घर के सामने टैक्सी रुकते ही मैंने सीढ़ियां चढ़ कर बेल बजायी। दरवाजा अनुजा ने खोला। मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। अनुजा और सलवार सूट ! वह मुस्करा कर मेरे पैरों पर झुकी, हाथ का बैग पकड़ते हुए बोली, ‘‘भाभी यों अचानक ! आप और भैया कहां से आ रहे हैं?’’
मैं अभी भी अनुजा को देखे जा रही थी। मुझे इस तरह अपनी तरफ ताकता देख, वह मुस्करा कर बोली, ‘‘क्या सोच रही हैं भाभी आप? मेरा कायाकल्प?’’ और जोर से हंस पड़ी। सामान अंदर रखते हुए बोली, ‘‘हम दोनों अभी सुबह की सैर से वापस ही लौटे हैं।’’
यानी सलवार सूट की दौड़ घर में ही नहीं बाहर भी ! संसार का आठवां आश्चर्य ! अनुजा को शादी के बाद से साड़ी में ही देखा है ! अचकचा कर खुद को संयत करते हुए मैंने कहा, ‘‘बड़ी दीदी की पोती यूएस से महीनेभर के लिए आयी है। इंदौर उससे मिलने आए, तो सोचा मोहनखेड़ा तीर्थ दर्शन कर लें, और आप से भी मिल लें।’’
डेढ़ साल से कोविड में घर में ही नजरबंद थे। दूसरी लहर की भेंट चढ़ी मंझली दीदी का चेहरा तक नहीं देख पाए थे! मेरी आंखें भर आयीं। अनुजा ने मेरा हाथ थामा और किचन में ले आयी।
उसे सहज भाव से सूट में काम करते देख मुझे 20 साल पीछे की अनुजा याद आ गयी। हमारे आग्रह पर गरमी की छुट्टियों में छोटी ननद और वह बच्चों को ले कर दिल्ली आए थे। घूमने जाते समय बहन व मेरे आग्रह पर अनुजा ने सूट पहन तो लिया था, पर उसे बहुत अटपटा लग रहा था। घर पहुंचते ही साड़ी पहन ली थी, यह कहते हुए, ‘‘नहीं भाभी अपने को सलवार सूट नहीं जमता है।’’ मुखमुद्रा से साफ था, साड़ी छोड़ सूट पहनना विवाहित स्त्री के कोड ऑफ कंडक्ट का स्पष्ट उल्लंघन है, विवाहिता की गरिमा जो कम करता है! मैं सोच रही थी, 20 साल पहले जो अनुजा को नहीं जमा था, आज इतनी आसानी से कैसे जम गया ! पच गया ! पचास-पचपन की वय में उसमें यह बदलाव देख कर मैं चकित थी।
जिस परिवेश में वह बड़ी हुई थी, वहां के तौर-तरीके, सोच उसके मन में गहरे पैठे हुए थे। नौकरी करने से अनुजा में आर्थिक आत्मनिर्भरता तो आ गयी थी, लेकिन सोच-विचार के स्तर पर उसमें खास बदलाव ना था, यह बात मैंने कई बार महसूस की थी।
लड़कियों के चाल-चलन, विवाहिताओं के दैनिक व्यवहार की मर्यादाओं की जो छाप उसके मन में बचपन से थी, उसमें रत्तीभर भी बदलाव नहीं था ! अकसर उसकी बातें सुन कर लगता, लीक से अलग हट कर करने की कौन कहे, उसे तो अलग सोचने में भी पाप लगता है ! अनुजा ने अपने स्कूल की एक घटना बतायी थी। उसकी सहेली प्राध्यापिका की जन्मदिन पार्टी में सहयोगियों के बीच केक कटा था। सभी स्नेह से एक-दूसरे को केक खिला रहे थे। पीटी सर ने भी केक का टुकड़ा काट कर सहेली को खिला दिया था, और सहेली ने भी सर को ! जन्मदिन की पार्टी के माहौल का यह सहज-सामान्य व्यवहार था, लेकिन अधिकांश अध्यापिकाओं को यह बेहद नागवार गुजरा था। सहेली की तीव्र भर्त्सना करने में अनुजा सबसे आगे थी।
