Friday 28 June 2024 03:59 PM IST : By Dr. Amita Chaudhary

कांसे का कटोरा

2408026783

आंगन में कोने में कांसे का भारी कटोरा जो साइज में छोटी कड़ाही के बराबर था, सूखा पड़ा था। उसमें रखी हुई लेई सूख कर पपड़ी बन गयी थी। अंदर से कटोरे का रंग कुछ नीला-हरा सा हो गया था। एक तरफ कोने में कुछ सुतली उलझी पड़ी थी। हरे-लाल पतंगी कागज के कुछ तिकोने टुकड़े और कतरनें पड़ी हुई थीं। सुबह से ही बच्चा मंडली झंडी बनाने में जुटी हुई थी। उस जमाने में एक वही क्राफ्ट वर्क हुआ करता था, जिसका उपयोग वास्तविक जीवन में होता था। सुतली नुक्कड़ की दुकान से आ गयी थी। सारे बच्चों में जोश था। वे जब लेई बनवाने रसोई में गए तो वहां से भगा दिए गए। बड़की मामी चौका संभाले बैठी थीं। करीब पचास लोगों का खाना-नाश्ता हफ्ते भर से बन रहा था। आज और भी लोगों की आने की उम्मीद है। घर के बड़े बेटे की बिटिया सीमा का विवाह था।

‘‘अरे ! अरे... कहां घुसे चले आय रहे हो तुम सब? चलो निकलओ तनिक हियां से, खबरदार जउन चउके में कदम रख्यो। अबहिन कच्चा खाना बन रहा है। छू लेइहऔ तो कउनो खाना का हाथ ना लगाई।’’ फिर उन्होंने भगोने से एक कलछुल गरम-गरम चावल पत्तल में डाल कर दूर से ही सरका दिया, ‘‘चलो अब भागो सब जने हियां से।’’

बस फिर क्या था, सारे बच्चे जुट गये झंडी बनाने में। सुतली आंगन में एक तरफ से रसोई की खिड़की के सरिये से और दूसरी तरफ एक कील में बांध दी गयी थी, जिसमें अमूमन सूप टंगा रहता था। पर विवाह के कारण उसका उपयोग मांगलिक कार्यों के लिए हो रहा था। बच्चे दौड़-दौड़ कर चावल लगा-लगा कर लाल-हरी तिकोनी झंडियां सुतली पर एक के बाद एक चिपका रहे थे। जब तक तीन डोरियां बनीं, चावल गरम होने की वजह से पूरी तरह से सूख कर ऐंठ गया था। बहुत घिसने पर भी अब कागज चिपक नहीं रहा था, बल्कि फटा जा रहा था। बड़ी उम्र के बच्चों ने दो मुट्ठी मैदा कांसे के एक बड़े कटोरे में पानी डाल कर घोला और अखबार जला-जला कर लेई पका डाली। फिर तेजी से सारी झंडियां बना कर आंगन सजा दिया।

मंडप लगने की तैयारी हो चुकी थी। आंगन के बीचोबीच पंडित जी ने एक चमकीले लाल कागज से ढके हुए पीपे में मिट्टी भर दी, जिसमें बांस गड़ा था। भाई हरीश, उनके मित्र और मुहल्ले का सारा युवा वर्ग पिछले दस दिनों से पूरे उत्साह के साथ विवाह की तैयारी में जुटा था। आंगन में लगे हुए तार पर सूख रहे कपड़े हरीश ने उठा कर बरामदे से लगे कमरे के एक कोने में फेंक दिए। जिसके होंगे, ढूंढ़ लेगा, इतना वक्त नहीं है। बाबू जी ने फरमान जारी कर दिया, ‘‘जब तक बड़के जीजा नहीं आएंगे, माड़ो नहीं धरा जाएगा।’’ बड़ी बुआ हफ्ते भर पहले ही आ गयी थीं। ट्रेन का टाइम हो गया था। एक आदमी हांफता-कांपता फूफा जी और उनके रैक्सीन के बैग को लेकर घुसा। घर में दौड़-भाग शुरू हो गयी थी। अम्मा फौरन सूप में पूजा की थाली ले कर दौड़ीं और दादी से फूफा जी का टीका करवा कर स्वागत किया। बुआ भी वहीं आ कर खड़ी हो गयीं। अम्मा ने उन्हें छेड़ा, ‘‘का जिज्जी, सबर नहीं है, नाती-पोते वाली होय गयी हो लेकिन जीजा जी का देख कर अबहिनौ तुम्हार चेहरा लाल होय जात है, अइसे दउड़िउ जइसे जनम-जिन्दगी बाद आए हैं।’’

