सूरज को अर्घ्य दे कर मनोरमा रसोई में आ चुकी थीं। नाश्ते और दोपहर के खाने की तैयारी में जुटी हुई थीं कि नेहा आयी, “मुझे आवाज दे देतीं मम्मी, मैं भी आ जाती आपकी हेल्प करने,” उसने मासूमियत और पूरी निष्ठा से कहा। “तुम तैयार हो, ऑफिस जाना है ना। यहां मैं आराम से संभाल लूंगी।” नयी बहू के आने के बाद भी मनोरमा को रसोई में काम करना नहीं अखर रहा था। जैसे अब तक बेटे के लिए रसोई संभाली, अब बहू के लिए भी संभाल लूंगी, ऐसी विचारधारा के होते हुए भला परेशानी होगी भी क्यों !
नितिन की शादी हुए अभी 8 माह बीते थे। नेहा उसी की पसंद की लड़की थी। विजातीय थी। लेकिन सबको पहली मुलाकात में इतनी भा गयी थी कि किसी ओर से नानुकुर नहीं हुई। पिछले 3 महीने आराम से निकले थे। नेहा चुप ही रहा करती थी। बस हौले से मदद करने की पेशकश करती, जिसे मनोरमा अकसर टाल दिया करतीं। पति सोमेश्वर टोकते, “उसे भी अपने साथ लगाया करो काम में, वरना कैसे सीखेगी वो कुछ।” पर मनोरमा का कहना था, “जितनी देर में उसे समझाऊंगी, उतनी देर में तो मैं काम निबटा भी लूंगी। और फिर उसके काम करने का ढंग मुझे ना भाया, मैंने टोका और उसे बुरा लग गया... बहुत सी बातें हो सकती हैं।” ठीक भी था। औरतें ऐसी बातें मर्दों की अपेक्षाकृत बेहतर समझती हैं।
सोमेश्वर ने पूरे जतन से ये घर बनवाया था, जिसे मनोरमा ने पूरे मन से सींचा था। शुरुअात में इस पूरे मोहल्ले में उन्हीं की दोमंजिला इमारत थी। अब तो खैर कई घर बन गए थे, कुछ इनसे भी ऊंचे। ऊपर की मंजिल पर एक किराएदार रखा था शुरू से।
“चलो नेहा, देर हो रही है,” नितिन ने आवाज लगायी, “मम्मी, खाने का डब्बा...”
मनोरमा ने सबके लिए डाइनिंग टेबल पर नाश्ता परोसा। फिर नितिन-नेहा को खाने के डिब्बे थमाए।
“अरे वाह, आज आलू के परांठे। बहुत मन था यही खाने का,” नितिन खुशी से नाश्ता करने लगा।
तभी नेहा भी आयी, “आज आलू के परांठे? पर नितिन, तुम तो कह रहे थे कि आज मैकरोनी खाओगे। मम्मी को बताया नहीं था क्या?” नेहा की साफगोई पर मनोरमा का मुंह उतर गया। उसने नितिन को आंख के इशारे से नेहा को मना करते हुए भी देख लिया। नेहा चुपचाप बैठ कर नाश्ता करने लगी। अपने-अपने डिब्बे लिए दोनों ऑफिस चल दिए। “तुमने मुझे मना क्यों किया? मैंने ऐसा क्या कह दिया था?” कार में बैठते ही नेहा ने प्रश्न किया।
“मम्मी ने इतने प्यार से आलू के परांठे बनाए थे और तुम हो कि...”
