Thursday 09 September 2021 04:06 PM IST : By Mahavir Raji

आईने का हमशक्ल

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कमरे में घुसते ही मालविका पर्स को पलंग पर उछालते हुए ड्रेसिंग टेबल के सामने जा खड़ी हुई। आवेग और रोमांच का मिलाजुला अहसास ! सांसों का अस्वाभाविक आरोह-अवरोह ! खोजी नजरें आईने के भीतर अवतरित हो आयी मालविका की देह का मुआयना करने लगीं। नाभि को निहारते हुए लगा जैसे नाभि की सुरंग के भीतर से महीन किलकारी गूंजी हो... मां ! हाथ अनायास ही नाभि पर टिक गए। डेढ़ दो माह का ही होगा कमबख्त ! अपने होने का आभास पूरी शिद्दत से देने लगा है ! 

मालविका ने मोबाइल में समय देखा- तीन दस! यानी मयंक को आॅफिस से लौटने में काफी देर है। सुबह उठने के बाद से नौ बजे तक एक के बाद एक इतने काम करने पड़ते हैं कि दिमाग चक्करघिन्नी सा घूमने लगता है। चाय-नाश्ता... लंच... बंटी को तैयार करना ! मयंक अपनी हरेक जरूरत के लिए उसे ही पुकारेगा। इन्हीं सब आपाधापी के बीच चुहल के लमहों के छौंक भी पड़ते रहते। मसलन बाथरूम से हुजूर गुहार लगाएंगे, ‘‘माला, आंखों में साबुन घुस गया यार, मग नहीं मिल रहा... प्लीज !’’ वह दौड़ कर बाथरूम में घुसी कि खिलखिला कर बांहों में समेट लेंगे।

मयंक के ऑफिस चले जाने के बाद उसने शेष काम रोज की तरह ही निपटाए थे। फिर पलंग पर लेट कर एक पत्रिका के पन्ने उलटपुलट रही थी कि अचानक जी मिचलाने लगा और आंखों के आगे अंधेरा छा गया। थोड़े-थोड़े अंतराल पर 2-3 उल्टियां भी हो गयीं। खाया-पिया सब बाहर आ जाने के बाद मन संयत हुआ। फिर उसका ध्यान सूत्रों की कड़ियां मिलाता अनायास ही कोख तक जा पहुंचा। वह खुशी की झुरझुरी से चिहुंक उठी- क्या सचमुच प्रेगनेंट हो गयी है वह ! उसे तुरंत ही निदान कर लेना होगा। थोड़ी देर में ही उसके कदम डॉ. अनिता के नर्सिंग होम की ओर बढ़ गए। डॉ. अनिता उनकी पारिवारिक चिकित्सक थीं। गहन चेकअप के बाद मुस्कराते हुए निदान दिया, ‘‘बिलकुल...आप प्रेगनेंट हैं मालविका जी।’’

घर लौट कर वह मयंक की बैचेनी से प्रतीक्षा करने लगी। लगा जैसे आज समय कछुआई गति से सरक रहा है। इतनी रोमांचक खबर मयंक को फोन पर बताना उसे अच्छा नहीं लगा। तभी बंटी स्कूल से आ गया। चार महीने पहले ही उसे स्कूल में डाला थ। आते ही बंटी उससे लिपट गया। मालविका ने भी आवेश में उसे अपने से चिपटा लिया। वह बंटी को बहुत प्यार करती थी। इसलिए नहीं कि बंटी जो मयंक की पूर्व पत्नी का बच्चा है, के प्रति ‘बेचारा’ जैसे भाव थे। ऐसी भावना उसके मन में कभी आयी ही नहीं। पहले ही दिन जब उसने बंटी को देखा था, उसकी मासूम और भोली सूरत दिल में उतरती चली गयी। बंटी की आंखों में उसे मयंक का बिंब दिख रहा था। वस्तुतः मयंक के करीब आने और फिर शनैः शनैः उसकी जिंदगी में दाखिल होने का माध्यम बंटी ही तो था। उसकी आंखों के आगे 3 साल पहले के कोलाज रुई के फाहों की मानिंद उड़ने लगे...