बुआ झेंप गईं। दादी ने मां को आंखें तरेरीं, ‘‘का दुलहिन, थोड़ा तो लिहाज करओ, तुमहूं कउनो लड़कौनी नहीं रह गई हो।’’

हरीश और विमल बचपन के साथी, हमउम्र। उन्हें कभी ये ध्यान ही नहीं रहा कि एक दूसरे के घर जाने के लिए दरवाजे का इस्तेमाल किया जाता है। अगल-बगल घर। छत की दीवार ही तो फांदनी है। बाउन्ड्री वॉल पहले से ही दो जगह से टूटी है, दोनों घरों के बीच। फिर क्या मुश्किल। पहले एक स्कूल, फिर साथ ही यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया दोनों ने। स्कूल से आते ही बस्ता वहीं अमरूद की डाल पर फेंका और क्रिकेट शुरू... घर के सामने वाली सड़क पर मुहल्ले के बच्चे इकठ्ठा होते। देर शाम घर पहुंचते तो बाबूजी रोज चिल्लाते थे, ‘आठवीं पास कर लें तो जानो। इसी गली में मूंगफली बेचेंगे जनाब।’

घर के आगे के मैदान में हफ्ते भर से कुर्सियों के साथ तख्त पड़ चुके थे। सारे बुजुर्ग वहीं जमे रहते। हलवाई ने भी दस दिन से वहीं डेरा डाल रखा था। पूछा गया तो बोला, ‘‘हमका ना बताओ, बिटिया की सादी है। जउन हमार मन होई तउन करब।’’

सुबह की चाय के साथ नमकपारे, शकरपारे, दालमोठ, लड्डू के कनस्तर सरका दिए जाते। मुहल्ले की महिलाएं, बहुएं, बेटियां अपने घरों का काम निपटा कर दोपहर तक वहीं पहुंच जाती थीं। आंगन में गेहूं, चावल, दालों की बोरियां पलट दी गयी थीं।

सारी महिलाएं चारों तरफ बैठ कर बीन रहीं थीं। कोई लोहे की बड़ी-बड़ी छलनी से छान रहा था, तो कोई पछोर रहा था। बुजुर्ग महिलाएं छन कर गिरी अलसी और सरसों के दानें अलग करती जा रहीं थीं। सभी गीत भी गाती जा रही थीं। ऐसे समय में ढोलक की आवश्यकता नहीं होती थी, एक साथ निकलते स्वर ही काफी थे -

देवी होय गईं दयाल आज मोरे अंगना,

मैया दरसन दिलाना होगा ,

पांच देवी गीत के बाद फिर वही बेटी के विवाह के गीत -

मेरी बन्नो बड़ी अनमोल कि लाजो हीरे की कनी,

दादी की लाडली बन्नी, आज मंडप में बैठेगी।

बीच बीच में सबकी नजर बचा कर धोती के पल्ले से भीगे कोरों को पोछतीं अम्मा। परिवार की सारी बियाही लड़कियों के ससुराल में परिवार के सदस्यों को भेज कर महीना भर पहले ही न्योता दे दिया गया था। ससुराल के सबसे बड़े मुखिया जैसे कि ससुर जी को निमंत्रण पत्र सम्मान के साथ हाथ में दे कर उनके मान-सम्मान का भी ध्यान रखा गया था।

मुहल्ले की ससुराल वाली नयी ब्याही लड़कियां भी आ गयी थीं, आखिर उनकी बचपन की सहेली का विवाह था। जयमाल के दुपट्टे में गोटा लगाया जा रहा था। उधर साड़ियों में फॉल लगाने का काम भी शुरू हो गया था। कॉलेज की सहेलियां भी इकठ्ठा हो रही थीं। पूरी तैयारी हो रही थी कि कैसे सीमा को छुपा कर, घर में बिना बताए अमीनाबाद ले कर जाना है। वीआईपी की लाल अटैची में दुल्हन का सारा सामान करीने से सजाया जा रहा था।

