पता नहीं क्यों आज आंखों में नमी है। शायद गर तू नहीं तो खुशियों में भी कमी है... ये लाइनें पढ़ते-पढ़ते कब मेरी आंखों के कोर नम हो गए, मुझे पता ही नहीं चला। शब्द जब धुंधले होने लगे, तब मैंने अपना चश्मा उतार कर किताब बंद कर आंखें मूंद ली थीं।
अकेले सफर करना मेरे लिए हमेशा से ही कष्टकारी रहा। मेघना जीवन का वह हिस्सा बन चुकी थी, जिसके बगैर मैंने कोई भी सफर अकेले नहीं किया था और अब पूरे सफर के दौरान में क्या करूंगा... यह सोच कर अपनी पुरानी रुचि के चलते मैंने अपना लंबा सफर प्लेटफाॅर्म से खरीदी इस किताब के साथ काटने का बनाया था। बुक सेलर से कहा था कि इस समय की ट्रेंड कर रही अच्छी ‘बुक’ देने को। मैंने उससे आग्रह किया कि वह जो चाहे बुक दे सकता था, लेकिन वह रोचक होनी चाहिए थी, जिससे सफर का पता ना चले।
ट्रेन चलने के साथ थोड़ी देर बाद ही मैंने अपनी बुक को पढ़ने का मन बना लिया। थोड़ी देर में ही पढ़ने पर पता चल गया था कि यह विशुद्ध प्रेम कहानी थी। फिर जिसका डर था वही हुआ... पुस्तक पढ़ आंखें रही थीं, पर शब्द हृदय पर प्रहार कर रहे थे। दिल बहुत जोरों से धड़कने लगा था। शब्द पढ़ते हुए सीधे आंखों से उतर कर दिल की गहराई में दफन हो रहे थे। मन की स्मृतियां ले जा रही थीं उस समय में, जब प्रेम ही जीवन का सार हुआ करता था। विचारों को झटक कर मैं अपनी पत्नी मेघना के बारे में सोचने लगा।
सुबह घर से निकला था, तो बहुत सामान हो गया था। मेघना ने जरूरत का सभी सामान मेरे साथ रख दिया था। वह उम्र की इस अवस्था में मेरी पत्नी से बढ़ कर मेरी मां बन चुकी थी। खाने से ले कर पहनने तक हर चीज के लिए मैं उस पर कब पूरी तरह निर्भर हो गया... यह मुझे स्वयं भी नहीं पता।
सेमिनार के साथ ही मुझे अपनी बेटी, जो उसी शहर में इंजीनियरिंग कर रही थी, के कॉन्वोकेशन में भी शामिल होना था। मेरी इकलौती पुत्री... जो मेरे जीवन की सबसे प्यारी चीज थी, तो इतने महत्वपूर्ण अवसर पर मैं कैसे उसकी कामयाबी का गवाह ना बनता। मैं चाहता था तो था कि मेघना भी साथ आए, पर अपनी भतीजी की शादी के चलते उसे यहां आने का अपना प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ा।
मेरे अचानक आने का प्रोग्राम सुन कर मेरी बेटी रिमझिम बहुत खुश थी। वह कॉन्वोकेशन के टाइम पर मेरा साथ चाहती थी। मेरे आने की बात सुन कर वह फोन पर ही ना जाने कितनी देर तक वह मुझे बताती रही कि वह मुझे कहां-कहां घुमाएगी। मैं बस उसकी बात सुन कर मुस्कराता रहा। जाने के दिन सुबह से रिमझिम ने ना जाने कितनी बार फोन किया था।
पत्नी तो पत्नी, मेरे नरम स्वभाव के चलते मेरी बेटी भी अब मुझे मां सरीखी हिदायत दे ही जाती थी... उसने साफ कह दिया था, ‘‘पापा, अपना रिजर्वेशन चार्ट सही से चेक कर लेना, सही से अपनी बर्थ ढूंढ़ लेना और हां मोबाइल फोन स्विच ऑफ मत रखना।’’ उसकी बात सोचते ही मेरे होंठों पर मुस्कान फैल गयी थी और उसे कौन बताए कि जिसे वह सही से सीख लेने को कह रही थी, उसने तो लड़कपन में जाने कितनी बार लटक कर ट्रेन का सफर किया होगा और मोबाइल फोन ! उन दिनों जवानी के जोश में मैंने जो टूर किए थे, तो 4-4 दिनों तक अपने घर पर संपर्क नहीं किया था।
उन दिनों अपने मित्रों का लीडर बना मैं और मेरे पीछे मेरे मित्र। तब ना दिन का पता था, ना रात का। मेरे अति उत्साही नदी समान व्यवहार ने अब शांत सरोवर का रूप ले लिया था। जिंदगी के अनुभवों से गुजरते हुए मैंने कब तरुण से वयस्क अवस्था पा ली थी... मुझे पता ही नहीं चला था।
ट्रेन भाग रही थी और साथ ही भाग रहे थे मेरे मन के भाव, जो ले जा रहे थे मुझे उस समय में, जब मैंने जीवन को भरपूर जिया। मानो कल की बात है, जब पढ़ने से ज्यादा हीरोबाजी में मुझे ज्यादा आनंद आने लगा था। क्या पहनूं कि और स्मार्ट दिखूं, क्या करूं कि मेरे और भी ज्यादा सब फैन बनें।