“पर मैकरोनी खाने की फरमाइश तो तुम्हारी थी ना? और फिर वो मां हैं, उनसे अपने दिल की बात नहीं कहेंगे तो किससे कहेंगे? मेरे मायके में मम्मी से बात करने में इतना नहीं सोचते,” नेहा ने फिर मासूमियत से कह डाला।
“ये तुम्हारा मायका नहीं है, ससुराल है। और फिर हर घर अलग होता है, और हर व्यक्ति भी। किसी को जल्दी बुरा लगता है, कोई संवेदनशील होता है तो कोई नहीं।”
नेहा ने अकसर गौर किया था कि नितिन अपने घर वालों के समक्ष अलग ही इंसान होता था। शादी से पहले, कोर्टशिप के दौरान, नितिन का जो बिंदास एटिट्यूड उसे भाता था, वह अब नहीं दिखता था। पहले नितिन कितना स्पष्टवक्ता था, जो बात सही है, उसे कहने में उसे जरा भी हिचकिचाहट नहीं होती थी। नेहा की अपनी आदत भी ऐसी ही थी, सो दोनों की खूब घुटने लगी थी। किंतु विवाहोपरांत नितिन बातों को दबे-ढके कहता, कमरे में कुछ कहता और बाहर निकल कर कुछ और ही कहने लगता।
पिछले हफ्ते की बात है, जब नितिन ने आने वाले लंबे सप्ताहांत में दोनों के कहीं घूमने चलने का कार्यक्रम बनाया था। कमरे से बाहर आए और मम्मी ने पहले ही कह डाला, “अगले हफ्ते गांव चलने का मन है बहू को ले कर। अगर तुम लोगों का कोई और कार्यक्रम नहीं है तो चल सकते हैं। वैसे कोई खास बात नहीं है। कुछ और कार्यक्रम हो तो फिर कभी चले जाएंगे।”
“नहीं मम्मी, हमारा कोई कार्यक्रम नहीं है। चलते हैं गांव,” नितिन का उमक कर कहना नेहा को बिलकुल पसंद नहीं आया। एक छोटा सा झगड़ा भी हो गया था उस रात। नेहा का मत था कि गांव चलना है तो चलो, पर मम्मी को बता तो दो कि आपके लिए हमने अपना कार्यक्रम रद्द किया है।
ऐसे ही जब कभी नेहा, नितिन का कोई काम करने लगती, मसलन उसके लिए कुछ खास पकाना, या फिर उसकी अलमारी ठीक करना, तो मनोरमा फौरन वहां आ पहुंचतीं, “तुम रहने दो। मैं ही हमेशा से करती आयी हूं, तुम्हें पता भी नहीं क्या कहां रखा है।”
सब कुछ बहुत अच्छा था, किंतु नेहा को अभी तक लगता था कि इस घर में वह एक मेहमान है। उसकी कोई भागीदारी नहीं थी गृहस्थी में। “मुझे ऐसा क्यों लगता है जैसे मैं वर्किंग हॉस्टल में रह रही हूं- सुबह अपना काम समेट कर ऑफिस जाओ, शाम को लौट कर मेस में खाना खा कर सो जाओ... लगता ही नहीं कि मैं शादीशुदा जीवन बिता रही हूं,” नेहा नितिन से कभीकभार शिकायत किया करती।
“ओफ्फो, तो शादीशुदा जिंदगी की डोज बढ़ानी पड़ेगी,” पर नितिन उसकी बात को अकसर मजाक में उड़ा देता। साथ में निश्चिंतता से सोते हुए नितिन को देख नेहा को विश्वास हो जाता कि गृहस्थ-जीवन के उतार-चढ़ाव केवल स्त्रियों के भाग्य में लिखे हैं, पुरुष तो विवाहोपरांत भी कुंअारे जीवन की लापरवाहियों का आनंद उठा पाते हैं।
आज नेहा बहुत खुश थी- आज एक अरसे बाद वह घर में अकेली थी। उसने फौरन कुंअारे समय की अपनी मनपसंद टी-शर्ट निकाली, साथ में शॉर्ट्स पहने और धम्म से बैठ गयी ड्रॉइंग रूम में पसर कर टीवी देखने। फोन पर ऑर्डर कर पिज्जा मंगवा लिया। बैठी तो टीवी देखने थी, किंतु टीवी देखने की उसकी आदत ही छूट गयी थी शादी के बाद। मायके में वह हक से अपने चैनल लगा लिया करती थी, लेकिन यहां सबके अपने-अपने कार्यक्रमों का समय बंधा था, इसमें उसके लिए गुंजाइश ही नहीं थी। खैर, वह इतनी छोटी-छोटी बातों की शिकायत नहीं किया करती थी। वह खुश ही रहती थी, क्योंकि परिवार अच्छा था। एक कप गरमागरम कॉफी पी कर वह अपने लैपटॉप पर एक बचपन की सहेली को ईमेल लिखने बैठ गयी। नहीं, ईमेल में वह अपनापन कहां जो कागज-कलम में है, सोच वह एक कागज पर पत्र लिखने लगी-
