सुमेषा ब्याह कर जबसे इस कस्बे में आयी है, वह भिन्न प्रकार के बंधनों से परेशान हो गयी है। वह अपने परिवार के साथ भोपाल में कितनी खुश थी। यों तो उसका परिवार निम्न मध्यम वर्ग का ही कहलाएगा, परंतु सारे लोग काम करते थे, तो किसी प्रकार की कमी भी नहीं थी।
मां कपड़े सिलती थीं। ब्लाउज सिलने में उन्हें महारत हासिल थी। तीज-त्योहार पर तो इतना काम आ जाता कि घर के कामों में भी उसे हाथ बंटाना पड़ता। वह पढ़ने-लिखने में अच्छी थी। घर के कामों में उसका मन कम ही लगता था। परंतु उन दिनों मां इतनी व्यस्त हो जातीं कि वह कॉलेज से आ कर सीधे रसोईघर में घुस जाती। सब्जी काटती और आटा गूंध देती। इसके बाद ही चाय पीती। तब मां उठ कर सब्जी बघारतीं व रोटियां सेंकतीं।
बाऊ जी सिंचाई विभाग में क्लर्क थे। उन्हें शाम को घर आते ही भोजन चाहिए होता था। तब तक सुशांत भी अपनी बैंक कोचिंग से वापस आ जाता था। वह ग्रेजुएशन करने के बाद कंप्यूटर की दुकान पर भी नौकरी करता था। फिर कोचिंग भी जाता था। संपत्ति के नाम पर 2 कमरों का छोटा मकान है उनका और पीछे का छोटा सा बाड़ा तो उनके घर की जान है, जहां बरतन मांजने और कपड़े धोने से ले कर घर की अहम बैठकें तक होती हैं। और उसके नीम और पीपल के दोनों पेड़ों के तो क्या कहने ! सुशांत ने नीम पर एक बल्ब भी लगा दिया था। गरमियों में वे वहीं भोजन भी करते। सुशांत तो चारपाई बिछा कर वहीं पढ़ता और सो भी जाता। मां सुबह ही चिडि़यों को दाना डालतीं। वे मां के तो कंधे पर ही आ कर बैठ जातीं। गोरैय्या दाना डालने में जरा सी देर होने पर जमीन पर फुदक-फुदक कर कोहराम मचाने लगती। बाऊ जी कहते, ‘‘अरे रमा, आज दाना नहीं दिया क्या?’’
कुल मिला कर उसका घर एक खुशहाल परिवार था। हां, नवदुर्गा की बात करना वह भूल गयी। वह पूरे 9 दिन गरबा करने जाती भाई सुशांत के साथ। कभी-कभी तो साथ में मां भी जातीं। विवाह से पहले की जिंदगी स्वतंत्र किंतु संतुलित थी। पूरे परिवार की देखभाल मां ने ही की थी। उन्होंने ही दोनों बच्चों को यह शिक्षा दी थी कि यहां-वहां समय व्यर्थ ना करके कुछ भी सकारात्मक करो, परिणाम बेहतर ही होंगे। यही कारण है कि मोहल्ले में दोनों भाई-बहन सबसे अच्छे बच्चों में गिने जाते। बाऊ जी का मौन समर्थन मां की प्रत्येक बात को रहता।
वह मायके के खुशनुमा माहौल से ससुराल के दमघोंटू वातावरण में आ गयी। जेठ जी खांस रहे थे। इसलिए नहीं कि उन्हें खांसी हुई थी,बल्कि इसलिए कि वे उसे आगाह कर रहे थे कि सिर पर पल्ला ओढ़ ले। यहां के घर में 3 कमरे हैं। आगे लंबा बरामदा और पीछे एक छोटी पट्टी जिसमें बमुश्किल कपड़े सुखाए जाते हैं। बरतन भी रसोईघर में ही मंजते हैं। एक कमरा सासू मां का, दूसरा जेठ-जेठानी का और तीसरा उसका व पति मयंक का, जिससे उसकी मुलाकात केवल रात में ही होती थी।