‘फैन !’ जी हां फैन, उस समय मैं अपने को हीरो से कम नहीं समझता था और अपने साथियों और जूनियर्स को अपना फैन। दिल खोल कर खर्च करनेवाले माता-पिता मिले थे और उनका इकलौता पुत्र मैं जीवन का पूरा आनंद उठाते हुए शानदार जीवन जी रहा था।
मेरे मित्र मेरे पैसों से कैंटीन में खा कर मेरी वाहवाही करतेे और मैं चने के झाड़ पर चढ़ा आत्ममुग्ध हुआ करता। अपने मित्रों पर कुछ भी कुर्बान करने को मैं हमेशा तैयार रहता था। ऐसे ही एक दिन मेरे मित्र समोसे और कोल्ड ड्रिंक उड़ा रहे थे और मेरे गुणगान गा रहे थे तभी जूनियर स्टूडेंट्स का एक ग्रुप हमारे पास आया।
आमतौर पर जूनियर सीनियर से डरा व झिझका करते थे, पर उस समय उनका व्यवहार ऐसा बिलकुल नहीं था। वे दनदनाते हुए समूह में आए और आ कर हमारी टेबल पर रुक गए।
‘‘सर, आप लोग हमारी फ्रेशर्स पार्टी के लिए डोनेशन दे दीजिए,’’ उनमें से एक ने बहुत विनम्र अंदाज में कहा।
‘‘क्यों भाई, क्यों दे हम तुम्हें डोनेशन? तुम्हारी फ्रेशर्स पार्टी से हमें क्या मतलब?’’ मेरे दोस्त गौरव ने आंखें दिखाते हुए कहा।
‘‘सर, हमारे पास फंड कम है। असल में हमारे बैच में स्टूडेंटस की संख्या बहुत कम है... जिसके चलते ज्यादा कलेक्शन नहीं हो पाया है और तीन महीने बाद हमें फ्रेशर्स पार्टी देनी है। हम सही से अरेंज नहीं कर पाए, तो जूनियर्स पर हमारा इंप्रेशन खराब हो जाएगा।’’
‘‘तुम्हारे इंप्रेशन का हमसे क्या लेना-देना,’’ अब मजे लेने की बारी मेरी थी।
‘‘क्योंकि सर, हमने अपने जूनियर्स को कह दिया है कि फ्रेशर्स पार्टी को आपका बैच ऑर्गेनाइज करा रहा है,’’ एक जूनियर ने दांत दिखाते हुए कहा।
अब उनकी बातों में मुझे थोड़ी-थोड़ी दिलचस्पी आने लगी थी और अब तक कैंटीन में बैठे मेरे बैच के और भी स्टूडेंट्स पास आ गए थे। सभी एकदम से उस ग्रुप पर चढ़ गए, ‘‘अरे, तुम लोगों हमारी बिना परमिशन के ऐसे कैसे कह दिया?’’
‘‘क्योंकि सर, हमें पता है कुणाल सर बहुत काइंड हार्टेड हैं, वे हम लोगों की बात नहीं टालेंगे,’’ ग्रुप के पीछे से निकल कर आयी एक लड़की बोली।
अपना नाम एक मीठी आवाज में सुन कर मैं तेजी से उस अोर पलटा। वह आंखों पर चश्मे लगाए एक अौसत कद-काठी की लड़की थी। कुछ विशेष सुंदर तो नहीं थी, पर ना जाने क्या आकर्षण था उसमें, जाे मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा... कैसा सम्मोहन था उसमें, जो मेरी निगाहें उस पर से हट नहीं रही थीं। सदैव अपनी तारीफ का भूखा मैं अब जूनियर्स की बात ध्यान से सुन रहा था, लेकिन मेरी आंखें उस लड़की की ही तरफ थीं।
‘‘अोए ! हमारा कुणाल दरियादिल है, इसका मतलब थोड़े है कि वह तुम लोगों के लिए भी अपने पैसे लुटाएगा,’’ मेरे परम मित्र अभिषेक ने उस लड़की से कहा। मैंने हाथ के इशारे से अभिषेक को रोक दिया था और जूनियर से पूछने लगा था, ‘‘बताअो, मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं।’’
‘‘सर, एक तो आप हमें जितना ज्यादा से ज्यादा अमाउंट दे सकते हैं वह दे दीजिए और आपको हमारे फंक्शन में गाना गाना होगा,’’ उनके ग्रुप की एक दूसरी लड़की ने कहा। मैंने उस चश्मे वाली लड़की को देखते हुए हामी भर दी... सुनते ही जूनियर्स का ग्रुप खुशी से चीखने लगा।
‘‘अब भागो तुम लोग यहां से,’’ गौरव ने जूनियर्स को डांटते हुए। वे लोग जाने लगे, तो मैं जैसे सपने से जागा और बोला, ‘‘ठहरो, तुम लोग अपने आपको इंट्रोड्यूस तो करो।’’ अभिषेक का मुंह खुला का खुला था। समोसे का महा लालची वह, हाथ में समोसा लिए बैठा था... उसे मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं कबसे जूनियर्स में इतना इंटरेस्ट लेने लगा।
जूनियर्स का ग्रुप एक-एक करके अपना नाम और परिचय दे रहा था, लेकिन मैं तो जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था... मेरे कान तो बस उस चश्मे वाली लड़की के बारे में जानना चाह रहे थे।
‘‘मैं स्वाति, सर मैंने पिछले साल काॅलेज जॉइन किया है... मैं काॅमर्स की स्टूडेंट हूं।’’ वह कह चुकी थी कि मेरे होंठ बुदबुदाए, ‘‘स्वाति।’’
वह बोल उठी, ‘‘जी सर, कुछ कहा आपने?’’
