सलोनी के परिवार में जिस फोन की सुबह से प्रतीक्षा थी, वह 12 बजे आया। उसके पापा सोमनाथ जी ने अपना फोन कान से लगा कर कुछ देर सुना, फिर बरस पड़े , “नहीं, नहीं ! हरगिज नहीं ! अरे, लड़के और लड़की को मिलाना है, ना कि कपड़ा खरीदना है... यह पसंद आया वह नहीं!”
दूसरी ओर से सावित्री बुआ की आवाज आ रही थी, “ओफ-ओह ! अब बिगड़ क्यों रहे हो? ऐसा ही था तो तुम्हें सुलभा को उनके सामने ही नहीं पड़ने देना था। खैर, जो हो गया सो हो गया ! खैर, मैं दोपहर को आती हूं। तब ठंडे दिमाग से सोच कर कोई फैसला करेंगे।”
सोमनाथ जी ने फोन बंद करके अपनी पत्नी संध्या को बताया, “सावित्री जीजी कह रही थीं कि दिनकर को सुलभा बहुत पसंद आ गयी है और वह उसी से शादी करना चाहता है। वॉट रबिश ! हाऊ कैन ही रिजेक्ट माई सलोनी?”
“अभी शांत रहिए। दोपहर को जीजी के साथ बात करेंगे ना !” संध्या ने पति को समझाया।
सावित्री के आने के बाद भाई-बहन और भाभी की मीटिंग बैठी, “सोमू, तुम खुद सोचो, सुलभा भी बच्ची तो नहीं है। इक्कीस की हो गयी है। दो-तीन साल के बाद तुम लोग इसके लिए रिश्ता ढूंढ़ोगे। अभी रिश्ता सामने से चल कर आया है, फिर उसे लौटा देने में कौन सी समझदारी है !” सावित्री बुआ ने अपनी राय दी।
“आप ठीक कह रही हैं, जीजी,” संध्या ने हामी भरी, “लेकिन यह सोचिए कि बड़ी बहन की शादी से पहले छोटी बहन की शादी हो जाए तो जितने मुंह उतनी बातें बनेंगी ना।”
“और यह सोचो जीजी कि इसका सलोनी पर क्या असर पड़ेगा,” सोमनाथ जी ने सवाल किया।
“उससे पूछ लो। वह क्या सोचती है,” सावित्री जी ने राह सुझायी। लेकिन उसकी जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि तभी सलोनी ने चाय की ट्रे ले कर कमरे में प्रवेश किया।
“क्या पापा, आप अपनी बेटी को इतना भी नहीं जानते !” सबको चाय के प्याले थमाते हुए वह बोली, “जो इंसान रंग-रूप को इतनी अहमियत देता है, आपकी बेटी उसे रत्ती भर भी अहमियत नहीं देती !” उसने बार-बार सुलभा की ओर मुड़ रही दिनकर की नजरों को कल ही पढ़ लिया था। फिर उसने अपनी मम्मा को एक शरारतभरी नजर से देखा, “और मम्मा, आप लोगों की फिक्र ना करें! देखिएगा, मेरा वर एक दिन खुद सामने से चल कर आएगा। भले ही मेरे जैसा सांवला हो, पर होगा इतना हैंडसम-स्मार्ट कि सब देखते रह जाएंगे।”
एक जोरदार ठहाका लगा। “तेरे मुंह में घी-शक्कर, माई फेवरेट चाइल्ड,” कहते हुए सोमनाथ जी ने उसे गले से लगा लिया।
सुलभा के विवाह के समय उसने कपड़ों की खरीददारी से ले कर समधियों की आवभगत तक हर समय उत्साह से अपनी जिम्मेदारी पूरी की। सभी आश्वस्त हो गए कि वह दिनकर के चयन से तनिक भी आहत नहीं हुई थी। होती ही क्यों, वह पिछले 24 वर्षों से तीनों भाई-बहनों में सबसे ज्यादा काली होने पर की गयी टिप्पणियां सुनती आ रही थी।
बचपन से ही उसके पापा उसकी ढाल बने हुए थे। अपने जन्म का किस्सा भी वह कई बार सुन चुकी थी। सोमनाथ जी ने जब पहली बार उसे गोद में लिया था, तब वह कैसे अपनी बड़ी-बड़ी आंखें खोल कर मुस्करायी थी। पास बैठी सावित्री बुआ बोली पड़ी थीं, “बच्ची के नाक-नक्श सुंदर हैं सोमू, पर रंगत तुम पर गयी है। इसका नाम श्यामा रखोगे कि कृष्णा?”
“खातिर जमा रखो, जीजी। ना कृष्णा, ना कृष्णकली, ना श्यामा, ना श्यामली, ना कोकिला ! अपनी इस सांवली-सलोनी गुड़िया का नाम मैं रखूंगा सलोनी !”