तीन साल पहले वह डॉ. रुद्र सेन के नर्सिंग होम में वरिष्ठ नर्स थी। डॉ. सेन शहर के ख्यात ऑर्थो सर्जन थे। एक दिन शाम का समय था। बाहर रिमझिम बारिश हो रही थी कि मयंक बंटी को गोद में उठाए हड़बड़ाते हुए नर्सिंग होम में आया। बंटी खेलते हुए छत से गिर गया था। पांव में गहरी चोट लगी थी। खून भी बह रहा था। मयंक के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं।

‘‘हिम्मत से काम लीजिए मि. मयंक, सब ठीक हो जाएगा,’’ मालविका ने मयंक को ढांढस बंधाया। बंटी को एडमिट करके जरूरी एक्सरे व अन्य जांच की प्रक्रिया तुरंत शुरू कर दी गयी। रिपोर्ट से पता चला कि पांव में फ्रैक्चर आया है और ऑपेरशन करना होगा।

‘‘मालविका, ओटी तैयार करो... जल्दी ! तुरंत ऑपेरशन करना होगा... और हां, रक्त की जरूरत पड़ेगी। मयंक साहब से कहो, ओ नेगेटिव रक्त का प्रबंध कर लें।’’ डॉ. सेन ने निर्देश दिए। रक्त की आवश्यकता पड़ेगी, यह जान कर मयंक घबरा ही गया। कहां से जुटाएगा रक्त? ब्लड बैंक या प्रोफेशनल डोनर के रक्त पर उसे भरोसा नहीं हो रहा था।

‘‘मेरा ब्लड ग्रुप ओ पॉजिटिव है। बच्चे की मां नहीं है। प्लीज आप ही कोई उपाय करें मिस मालविका...!’’ मयंक का स्वर कातर हो गया।

‘‘धैर्य रखिए मि. मयंक... घबराने से समस्या थोड़े ही हल होगी,’’ कहती मालविका ओटी के भीतर चली गयी। उसके बाद 3 घंटे की लंबी बैचेनीभरी प्रतीक्षा ! बंटी के ओटी से निकलते ही वह स्ट्रेचर के पीछे लपका। बंटी को बिस्तर पर लिटा कर रक्त चढ़ाना शुरू कर दिया गया। मयंक यह सब विस्फारित नेत्रों से देखता रहा।

‘‘रक्त मालविका ने डोनेट किया है सर...’’ पास खड़ी सिस्टर ने मुस्कराते हुए बताया, तो वह हैरान रह गया, ‘‘उसका ब्लड ग्रुप ओ नेगेटिव है।’’

उसके बाद बंटी लगभग एक माह नर्सिंग होम में रहा। मयंक रोज ऑफिस जाने के पहले और शाम को ऑफिस से लौटते हुए नर्सिंग होम आ जाता और देर तक बंटी के पास बैठता। दिन में भी कई-कई बार फोन करके जानकारी लेते रहता। बंटी को मालविका के संरक्षण में दे कर वह निश्चिंत सा हो गया।

इस एक माह के दौरान बंटी की देखभाल करते करते मालविका कब उसके अंतर्मन में उतरती चली गयी, मयंक को पता ही नहीं चला। नर्सिंग होम में आते ही मयंक की आतुर नजरें गौरैया की तरह चारों ओर फुदकती मालविका को ढूंढ़ने लगतीं। वह बहाने गढ़-गढ़ कर उसे बंटी के रूम में बुलाता और बंटी के लिए लाए फ्रूट्स और चॉकलेट्स में से उसे भी आग्रह करके खिलाता। मालविका की आंखें भी रोमांच के गुदगुदे अहसास से चमकने लगतीं। वह भी तो मयंक के प्रेमपाश में बंधती चली जा रही थी। शनैः शनैः स्थिति यह हो गयी कि बंटी मालविका को स्वयं के वजूद का हिस्सा लगने लगा और मयंक चिर आकांक्षित स्वप्न पुरुष ! एक त्रिकोण सा बन गया ! प्यार और वात्सल्य से ऊपर तक भरा ऐसा त्रिकोण, जिसे परिभाषित करने की बात संकोचवश कोई भी करने से हिचक रहा था। लेकिन संकोच की बलुई दीवार भी भला देर तक टिक सकती है क्या ! जिस दिन बंटी ठीक हो कर नर्सिंग होम से डिस्चार्ज हुआ, मयंक ने मालविका से पिकनिक पर चलने का अनुरोध किया। मालविका सहर्ष मान गयी। उसकी अंतरंग सहेली दिव्या भी साथ हो ली।