‘‘न... नहीं, कल तुम लोग मुझसे पहले पीरियड से पहले यहीं कैंटीन में आ कर मिल लेना, मैं अमाउंट दे दूंगा,’’ मैं हड़बड़ाते हुए बोला।
उन लोगों के जाते ही मेरे बैच के फ्रेंड्स अब मेरे ऊपर सवार थे। जूनियर के प्रति बेहद रूखा व्यवहार रखनेवाला मैं अचानक उनकी मदद को कैसे तैयार हो गया था, यह सब बात मेरे साथियों की समझ से परे थी, ‘‘अरे पागल हो गया है तू, हम क्यों देंगे उनके बैच की तरफ से फ्रेशर्स पार्टी।’’
‘‘और तो और जनाब गाना भी गाएंगे,’’ मेरे मित्र हंसते-हंसते लोटपोट हुए जा रहे थे। पूरी कैंटीन उनकी हंसी से गूंज रही थी। और मैं... मैं तो अपनी दुनिया में मगन उनकी बातें सुन कर बस मुस्करा रहा था। पहली बार कोई था, जिसकी आवाज ने मेरे हृदय के तार छेड़े थे। ना जाने कितनी लड़कियां थीं, जो मेरी एक झलक देखने की दीवानी थीं और मैं था कि बस उसकी एक झलक का दीवाना बन गया था।
अगली सुबह मैं बहुत अच्छे से तैयार हुआ। आधा घंटा दिमाग दौड़ाने के बाद मैंने अपनी अलमारी से अपनी पसंद के कपड़े चुने। पूरा बेड मेरे वाॅर्डरोब से निकाले हुए कपड़ों से भरा हुआ था। दस मिनट तक बाल बनाता रहा। शीशे में अपने लिए अलग-अलग अंदाज से देख कर खुश हो रहा था।
‘सच में हैंडसम ही लग रहा हूं मैं तो,’ मैं कितनी देर और अपने आपको शीशे में निहारता रहता... अगर मां ने मुझे नाश्ते के लिए नहीं बुलाया होता। मां बुलाते-बुलाते मेरे कमरे तक आ चुकी थीं... मेरे अस्तव्यस्त और इतने सारे फैले कपड़ों को देख कर वे दंग और नाराज थीं। पर मैं तो जैसे अपनी धुन में मगन था। जैसे-तैसे बस नाश्ता खत्म करके मैं कॉलेज को भागा। मेरी बाइक की गति मेरी बेचैनी को बयां कर रही थी। दो-तीन बार में सामने से आते वाहन से टकराने से बचा। जैसे-तैसे संभलते हुए मैं कॉलेज आ गया था और पहुंच गया कैंटीन में, जहां मैंने जूनियर्स को आने को कह दिया था।
इतनी जल्दी आ गया था कि बस कैंटीन का स्टाफ ही दिखायी दे रहा था। रेगुलर कस्टमर होने की वजह से कैंटीनवाले भैया ने आश्चर्य से मुझसे पूछते हुए कहा, ‘‘क्यों कुणाल, आज इतनी जल्दी कैसे, कोई खास बात?’’
‘‘अरे नहीं, बस ऐसे ही आज थोड़ा काम था इसलिए जल्दी आ गया,’’ कहते हुए मुझे अपने आप पर ही शरम आ रही थी। मैं बार-बार एंट्रेंस की तरफ ही देख रहा था। थोड़ी देर में पहले पीरियड का टाइम हो गया था, लेकिन मैंने जूनियर्स को फर्स्ट पीरियड से पहले आने को कहा था। मेरा मन आज क्लास में जाने का भी नहीं कर रहा था। तभी मुझे ढूंढ़ता हुए मेरा गैंग वहां जरूर आ पहुंचा था। अभिषेक काउंटर से ही समोसे का ऑर्डर देता हुआ आया। उनको देखते हुए पहले तो मुझे बहुत गुस्सा आया कि आ गए दोस्त मुझे यहां भी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते। फिर मैंने चुप और गंभीर बैठे रहने का नाटक किया।
‘‘अरे बॉस, क्लास में क्यों नहीं आए, यहां कैसे बैठ गए,’’ मुंह में समोसा ठूंसते हुए मुझे वहां से खींचता हुआ ले जाने लगा, ‘‘यह क्लास मिस नहीं कर सकते, एग्जाम पास है।’’
मैं हाथ में समोसा लिए बेमन से उसके साथ बाहर निकलने लगा। तभी सामने से मुझे जूनियर्स का ग्रुप आता दिखायी दिया। मैं रुक गया। मेरी सांसें थम सी गयी थीं और मैं बराबर स्वाति को ढूंढ़ रहा था।
मैंने अभिषेक और अपने फ्रेंड से कहा, ‘‘तुम लोग चलाे, मैं अभी इनको डोनेशन दे कर आता हूं।’’
‘‘दे ले भाई तू, हम रुके हैं 5 मिनट,’’ गौरव मुझे दांत दिखाते हुए बोला। मुझे उस पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था कि दे मारूं एक पंच, लेकिन सामने आते जूनियर्स को देख कर मैं रुक गया।
पूरे ग्रुप में पीछे खड़ी स्वाति की बस एक झलक ही मुझे दिखी थी। मैं चाहता था वह आगे आए और मैं उसको डोनेशन दूं। लेकिन वह थी कि आगे ही नहीं आ रही थी और आगे खड़ा हुआ स्टूडेंट हाथ बढ़ाए हुए था। एक हाथ से मैं पर्स निकाल रहा था और नजरें स्वाति को खोज रही थीं और किसी हड़बड़ाहट में रुपए निकालने के बाद भी मैंने गलती से जूनियर के हाथ में समोसा रख दिया। तब तक स्वाति आगे आ चुकी थी और उसकी खनखनाती हंसी मेरे गालों को एक बार फिर लाल कर गयी थी।