हरीश और उसके दोस्त लगातार दौड़ रहे थे। सुबह उठते ही मंडी जा कर सब्जी लाना, आटा पिसवाना, जनवासे की तैयारी जैसे कितने काम थे। विमल ने लड़के वालों की खातिरदारी का पूरा इन्तजाम कर दिया था। कॉफी की मशीन पहले से ही ला कर रखवा दी थी। पूरा लखनऊ घूम आया, तब कहीं जा कर केसरबाग मंडी में कमलककड़ी मिली थी, बारात के खाने में कोफ्ते बनाने के लिए। ऐन मौके पर हलवाई को याद आया, भुने चने के कबाब बनाने के लिये चना पिसवाना रह गया था। जनवासे में नाश्ते में देना था। निम्मी भाभी दौड़ायी गयीं। छोटी बहन रजनी भी साथ हो ली। बगल में विमल के घर के बरामदे में कोने में चक्की अभी भी गड़ी थी। शर्मा जी को आज भी घर का बना दलिया, वह भी मां के हाथों का ही पसन्द आता था। दादी खुद ही बैठती थीं चक्की पर। बड़ी पोतबहू अकसर कहती, ‘‘दादीजी, आप रहने दीजिए, जिंदगीभर तो किया है आपने। आप ही हैं जो सबके नखरे उठाती हैं। अब तो बाजार में बढ़िया बना-बनाया दलिया मिलता है, जितना चाहे, ला दें नाके से। नहीं तो हटिए हम बैठते हैं चक्की पर।’’

लेकिन दादी पर इसका कोई असर ना होता, तुनक कर जवाब देतीं, ‘‘तुम तो रहेनै देओ। जानित है कितना दम है तुम सब जनी में। एक हाथ लगइहौ, दिन भर कहियो - हाथ पिराय रहा है। सब जानित है कितनी जू जू मैना हओ तुम सब।’’

अब करीब-करीब सारी तैयारी हो चुकी थी। मुहल्ले भर के घरों में कई कमरे ठीक कर दिए गए थे, शादी में अाए रिश्तेदारों के ठहरने के लिए। सभी ने अपने-अपने कमरों व बैठकों में पड़े तख्त पर अमीनाबाद से लायी गयी नयी फूल वाली चादर बिछा दी थी। मसनद कवर भी बदल दिए गए थे। एक दो खटिया भी किनारे खड़ी कर दी गयी थीं कि जरूरत पड़ने पर बिछा दी जाएगी। सबके खाने-पीने का पूरा प्रबंध मिश्रा जी के घर में था। पर हर घर में होड़ लगी थी कि घर में ठहरे हुए मेहमानों की खातिरदारी कैसे की जाए। सुबह से ही चाय-नाश्ता शुरू हो जाता था। आंगन में नहाने के लिये बालटी में पानी तैयार रखा रहता था।

मिश्रा जी के घर के आगे का मैदान और आधी सड़क पर तंबू कनात लग चुके थे। एक किनारे कई तख्त रख कर जयमाल के लिए स्टेज बनाने की तैयारी चल रही थी। उधर विमल की अम्मा हैरान थीं, आखिर विमल को हुआ क्या है ? इधर से उधर, उधर से इधर। तैयार खड़ा था, यूनिवर्सिटी जाना है। जरूरी काम है। प्रैक्टिकल की एक्स्ट्रा क्लास है। अभी तक पन्द्रह दिनों से घर में शक्ल नहीं दिख रही थी। शादी की तैयारी में दिन-रात लगा हुआ था। आज क्या हुआ।

मां डांट रही थीं, सो अलग, ‘‘का बिमल, काहे अइसी बात कर रहे हो। हमहूं तो जानी कउन सा किलास है तुम्हार, आज इतवार का। पन्द्रइहन से हम चिल्लाय रहे हैं कि तनी सकल तो दिखाय दिया करो घर में, तब तो तुमका होस नहीं रहा। जुटे पड़े रह्यो सादी की तैयारी में। आज का भवा ? भूल गयो तुम्हरी बहिन की सादी में सीतला परसाद मिसरा , अरे वही हरीस के बाबा दस दिनन तक हियईं घर के बाहर डेरा डाले बइठे रहे। पूरा इंतजाम देखिन सादी का। मिसरा जी भी लगे रहे। मिसराइन पूरा घर सम्हाले रहीं, मेहमानन के खाना-पीना से लइ के बियाह के सारे रसम अउर पूजा-पाठ तक। हमसे तो कुछ मतलबै नहीं रहा। अब का भवा तुमका?’’ लेकिन विमल को इन सब बातों से कोई मतलब ना था। वह चुपचाप घर से बाहर निकल गया।