नेहरू पार्क का एकांत कोना ! गुलमोहर की छांव! छांव तले चारों बैठे चुहल में व्यस्त थे कि दिव्या बंटी को ले कर झील में तैर रही बत्तखों की ओर चली गयी। मयंक निर्निमेष मालविका की आंखों में कुछ नायाब सी चीज तलाशता रोमांचित हो रहा था।

‘‘इस तरह क्या देख रहे हैं आप..?’’ मालविका का लहजा शरारत से भरा था।

‘‘मैं... मैं... तुमसे... सॉरी आपसे कुछ...’’ मयंक के होंठ थरथरा कर राह गए। उसकी लड़खड़ाती आवाज पर मालविका हंस पड़ी, ‘‘सॉरी नक्को..! ‘तुम’ चलेगा ! पर ये मैं-मैं क्या है साहब, जो भी कहना है, एक एग्जीक्यूटिव के रोबदार लहजे में कहिए ना..!’

‘‘मालविका, क्या तुम...’’ मयंक संकोच से लरजते हुए बोला, ‘‘मेरा मतलब है, क्या तुम जिंदगी के इस सफर में मेरी हमसफर बन कर साथ-साथ चलना पसंद करोगी?’’

‘‘ओह मयंक ओह..!’’ मालविका का भी सारा संकोच एक पल में ही ढह गया, ‘‘पता है? यह सुनने के लिए मैं कितनी बैचेन थी। तुम्हारे जैसा हमसफर पा कर तो जिंदगी का सफर मजेदार हो जाएगा।’’ 

‘‘पर इस बेचारे बंटी का क्या होगा?’’

‘‘क्या होगा मतलब?’’ मालविका दृढ़ता से बोली, ‘‘हमारी शादी के बाद वह बेचारा क्यों रहेगा?’’

‘‘हां, उसे मां जरूर मिल जाएगी...’’ मयंक के स्वर में उदासी घुल गयी, ‘‘सौतेली मां..!’’

मालविका ने लपक कर अपनी हथेली मयंक के होंठों पर रख दी, ‘‘ऐसा ना कहो यार ! बंटी मेरा अपना बेटा होगा। मेरी कोख से जन्मे बच्चे की तरह ! मुझे ‘सौतेली’ शब्द से बेहद घृणा है, मयंक। मां को सिर्फ और सिर्फ मां ही रहने दो, उसे विशेषण के खानों में ना बांटो। मैं उसे भी उतना ही प्यार दूंगी जितना तुम्हें... क्योंकि उसके चेहरे में हर वक्त मुझे तुम्हारा अक्स दिखेगा...!’ मयंक ने प्यार के आवेश में मालविका को बांहों में खींच लिया।
तभी कॉलबेल की आवाज से उसकी तंद्रा टूट गयी, तो आ गए जनाब... पूरा आधा घंटा लेट ! थोड़ी देर में कॉफी का प्याला लिए जब वह मुस्कराती हुई मयंक के पास आयी, तो मयंक ने उसकी ओर देखते हुए कटाक्ष किया, ‘‘क्या बात है मैडम, आपकी हंसी ऐसी है कि साफ छुपती भी नहीं, सामने आती भी नहीं..!’’

‘‘एक खुशखबरी है...’’ मालविका की आवाज खुशी से लरज रही थी।

‘‘खुशखबरी..?’’ मयंक ने कॉफी का प्याली एक ओर सरका कर उसे बांहों में खींच लिया, ‘‘जल्दी बताओ ना...’’