‘‘सर, समोसा नहीं अमाउंट दीजिए, प्लीज,’’ जूनियर्स की आवाज सुन कर जैसे मैं जागा।
‘‘ऐसा करो बच्चो समोसा भी खाअो,’’ मेरे हाथ से रुपए एक जूनियर स्टूडेंट को देता हुआ गौरव बोला और फिर मुझे खींचता हुआ हमारी क्लास में ले जाने लगा। मैं जा ही रहा था कि स्वाति की आवाज सुन हम फिर रुके, ‘‘सर, यह तो बताते जाइए आप कौन सा गाना गाएंगे।’’
‘‘डुएट गाएंगे डुएट,’’ अब बारी अभिषेक की थी और सबको हंसता छोड़ कर हम क्लास में आ गए।
उनके साथ मैं अब अपनी क्लास में आ गया था, लेकिन मेरा मन तो वहीं स्वाति में अटक गया था। पढ़ने से तो मैं पहले ही जी चुराता था, अब भला पढ़ाई में कैसे मन लगता मेरा। कोई ना कोई बहाना ढूंढ़ता जूनियर से मिलने का। कोशिश करता जब उनका गैंग कैंटीन पहुंचे, तभी मैं पहुंचूं। हर पल स्वाति के आसपास मंडराते रहने का मेरा जी करता। मैं जानता था यह मैं करता हुआ पागल लगूंगा, लेकिन मैं अपने आपको रोक नहीं पाता था।
मेरी सारी हीरोगिरी उसके साधारण रूप के सामने फ्लाॅप हो गयी थी। वह जब भी मिलती जूनियर होने के नाते मुझे विश करती, पर मैं भी बस अपने जज्बात दबाए बदले में सिर हिला देता। मैं चाह कर भी स्वाति से अपने मन की बात कह नहीं पा रहा था।
फिर चली फ्रेशर्स पार्टी के लिए जूनियर्स की प्रैक्टिस और अब तो मुझे बहाना भी मिल गया था उनके बीच जाने का। मुझे गाना जो गाना था। मैं कौन सा गाना गाऊं, यह भी मैंने स्वाति से पूछा। मेरे लिए बढि़या गाना सलेक्ट करने में स्वाति ने पूरी रिसर्च कर ली थी। मैं ऑडिटोरियम जाता, उनके बीच प्रैक्टिस करता। स्वाति की भी परफॉर्मेंस थी। वह जितनी देर भी प्रैक्टिस करती... मैं अपलक उसे निहारता रहता। हां, एक बात नोटिस की थी मैंने। जितनी देर भी मैं प्रैक्टिस करता, वह ध्यान से सुनती और मेरी प्रैक्टिस खत्म होने तक वहीं बैठी रहती।
उसके पहनावे से मैं समझ गया था कि वह एक साधारण घर की लड़की है। पता चला था कि वह अपने घर से दूर चाचा-चाची के यहां रह कर पढ़ाई कर रही थी। माता-पिता की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। मेरे तरह-तरह के डिजाइनर कपड़े उसके साधारण कपड़ों के सामने फीके लगते। मैंने भी अब उसी की तरह सीधे सादे कपड़े पहनने शुरू कर दिए थे। मेरे बदलते रंगढंग से मेरे मित्र बहुत हैरान और परेशान थे। उधर मेरी मां भी बहुत चिंतित थीं कि मुझे पता नहीं क्या हो गया था।
और मैं... मैं तो पूरी तरह से बावला हो गया था स्वाति के पीछे। वह हंसती तो लगता उसकी हंसी मेरे लिए ही बनी थी। उसकी बातें दिनबदिन मुझे अपना दीवाना बनाती जा रही थीं। मेरे दोनों मित्र मेरी इस गुप्त प्रेम लीला से बेखबर थे और वही क्या, शायद मेरे अलावा तो मेरी इस प्रेम लीला का किसी को भी पता नहीं था। मैं अच्छी तरह से जानता था कि मेरा हाल स्वाति से छिपा हुआ था... लेकिन कोई तो बात थी, जो मेरा आकर्षण बढ़ा रही थी। वह भी मुझे पसंद करती थी या नहीं, यह सोच मुझे दिन-रात परेशान किए रहती थी। सुबह उठते ही मैं जल्दी से तैयार होता। मेरी पहली कोशिश होती कि मैं झट से कॉलेज पहुंच कर किसी ना किसी तरह स्वाति को देख लूं। कभी लगता वह मेरी बातों को समझ पा रही थी और अगले ही क्षण लगने लगता नहीं, उसे तो मेरी बातों का कोई भी अंदाजा नहीं था। हां, मेरे व्यवहार में जरूर ठहराव आ गया था। मैंने फालतू में घूमना बंद कर दिया था। फालतू बाइक घुमाना और खाने-पीने में वक्त बिताना अब मुझे बेकार लगने लगा था।
मेरे दोस्त खासकर गौरव और अभिषेक मेरे बदले रूप से हैरान-परेशान भी थे, पर बहुत कोशिश करके भी मेरी स्थिति का पता नहीं लगा पा रहे थे।
‘‘यार, बावला हो गया है यह तो, जब देखो जूनियर्स में ही घुसा रहता है।’’ अभिषेक के कहने पर गौरव ने कहा, ‘‘शायद रुपए दिए हैं, तो उनसे सेवा करा कर वसूलना चाहता है।’’
‘‘ओए, कौन सी सेवा कराऊंगा मैं,’’ मैंने बिगड़ते हुए कहा।
‘‘भाई, क्या पता जूनियर से हाथ-पैर दबवाने लगे या फिर नोट्स बनवाए,’’ कहता हुआ गौरव वहां से तेजी से भाग गया। उसे पता था कि अगर वह मेरे हाथ आ गया, तो बहुत पिटेगा।