अब तक सारे मेहमान आ चुके थे। सारा घर भर चुका था। हर कमरे और बरामदे में बड़ी सी, नीले बार्डर वाली लाल दरी बिछ चुकी थी। सारे तख्त घर के बाहर वाले मैदान या बरामदे में एक कोने में पहुंच चुके थे। अम्मा की शादी वाला निवाड़ का पलंग तो आंगन में रस्सी बंधवा कर मजदूरों से पहले ही छत वाले कमरे में पहुंचा दिया गया था। कमरों में दरी के ऊपर दीवार से लगा कर सारे रिश्तेदारों के लोहे के बक्से लगा दिये गए थे। उन्हीं पर थोड़ी बड़ी उम्र के लोग बैठे रहते थे- जैसे उन्नाव वाली बुआ, बरेली वाली बड़की चाची। गरमी के दिन थे। गद्दों की कुछ खास जरूरत थी नहीं। बस चादर बिछा कर जिसका जहां मन हो, सो रहा था। लड़कियां, बहुएं पैर में आलता लगाए, भर हाथ चूड़ियां और भड़कीली साड़ी पहने, वहीं दरी पर बच्चों समेत लुढ़क जाती थीं रात में। और जिसको कुछ जरूरत पड़ रही थी, वहीं उनके ऊपर से लांघ-लांघ कर जा रहा था। किसी का हाथ कुचल जाता था, किसी का पैर। पर किसी को कोई परेशानी नहीं।

नवैया गनेश गंज वाली बाबू जी की चहेती बहन, छोटी बुआ, अभी-अभी अायी थीं। उनकी बहू की सौरी थी, सवा महीना परसों ही खत्म हुआ था। घर का पहला बच्चा था। बुअा पोते को एक पल के लिए भी छोड़ना नहीं चाहती थीं, पर दद्दा के घर शादी थी। उनके बगैर काम कैसे होगा, इसीलिए भागती चली आयीं। कलश भी तो उन्हीं को गोंठना था। बाबू जी की निगाहें सुबह से ही दरवाजे पर लगी थीं। अम्मा से बार-बार कह रहे थे, ‘‘छोटी बिट्टी आने वाली है। अाते ही उसके लिए अजवाइन डलवा कर गरम-गरम करारी पूरी सिंकवाना। नोनचे के साथ उसे बहुत पसंद है।’’

बुआ आ गयीं। गली के नुक्कड़ पर उनका रिक्शा मुड़ा अौर उनकी निगाहें बाबू जी को ढूंढ़ने लगीं। हमेशा वहीं खड़े मिलते थे वे। घर में घुसते ही आंगन की ओर दौड़ीं। आंगन के कोने से लगे बरामदे में रखे, दादी वाले रामदरबार को हाथ जोड़े, फिर बाबू जी को ढूंढ़ कर, उनके पास जा कर उनके कुर्ते का कोना पीछे से पकड़ कर खड़ी हो गयीं। भूल गयीं वे अपनी उम्र। उनके लिए तो यह वही बचपन वाला घर था और वही दद्दा। दोनों की उम्र में बहुत फर्क था। बाबू जी के हाई स्कूल पास करने के समय वे मुश्किल से 3-4 साल की रही होंगी। उनके स्कूल से आते ही दौड़ कर पीछे से कुर्ते का कोना पकड़ कर खड़ी हो जाती थीं। तब पिताजी जलेबी का दोना जो वे सबसे छुपा कर लाए होते थे, उनको पकड़ा देते थे। आज भी ताखे पर रखी फोटो के पीछे से जलेबी का दोना निकाल कर बाबू जी ने बुआ को थमा दिया और उनकी आंखें वैसे ही चमक उठीं, पचास साल का अंतराल अचानक गायब हो गया था।

द्वारचार हो चुका था। युवा पीढ़ी जयमाल की तैयारियों में लगी हुई थी। सादतगंज वाली बुआ की देवरानी की लड़की अच्छा गाती हैं। उन्हीं की ड्यूटी लगी थी परदे के पीछे से जयमाल गाने के लिए। फूफा जी को लिखने का शौक था। उन्होंने ही लिखा था जयमाल। सहेलियों को समझा दिया गया था कि गीत की किस लाइन में सीमा को लेकर कहां तक पहुंचना है। उधर मंडप में पंडित जी हड़बड़ी मचाए हुए थे। मुहूर्त का समय होने वाला है। विवाह कार्यक्रम शुरू करवाइए। टांडा वाले चाचा जी छोटा सा बैग जिसमें पैसे थे, बगल में दबाए हुए इधर-उधर घूम रहे थे। चाची जी के लिए वहीं मंडप में कुर्सी लगा दी गयी थी। वे कपड़े के दो झोले, जिनमें विवाह की महत्वपूर्ण सामग्री थी, संभाले बैठी थीं, दोनों पैरों के बीच में दबाए एकदम मुस्तैद। मलमल का पीला पटका और पैर पुजाई की चेन और अंगूठी भी थी। सारा सामान पंडित जी के मांगते ही फौरन निकाल कर देना था। वहीं पर एक कुर्सी दादी की भी लगी थी।