‘‘मैं... मैं... प्रेगनेंट हूं...’’ 

‘‘क्या...’’ मयंक हतप्रभ रह गया। ‘क्या’ आवेश में लंबा खिंच गया था। थोड़ी देर पहले का कहकहे लगाता चेहरा एकाएक गंभीर हो गया। मालविका ने तो सोचा था कि प्रेगनेंसी की बात जान कर मयंक खुशी से झूम उठेगा, लेकिन उसकी खामोशी देख कर वह सहम गयी, ‘‘तुम्हें अच्छा नहीं लगा..?’’ 

‘‘नहीं...’’ मयंक हकलाया, ‘‘पर इतनी जल्दी...’’ 

‘‘धत तेरे की..!’’ मालविका की जान में जैसे जान आयी हो, तो जनाब ‘जल्दी’ की बात पर उदास हो गए, ‘‘जल्दी तुमने की या मैंने..?’’ 

‘‘मैं सोच रहा था, कुछ समय के लिए इसे टाला जा सकता तो अच्छा रहता। बंटी अभी छोटा है,’’ कॉफी के प्याले पर नजर गड़ाए मयंक फुसफुसाया।

‘‘बंटी छोटा है..!’’ मालविका ठहाके लगाती हंस पड़ी, ‘‘साढ़े चार साल का हो गया। इतना अंतराल कम होता है? उफ, तुमने तो मुझे डरा ही दिया था यार। नाऊ हरी अप डार्लिंग, इस खुशी को सेलिब्रेट करने के लिए किसी बढ़िया होटल चलते हैं।’’ 

मयंक कहना चाहता था, बंटी से तुम्हारा परिचय सिर्फ एक साल पुराना ही तो है। एक साल का अंतराल निश्चय ही कम होता है। पर चुप रह गया। मालविका सारे समय बंटी से चुहल करती रही, जबकि मयंक गुमसुम और गंभीर बना रहा। वह सोच रहा था कि बंटी के साथ मालविका के रिश्ते को क्या नाम दिया जाए। अपना बच्चा हो जाने के बाद मालविका की नजरों में बंटी की क्या स्थिति रह जाएगी !अनायास ही उसके जहन में अतीत के दो कोलाज एक के बाद एक कौंध गए...

पहला कोलाज... कैंसर की लास्ट स्टेज में आ कर मृत्युशैया पर अंतिम सांसें लेती शैलजा की कराह में लिपटी बड़बड़ाहट, ‘‘बेशक मेरे मरने के बाद दूसरी शादी कर लेना मयंक... पर हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि बंटी को मां देना... सिर्फ और सिर्फ मां, कैकेयी नहीं...’’

दूसरा कोलाज... मालविका से शादी के बाद फर्स्ट नाइट की रात ! उसकी बांहों में छुईमुई सी सिमटी मालविका की मदहोश कर देनेवाली फुसफुसाहट, ‘‘मैं तुम्हारे बिना अधूरी हूं, मयंक। मैं तुम दोनों को ही दिल की गहराइयों से प्यार करती हूं। बंटी अगर तुम्हारी आंखों का तारा है, तो मेरे कलेजे का टुकड़ा भी बना रहेगा... हमेशा-हमेशा 
के लिए !’’

तो क्या फर्स्ट नाइट को कही मालविका की इन बातों को कोरी भावुकता कह कर खारिज कर देना चाहिए..?

उस दिन के बाद से मालविका ने महसूस किया कि मयंक के भीतर एक और भिन्न मयंक अवतरित हो आया है। व्यवहार और प्रकृति के स्तर पर इस जाने-पहचाने मयंक से बिलकुल उलट ! कहां उन्मुक्त ठहाकों और लतीफों के शगूफे छोड़ता पहले का मयंक और कहां मौन और गंभीरता का मुखौटा लगाए यह अंतर्मुखी मयंक ! वह देखती कि मयंक के व्यवहार में शिथिलता घुलती जा रही है। पहले सुबह आॅफिस जाने के पूर्व और शाम को लौट कर आने के बाद वह उसे एक पल के लिए भी अकेली नहीं छोड़ता था। वही मयंक अब कछुए की तरह अपने खोल में सिमटा रहता और इस मयंक को मुखर करने के लिए पहल उसे ही करनी पड़ती, जिसके उत्तर में वह सिर्फ ‘हां हूं’ करता औपचारिक बना रहता।

एक दिन शाम को आॅफिस से लौट कर कॉफी की चुस्कियां लेते हुए मयंक पूछ बैठा, ‘‘बंटी कहां है?’’