बचपन से अनुजा पिता की लाड़ली रही थी। छोटे गांव में बड़ी हुई थी। छोटी थी तभी उसे भयंकर मोतीझरा यानी टायफाइड हो गया था, तो मास्साब के गले से पानी मुश्किल से उतर रहा था। लोगों ने कहा भी, ‘अरे बिटिया ही तो है, काहे जान हलकान किए जा रहे हो मास्साब !’ इलाज के बावजूद बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। मास्साब विश्वास नहीं करते थे, फिर भी बेटी के लिए 3 दिन लगातार महामृत्युंजय जाप कराया था।
तीसरी बेटी के जन्म के समय किसी रिश्तेदार ने सहानुभूति में कह दिया, ‘‘गरीब घर में एक और बेटी आ गयी !’’ मास्साब को फब्ती चुभ गयी थी, तभी सोच लिया था, बेटियों को बेटों की तरह ही सक्षम बनाऊंगा।
अनुजा पढ़ाई में होशियार थी, स्कूल-काॅलेज में टाॅपर। कक्षा में प्रथम आती, तो उसकी सहेलियों और अपने सहयोगियों को मास्साब हमेशा श्रीखंड, गुलाबजामुन की पार्टी देते। पाक कला में निपुण मितव्ययी मां घर पर ही सारी तैयारी करतीं।
मास्साब संतोषी जीव थे, लेकिन सोच जीवन में हमेशा आगे बढ़ने की रही। शादी के समय दसवीं पास प्राइमरी स्कूल के अध्यापक थे। नौकरी करते, बच्चों को पालते हुए एमए किया, साहित्य विशारद की परीक्षा पास की। बड़ा बेटा आठवीं में था, तब मास्साब बीएड कर रहे थे। बाप-बेटा इकट्ठे बैठ कर पढ़ाई करते, तो लोग मजाक करते, ‘‘काहे मास्साब, ऐसन पढ़िबे के शौक रहि तो पोतन संग भी परिच्छा दैबो का !’’ मास्साब हंस देते। सहयोगी अध्यापक प्राइमरी कक्षाएं पढ़ा कर संतुष्ट थे, मास्साब हायर सेकेंड्री पढ़ाने लगे थे, ग्रेड बेहतर मिलने लगी थी।
गांव में आर्ट काॅलेज खुल गया था, लेकिन साइंस पढ़ने बच्चों को शहर ही जाना पड़ता था। इक्का-दुक्का लड़के आगे कॉलेज की पढ़ाई करते, लड़कियों की शादी हो जाती, घर बस जाते। कौन सा उन्हें नौकरी कराना था या आत्मनिर्भर बनाना था, जो मां-बाप आगे पढ़ाते।
अनुजा की सहेलियों की भी शादियां होने लगी थीं। कुछ के लिए लड़के देखे जाने लगे थे। शादी का इंतजार करती ये लड़कियां घर बैठ दहेज की चादरें काढ़तीं या काम में मां का हाथ बंटातीं।
मास्साब शिक्षा का महत्व समझते थे। बेटी को आत्मनिर्भर बनाना उनका सपना था, सो सबके मना करने के बावजूद बेटी को बीएससी करने शहर भेज दिया। गांव के हिसाब से, 30-35 साल पहले यह बड़ा क्रांतिकारी कदम था, वे अपने समय से आगे की सोच कर चल रहे थे। लोगों ने आपस में कहा, ‘‘अकेले लड़की जात का पढ़न खातिर मास्साब शहर भेजैत है। काल का कछु ऊंच-नीच हो जाई तब माथे पे हाथ धरि रोइहे !’’ लोग इंतजार करते रहे अपनी भविष्यवाणी सही सिद्ध होने की, लड़की के बारे में ऐसा-वैसा सुनने की, लेकिन निराशा ही मिली। मास्साब तीन जोड़ी कपड़ों में साल निकाल देते, मां पैबंद लगी साड़ियां पहनतीं। बड़े होते छोटे भाई-बहनों के खर्च बढ़ रहे थे। लोग मन ही मन मास्साब को मूर्ख समझते, लेकिन उन्हें अपने निर्णय पर कभी पछतावा नहीं हुआ। घर की स्थिति देख अनुजा कभी मन छोटा करती भी, तो मास्साब बेटी को हिम्मत बंधाते। अनुजा ने अच्छे नंबरों से एमएससी पास करते ही नौकरी के लिए अप्लाई कर दिया। मास्साब का बड़ा बेटा भी अब कमाने लगा था। किस्मत से अनुजा के लिए अच्छे घर से शादी का प्रस्ताव आया, वह भी बिना किसी दान-दहेज की मांग के ! इंकार का प्रश्न ही नहीं था। अनुजा की शादी का प्रस्ताव और प्रधानाध्यापिका की सरकारी नौकरी का परवाना एक साथ ही आया था।
संपन्न ससुराल वालों को अनुजा ने नौकरी के लिए मना लिया था। वह मेधावी, परिश्रमी, कार्यकुशल थी। शिक्षा विभाग में जल्दी ही उसके नाम के साथ सफल प्रयासों की लंबी फेहरिस्त जुड़ गयी। ससुराल में सम्मिलित व्यापार था। अनुजा के विवाह के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हुई थी। शहर के प्रतिष्ठित घरानों में उनकी गिनती होती थी। बढ़ती संपन्नता के चलते पहले धार्मिक फिर सामाजिक क्षेत्र में परिवार की उपस्थिति बढ़ती गयी। अब अनुजा एक प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त, संपन्न परिवार की दबंग बहू थी।
मेरी सोच को विराम लगाया अनुजा की आवाज ने। वह नाश्ते के लिए बुला रही थी। मैं वर्तमान में लौटी। नाश्ता करके हम मोहनखेड़ा के लिए निकल गए।
तीन महीने बाद अचानक अनुजा का मेरे पास फोन आया, ‘‘भाभी, छोटे की सगाई कर रहे हैं दो दिन बाद। आपको और भैया को आना ही है।’’
जाने का मन था, पर इतनी अल्प सूचना पर इनके लिए जरूरी मीटिंग छोड़ कर जाना संभव ना था। शादी की तारीख तय हो गयी, तो मामा-मामी होने के नाते शादी की रस्में, भात भरने व अन्य कार्यक्रम समझने उनके पास गए। बातचीत के दौरान ननदोई ने बताया, ‘‘भाभी जी, अपने छोटू जैसी ही लड़की देखी है, उसके जैसा ही भारी शरीर है रुचि का। कामकाज में होशियार है, एमबीए किया है, अपने पापा की फैक्ट्री का हिसाब-किताब वही देखती है।’’ बचपन से ही हारमोन डिस्आॅर्डर के कारण छोटू भारी शरीर का, सांवला लड़का था।
ननदोई व्यावहारिक हैं। लड़का चाहे जैसा भी हो, सम्पन्नता के बल पर गोरी-खूबसूरत-पढ़ी-लिखी-सर्वगुण संपन्न लड़की लाने की उन्होंने नहीं सोची थी।