मेरा जूता मेरे हाथों में था और मैं तेजी से उसके पीछे भाग रहा था और फिर वही हुआ, जो नहीं होना चाहिए था। सामने से स्वाति अपनी सहेलियों के साथ आ रही थी। मैं तो जूता लिए जैसे ‘स्टैचू’ बन गया।
उसकी खनखनाती हंसी ने मुझे जैसे जगाया।
मैं जूता बड़ी मुश्किल से नीचे रख पाया। उसे पहनने को मेरे पैर सीधे नहीं पड़ रहे थे। स्वाति थी कि हंसे जा रही थी और उसे अपनी सहेलियों का बखूबी साथ मिल रहा था। तब तक गौरव आ चुका था। वह जूनियर्स को हंसता देख कर गुस्सा हो गया, ‘‘अरे, तुम्हें शरम नहीं आती... किसके ऊपर हंस रहे हो।’’
‘‘सॉरी सर,’’ कहते हुए स्वाति ने बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी पर लगाम लगायी और वहां से तेजी से जाने लगी। लेकिन मुझे साफ दिख रहा था कि जाते हुए भी उसकी हंसी नहीं रुक रही थी। और ना जाने क्यों मैं भी हंसने लगा। मुझे हंसता देख कर मेरे मित्रों ने सिर पकड़ लिया, ‘‘यह तो गया काम से, जरूर जूनियर्स ने जादू-टोना कर दिया है... चल भाई इसका भूत उतारना होगा।’’ वे दोनों मुझे खींच कर ले जाने लगे... अब उन्हें कौन समझाए कि भूत मुझ पर सवार तो हुआ था, लेकिन वह कोई साधारण भूत नहीं था... वह तो प्रेम का भूत था।
और फिर फ्रेशर्स पार्टी का दिन आ गया। एक दिन पहले सब पूरे जोश से प्रैक्टिस कर रहे थे। मैंने भी अपनी प्रैक्टिस में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मैं स्वाति को इंप्रेस करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहता था। प्रैक्टिस के दौरान उसने मेरे पास आ कर मुझे गाने की बधाई दी। मेरा दिल कितनी जोर से धड़क रहा था उस दिन, ओलंपिक में गया होता तो एक-आध पदक तो शायद जीत ही लाता।
‘‘सर, कितना अच्छा गाते हैं आप। मुझे आपकी आवाज बहुत पसंद है,’’ वह अपनी मीठी आवाज में बोली थी।
‘‘और सर को तुम्हारा चश्मा और मोटी नाक,’’ मेरा दोस्त गौरव बोल पड़ा था।
ऑडिटोरियम हंसी से गूंज उठा। सबको हंसता देख कर स्वाति भी हंस रही थी, लेकिन वह हंसी बहुत बुझी हुई थी... उसकी आंखें छलक आयी थीं। वह मेरे पास से जाने लगी। मैंने रोकना चाहा, लेकिन वह आगे बढ़ चुकी थी।
‘‘क्या जरूरत थी यह सब कहने की,’’ मेरा गुस्सा अपने चरम पर था।
‘‘रिलैक्स कुणाल, हम तो जूनियर्स से इस तरह के मजाक करते रहते हैं,’’ अभिषेक मुझे गुस्सा देख कर बहुत हैरान था।
‘‘क्या गलत कह दिया उस लड़की के बारे में,’’ वह कह रहा था, लेकिन मेरा गंभीर चेहरा देख कर वह समझ गया मामला सीरियस है।
‘‘तू सच में सीरियस है स्वाति को ले कर क्या? मैं पहले दिन से देख रहा हूं कुछ तो अलग है, पर समझ नहीं पाया था। आज सब कुछ समझ में आ रहा है,’’ गौरव मेरी तरफ मुंह करके बोला। मेरी खामोशी मेरी स्थिति बयां करने के लिए काफी थी।
घर आ कर मैं पूरी तरह से सोच चुका था कि कल फ्रेशर्स पार्टी के बाद में स्वाति को अपने जज्बात जरूर बताऊंगा। पूरी रात मैंने आंखों में काटी। मेरा दिल बराबर धड़कता रहा और मैं बेचैनी में करवट बदलता रहा।
‘आज का दिन मेरे लिए खास होगा। मैं अपने मन की बात स्वाति को बता पाऊंगा।’ नाश्ते के दौरान मैंने अपनी बेस्ट फ्रेंड मां को अपने मन की बात बता दी। एक पल तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं फिर मुस्कराते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, अभी तो तुम्हारी पढ़ाई का बहुत लंबा सफर जारी है, लेकिन मैं तुम्हारे लिए खुश हूं।’’ कॉलेज जाते समय उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘मैं स्वाति से जरूर मिलना चाहूंगी।’’
मैंने हंसते हुए बाइक स्टार्ट कर दी और तेजी से निकल गया। ऑडिटोरियम खचाखच भरा था। फ्रेशर्स पार्टी बहुत अच्छी बन पड़ी थी। जूनियर्स ने सारे अरेंजमेंट्स बहुत अच्छे से किए थे।
एक से एक बढ़ कर प्रोग्राम चल रहे थे तब बारी आयी राधा-कृष्ण प्रसंग की। स्वाति के राधा रूप ने मेरे आज इरादे और पक्के कर दिए थे। उसका रूप आज देखते ही बनता था। मेरी परफॉर्मेंस भी ठीकठाक रही। सुबह से नर्वस था, तो उतना बेहतर नहीं कर पाया, जितना सोच कर आया था, लेकिन तालियां जानदार बजीं और बहुत देर तक बजती रहीं।