उसे घर की बनावट से कोई सरोकार ना था। यों भी यहां संपन्नता थी, परिवार का समाज में सम्मान था। फिर भी उसका दम घुटता यहां। वह सुबह 5 बजे उठती। घर में झाड़ू लगाती। फिर सबकी चाय बनाती। अपनी चाय वह अपने कमरे में ला कर ही पीती, क्योंकि सासू मां का फरमान था कि ससुर व जेठ के सामने कम से कम निकला करो। सामने जाना भी हो, तो घूंघट डाल कर जाओ। अपने कमरे में भी बात इतनी धीमी करो कि वे लोग ना सुन पाएं। कभी पति से कहती कहीं घूमने चलो तो वे कहते, ‘‘भैया आज तक भाभी को ले कर कहीं नहीं गए। अच्छा लगेगा क्या।’’
एक किराने की दुकान से ही तीनों जुड़े थे, जो कस्बे में सबसे बड़ी कहलाती थी। सारा किराना मिलता था। इसका बड़ा गुमान भी था सारे परिवार को। जेठानी उमा अवश्य उसका दर्द समझती थी पर उससे क्या? उसकी स्थिति और भी दयनीय थी। दो बच्चे थे उसके, 10 बरस का अंकुश और 5 बरस की अंकेषा। फिर भी पति व परिवार की इच्छा के कारण तीसरा बच्चा गर्भ में था। उसका स्वास्थ्य अच्छा ना था। चुपचाप घर के काम में लगी रहती।
वह उस समय को कोसती जब उसने इस रिश्ते के लिए हां की थी। मयंक और उसकी मम्मी आए थे उसे देखने। मयंक आकर्षक था, लंबा था, उसकी गहरायी लिए आंखें उसे भा गयी थीं। बस फिर उसने कुछ नहीं देखा था। बीएससी फाइनल की परीक्षा एक दिन पहले ही समाप्त हुई थी। मां-बाऊ जी को लगा यहां तो हमेशा पैसे का गुणा-भाग ही होता रहता है, बेटी संपन्न घर में जाएगी, तो सुख पाएगी। फिर भी वे उसकी राय पूछना नहीं भूले थे। वह तो फिदा हो गयी थी सो ना का मतलब ही ना था। और लड़के वाले, उन्हें तो पढ़ी-लिखी लड़की मिल रही थी। भोपाल में ससुराल है। मां-बाऊ जी ने बता दिया था कि एक ही बेटी है, सम्मान से विदा करेंगे। उनका इशारा दहेज की ओर था। यों तो वर पक्ष ने कोई मांग नहीं रखी थी, पर होने वाली सासू मां प्रसन्न हो गयी थीं। लक्ष्मी की माया अदभुत है। इसके आकर्षण से बचना असंभव है। बस फिर क्या था चट मंगनी पट ब्याह हो गया।
वह अपने सपनों के राजकुमार को मन बसा कर खुशी-खुशी यहां आ गयी। यहां की असलियत यहां आ कर ही पता चली। यद्यपि परिवार के सभी सदस्य स्वभाव से बुरे नहीं थे। बस सारा काम पुरानी मान्यताअों का था, जिनसे प्रत्येक सदस्य जकड़ा हुआ था। सुमेषा ठहरी प्रगतिशील परिवार की बेटी और यही उसकी घुटन का कारण भी था।
जिंदगी एक ढर्रे पर चल रही थी, जीने का मजा नहीं था। जेठानी का बेटा अंकुश पांचवीं कक्षा में और बेटी अंकेषा पहली कक्षा में कस्बे के एकमात्र इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने जाते थे। कभी-कभी वे दोनों उसके कमरे में आ कर ही होमवर्क करते थे। पहले तो उसे बहुत बुरा लगा कि इस कमरे पर भी उसका अधिकार नहीं है। यहां भी दो पल सुकून के नहीं बिता सकती। एक दिन अंकुश ने उससे एक प्रश्न पूछा। उसने उसे समझा दिया। अब तो जब भी कुछ समझ नहीं आता, तो वह उससे पूछ लेता। उसे भी मजा आने लगा उसे पढ़ाने में। पढ़ने-लिखने में उसकी रुचि हमेशा ही रही है। अंकेषा भी अपनी गणित और अंग्रेजी की किताब ले कर आ जाती। धीरे-धीरे वह दोनों को दोपहर के खाली समय में प्रतिदिन पढ़ाने लगी। उनका गृहकार्य तो कराती ही साथ में आगे का अभ्यास भी करा देती। उनका पढ़ाई का स्तर बढ़ने लगा। शिक्षक भी उनकी उन्नति देख कर आश्चर्यचकित थे। वे दोनों अपनी कक्षाअों में पढ़ाई में सबसे आगे होने लगे।