‘‘पड़ोस के गुड्डू के संग खेल रहा है...’’

‘‘स्कूल से लौट आने के बाद उसे दूध दिया था?’’

‘‘हां...’’

‘‘सुबह उसके टिफिन बॉक्स में चॉकलेट रखी थी ना..?’’

‘‘हां...’’

अचानक मयंक की नजर ड्रेसिंग टेबल के पासवाली कैबिनेट पर चली गयी। उसकी त्यौरियां चढ़ गयीं और वह चीख पड़ा, ‘‘यह चाबी वाली डॉल तो बंटी के खेलने के लिए लाया था, इसे अलमारी के भीतर क्यों रख दिया..?’’ मालविका उसके लहजे पर स्तब्ध रह गयी। डॉल को मयंक ने खुद ही अलमारी के भीतर रखा था।

‘‘बंटी को ले कर मेरी ममता पर इस तरह संदेह क्यों होने लगा है तुम्हें..?’’ मालविका की आवाज अनायास ही भर्रा उठी।

‘‘मैंने ऐसा तो कुछ नहीं कहा...’’ मयंक एक पल को सकपका गया। 

‘‘चेहरे की रेखाएं भी बहुत कुछ अनकहा कह देती हैं, मयंक,’’ मालविका ने अटक-अटक कर कहना जारी रखा, ‘‘पहले भी कह चुकी हूं, मैं तुम दोनों को ही बहुत प्यार करती हूं। तुम्हारा इस तरह खामोश रहना मुझसे सहा नहीं जाता यार। प्यार की नींव तो विश्वास पर टिकी होती है ना। विश्वास करो, मैं बंटी को अपने कोख जाए बच्चे की तरह ही प्यार करती हूं और दूसरे बच्चे के आने के बाद भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आएगा।’’

एक संडे को रात में टीवी पर दूसरी मां फिल्म दिखायी जा रही थी। फिल्म सौतेली मां के जुल्म और कठोर व्यवहारवाले कथानक पर आधारित थी। फिल्म देखते हुए दोनों के बीच मौन पसरा रहा। फिल्म समाप्त होने पर मालविका ने हंसते हुए टिप्पणी जड़ी, ‘‘ये फिल्म वाले भी ना..! कल्पना की कैसी-कैसी बेतुकी उड़ान भरने लगते हैं और अपनी सनक में फिल्म को अविश्वसनीय ही नहीं, नकारात्मक और वाहियात बना डालते हैं, हंह ! कमबख्त ने सारा मूड खराब कर दिया...’’
दूसरे दिन आॅफिस जाते हुए मयंक ठंडे लहजे में बोला, ‘‘क्यों ना बंटी को हम किसी अच्छे बोर्डिंग स्कूल में डाल दें? अभी से वहां रहेगा, तो तौरतरीके सीख सकेगा और... और तुम्हें भरपूर आराम भी मिल जाएगा।’’

‘‘आराम..?’’ मालविका का चेहरा सफेद पड़ गया। मयंक के चले जाने के बाद वह अशांत हो उठी। काम में मन ही नहीं लग रहा था। मस्तिष्क में विचारों का मंथन चल रहा था। ‘आराम...’ शब्द से मयंक का व्यंग्य किस ओर था, वह खूब समझ रही थी। ऊफ... क्या करे वह ! वह मयंक को दिल की गहराइयों से प्यार करती है। उसके बिना जीने की कल्पना भी असह्य है ! बंटी भी अपने गर्भ से जन्मे बच्चे की तरह ही बेहद प्यारा है। अपने प्यार और वात्सल्य का प्रमाण क्या इसी तरह हर वक्त रो-रो कर, गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर देना होगा उसे? 