‘प्यारी मधु,
आज मैं बहुत खुश हूं। और खुश होते ही तुम्हारी याद आयी सो तुम्हें पत्र लिखने बैठ गयी। तुम सच ही कहती थीं कि शादी के बाद पूरा जीवन उलट-पुलट हो जाता है। मुझे बहुत अच्छा परिवार मिला है, भले लोग हैं पर फिर भी शुरुअाती दिनों की हिचकियां मुझे भी आती हैं। हंसो मत ! ये पूछो कि आज मैं खुश क्यों हूं? वह इसलिए, क्योंकि आज मैं एक पंछी की भांति स्वच्छंद अनुभव कर रही हूं। शादी के इतने महीनों बाद आज मुझे लग रहा था कि ये मेरा अपना घर है- जो चाहे पहनो, जैसे चाहो बैठो, जहां चाहे खाओ ! आखिर एक लड़की को शादी के पश्चात इतने बंधनों में क्यों बंधना पड़ता है। सोचती हूं तो बहुत गलत लगता है ये सब। पर फिर दोबारा सोचती हूं तो लगता है, चलो, ऐसा सभी के साथ होता आया है, तो मैं कौन सी अनोखी हूं। धीरे-धीरे मैं भी इस गृहस्थी का हिस्सा बन जाऊंगी। मनपसंद पका सकूंगी, मनमाफिक इस घर को सजा सकूंगी...’
नेहा लिखने में मगन थी कि अचानक दरवाजा खुलने की आवाज से वह चौंक पड़ी। सिर उठा कर देखा तो सामने मनोरमा खड़ी थीं। दोनों एक-दूसरे को देख कर हैरान थीं- नेहा इसलिए कि अचानक मनोरमा कैसे प्रकट हो गयीं, और मनोरमा नेहा के कपड़े देख कर।
“मम्मी आप? पर आप तो शादी में गयी थीं ना?”
“मेरे पास एक चाबी होती है दरवाजे की। कुछ काम से घर आना पड़ा, अभी फिर जाना है,” मनोरमा की असहजता ने नेहा को अपने कपड़ों के प्रति और भी सचेत कर दिया। वह आननफानन में अपने कमरे में भाग गयी। मनोरमा ने एक गिलास पानी पिया और वहीं सोफे पर बैठ गयीं। जब नेहा कपड़े बदल कर आयी, मनोरमा “अंदर से दरवाजा बंद कर लो,” कहती हुई चली गयीं। नेहा का सारा उत्साह काफूर हो गया। वह बुझे मन से दरवाजे की चिटकनी लगा टीवी देखने लगी और सहेली को लिखा पत्र फाड़ कर रद्दी की टोकरी के हवाले किया।
सप्ताहांत की सुबह नाश्ते के पश्चात मनोरमा ने नितिन और नेहा को अपने कमरे में बुलाया, “मैं सोच रही हूं ऊपर की मंजिल किराए पर ना दे कर तुम दोनों को वहां शिफ्ट कर दिया जाए। कैसा रहेगा?”
इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से दोनों हैरान रह गए। एक-दूसरे की तरफ ताकते हुए पूछने लगे, “क्यों?”
“कोई खास कारण नहीं है, बस यों ही। तुम दोनों को कोई आपत्ति तो नहीं? सोचती हूं, हमने अपनी गृहस्थी संभाली, अब तुम अपनी संभालो। ऊपर-नीचे रहने से पास के पास बने रहेंगे, जरूरत में एक-दूसरे के काम आएंगे, और अपनी-अपनी स्वतंत्रता भी बनी रहेगी। आखिर जहां अपनी मर्जी से जिंदगी जी सको, वही है अपना घर,” कहते हुए मनोरमा अपनी अलमारी की सफाई में व्यस्त हो गयीं।
कुछ पल वहीं बैठ नितिन और नेहा अपने कमरे में चले आए। दोनों ने विचार-विमर्श किया। अपनी गृहस्थी स्वयं संभालने में काम तो अवश्य बढ़ेगा, किंतु आजादी भी होगी। जब चाहे मित्रों को घर बुला लो, कुछ भी पकाओ-खाओ या फिर बस बाहर से ऑर्डर कर दो। घर में बुजुर्ग होते हैं तो उनके लिए घर का खाना तो बनाना ही पड़ता है। नजदीक रहने से उनका ध्यान भी रखा जा सकेगा। हर तरीके से यह प्रस्ताव जंच रहा था। “किंतु मां को अचानक हुआ क्या?” नितिन अब भी हैरत में था।
“मैं भी यही सोच रही हूं। हमारी कोई बात बुरी तो नहीं लग गयी? अकेले में पूछ कर देखूं?” नेहा ने नितिन से स्वीकृति मांगी।
एक शाम चाय पीते हुए जब नेहा और मां घर में अकेले थे तो नेहा ने मौका पा पूछ लिया, “मां, आपने हमें अलग करने का निर्णय क्यों लिया? हमसे कोई गलती हो गयी क्या?”