प्रोग्राम के बाद जब एक-एक करके प्राइज डिस्ट्रीब्यूट होने लगे, तो मेरी निगाहें स्वाति को खोज रही थीं। मैं जल्दी से जल्दी उसके पास पहुंच कर अपनी मन की बात बताना चाहता था। उसकी कुछ सहेलियों से पूछा, तो पता चला वह मेकअप रूम में थी और तैयार हो रही थी। मुझे अपने लिए यही सही अवसर लगा अपने जज्बात कहने का।
अपने मित्रों को छोड़ कर मैं चुपके से वहां से सरक लिया। मेेेकअप रूम के बाहर मैंने उसे अंदर संदेश पहुंचाया कि मैं उससे मिलना चाहता हूं। वह आयी और मैं उसे फिर देखता रह गया। गुलाबी साड़ी किसी पर इतनी अच्छी लग सकती थी, यह मैंने पहली बार देखा था।
कुछ साड़ी का रिफ्लेक्शन और कुछ शायद मेरा सामने होना उसके गाल गुलाबी किए जा रहा था। मैंने उसे गुलाब का बुके देते हुए बधाई दी कि उसकी परफाॅर्मेंस बहुत शानदार थी।
बदले में उसने कहा, ‘‘सर, आपकी भी।’’
बुके लेते हुए उसके हाथों से मेरे हाथ का स्पर्श मेरी पूरी प्रेम कहानी में एकमात्र अंतरंग पल थे। बुके देते हुए मेरे हाथ कंपकंपा रहे थे और उसकी आंखें सहज बंद हो गयी थीं।
मैं कुछ कहना ही चाहता था कि स्टेज पर उसका नाम ‘बेस्ट डांसर ऑफ द इवेंट’ के लिए पुकारा जा रहा था। हड़बड़ाहट में वह बुके मुझे वापस देती हुई तेजी से स्टेज की तरफ चली गयी। एक बार मैं अपनी बात कह नहीं पाया था। मैंने सोच रखा था जब वह स्टेज से नीचे आएगी, मैं बिना झिझक अपनी बात कह दूंगा। अब तो मुझे उसकी तरफ से अघोषित सिगनल भी मिल चुका था, जो मैंने उसकी आंखाें में अपने लिए पढ़ लिया था।
प्रोग्राम समाप्ति पर मैंने उससे मिलने की कोशिश की, तो पता चला वह अपने किसी रिश्तेदार के साथ घर चली गयी थी। वह रात मैंने बहुत बेचैनी में काटी। खुद पर गुस्सा आ रहा था कि मैं जल्दी से अपनी बात कह क्यों नहीं पाया।
अगला दिन नयी ऊर्जा ले कर आया। मैंने सोच रखा था कि आज मैं अपनी बात कह कर ही मानूंगा। कॉलेज जाते ही मेरा पहला काम स्वाति से मिल कर अपनी बात कहना था।
उसकी क्लास में जाने पर पता चला कि आज वह नहीं आयी थी। मेरा दिल धक से रह गया था। दो-तीन दिन इंतजार करने के बाद जब वह नहीं दिखायी दी, तो मैंने उसके मित्रों से जा कर उसके बारे में पूछा। उनके चेहरों पर एक अजीब सी खामोशी थी। मेरे बहुत जोर देने पर उन्होंने कहा, ‘‘सर, अब वह नहीं आएगी, उसकी शादी तय हो गयी है।’’ उसकी सहेली का कथन मेरे कानों में गरम सीसा घोल गया था।
तब तक मेरे मित्र मुझे ढूंढ़ते हुए वहां आ चुके थे और उन्होंने भी ये बातें सुन लीं। गौरव भी हैरान था तथा उसने पूछा, ‘‘अरे अचानक कैसे, उसने तो कभी इस बारे में कुछ नहीं बताया !’’
‘‘सर ज्यादा तो नहीं पता... बस यह खबर आयी कि उसकी दीदी की अचानक डेथ हो गयी और उसकी शादी अपने जीजा जी से हो रही है।’’
यह सुनते हुए मैं पागल सा हुआ जा रहा था। धम्म से वहीं कुर्सी पर बैठ गया। मेरा दिमाग शून्य में पहुंच गया था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
‘‘तू चिंता मत कर कुणाल... हम आज ही चलते हैं। देखते हैं वह कैसे यह शादी करती है,’’ मेरा कंधा हिलाते हुए अभिषेक ने कहा।
‘‘अरे, मुझे तो पता भी नहीं कि मेरे प्रति उसके क्या जज्बात थे, कहीं मैं अकेला ही तो नहीं सपने सजाए बैठा था।’’
अभिषेक मुझे सांत्वना दे रहा था और गौरव स्वाति के घर का पता ले रहा था। और मैं... मैं तो जाने अपनी सुधबुध गंवा बैठा था।
गौरव ने घर पर फोन करके मां को सब बता दिया और हम तीनों चल दिए थे राजस्थान। पूरे दिन-रात सफर करके जैसे-तैसे हम स्वाति के घर पर पहुंच गए। बताए पते पर जब हम पहुंचे, तो वह घर सजा हुआ था। उसकी शादी कल थी। उसके पिता उसे किसी से मिलने नहीं दे रहे थे। कई मिन्नतें करने और बताने पर कि हम इतनी दूर से आए हैं, उन्होंने थोड़ी देर हमें स्वाति से बात करने की इजाजत दी। हम लोगों को बाहर बरामदे में बिठा दिया गया।
स्वाति आयी। वह तो मुझे अभी भी राधा ही लग रही थी, पर अब विरह वेदना लिए हुए थी। वह हम लोगों के पास आ कर बैठ गयी। थोड़ी देर चुप रहने के बाद गौरव ने उससे पूछा, ‘‘तुम अचानक शादी क्यों कर रही हो। क्या तुम्हें कोई मजबूर कर रहा है, जो तुम्हें अपने जीजा से ही शादी करनी पड़ रही है। हम पूरे इंतजाम से आए हैं, तुम हमारे साथ चलो।’’
