्यथा जब कुछ कम हुई, तो बोली, ‘‘नंदी जी, मुझे अपील तो करनी नहीं है, एक बार मियाद भी निकल जाने दीजिए फिर आप फैसला करना, मैंने जो किया वह सही था या गलत।’’
समय बड़ा बलवान होता है। उसमें हर घाव को भर देने की क्षमता होती है। मेरी प्रैक्टिस अच्छी चलने लगी थी। लेकिन श्यामिली के प्रति उत्सुकता मन में बनी हुई थी। उस दिन इतवार था। सुबह थाेड़ा काम निबटा कर मैं श्यामिली से मिलने पहुंच गयी। जरा सा कुरेदा, तो वह अपनी कहानी बताने लगी-
मां-बाप बचपन में गुजर गए। भाई-भाभी के पास पली-बढ़ी। गांव के स्कूल से आठवीं पास की। मुझे पढ़ने की बड़ी ललक थी, इसीलिए साधन ना होते हुए भी मैं हमेशा अव्वल दर्जे पर ही आती रही। वजीफा मिलता था, उसे भाभी रख लेती थीं। उनके नमक-तेल का खर्चा निकल आता था। भैया के पास मेरी शादी के पैसे नहीं थे। इसी बीच यहां बातचीत चली और मेरे ससुर ने बिना लेनदेन के ब्याह करने का वचन दिया। उन्हें यह मालूम था कि उनका बेटा शादी के लायक है ही नहीं। घर का कामधाम करने के लिए उन्हें एक नौकरानी चाहिए थी बस। शादी के बाद मैं आलोक के साथ इस पीली कोठी में आ गयी। ज्यादा पैसा नहीं था हमारे पास, लेकिन मन में सुकून था। रहने के लिए छत, पेट भरने के लिए रोटी और तन ढकने के लिए चार कपड़े, बस यही जरूरतें थीं मेरी, जो आलोक की कमाई और मेरे सिलाई के काम से पूरी हो जाती थीं। आलोक हमेशा मुझसे कटा-कटा रहता। बात करने में हिचकिचाता। दिनभर घर का काम, ऊपर से कपड़े सीते-सीते शरीर इतना थक जाता था कि बिस्तर पर पड़ते ही मैं सो जाती थी।
हमारी शादी को 3 महीने ही हुए थे, तभी ना जाने कहां से यह तिलचट्टा आ गया। तितलियों की उम्मीद में तिलचट्टा हमेशा। मेरी बर्बादी का कारण वही तो था। कपड़े सिलवाने के बहाने वह अकसर आलोक की अनुपस्थिति में ही आता था। बाद में मैं समझ गयी थी, आलोक स्वयं ही हमें मिलने का मौका देता था। एक दिन उसने मुझसे कहा भी था, ‘‘मुझसे तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता, श्यामिली। अगर तुम्हें थोड़ा सुख मिल भी जाता है, तो मैं क्यों आड़े आऊं।’’
हैरान रह गयी थी मैं उसकी सोच पर। क्या दैहिक संबंधों की पूर्ति ही विवाह की परिभाषा है। मैं यह नहीं कहती कि मेरे अंदर कोई इच्छा-कामना नहीं थी या मेरा शरीर कुछ मांग नहीं करता था। लेकिन उस सबके लिए किसी परपुरुष के साथ हमबिस्तर होना... छिः।’’
महेश का उठना-बैठना शहर के धनीमानी प्रतिष्ठित लोगों के बीच था। इन्हीं के साथ मिल कर वह अपना एक्सपोर्ट का काम शुरू करना चाह रहा था। अपने इस पूरे अभियान में उसने बोनस की तरह आलोक और मुझे भी घसीट लिया। आलोक ने भी सहर्ष हामी भर दी। घर पर ही टीचर की व्यवस्था हो गयी। वह हम दोनों को अंग्रेजी बोलना सिखाती थी। हाई क्लास सोसाइटी में विचरण के गुर सिखाती थी। शुरू-शुरू में बड़ा अटपटा लगता। मुझ जैसी सीधी-सादी लड़की उस सोसाइटी में खरी कैसे उतरती, जहां जाम से जाम टकराए जाते थे, सिगरेट का कसैला धारदार धुआं बड़ी ठसक से काफी देर तक ठहरा रहता, औरतें अपने पारदर्शी परिधानों में खुद को लपेट कर खुल्लमखुल्ला अंगप्रदर्शन करतीं और पुरुष शतरंज की बिसात पर नित्य नयी चालें चलते थे। आलोक को तेजी भाने लगी थी। कहता, ‘मूवमेंट इज साइन ऑफ ग्रोथ।’ इसी तेजी के कारण उसने कभी मेरी परवाह नहीं की। ना मेरे जज्बात को समझने की फिक्र, ना मेरे खयालात को एक तरतीब देने की चिंता ने ही उसे कभी सताया। स्ट्रॉन्ग रूम, बैंक, कैश, बिजनेस वाउचर, शेअर मार्केटवाली भाषा में ही हर भावना का अनुवाद करनेवाला आलोक शारीरिक रूप से ताे अक्षम था ही, संवेदनात्मक रूप से भी वह अपने आपको कभी नहीं सौंप पाया मुझे। अविवेकी कैशौर्य की तरंग में अपने पति द्वारा रचित चक्रव्यूह में असहाय सी मैं बढ़ती चली जा रही थी। बिजनेस के सिलसिले में जमती ये कॉकटेल पार्टियां... ठसके... समय चुपचाप रिसता चला गया नामालूम ढंग से... लेकिन क्या पता था समय नहीं, हम ही बीतते जा रहे हैं। चौंकी तो मैं तब थी, जब सप्तम स्वर में आलोक ने चोपड़ा के यहां जाने की बात की थी। सहसा उसने मुझे खूब बनने-संवरने को कहा, तो उसके स्वर की तर्ज को भांपते हुए मुझे ऐसा-वैसा कुछ लगने लगा था, पर मैं अपने मन के वाहियात वहम को निकालने में विवेक की बात झटक बैठी थी। काश ! मैं तब भी समझ पाती, जब मैंने लाउंज ने चोपड़ा को अकेले बैठे देखा था। कहां थी वहां कोई पार्टी।
