Tuesday 14 January 2025 04:37 PM IST : By Seema Shrivastava ’Bhavya’

नामकरण

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‘‘हेलो...’’

‘‘हां, रितेश।’’

‘‘बोलो, बड़ी खुश लग रही हो।’’

‘‘हां रितेश, बात ही कुछ ऐसी है,’’ भाविनी ने हुलसते स्वर में कहा।

‘‘अब बताओं भी,’’ रितेश बोला।

‘‘तुमने आज का पेपर पढ़ा, उसमें मेरी कविता छपी है और फोटो भी।’’

‘‘ तो यह है तुम्हारी खुशी की वजह।’’

‘‘क्यों, तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’’

‘‘इसमें अच्छा लगने की क्या बात है? इस तरह हंस-हंस के बात करोगी, तो कोई ना कोई तुम्हारी कहानी, कविता छाप ही देगा।’’

‘‘कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो रितेश, कितनी घटिया सोच है तुम्हारी,’’ वह गुस्से में बिफर पड़ी, ‘‘अगर छपने लायक होगी, तभी तो छपेगी, कितनी बार तो मेरी भी रचनाएं अस्वीकृत हो कर आ जाती हैं। सारा मूड ऑफ कर दिया। मैं तो सोच रही थी कि तुम कितने खुश होगे। जिसे तुम जीवनसंगिनी बनाने जा रहे हो, उसमें कुछ विशिष्ट प्रतिभा है, बतौर लेखिका लोग उसे जानने लगे हैं, पर तुम तो कुछ और ही सोच रहे हो।’’

‘‘हां बाबा, मेरी सोच खराब है तो यही सही, पर मुझे बिलकुल पसंद नहीं है, तुम्हारा पत्र-पत्रिकाओं में नाम, फोटो और कॉन्टैक्ट नंबर छपना, फोन पर हंस-हंस कर ‘यस सर जी’ करके सबसे बात करना। यही सब करके तुम्हारी रचनाएं छप जाती हैं, तो तुम कोई कमाल नहीं कर रही, किसी की भी रचना छप जाएगी।’’

‘‘छी-छी, कितनी गंदी बात है, तुम्हारे जैसे पढ़े-लिखे लोग तो इसी तरह दिल पर चोट करते हैं। मुझे तो तुम्हारी सोच पर हैरानी है। मैंने भी क्या सोच कर तुम्हें अपना हमसफर चुना।’’

‘‘हां-हां, तो अब चली जाओं किसी और के पास। तुम्हारे तो बहुत सारे कॉन्टैक्ट हैं,’’ रितेश चिल्लाया।

‘‘ तुम अपने बॉस से क्या गालियां दे कर बात करते हो? तुम भी तो यस सर, जी सर ही कहते होगे। यही काम पुरुष करे, तो सभ्य और औरत करे, तो गलत हो गयी। काश, मैंने तुम्हारी मानसिकता पहले ही जान ली होती।’’

‘‘ हां, तो अब जान ली है। चली जाओं किसी पत्र-पत्रिका वाले के साथ।’’

‘‘तुम हद पार कर रहे हो रितेश, आखिर तुम चाहते क्या हो,’’ भाविनी का चेहरा गुस्से और अपमान से लाल हो गया।

‘‘मैं क्या चाहता हूं? मैं जो चाहता हूं, उसे करने में तो तुम्हारा वजूद मिटता है। मैं तो चाहता हूं, तुम्हारा किसी दूसरी मर्द जात से कॉन्टैक्ट ना हो चाहे वह कोई भी हो। तुम ये कहानियां-कविताएं पढ़ना-लिखना बंद कर दो। कहीं भी अपनी रचनाएं, नाम, पता मत भेजो। और हां, ये जो तुम पीएचडी करके डॉक्टर की नेमप्लेट लगाने के सपने देख रही हो ना, वह भी देखना बंद कर दो।’’

‘‘फिर मैं क्या करूं?’’ उसने अपने गुस्से को दबाते हुए पूछा।

‘‘मुझसे शादी करके घर में रहो। अरे, औरत जात का काम है घर संभालना, पति का ध्यान रखना, सज-संवर के उसे खुश रखना।’’