‘‘नहीं गौरव, मैं तुम लोगों के साथ नहीं चल सकती। मेरी दीदी 3 दिन के बेटे को छोड़ कर मरी हैं। मेरी दीदी ने मुझे हर पल सहारा दिया, उनके कहने पर ही पापा ने मुझे इतनी दूर पढ़ने भेजा था।’’ थोड़ी देर रुक कर रुंधे गले से फिर दोबारा बोली, ‘‘मुझे जीजा जी की कोई चिंता नहीं है, पर मैं दीदी की अमानत को यों बिना मां के नहीं छोड़ सकती।’’
‘‘अरे, वह तो तुम बिना उनसे शादी किए भी उनके बेटे को अपने पास रख सकती हो और फिर तुम्हारी पढ़ाई का क्या?’’ मैं अधीर होता हुआ बोला।
‘‘जीजा जी अपने बेटे को किसी को नहीं देंगे और पढ़ाई का क्या, शायद यही मेरा भाग्य हो...अगर नसीब में हुई, तो कभी भी कर लूंगी।’’
उसके बचकाने निर्णय पर हम तीनों हैरान थे। मैं यह तो समझ गया था कि उसके मन में भी मेरे प्रति कोमल भावनाएं जन्म ले चुकी थीं, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। हम लोगों का कोई भी तर्क उसके सामने व्यर्थ साबित हो रहा था।
‘‘तुम तीनों जाओ, भगवान ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे,’’ हमारे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वह अपनी आंखें पोंछती हुई वहां से चली गयी।
एक महीने तक मैंने कॉलेज का रुख नहीं किया था। मैंने घर के अपने कमरे में खुद को कैद सा कर लिया था। हां, गौरव और अभिषेक बराबर आते रहे। मैं उस प्यार के फूल का गम मना रहा था, जो पूरा खिला भी नहीं था।
मैं देवदास बना यों ही फिरता रहता, अगर मां ने मुझे कस कर ना डांटा होता। उन्होंने मुझे मेरे कैरिअर और अपनी बढ़ती उम्र का वास्ता दे कर समझाना शुरू कर दिया था। मैंने कॉलेज जाना शुरू कर दिया और मुझमें एक परिवर्तन आया। पढ़ाई से जी चुरानेवाला मैं अब अपनी पढ़ाई के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो चुका था। मैं पढ़ाई में जो डूबा, तो मुझे अब किसी बात की सुध ना रही। मेरे पहले प्रेम की असफलता ने मुझे कैरिअर में बहुत सफलता दिलवायी। प्रेम में चोट खाया मैं कैरिअर में सफलता के नए-नए आयाम लिखता गया।
5 साल यों ही बीत गए, गौरव और अभिषेक भी अपनी जिंदगी में काफी आगे बढ़ चुके थे। दोनों अब शादी करके अपने पारिवारिक जीवन के नए अध्याय शुरु कर चुके थे। पहले मैं विवाह टालता रहा फिर मां के बहुत जोर देने और अभिषेक व गौरव के बहुत समझाने पर मैंने मेघना को अपना जीवनसाथी चुना। मां का चुनाव गलत साबित नहीं हुआ था। मेघना बहुत समझदार लड़की है। मेघना के साथ मैं जीवन के नए अध्याय लिखने लगा और फिर रिमझिम ने आ कर तो मेरी जिंदगी के मायने ही बदल दिए।
साल बीतते गए। मेरा व्यवहार और गंभीर होता गया। जिंदगी बहुत शांति से सही चल रही थी, पर कभी-कभी एकांत में बैठा मेरा मन मुझे मेरे भूतकाल में सैर करा लाता। ये मेरी वे स्मृतियां थीं, जो मुझे छोड़ नहीं रही थीं।
‘‘कृपया अपना बैग ऊपर रख लीजिए,’’ सामने से आती आवाज को सुन कर मेरा मन वर्तमान में लौट आया।
‘‘ओह... हां जी, बिलकुल अभी उठाता हूं,’’ कह कर मैंने अपना बैग नीचे से उठा कर अपनी बर्थ पर रख लिया। आज मेघना ने मेरे जीवन के सारे अधूरेपन को भर दिया था, लेकिन दिल के किसी कोने में स्वाति अभी भी अपना स्थान बनाए हुए थी। स्वाति के साथ बिताए कॉलेज के दिन मेरी जिंदगी के पन्नों पर अमिट छाप छोड़ गए थे।
यह सब सोचते-सोचते मेरी आंख कब लग गयी, कुछ पता नहीं चला। सुबह उठा, तो मेरा सिर काफी भारी था। कुछ सफर की बेचैनी और कुछ बीती यादों ने मेरा मन बहुत भारी कर दिया था। ट्रेन की बर्थ पर मुझे कभी सही से नींद नहीं आती थी और इस बार भी ऐसा हुआ था। खिड़की से बाहर झांक कर देखा। अभी मेरा स्टेशन आने में थोड़ा समय बाकी था... मैंने प्लेटफाॅर्म पर खड़े वेंडर को देख कर आवाज दे कर अपने लिए चाय अाॅर्डर की। चाय बहुत बढि़या तो नहीं थी, पर इसने मेरे सिर के भारीपन को जरूर कम कर दिया था। पिछली रात की बेचैनी ने मेरा सिर ही नहीं, दिल को भी भारी कर दिया था।