जयमाल हो चुकी थी। अब सबको हड़बड़ी थी शादी बैठाने की। निम्मी भाभी सीमा को लेकर अंदर जा चुकी थीं ताकि उसे मंडप के लिए तैयार कर सकें। नानी ने अपनी बहन से कह कर बनारस से अॉरगेंजा की पीली साड़ी पहले ही मंगवा कर रख ली थी। गरमी बहुत है। बिटिया शादी में सिल्क पहन कर नहीं बैठ पाएगी। उस पर गोटा भी उन्होंने बड़े शौक से खुद ही लगाया था। सिर के पास सिर्फ किरण लगानी रह गयी थी। बड़ी मामी बैठी थीं सुबह से। ननिहाल से आने वाली पियरी का बड़े शौक से इंतजाम किया गया था। नानी और बड़ी मामी खुद गयी थीं, सुनार के यहां नथ बनवाने के लिए। अाखिर उनकी बिटिया के घर की पहली शादी थी , ससुराल में कुछ ऊंच-नीच नहीं होनी चाहिए। नाना जी ने पोस्ट अॉफिस जा कर पैसे निकाल कर बड़े मामा को दे दिए थे, साथ में ताकीद भी की, ‘‘कोई कमी नहीं होनी चाहिए, पहली नातिन की शादी है। बहू को साथ ले जा कर सबके लिए कपड़े-लत्ते ले आओ।’’

अम्मा के लिए भी पीली धोती अायी थी। बाबू जी के कुर्ते और रुमाल के कोने में हल्दी का छींटा दे दिया गया था। कुछ भी पूरा सफेद नहीं जाना है। नानी से अपनी शादी वाला भारी भरकम पीतल का हन्डा भी रखवा दिया था साथ में।

तभी मंडप में छोटी बुआ की ढुंढ़वायी मच गयी। उन्हीं को आंगन में लगे मंडप में सीमा को ले कर आना था। आंगन से लगे बरामदे में सारी भाभियां अौर बुआएं ढोलक ले कर जम चुकी थीं। आज तो सुना कर रहेंगी लड़के वालों को। विमल का पूरा परिवार भी वहीं पर था। सब अपनी-अपनी जगह तैनात। पिताजी हलवाई के पास ड्यूटी लगाए बैठे थे। रसमलाई के हंडे को जमीन में गड़वा कर चारों तरफ बर्फ कुटवा कर डलवा दी थी। बारातियों के खाने तक कुछ खराब नहीं होना चाहिए। अम्मा मंडप संभाले बैठी थीं। सारी रस्में ध्यान से करवा रही थीं। विमल वहीं खड़ा था। अपनी दुनिया में खोया हुआ। कोने में लगी एक झालर को एकटक देखे जा रहा था।

पिछले साल बगल की छत पर पतंग उड़ाते समय हरीश के साथ बात करते-करते शादी को लेकर बात चल निकली कि किसे कैसी लड़की पसन्द है। विमल चुपचाप खड़ा था। बस मुंह से निकला, ‘सीमा जैसी चलेगी।’

हरीश ने ठीक से सुना भी नहीं। उसका ध्यान फिर से अपनी पतंग की ओर चला गया था जो कटने वाली थी। विमल वहीं सीढ़ी के पास खड़ा हो कर सोचने लगा। अचानक पता नहीं कहां से सीमा कूद कर सामने खड़ी हो गयी, ‘मेरी जैसी क्यों ? मैं क्यों नहीं।’ बस इतना कह कर पलक झपकते ही गायब। विमल भौचक्का खड़ा रह गया। सोचता रह गया।

अब क्या बताता वह सीमा को। वह सोचता रह गया बाबू जी की चार साल पहले की रिटायरमेंट के बारे में। उसे याद अायीं पहली तारीख को भैया को देखती भाभी की नजरें और भैया के माथे पर पड़ी शिकन की लकीरें। और जब-तब विमल के कंधे पर हाथ रख कर भैया का मुस्करा कर स्नेह से पूछना, ‘और बताओ, पढ़ाई कैसी चल रही है? फीस कब भरनी है तुम्हारी बी. एससी. की? साइकिल तो ठीक है ना तुम्हारी, कुछ जरूरत हो तो तुरंत बताना। बस पढ़ाई खत्म होकर तुम्हारी नौकरी लग जाए, बीना और शोभा की शादी हो जाए।’ क्या बोलता विमल, सब समझ रहा था।