“तुम्हें ऐसा क्यों लगा, मैं तुम दोनों से नाराज नहीं हूं। पर मेरा कहना गलत भी नहीं। तुम्हारा भी मन करता होगा अपने तरीके से घर सजाने का, अपने तरीके से रसोई पकाने का। हर लड़की के कुछ अरमान होते हैं अपनी गृहस्थी को ले कर। उन्हें पूरा करने का यही समय है। फिर बाल-बच्चे हो जाएंगे तो पूरी तरह व्यस्त हो जाओगी। अच्छा है कि तुम भी अपना घर बनाने की सुखद अनुभूति ले लो,” फिर कुछ सोच कर आगे बोलीं, “अपने मन की कोई भी बात तुम मुझसे बांट सकती हो, नेहा। और तुम्हारी सहायता मैं ही कर सकती हूं, तुम्हारी कोई सहेली नहीं,” इतना कहते हुए वे उठ कर रसोई में चली गयीं।
उधर मनोरमा रात के खाने की तैयारी करने में उलझ गयीं और इधर नेहा विचारों के ताने-बाने में उलझी सोचती रही कि मां ने ऐसा क्यों कहा। दिनों के क्रमों को उल्टा फिराते हुए वह उस दिन तक पहुंच गयी, जब सब शादी में गए हुए थे और वह टी-शर्ट व शॉर्ट्स पहने अपनी सहेली को एक पत्र में मन की बातें लिख रही थी। तभी मनोरमा आ गयी थीं और नेहा अपना अधूरा लिखा पत्र वहीं ड्राॅइंगरूम में छोड़ कपड़े बदलने अपने कक्ष में चली गयी थी। जरूर मां ने वह पत्र पढ़ लिया होगा। नेहा को बहुत लज्जाजनक प्रतीत होने लगा।
परंतु यह मनोरमा की उदारता रही कि उन्होंने फिर इस विषय को नहीं छेड़ा। पूरा साथ निभाते हुए दोनों को ऊपर की मंजिल पर शिफ्ट करवाया। शुरुआती कुछ दिन गृहस्थी बसाने में मदद की, यहां तक कि रसोई पकाने में भी सहायता की। फिर धीरे-धीरे सब अपनी दिनचर्या में खो गए।
आज नेहा और नितिन ऊपर की मंजिल में रहते हुए सारे काम खुद ही संभालते हैं, लेकिन साथ ही पूरी स्वच्छंदता भी मिली है। अब नेहा और नितिन पहले से अधिक जिम्मेदार हो गए हैं। अपने घर के साथ-साथ मां-पिता के घर की भी कुछ जिम्मेदारियां जैसे बिल जमा करवाना, सब्जी लाना आदि संभालते हैं। नेहा को जैसा नितिन पसंद आया था, अब घर में वह वैसे ही रूप में दिखता है। दोनों की शादीशुदा जिंदगी बहुत अच्छी निभ रही है।
मनोरमा के एक कदम से आज नेहा उनके और भी करीब है। वह अकसर सोचती है, कितना सही कहा था उन्होंने- जहां अपनी मर्जी से जिंदगी जी सको, वही है अपना घर ! और उसका अपना घर बनाने और बसाने का पूरा श्रेय वह मनोरमा को देती है। तभी तो उसने घर का नाम रख दिया है- मनोरम कुटीर।