‘‘ऐसा तुम सोच भी कैसे सकते हो’’ भाविनी गुस्से में चीखी, ‘‘मैंने सालोंसाल मेहनत करके पढ़ाई की है, परसेंटेज लाने के लिए जाने कितनी रातें जगी हूं मैं। डॉक्टरेट की डिग्री लेना मेरा सपना है। मैं खुद की पहचान चाहती हूं, और मुझमें प्रतिभा है, क्षमता है तो मैं उसे क्यों मारूं, सिर्फ तुम्हारी संकीर्ण मानसिकता के कारण मैं अपनी योग्यताओं का दमन कर दूं, नहीं... मैं ऐसा नहीं कर सकती। मैं कोई गलत काम तो कर नहीं रही। अगर मैं गलत होती, तो तुम्हें पूरा अधिकार होता मुझे रोकने का, पर जब ऐसा कुछ है ही नहीं, तो क्यों मानूं तुम्हारी बात?’’

‘‘जो जी में आए करो,’’ कहते हुए रितेश ने फोन पटक दिया।
भाविनी अवाक रह गयी। वह सोफे पर मानो गिर सी पड़ी। अभी तो वह सिर्फ प्रेमिका है रितेश की और दोनों की

शादी की बात भी चल रही है। शादी के बाद क्या होगा? भाविनी ख्यालों के भंवर में उलझ गयी। भाविनी और रितेश की मुलाकात युनिवर्सिटी के सांस्कृतिक समारोह के दौरान हुई थी। भाविनी के लेख को पुरस्कृत किया गया था। रितेश ने भी बधाई दी थी, ‘‘वाकई आप क्या लिखती हैं।’’

‘‘जी, बस ऐसे ही थोड़ा-बहुत लिख लेती हूं,’’ उसने शरमाते हुए कहा था और यही पहली नजर का प्यार बन गया था। दोनों का ही युनिवर्सिटी में आखिरी वर्ष था। उसके बाद दोनों की राहें भले ही अलग हो गयीं, पर दिल एक हो गए। एक दिन भी बिना मिले नहीं रह पाते थे। रितेश ने इस बीच एक प्राइवेट कंपनी जॉइन कर ली थी। भाविनी पीएचडी की तैयारी के साथ पत्र-पत्रिकाओं में फ्रीलांसिंग करने लगी। जब कभी भाविनी का मोबाइल एंगेज मिलता रितेश भड़क उठता।और ढेरों सवाल कर डालता- कहां नंबर बिजी था? किससे बात हो रही थी? क्या बातें हो रही थीं? बात करने वाला आदमी था या औरत? किसी पुरुष से बात क्यों की? त्रस्त हो उठती भाविनी। शुरू-शुरू में तो भाविनी को यह सब बहुत अच्छा लगता। उसे लगता कोई उसे इतना प्यार करने वाला मिला है, जो उसका पलभर भी किसी और से बात करना सहन नहीं कर सकता। वह अपने भाग्य और प्यार पर इतरा उठती। इस बीच भाविनी ने पीएचडी के लिए फॉर्म डाल दिया था। रितेश को पता चला, तो उसने खूब लड़ाई की।

‘‘अब यही बचा है करने को?’’

‘‘पर बाबा, मैं इसमें गलत क्या कर रही हूं?’’

‘‘सोचो कितने गर्व की बात है मेरे नाम के आगे लिखा होगा डॉ. भाविनी माथुर। तुम डॉक्टर के पति कहलाओगे,” उसने चुहल की।

‘‘मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं। तुम पीएचडी करोगी किसी प्रोफेसर के अंडर में। प्रोफेसर और उनके स्टूडेंट के बीच क्या रिश्ता होता है, मैं सब जानता हूं। अपने कैरिअर के लिए तुम इतना गिर जाओगी, मैंने कभी सोचा ही नहीं था।’’

‘‘रितेश, तुम पागल हो क्या?’’ तब पहली बार भड़क उठी थी भाविनी, ‘‘अब तुम हद कर रहे हो। इस तरह तुम सारे पुरुष पढ़ने वाली महिलाओं पर आरोप नहीं लगा सकते। हर इंसान को एक ही नजर से देखना सरासर गलत है। मैं मानती हूं समाज में तमाम बुराइयां हैं, तमाम घटनाएं घटती रहती हैं, पर उसका मतलब यह तो नहीं कि बिना वजह हम पहले से बुरा या गलत सोच कर बैठ जाएं। हर इंसान गलत ही हो यह जरूरी तो नहीं।’’