‘‘आप सचमुच बहुत खूबसूरत हैं श्यामिली जी।’’ मदिरा में मस्त उस कामातुर ने मेरे वस्त्र तार-तार कर दिए।
‘‘आप होश में तो हैं,’’ मैं लाउंज में आलोक-आलोक चीख रही थी।
‘‘आलोक जानबूझ कर गया है,’’ चोपड़ा की सर्पिल फुसफुसाहट मेरे कान में पड़ी। मैं रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, लेकिन उस नर व्याघ्र की पाशविकता में कोई कमी नहीं आयी। ऐसा लगा जैसे धरती फटी और वातावरण हृदय विदारक चीत्कार से भर उठा। मुझे लूट कर वह दरिंदा बाहर निकल ही रहा था कि मैंने देखा आलोक पास ही कुर्सी पर बैठा सिगरेट फूंक रहा था। मेरी चेतना चकित थी, मेरा बोध बांझ। मैं निपट मूर्ख, अपनी ही नजरों में कहीं टिक नहीं पा रही थी।
‘‘नंदी जी, हम किसी को थोड़ा सा जान कर कितना अधिक जान लेने का दावा करने लगते हैं। मैं भी इसी मुगालते में जीती रही। काश ! आलोक एक बार कह देता कि यह सब झूठ है, तो मैं निहाल हो जाती, सचमुच की निधियां पा जाती। उसकी बातों के कर्म उघड़ कर स्वयं अपनी कहानी कह गए थे, ‘‘सपने में जो देखा श्यामिली उसे भूल जाओ।’’
उसके सीमेंट जैसे भुरभुरे चिकने सपाट शब्द मेरे भीतर की भावनाओं की नमी पा कर मेरा अहसास, मेरा सारा बोध, पत्थर जैसी मजबूती से जमते चले गए। आलोक कितना शातिर निकला। ऐसा दलाल, जो पत्नी को ही दांव पर लगा बैठा। लेकिन वह सही भी था। मैं पत्नी थी ही कब उसकी, रखैल से भी बुरी दशा बना दी थी उसने मेरी। चोपड़ा के बाद खुराना... शर्मा... मित्तल... क्रोधावेश में मेरे तनबदन में आग लग रही थी। पास ही रखी बोतल उठा कर एक दिन मैंने उन दोनों वहशी दरिंदों पर बेहताशा वार कर डाले।
‘‘एक पल में ही इतना भयानक निर्णय ले लिया तुमने, श्यामिली। उन्हें दंड देने के लिए कानून था,’’ मैंने उसका हाथ झकझोरते हुए बेचैनी से पूछा।
‘‘कानून !’’ श्यामिली ने होंठ भींचते हुए पूछा, ‘‘कानून के हाथ पैसों वालों के लिए बहुत बौने हैं, नंदी जी। कानून तो गवाहों पर टिका है और गवाह कहीं तोड़ दिए जाते हैं, तो कहीं खरीद लिए जाते हैं। अंधे कानून के आगे बेसहारा औरतों को अपनी बेगुनाही साबित करना बेहद कठिन होता है।’’
‘‘लेकिन...’’ मैंने कुछ कहना चाहा, तो श्यामिली ने मुझे बोलने का मौका दिए बगैर ही कहना जारी रखा, ‘‘देश का अंधा कानून मुझे दोषी ठहराते हुए यही कहता कि जब जीवन दिया नहीं जा सकता है, तो उसे लेने का अधिकार भी किसी को नहीं है। नंदी जी, मैं पूछती हूं उसी कानून से कि किसी महिला की इज्जत लूटने के बाद क्या उसे
पुनः लौटाया जा सकता है। यदि नहीं, तो बलात्कारी को मात्र 10 वर्ष की सजा और हत्यारे को मृत्युदंड की सजा क्यों?’’ श्यामिली क्रोध के आवेश में कांप रही थी।
‘‘अगर तुम्हारे जैसी साहसी और अन्याय का विरोध करने का हौसला रखने वाली औरत इस समाज में ना हो, तो वहशी दरिंदे यों ही स्वच्छंद विचरण करते रहेंगे। यह बात यदि अदालत में तुम साबित कर सकोगी, तो निश्चित ही तुम्हें सजा से मुक्ति मिल जाएगी,’’ मैंने श्यामिली को अपनी तरफ से विश्वास दिलाया।
‘‘नंदी जी, एक औरत की जिंदगी तभी तक होती है, जब तक उसके नाम के साथ किसी दूसरे मर्द का नाम नहीं जुड़ता। बदनाम औरत नेक राह पर चलना भी चाहे, तो समाज के लोग उसे चलने नहीं देते हैं। जीवन के सारे सपनों और आशाओं के इंद्रधनुष को तो आलोक ने पहले ही बदरंग कर दिया था। अब मुझे जीने की कोई चाह नहीं है।’’
श्यामिली के मुख पर दुख और पश्चाताप का कोई चिह्न नहीं था। वाणी में ओज और आंखों में तेज लिए वह एक नयी श्यामिली लग रही थी, जो शोषण के विरुद्ध अकेली, किंतु दृढ़ खड़ी थी।