एक दिन गणित की अध्यापिका ने अंकुश से पूछ ही लिया इसका कारण। जब उसने चाची सुमेषा का नाम लिया, तब वे भी खुश हो कर उसकी प्रशंसा करने लगीं। सभी बच्चे अंकुश जैसा बनना चाहते थे, परंतु उन्हें कौन पढ़ाता। आदित्य और शौर्य की मम्मी घर आ ही गयीं। और सुमेषा से अपने बच्चों को पढ़ाने का आग्रह करने लगीं। किंतु सासू मां को गुस्सा आ गया बोलीं, ‘‘घर के काम कौन करेगा? हमें बहुअों की कमाई नहीं खानी। बिरादरी में नाक कट जाएगी।’’
वे अपना सा मुंह ले कर लौट गयीं। वह चुप रह गयी। दिल तो चाह रहा था कि शायद यही एक रास्ता है अपनी बेरंग जिंदगी में रंग भरने का। पर बोले किसको। वह बोली, तो बवाल हो सकता है। उसे पिता की याद आयी। पर उनसे बात करना बेकार है। मां के सामने उनके मुंह पर ताला लग जाता है। वह सपनों में खो गयी। वह बाहर बरामदे में ट्यूशन पढ़ा रही है। बैठने का स्थान कम पड़ रहा है, सासू मां उसे प्यार से निहार रही हैं। महीने की एक मोटी रकम वह कमा रही है।
तभी अंकुश व अंकेषा अपना स्कूल बैग ले कर उसके कमरे में आ गए। आज उसका मूड उखड़ा हुआ था। वह सासू मां के रूखे व्यवहार से दुखी थी। नहीं पढ़ाने देना था तो ठीक था, पर व्यवहार तो अच्छा करना था। मना तो नम्रता से भी किया जा सकता था।
उमा को उसके मन की हलचल पता थी। वह भी बच्चों के पीछे-पीछे आ गयी। वह अपने मन की व्यथा उन्हें बताने लगी, ‘‘आप ही बताओ दीदी, अंकुश के दोस्तों को पढ़ा देती तो क्या हो जाता। वैसे भी घर का काम तो मैं सुबह ही निपटा लेती हूं।’’
चलो यह बात आयी-गयी हो गयी। दिन पर दिन निकलने लगे। वह भी इस बात को भूल गयी। घर के दोनों बच्चों को पढ़ाना बदस्तूर जारी रहा। बच्चे सभी टेस्ट में प्रथम आने लगे। दोस्त मन ही मन सोचते कि काश, हमारे पास भी ऐसी चाची होती। मुख्य परीक्षा में दोनों बच्चे कक्षा में प्रथम आए थे। सारा परिवार खुश था। उमा ने सबसे पहले सुमेषा को ही मिठाई खिलायी।
दूसरे दिन सुबह-सुबह दीपेंद्र की मम्मी आ गयीं। छुटि्टयों में अपने बच्चों को पढ़ाने की जिद करने लगीं। सुमेषा ने स्वयं उन्हें मना कर दिया। ससुर जी नहा कर बाहर निकले और सारी बातें सुनने लगे। फिर तैयार हो कर दुकान पर चले गए। दूसरे दिन सुबह-सुबह सासू मां उसके रूम में ही चाय ले आयीं। वह डर गयी कि आज चाय पसंद नहीं आयी क्या। अभी तो चाय ले कर ही गयी थी। आ कर बोलीं, ‘‘बहू, तुम ट्यूशन पढ़ाना चाहती हो क्या? तुम्हारे ससुर जी कह रहे हैं वह यदि चाहती है, तो पढ़ाए। हमें कोई एतराज नहीं है।’’
वह अपनी खुशी रोक नहीं पा रही थी, ‘‘मां, क्या कह रही है आप?’’
‘‘हां बहू, योग्यता को सामने आना ही चाहिए। पढ़ाना जानती हो तो फिर पढ़ाओ।’’ वह सासू मां के गले से लिपट गयी। आंखों में छिपा सपना फिर से चमकने लगा।