‘‘अब मुझे ज्यादा मत समझाओं मैं खूब समझता हूं तुम्हारे ये लटके-झटके। लड़कों को रिझाने में तो तुम्हें मजा आता है ना और घर कैसे बैठ सकती हो।’’

‘‘बस...’’ वह चीखी थी।
उस दिन के बाद उसने 2 दिन तक रितेश से बात नहीं की थी। पर उसके माफी मांगने वाले प्यारभरे एसएमएस पढ़ते ही वह पिघल गयी थी। सच, शायद जरूरत से ज्यादा प्यार करता है रितेश, तभी तो इतनी जलन रखता है। इस गलतफहमी में ही वह खुश हो ली थी, नहीं समझ सकी उसकी गंदी, बीमार मानसिकता को। दोनों के संबंध, बातचीत सब कुछ पहले जैसे हो गए।

रितेश मिलते ही सबसे पहले भाविनी का मोबाइल चेक करता। उसके कुछ टीचर्स और कॉलेज के दोस्तों के नंबर थे, जो उसने सेव कर रखे थे। उस पर जम कर हंगामा किया उसने, ‘‘तुम्हारे मोबाइल में ये इतने सारे नंबर क्यों हैं और ये लड़कों के नंबर थे, संदीप सर, रवि सर ! ये सब कौन हैं?’’

‘‘रितेश, ये मेरे सर हैं। मुझे इनसे कॉन्टैक्ट में रहना पड़ता है। पीएचडी की तैयारी में मुझे इनसे मदद लेनी पड़ती है।’’

‘‘मैं खूब समझता हूं तुम्हें भी और तुम्हारे सर को भी कि क्या बातें होती हैं,’’ वह चिल्लाया था।

‘‘फिर तुम उलटी-सीधी बातें करने लगे,’’ वह रोने को हो आयी।

‘‘अभी तुरंत सारे नंबर इरेज करो मोबाइल से। मैं जब हूं, तो तुम्हें किसी और से बात करने की क्या जरूरत?’’

‘‘रितेश, तुम समझते क्यों नहीं, यह मेरे कैरिअर का सवाल है।’’

‘‘मैं हूं ना और कैरिअर का क्या करना?’’

उसने खुद ही उसके सारे नंबर इरेज कर डाले। वह गुस्से में उफनती रही। वह गलत नहीं है और भी रितेश बार-बार उसे क्यों अपराधाें के कटघरे में खड़ा कर देता है। वह समझ ही नहीं पा रही थी। इसी चिंता में घुलने से वह बीमार हो गयी थी।

रितेश आया था मिलने। मम्मी-पापा उसके बारे में पहले से ही जानते थे। उसने उन्हें रितेश के बारे में बता रखा था कि दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं। वे भी इकलौती बेटी की खुशियां देखना चाहते थे। फिर रितेश अच्छा-खासा था, अच्छा कमाता था अपनी जाति का था, उन्हें क्या ऐतराज?

उसे देखते ही भाविनी ने गुस्से में मुंह फेर लिया था।

‘‘सॉरी यार, मुझे माफ कर दो। मैं नहीं देख सकता तुम्हें किसी और से बात करते, बहुत प्यार करता हूं तुम्हें।’’

‘‘मैं भी बच्ची नहीं रही, भले-बुरे की समझ है मुझे। बार-बार आरोप लगाना अच्छी बात नहीं।’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा,’’ उसने कान पकड़े, तो वह हंस दी थी।

फिर दोनों के परिवार वालों ने उनके रिश्ते की हामी भर दी थी।
डोरबेल बजी, तो वह विचारों के भंवर से बाहर आयी, खोला तो रितेश था।