तब से सीमा कहीं दिख जाती, तो वह नजरें बचा कर कट सा जाता था। डर था कि कहीं मन के भाव सीमा आंखों से ना पढ़ ले। परसों तिलक वाले दिन सीमा ने नजरें उठा के देखा था। मानो कह रही हो, ‘अब भी बता तो दो विमल, मैं क्यों नहीं। एक बार कह दो, हम अम्मा से कुछ भी बहाना बना कर शादी टाल देंगे।’

नुक्कड़ से बाजे की आवाज आने लगी थी। पेट्रोमैक्स की रोशनी घर से दिखने लगी थी। घर में हड़बड़ी मच गयी। घर के बुजुर्ग बारात के स्वागत के लिए हाथ में गेंदे की माला लिए खड़े हो गए थे। महिलाएं पीछे आ कर खड़ी हो गयीं। लड़कियां, बहुएं अपने मेकअप को फाइनल टच देने में लगी थीं। सीमा को सहेलियों ने तैयार कर दिया था। उन्हें काफी टाइम मिल गया था। बारात पूरे एक घंटे लेट थी।

अचानक विमल को जैसे कुछ समझ में आया। लगा जैसे कि उससे कुछ छिनने वाला है। वही अहसास जो उसको बचपन में तब हुआ था, जब बुआ जी का हमउम्र बेटा जाते-जाते उसकी प्रिय गेंद छीन कर अपने साथ ले गया था। बाद में उसे लगा था कि जीवन हमेशा ऐसे ही चलता रहेगा। उसके पास जो है, चाहे वह कोई वस्तु हो या लोग, सबकुछ वैसे ही रहेगा जीवनभर, मां-बाबू जी, घर-परिवार, मित्र, स्कूल, मुहल्ले वाले।

सीमा भी उसी में शामिल थी। हरीश के घर पर बरामदे में वहीं चूल्हे के पास, हरीश के साथ पटरे पर बैठ कर खाना खाता वह और खाना परोसती सीमा। घर में समोसे आए हों तो हरीश के साथ उसका हिस्सा रखती सीमा। इम्तिहान के समय हरीश के साथ उसका भी ज्योमेट्री बॉक्स ठीक करती सीमा। छत पर खेलते समय कागज में लपेट कर नमकपारे और दालमोठ पकड़ाती सीमा। सीमा का उसके जीवन में महत्व उसे उसके छिन जाने के अहसास के साथ हुआ। उसे लगाव या युवा पीढ़ी वाला आर्कषण नहीं कहा जा सकता। वह अचानक अंदर दौड़ा, जल्दी-जल्दी दो-दो सीढि़यां फांदता हुआ ऊपर पहुंचा। उसे कुछ कहना था सीमा से। क्या कहना था यह नहीं पता। सीमा छज्जे पर लाल साड़ी पहने सहेलियों के साथ घिरी खड़ी थी। बुआ जी उसे हाथ में अक्षत थमा कर अायी थीं, बारात के ऊपर छिड़कने के लिए। कोशिश कर के भी वह उसके पास नहीं पहुंच सकता था, ना ही उस समय कुछ कह सकता था। सीमा ने उसे देखा भी नहीं। वह थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा और फिर वापस नीचे आ गया।

अचानक अम्मा ने वहीं मंडप में विमल को झकझोरा, ‘‘का है बिमल, कहाँ हओ? कित्ती देर से चिल्लाए रहे हैं। जाओ, भाभी से कहो सीमा का भेजैं।’’

विमल अपनी ही दुनिया में खोया हुआ अंदर कमरे की ओर चला गया। वहां सीमा तैयार बैठी थी- पीली गोटेदार साड़ी में। उसको लगा वह सीमा को ध्यान से पहली बार देख रहा है। वहीं खड़ा रह गया ठगा सा। कहते हैं लड़कियां ज्यादा परिपक्व होती हैं इस मामले में। वे ज्यादा समझती हैं जीवन को। जल्दी बड़ी हो जाती हैं या जल्दी बड़ी करवा दी जाती हैं, उनके ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियां डाल कर। उन्हें पता होता है कि वे हमेशा नहीं रहने वाली यहां पिता के घर। बचपन का सबकुछ छूट जाता है। सबकुछ बदल जाता है और वैसे यह बात सभी के लिए सच है। कोई चाह कर भी किसी के साथ हमेशा नहीं रह सकता है। पर हां, एक व्यवस्था है समाज में विवाह नाम की, जिसमें यदि परिस्थितियां अनुकूल हों, जैसे आयु, जाति आदि तो युवक-युवती जीवनपर्यंत साथ रह सकते हैं। सीमा समझ चुकी थी अपने और विमल के बीच के लगाव और सहजता को। विमल के मन के भावों को, सरल स्नेह को वह जान चुकी थी, जिसके प्रति विमल अनजान था। अचानक सीमा ने ऊपर उसकी ओर देखा। वह अचकचा गया। लड़खड़ाते शब्दों में सिर्फ मुंह से इतना ही निकला, ‘‘चलो।’’