तभी घंटी की आवाज से तंद्रा भंग हुई। दरवाजा खोला, तो सामने दिव्या खड़ी थी।

‘‘हाय माला... कैसी है तू?’’ दिव्या ने उसे कंधे से पकड़ कर कहा, ‘‘तेरा चेहरा उतरा हुआ क्यों है। मयंक से झगड़ा हुआ क्या?’’ मालविका उसके सवाल पर फफक पड़ी और सारी बातें विस्तार से बताती चली गयी... मयंक और बंटी के प्रति उत्कट प्रेम...! प्रेगनेंसी की बात पर मयंक की असहजता...! बंटी को ले कर माला के व्यवहार पर संदेह...!

‘‘बेशक मयंक खुल कर भले ही ना कहे, पर उसके रूखे हावभाव से स्पष्ट है कि उसे प्रमाण चाहिए..! प्रमाण..! अपने प्यार का, समर्पण का और अपने वात्सल्य का प्रमाण कहां से और कैसे जुटाऊं दिव्या? क्या नारी की अपनी कोई स्मिता नहीं होती? लोगों को क्यों उन्हें विमाता में सिर्फ कैकेयी ही नजर आती है, पन्ना नहीं..?’’

युवावस्था में ही विधवा हो जाने के बाद ससुराल और पीहर दोनों ही ओर से प्रताड़ित हो कर निर्वासन का घुटन भोगती दिव्या मालविका की व्यथा सुन कर तड़प उठी, ‘‘तेरे इस कदर पागलपन की सीमा तक के समर्पण का क्या प्रतिदान मिला तुझे? संदेह और अजनबीपन की सलीब ही ना... जिस पर हर पल टंगे रहना है। कभी ऐसे ही पागलपन के दौर से में भी गुजर चुकी हूं रे। लाख प्यार का दंभ भरे पुरुष,उसके अंदर का ‘मैं’ कभी नहीं मरता। जो हमेशा अधिकार की चाहत रखता हो, वह प्यार की सांद्रता को क्या समझेगा? तेरी समस्या के बस दो ही हल हैं...’’

मालविका उत्सुक निगाहों से दिव्या की ओर देख रही थी।

‘‘पहला... तलाक !’’ दिव्या एक क्षण के मौन के बाद फुसफुसायी, ‘‘मैं जानती हूं यह तेरे लिए संभव नहीं, क्योंकि तेरे भीतर गहरे तक ठुंसी मयंक के प्रति विक्षिप्त दीवानगी ऐसा नहीं करने देगी तुझे। दूसरा हल जो ज्यादा सरल है, वह है अबॉर्शन...! यानी गर्भपात..!’’

‘‘नहीं...’’ मालविका के कंठ से हल्की चीख निकल गयी।

‘‘चीखो नहीं, चिंतन करो। सिर्फ गर्भपात ही मयंक के जहन में भरे शक और अविश्वास के धुंध को काट सकता है। और कोई विकल्प नहीं,’’ दिव्या मुंह बिचकाती उपेक्षा से हंसी, ‘‘स्वप्न पुरुष... हाहाहा..!’’

दिव्या के चले जाने के बाद मालविका बिस्तर पर निढाल हो कर पड़ गयी। कलेजा धक-धक कर रहा था। क्या मयंक वाकई इतना निष्ठुर हो गया है कि अपने अप्रत्याशित अजूबे व्यवहार से अबॉर्शन की मांग कर रहा है? गर्भ में तिर रहे भ्रूण के निर्माण में उसकी भी तो बराबर की हिस्सेदारी है कि नहीं?