अनुजा मुझसे मुस्करा कर बोली, ‘‘देख रही हूं भाभी, मुझे सलवार सूट में देख आपका आश्चर्य कम नहीं हो रहा है ना? किसी का भी शादी के बाद साड़ी छोड़ और कुछ पहनना मुझे सुहाता ही ना था। आज मैं खुद घर-बाहर सलवार सूट पहने घूम रही हूं। आपको इस बदलाव का कारण बताती हूं, भाभी। धन के साथ-साथ सुविधा की चाहे सारी आधुनिक चीजें घर में आ गयी हैं, लेकिन वातावरण, हम लोगों का रहन-सहन और सोच तो पुरानी ही है। मैं खुद भी उसी सोच में ढली हुई थी अब तक।
‘‘बड़ी बहू मुंबई रहती है, महीने में चार दिन के लिए यहां आती है, तो सबकी खुशी के लिए उन चार दिनों में साड़ी पहनने में उसे एतराज नहीं है। लेकिन छोटू तो पारिवारिक व्यापार में बराबरी से हाथ बंटाता है, साथ रहता है सो छोटी बहू रुचि साथ ही रहने वाली है।
‘‘भाभी आप ही बताओ, रुचि इंदौर में पली-बढ़ी है, रोजमर्रा में शरीर और सुविधा के हिसाब से सलवार-कमीज, पलाजो आदि ही पहनेगी ना। उसके पहनावे को ले कर जेठानी जी और ननदें आदतन टीका-टिप्पणी शुरू कर देंगी। अपना घर-परिवेश छोड़ हमारे यहां आने वाली पढ़ी-लिखी आधुनिक लड़की इन लोगों के ताने कैसे पचा पाएगी? इन बातों को ले कर खुद दुखी रहेगी या हमें दुखी करेगी। इसलिए बहुत सोच-समझ कर मैंने ही अपना पहनावा बदल लिया है। जो कहना है नाते-रिश्तेदार, ननद, जेठानी सब मुझे कह लेंगे ! मेरे आगे रुचि को सीधे कुछ कहने की किसी की हिम्मत नहीं होगी। मैं नहीं चाहती रुचि वह सब झेले, जो मैंने झेला है।’’
अनुजा की बात सही थी। अनुजा की ननदें, जेठानी कम नहीं थीं। अनुजा जब देवरानी बन कर इस घर में आयी थी, तो कम पढ़ी-लिखी जेठानी इनफिरियरिटी काॅम्प्लेक्स के चलते उसके हर काम में नुक्स निकाल कर अपने अहं को तुष्ट करती। आने वाली बहू को परेशानी ना हो, व्यर्थ के व्यंग्य-बाण, टीका-टिप्पणी ना झेलनी पड़े, इसलिए अपने 50 वर्षों के संस्कारों को अनुजा ने एक झटके में झटक दिया था ! उस दिन मैं उसकी सूझबूझ और दूरदर्शिता की कायल हो गयी।
अब तक नौकरी करने के कारण वह आर्थिक रूप से तो मुझे आत्मनिर्भर लगती थी, लेकिन परंपरा, रूढ़ियों को ले कर वैचारिक स्तर पर आज से पहले वह कभी आत्मनिर्भर नहीं लगी थी। आज अनुजा ने पहली बार वक्त से आगे सोच, स्वयं को बदल पिता की परंपरा को आगे बढ़ाया था। पिता ने उसे बेटी होने के बावजूद शिक्षा के लिए गांव से बाहर भेजने की हिम्मत दिखायी थी। बेटी को आत्मनिर्भर बनाया था, जिसके बारे में आज भी कम ही लोग इतनी शिद्दत से सोच पाते हैं। उन्होंने एक गलत परंपरा को पुरजोर कोशिश कर बदला था, क्योंकि उन्हें अपने मन में सही होने का पूरा विश्वास था, कोई दुविधा नहीं थी। आज अनुजा ने अपनी शिक्षा और सोच का उपयोग जीवन को सहज-सरल बनाने के लिए किया है। जीवन में अर्थहीन टकराव में ऊर्जा को जाया होने से रोका है। उसके चेहरे पर पिता के जीवन दर्शन का निहितार्थ समझ पाने की खुशी थी। निश्चय ही मेरे श्वसुर जहां भी होंगे, बेटी को आशीर्वाद दे रहे होंगे।