‘‘बोलो,’’ वह बेरुखी से बोली।

‘‘आज मैं अंतिम बार तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। अगर तुम्हें मुझसे प्यार है और तुम मेरे साथ जीवनसंगिनी बन कर जीवन गुजारना चाहती हो, तो तुम्हें अपने कैरिअर और अपने बारे में सोचना बंद करना पड़ेगा।’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं कि तुम पढ़ो, लिखो और उस बहाने से लोगों से तुम्हारी बातें हों, तुम्हारी रचनाओं की तारीफ हो और तुम हंस-हंस कर जवाब दो। और हां, तुम्हें पीएचडी का ख्वाब भी छोड़ना पड़ेगा, क्योंकि मैं नहीं चाहूंगा मेरी पत्नी डॉक्टरेट की डिग्री के लिए किसी प्रोफेसर के अंडर में काम करे फिर युनिवर्सिटी में पढ़ाए, यंग लड़कों की फब्तियां सुने, उनसे मुस्करा कर बात करे।’’

‘‘तो तुमने अपनी पत्नी के लिए कैसा भविष्य सोच रखा है,’’ उसने तल्ख स्वर में पूछा।

‘‘मर्द का काम है कमा कर लाना और औरत का काम है घर संभालना, पति को खुश रखना, बच्चों का पालन-पोषण करना।’’

‘‘यह काम तो औरत अपनी पहचान बना कर भी कर सकती है। क्या जो औरतें बाहर काम करती हैं वे घर नहीं संभालतीं,’’ उसने अपने दम तोड़ते हुए प्यार को जोड़ने की आखिरी कोशिश करते हुए कहा।

‘‘संभालती होंगी, उनके पति निखट्टू होंगे, पर मैं ऐसा नहीं हूं औरत के पैसों से घर चलाऊं, औरत को शोपीस बना कर टहलाऊं,’’ रितेश के स्वर में उसका पुरुषोचित दंभ पूर्णतया उभर आया।

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‘‘पर औरत का भी तो वजूद है, अस्तित्व है। उसकी अपनी भी तो पहचान होनी चाहिए, अगर वह विचारशील और सक्षम है तो,’’ भाविनी बोली।

‘‘औरत का वजूद, वह क्या होता है? औरत तो मर्द में समाहित हो जाने के लिए बनी है उसका कैसा वजूद? औरत की पहचान तो उसके पति से होती है,’’ वह विद्रूपता से हंसा।

भाविनी के मन, आत्मा पर गहरी चोट लगी। उसकी आंखें भर आयीं।

‘‘मैडम, अब आप ज्यादा मत सोचिए आप हमारी अर्धांगिनी बनने वाली है। मैं जानता हूं तुम मुझे सच्चा प्यार करती हो। तुम वही करोगी जो मैं चाहूंगा और भी शाम को तुम्हारे जवाब का इंतजार करूंगा,’’ हंसते हुए रितेश चला गया।
अब बारी थी भाविनी के निर्णय की। एक तरफ थे उसके सपने, जो उसने हमेशा से देखे। उसकी खुद की पहचान, उसका सुखद कैरिअर, उसके मां-बाप के सपने, जो उन्होंने उसके बेहतर भविष्य के लिए देखे। दूसरी तरफ था उसका 3 वर्ष पुराना प्यार, सतरंगी सपने, कस्मे-वादे जो उसने किए, पर निर्णय तो लेना ही था। शाम को वह रितेश से मिलने गयी।

‘‘आओ, मैं जानता था तुम मेरे बगैर रह ही नहीं सकती। आज से तुम सिर्फ और सिर्फ मिसेज रितेश सक्सेना हो। मैं तो आज ही से तुम्हारा यह नामकरण कर देता हूं,’’ कहते हुए रितेश हंसा।

‘‘सॉरी रितेश, पर जैसा तुम सोच रहे हो वैसा कुछ भी नहीं करने वाली मैं। प्यार तो मैंने भी तुमने बहुत किया, लेकिन तुमने प्यार के बदले मुझसे मेरी पहचान, मेरा वजूद ही मांग डाला। प्यार शर्तों नहीं चलता। तुम्हें तो अपने लिए कठपुतली चाहिए। माफ करना, मैंने दिन-रात मेहनत करके पढ़ाई इसलिए नहीं की कि मैं एक दिन अपने ही हाथों अपनी प्रतिभाओं का खून कर दूं। मैं अपना नामकरण कर चुकी हूं और भविष्य में डॉ. भाविनी माथुर ही कहलांऊगी, यही बताने आयी थी।’’

रितेश स्तब्ध खड़ा रह गया।