दिन इसी ऊहापोह में बीतते रहे। मयंक का असामान्य व्यवहार उसे टीसता रहता। कुछ दिन बाद एक घटना घट गयी। दोपहर का वक्त था। बंटी के स्कूल की छुट्टी थी। वह कमरे में खेल रहा था। मालविका पलंग पर लेटी किसी पत्रिका के पन्ने पलट रही थी। पता नहीं कब उसे झपकी आ गयी, जो बंटी की चीख के साथ टूटी। चीख किचन से आयी थी। वह झटपट उस ओर दौड़ी। बंटी की तर्जनी से खून टपक रहा था। सब्जी काटनेवाली छुरी से उंगली कट गयी थी। मालविका को काटो तो खून नहीं ! जहन में मयंक का तमतमाया रौद्र रूप चिलक उठा। तीन बजे थे। मयंक को लौटने में अभी देर थी। पास के नर्सिंग होम जा कर बंटी की उंगली की मरहम-पट्टी करा कर ले आयी। जख्म की वजह से बंटी को बुखार आ गया था।

आॅफिस से लौटने पर जैसे ही मयंक को पूरे वाकये का पता चला, देर तक चुप बैठा रहा मानो अपने भीतर उमड़ रहे भीषण क्रोध पर काबू करने का प्रयास कर रहा हो। फिर लंबी ऊबभरी निश्वास छोड़ता बड़बड़ाया, ‘‘एेसा ही होना है, मैं जानता था...’’

‘‘विश्वास करो मयंक, यह सब अनजाने में हुआ है...’’ मालविका ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

‘‘अनजाने में...! हंह...!’’ मयंक उपेक्षाभरी हंसी हंसा, ‘‘लाख ममता का दंभ भरो तुम, तुम्हारे और बंटी के बीच एक कैकेयी हमेशा मौजूद रहेगी।’’

‘‘नहीं मयंक नहीं, तुम्हें इस तरह मेरी ममता को सलीब पर टांगने का कोई अधिकार नहीं है...’’ वह चीख ही तो पड़ी।

‘‘ममता और वात्सल्य की बातें रहने दो... कुछ दिन और बर्दाश्त कर लो इसे। जल्द ही कोलकाता के किसी हॉस्टल में डाल आऊंगा,’’ मयंक के शब्द पिघले हुए शीशे की तरह ही मालविका के कानों में टपकते चले गए।

दूसरे दिन रविवार था। मयंक ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ा शेव कर रहा था। मालविका पास ही पलंग पर बैठी थी। दोनों के बीच मौन किसी घने कुहासे की तरह पसरा हुआ था। बंटी का बुखार उतर चुका था और उसमें पहले जैसी चपलता आ गयी थी। एक खिलौना कार में पतली डोर बांध कर उसे खींचते हुए रूम में चक्कर काट रहा था।

खेलते-खेलते बंटी रूम से बाहर निकल गया। रूम के बाहर पतला गलियारा था और उसके बाद सीढि़यां ! बंटी रूम की ओर मुंह करके कदम दर कदम पीछे खिसक रहा था। तभी मयंक का ध्यान उसकी ओर गया, तो वह चीख पड़ा, ‘‘बंटी बेटे, पीछे सीढि़यां हैं, रुक जाओ।’’ मालविका में ना जाने कहां से फुरती आयी कि वह तीर की तरह बंटी की ओर लपकी और इसके पहले कि बंटी का अगला कदम सीढ़ियों पर पड़ कर लड़खड़ाता, मालविका ने उसको बांह से पकड़ कर सामने की ओर खींच लिया। बंटी तो बच गया, पर वह स्वयं का संतुलन नहीं रख पायी और सीढ़ियों के नीचे लुढ़कती चली गयी।

चिर परिचित नर्सिंग होम... गाइनी विभाग का ओटी..! ओटी के भीतर की सिहरा देनेवाली शमशानी खामोशी..! खामोशी का कुहरा लपेटे अष्टावक्री टेबल..! टेबल पर श्लथ पड़ी मालविका की देह..! तीन घंटे की गहन शल्य क्रिया के बाद उसे रिकवरी रूम में लाया गया। चेकअप के बाद पता चला था कि चोट के कारण पेट में पल रहा भ्रूण नष्ट हो गया था और तुरंत ऑपेरशन करके मृत भ्रूण को बाहर निकाल डालना अत्यंत जरूरी था।
‘‘कैसा लग रहा है अब माला...’’ थोड़ी देर बाद होश आया, तो मयंक की आवाज से पलकें उसकी ओर उठ गयीं। आवाज के लहजे ने सुखद आश्चर्य से चौंका ही दिया था। इन दिनों के उपेक्षाभरे कठोर व्यवहार के विपरीत प्यार की मिठास से लबरेज लहजा ! बिलकुल वही और वैसा, जो 
पहली मुलाकात के दौरान बंटी के नर्सिंग होम में रहते हुए करता था। उन्मुक्त और सांद्र प्यार से सराबोर बिंदास लहजा ! इसी लहजे को सुनने के लिए तो तरस रही थी।