सीमा जैसे भरी बैठी थी, ‘‘चलो ? कहां चलना है विमल? कहां ले कर जाना चाहते हो? मंडप में? जहां एक बार मैं गयी तो लौट कर ना आ पाऊंगी। उसके बाद तुम मुझसे कुछ कभी ना कह सकोगे, और ना ही मैं कुछ सुनने लायक रह जाऊंगी। जो कहना है, आज तो कह दो विमल। जानती हूं तुम्हारे मन में क्या चल रहा है। ऊपर छज्जे पर तुम्हारे मन के भाव पढ़ लिए थे मैंने। देखा था तुमको, पीछे सुन्न से खड़े थे। कुछ कहना चाहते थे तुम। अब तो कह दो। कम से कम सुन तो लूं। बाद में तो वह सब कहना-सुनना समाज की मर्यादा के बाहर होगा। क्या लगता है तुम्हें, हमारे और तुम्हारे बीच के ये अनसुने, अनकहे भाव हम कभी मिटा सकेंगे?’’

तभी वहां बुआ जी आ गयीं और सीमा को लेकर चली गयीं मंडप की ओर। विमल थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा फिर अपने में खोया हुआ, सुस्त कदमों से चलता हुआ पडांल में कोने में लगी एक कुर्सी पर अकेला जा कर बैठ गया। फिर किसी ने उसे उठा कर मंडप में बिठा दिया। वह वहीं बैठा-बैठा सब देखता रह गया, विवाह की सारी रस्में, फेरे, पैर-पुजाई और अन्त में सीमा की विदाई। इस बीच एक बार भी सीमा ने पलट कर उसकी ओर नहीं देखा।

समय जब बीतता है तो मालूम नहीं पड़ता। आज पीछे मुड़ कर देखने में ऐसा लगता है जैसे दो साल का समय पलक झपकते ही बीत गया हो। हरीश की नौकरी लग गयी। वह जगदीशपुर चला गया। विमल की बहन बीना की शादी हो गयी। हरीश के जाने के बाद विमल पूरी तरह से नौकरी के लिए परीक्षाएं देने में जुट गया था। बैंक में सिलेक्शन भी हो गया। दो महीने की ट्रेनिंग के लिये दूसरे शहर जाना था। पहली बार घर से निकल रहा था। सैकड़ों हिदायते दी गयीं। बाबू जी जो कभी नहीं बोलते थे, घबराए हुए थे कि लड़का पहली बार घर से दूर कैसे रहेगा। उसी शहर में सीमा भी पिछले डेढ़ साल से अपने पति विजय के साथ रह रही थी। उनकी वहीं पोस्टिंग हो गयी थी। जब शर्मा परिवार को पता लगा तो बोले सीमा के लिए कुछ सामान और मिठाई ले कर जाना।

बैंक की तरफ से ट्रेनिंग सेंटर में ही ठहरने, खाने-पीने का इंतजाम था। उसमें बहुत व्यस्त हो गया था वह। इतवार के दिन सीमा के यहां जाने का प्रोग्राम बनाया। सामान ले लिया था अौर कुछ फल-मिठाई वहां से भी खरीद ली थी। वे पुरानी यादें जिन्हें, जीवन की कशमकश ने पीछे धकेल दिया था और जिन्हें वह भूल सा गया था, अचानक सिर उठा कर खड़ी हो गयीं। वहां पहुंच कर घर के सामने खड़ा हो कुछ देर तक देखता रहा। गेट खोल कर अंदर गया तो छोटे से बगीचे में गेंदे के फूल, गमले अादि करीने से लगे हुए थे। बाहर बरामदे में ही सीमा के पति विजय मिल गए, अाकर्षक उत्साही युवक। गर्मजोशी से स्वागत किया, ‘‘साहब, सुबह से ही आपका इंतजार हो रहा है।’’