थोड़ी देर में मेरा स्टेशन आ गया। मैं ट्रेन से उतरा ही था कि सामने अपनी बेटी रिमझिम को देख कर चौंक गया। मेरे मना करने पर भी वह मुझे रिसीव करने आ गयी थी। वह अपने पूरे गैंग को ले कर मुझे रिसीव करने आयी थी।
‘‘ये हैं मेरे ग्रेट पापा,’’ कह कर उसने अपने मित्रों से मेरा परिचय कराया। फिर एक-एक करके अपने दोस्तों से मुझे मिलाने लगी।
‘‘अरे बेटा, आराम से पहले चलते हैं फिर सबसे मिलूंगा।’’ लेकिन उसमें धैर्य कहां। सारे गुण मेरे जैसे ही तो उसने पाए थे। सभी से मिलाते हुए जब कार्तिक से वह मेरा परिचय करा रही थी, तो मेरी आंखें उस पर ठहर गयीं। ‘वही रूप वही नाक।’ मैं जैसे सपनों से जागा।
बड़े संकोच से उसके माता-पिता का नाम पूछा। सुनते ही मेरा दिल धक से रह गया। जो सोचा था वही हुआ... शायद स्वाति का ही बेटा था यह।
मैं एक मिनट भी और वहां नहीं रुक पाया। रिमझिम से बोला, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है बेटा, अब मैं होटल चलूंगा।’’
अपने सब मित्र मंडली को बाय बोलती वह मुझे ले कर पहले से बुक कराए होटल चली गयी।
अगले दिन कॉन्वोकेशन था। सभी बच्चों के माता-पिता भी इसमें शामिल होते हैं, तो उससे फिर मिलना होगा। क्या स्वाति अपने बेटे के कॉन्वोकेशन में आएगी... क्या यह मेरी वही स्वाति होगी। जैसे अनेक सवाल मेरे मन में उठ रहे थे।
यह रात मेरी पिछली रात से भी ज्यादा बेचैनी से कटी। सालों बाद मैंने रात करवटें बदलते हुए काटी। व्याकुलता और व्यग्रता अपनी तीव्रता पर थी।
आज तैयार होने पर मेरे हाथ कंपकंपा रहे थे। तैयार होने का मेरा उत्साह मुझे उसी समय में ले गया, जब मैं पहले तैयार हुआ करता था। अपनी तरफ से तैयार होने में मैंने कोई कमी नहीं छोड़ी थी।
रिमझिम पहले ही होस्टल के लिए निकल चुकी थी और मुझसे कह कर गयी थी कि मैं एक घंंटे में उसके कॉलेज पहुंचूं। प्रोग्राम शुरू हो गया। मेरी आंखें एक बार फिर स्वाति को तलाश रही थीं। पूरे प्रोग्राम के दौरान भीड़ के चलते मैं उसे नहीं ढूंढ़ पाया। बेहद निराश हो गया था मैं। एक बार फिर मैंने स्वाति से मिलने की उम्मीद खो दी थी।
डिग्री लेने के बाद मेरी बेटी रिमझिम ने मुझे एक बार फिर अपने सभी मित्रों से मिलवाने को कहा, ‘‘पापा, कल तो आपकी तबीयत खराब थी। आप सही से किसी से मिल नहीं पाए, आइए मैं आपको सबसे मिलवाती हूं,’’ कहते हुए वह मुझे हाथ पकड़ कर बाहर हॉल में ले गयी।
मैं सबसे मिला ही था कि सामने से कार्तिक अपनी मां को लिए हमारी तरफ ही आ रहा था।
हां, स्वाति ही तो थी।
मेरी सांसें रुकने को हुईं। काफी बदल गयी थी। उम्र के चक्र ने जब मुझे जकड़ लिया था, तो फिर वह कैसे अछूती रहती।
मुझे पहचानने में उसने भी एक क्षण की देरी नहीं की। उसके नेत्र सजल हो आए थे... मैं यह बहुत अच्छी तरह से देख पा रहा था।
बच्चों के सामने हमने एक-दूसरे के साथ अपरिचितों की तरह ही व्यवहार किया।
मुझे खाने की प्लेट पकड़ा और स्वाति से बातें करता छोड़ रिमझिम अपने मित्रों के साथ वहां से यह कह कर चली गयी, ‘‘पापा, आप सब लोगों से मिलो, मैं थोड़ी देर में आती हूं।’’
अब हम दोनों फिर एक-दूसरे के सामने थे। मेरा दिल फिर एक बार बहुत तेजी से धड़क रहा था।
जज्बात वही थे, पर जिंदगी के मायने बदल गए थे। हम बस एक-दूसरे को देख मुस्कराते रहे।
मैं सुनता रहा... वह बोलती रही कि किस प्रकार पति के गुजर जाने के बाद अपने दोनों बेटों की जिम्मेदारी उसने बखूबी निभायी थी। उसने बताया कि दीदी का बेटा आयुष अब सफल बिजनेसमैन है और उसका बेटा कार्तिक यहां उसके सामने मौजूद है।
मैं तो बस सुने जा रहा था। होटल से तो बहुत सोच कर चला था कि कॉलेज के टाइम के अपने जज्बात उसे बताऊंगा जरूर।
थोड़ी देर में बच्चे लौट आए। मैं अपनी कुछ बात ना कह पाया। स्वाति ने मुझसे विदा ली। चलते हुए उसने आगे बढ़ कर मुझसे हाथ मिलाया। उसके हाथों की ऊष्मा ने मेरे शरीर में फिर से ऊर्जा भर दी थी।
मुझे वह जाती हुई उस तरह ही लग रही थी, जैसे मैं उसे राजस्थान में उसके घर छोड़ कर आया था। मेरी यह प्रेम कहानी अधूरी रह गयी थी और मेरे जज्बात अनकहे ही रह गए।