मालविका की नजरें अपने चारों ओर के परिवेश का मुआयना करने लगीं। अरे... ये दीवारें, ये वाॅर्ड, ये बेड और सारे उपकरण, लाइट, फैन... सब कुछ तो जाना-पहचाना है ! यानी वह अपने पुराने नर्सिंग में एडमिट है। लेकिन क्यों..?

अचानक उसे महसूस हुआ कि उसकी कोख एकदम हल्की हो गयी है। दोनों हाथ उत्तेजना में नाभि पर आ टिके। ना कोई स्पंदन और ना ही थिरकन ! तो क्या..? वह भय से भर कर चीखना ही चाहती थी कि डॉ. अनिता आती दिखीं।

‘‘चोट लगने से भ्रूण नष्ट हो गया था। तुरंत अबॉर्शन करना पड़ा। नो अदर वे ! नाऊ यू आर आउट ऑफ डेंजर।’’

मालविका सन्न रह गयी। हलक से घुटी-घुटी सिसकी निकल गयी। सन्नाटे के खोल में लिपटी बेआवाज सिसकी ! तो यह वजह है मयंक के लहजे और व्यवहार में आए अप्रत्याशित बदलाव की..! बदलाव के पीछे प्यार का आलोड़न नहीं, बल्कि गर्भ का नष्ट हो जाना है... खूब ! मालविका की सूनी-सूनी नजरें पंख फड़फड़ाती मयंक की नजरों से गुंथीं, तो मयंक अनजाने ही सकपका गया।

‘‘चलो अच्छा ही हुआ कि अबॉर्शन हो गया..!’’ मालविका अब तक खुद को संयत कर चुकी थी, ‘‘तुम्हें प्रमाण चाहिए था ना मेरे वात्सल्य और ममत्व का। भले ही मुखर हो कर तुमने नहीं कहा, तुम्हारे भीतर कहीं ना कहीं यह बात जरूर थी कि अबॉर्शन हो जाए। अबॉर्शन होने से मेरे भीतर की कैकेयी का भी अंत हो जाएगा और तुम्हें मेरे वात्सल्य को हर पल सलीब पर टांगने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी।’’

‘‘नहीं माला नहीं, मैंने ऐसा कभी नहीं चाहा। आई लव यू वेरी मच !’’ मयंक की जबान अनजाने ही हकला गयी थी।

‘‘मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करती हूं मयंक...’’ मालविका शांत और गंभीर थी, ‘‘दरअसल नारी मुक्ति की सारी बातें सिर्फ हवा हवाई हैं। पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी को हमेशा ही झुकना पड़ा है। नारी के लिए प्यार सिर्फ शब्दभर नहीं, बल्कि एक समर्पण है, अहसास है। मैं तुम्हें और बंटी दोनों को दिल की गहराइयों से चाहती हूं। मेरे लिए भविष्य यानी अपना गर्भ महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि वर्तमान यानी बंटी महत्वपूर्ण है। मेरा अभी भी यही मानना है कि मां सिर्फ और सिर्फ मां होती है। उसे विशेषणों के खानों में नहीं बांटा जा सकता।’’

सामने की दीवार में आईना टंगा था। मयंक की नजरें आईने की ओर ही थी। आईने के भीतर उसका हमशक्ल अवतरित हो आया था। अचानक उसे लगा, आईने के भीतर के उसके हमशक्ल का कद सिकुड़ने लगा है और सिकुड़ता ही चला जा रहा है... इंच दर इंच !!