बैठक में अपने पास की कुर्सी पर बिठा लिया। विमल ने नजरें दौड़ायीं। गृहिणी की सुरुचिता और सुव्यवस्था की छाप हर जगह दिख रही थी। सजा-संवरा ड्राइंगरूम। फूलदान में कुछ ताजे फूल लगे हुए थे। अखबार और पत्रिकाएं मेज पर करीने से रखी हुई थीं। दीवार वाली अलमारी में तरीके से ब्राउन पेपर बिछा कर उसके ऊपर कुछ खिलौने और मेडल सजाए हुए थे। विजय कॉलेज के जमाने से बैडमिंटन के मंझे हुए खिलाड़ी थे। एक तरफ दीवार पर सीमा और विजय के विवाह की कुछ तसवीरें लगी हुई थीं। तब तक सीमा अन्दर से अा गयी। विमल को देख मुस्करा पड़ी। सारा सामान उसके हाथ से ले कर जल्दी-जल्दी खोल कर देखने लगी। मां-बाबू जी सबके बारे में हाल खबर पूछने लगी। विमल को सीमा एकदम अलग लगी, एक संतुष्ट, संतृप्त, जिम्मेदार गृहिणी।

थोड़ी देर बैठ कर सीमा अंदर जा कर भोजन की तैयारी करने में व्यस्त हो गयी। विमल और विजय में बातचीत चलती रही। भोजन के उपरांत सीमा वहीं बैठी रही। विमल के वापस लौटने का समय हो गया था। एक बात उसने नोटिस की कि विजय लगातार सीमा की तारीफ किए चले जा रहे थे। बिल्कुल न्योछावर थे उस पर। सीमा भी पूरी तरह समर्पित लग रही थी विजय और उसके पूरे परिवार पर। मन ही मन उसे यह बात अच्छी लग रही थी। अचानक वह अपने आप को बड़ा हल्का महसूस करने लगा था। उसने सिर उठा कर ऊपर देखा। आज अचानक पहली बार उसे आसमान बड़ा सुंदर, साफ अौर नीला लगा।

चलते-चलते विजय ने अपनी तरफ से सीमा के परिवार के लिये कुछ पैकेट पकड़ा दिए। सीमा ने बताया कि विजय जबर्दस्ती सीमा के मना करने के बावजूद, मां, पिताजी और सबके लिए अपनी पसंद के कपड़े ले कर आए हैं।

विमल काे विदा करते हुए विजय ने कहा, ‘‘सबसे कहिएगा कि हम लोग खूब अच्छी तरह से हैं। मां जी की चिटि्ठयां आती रहती हैं। उन्हें हम लोगों की बहुत चिंता रहती है। अगली बार आइएगा तो मां-पिताजी को भी साथ लेते आइएगा। सुना है आपकी शादी की बातचीत चल रही है। हम लोगों को भी इत्तला जरूर कर दीजिएगा। जरूर आएंगे हम लोग। मेरी मां तो बहुत खुश हैं सीमा जैसी बहू पा कर। बिल्कुल निहाल रहती हैं। कहती हैं मेरा परिवार तो धन्य हो गया। बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं मांजी ने सीमा को। मैं तो अपने आप को बहुत खुशनसीब समझता हूं। सीमा जैसी लड़की तो मैं सात जन्मों में भी नहीं ढूंढ़ सकता था।’’

विमल मन ही मन मुस्करा कर वहां से निकल पड़ा। थोड़ी दूर जाने पर याद आया कि वापस ले जाने वाला पैकेट तो वहीं भूल आया था। वापस गया तो अन्दर से सीमा के जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी। वह बिफरी पड़ी थी।

‘‘क्यों चाहिए थी आपको सीमा जैसी? सीमा क्यों नहीं? आखिर सीमा क्यों नहीं चाहिए किसी को? सबको सीमा जैसी ही क्यों चाहिए? क्या कमी रखी है मैंने बताइए? बहुत खुश हैं हम यहां आपके साथ? फिर क्या हुआ? मेरे जैसी क्यों ढूंढ़नी थी आपको? हमें क्यों नहीं ढूंढ़ना था आपको?’’

विजय वहीं घबराए से खड़े थे। पहली बार वे सीमा का यह रूप देख रहे थे। आज तक उन्होंने सीमा को कभी उदास होते भी नहीं देखा था। चुलबुली, ससुराल में सबकी चहेती बहू, भाभी। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। कहने लगे, ‘‘ऐसा क्या कह दिया यार हमने, जो इतना गुस्सा कर रही हो। हमने तो बस यूं ही।’’

‘‘यूं ही? ये यूं ही होता है? कुछ भी कर लीजिए, आगे से ‘मेरी जैसी’ वाली कोई बात नहीं करेंगे आप हमसे।’’

‘‘नहीं करेंगे, कभी नहीं करेंगे आज से। अब मुस्करा तो दो।’’

सीमा मुस्कराते हुए अंदर चली गई, पीछे-पीछे विजय भी। विमल थोड़ी देर वहीं पर ठगा सा खड़ा रहा। फिर छूटा हुआ पैकेट ले कर घर से बाहर निकल गया।