तीन वर्ष बाद जब गोल-मटोल, गोरी-चिट्टी सुलभा का जन्म हुआ और उसके 4 साल बाद बेटे सौरभ का, तब भी सलोनी अपने पापा की लाड़ली बनी रही। दोनों के बीच एक अटूट बंधन बन गया था। छुटपन में संध्या ने बादाम, मलाई, चिरौंजी आदि का लेप लगा कर उसका रंग उजला करना चाहा, लेकिन वह असफल रही। रंग गोरा नहीं हुआ, पर रूप में गजब का निखार आ गया।
खेलते वक्त कभी अन्य बच्चे उसे ‘कल्लो रानी,’ ‘काली माई दियासलाई’ आदि कह कर चिढ़ाते और वह पापा से शिकायत करती, तब उन्होंने उसे मंत्र दिया था- ‘तुम चिढ़ना बंद कर दो, वे चिढ़ाना बंद कर देंगे। अरे, कुत्ते भौंकते रहते हैं, और हाथी चलता रहता है !’ वही हुआ। किशोरावस्था में पढ़ाई हो या खेल-कूद, वह हर क्षेत्र में अव्वल रहती। हरदम सबकी सहायता करने को तैयार रहने के कारण वह अपने सहपाठियों में बेहद लोकप्रिय थी।
हर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद सलोनी ने एमए की परीक्षा में अपने विश्वविद्यालय में टॉप किया। नियम के अनुसार उसे युनिवर्सिटी में अस्थायी लेक्चरर का पद भी मिल गया। भविष्य की योजनाएं बनने लगीं। किसी ने कहा ‘एमबीए कर लो,’ ‘नहीं, आईएएस में बैठो। जरूर आ जाओगी’ आदि-आदि। पढ़ाने के साथ-साथ वह एमफिल की तैयारी करने लगी। इस दौरान ही सुलभा का विवाह हो गया था। इस डिग्री परीक्षा के बाद पापा ने कहा कि वह कुछ समय आराम कर ले। गरमी की छुट्टियां शुरू हो चुकी थीं। उसने अपना सामान बांधा और रवाना हो गयी ऊटी की ओर। उसकी सहेली गरिमा वहां के एक मशहूर पब्लिक स्कूल में पढ़ा रही थी; पति से तलाक होने के बाद उसका बेटा उसी स्कूल में पढ़ता था।
ऊटी पहुंच कर सलोनी को लगा मानो वह किसी दूसरी दुनिया में आ गयी है। सुरम्य हरी-भरी पहाड़ियां, शांत-शीतल झील, अभी आ कर-अभी छुप जाने वाले बादल, सबने उसका मन मोह लिया। इतने वर्षों के बाद वह पूरी तरह से आराम कर रही थी। दोनों सहेलियां देर रात तक गप्पें मारतीं, कॉफी के दौर चलते। ऐसी ही एक रात वह बोल उठी, “मैं यहां पहले क्यों नहीं आयी !”
“ऊटी इतनी पसंद आ गयी है तो यहीं क्यों नहीं बस जाती? आ जा तू भी !” गरिमा ने पूछा।
“आइडिया बुरा नहीं है। मुझे भी यहां जॉब दिला दे, मैं आ जाऊंगी,” सलोनी का जवाब था। लगभग एक महीना वहां रहने के बाद, चलने से पहले उसने अपना बायोडाटा गरिमा के स्कूल के अलावा वहां से करीब 8 किलोमीटर दूर एक अन्य सुविख्यात पब्लिक स्कूल में भी दे दिया ।
घर लौट कर जब उसने अपना इरादा सबको बताया तो उसके पापा ने कहा, “अच्छी तरह सोच-विचार लो ! तुम पीएचडी करके युनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली थीं, अब वहां स्कूल में नए रईसों के बिगड़े बच्चों के साथ माथापच्ची करोगी ! महीने भर में अपने फैसले पर पछताने लगोगी।”
“आपको गलतफहमी है, पापा ! गरिमा के स्कूल के बच्चे अकसर उसके पास आ कर अपनी मुश्किलें बताते थे, वे सभी काफी होशियार और अपनी पढ़ाई को ले कर गंभीर थे। कॉलेज में पढ़ाने के एक्सपीरियंस के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि अगर आपको सच में बच्चों को गाइड करना है, उन्हें तराशना है, सही जीवन मूल्य सिखाने हैं तो उसके लिए 11-12 से 16-17 की उम्र ज्यादा सही है। उससे बड़े होने के बाद वे ही बच्चे अपनी सोच और आदतों में काफी कट्टर हो जाते हैं।”
“अरे छोड़ो भी ! जब जॉब मिलेगी, तब की तब देखी जाएगी,” मां संध्या ने चर्चा समाप्त सी कर दी थी, किंतु पास बैठी सावित्री बुआ ताना मारने से नहीं चूकीं, “जाने दे रे सोमू। वहां इसे अपने जैसे श्यामवर्ण लोग चारों ओर दिखायी देते होंगे, तभी इसे ऊटी इस कदर पसंद आ गयी है।”
सलोनी को ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। अगले साल ही उसे ऊटी के दूसरे स्कूल से बुलावा आ गया। उसने अपना सामान बांधा और चल दी अपने जीवन के नये अध्याय की ओर।
इस बीच उसने बीएड की डिग्री हासिल कर ली थी, इसलिए उसे जल्दी ही स्कूली दिनचर्या की आदत पड़ गयी। छुट्टी के दिन गरिमा के साथ व्यतीत होते। उसका स्कूल की लाइब्रेरी में काफी समय बीतता। एक दिन वहां उसकी मुलाकात एंटनी अनंत बाख से हुई, जो स्कूल में जर्मन भाषा और भूगोल का शिक्षक था। जर्मन और इंग्लिश के अलावा वह फ्रेंच और हिंदी में भी प्रवीण था।
एंटनी और सलोनी दोनों पुस्तक प्रेमी थे। अकसर नयी-पुरानी किताबों को ले कर दोनों के बीच विस्तार से चर्चा होती। कभी-कभी दोनों लंबी वॉक पर निकल जाते। उनकी बातचीत कब पुस्तकों को छोड़ कर सामाजिक मुद्दों पर से गुजरती हुई व्यक्तिगत विषयों और यादों पर होने लगी, उन्हें पता ही ना चला। एक दिन एंटनी बचपन में अपने ननिहाल बनारस में बिताए हुए दिन याद करते हुए बोला, “बचपन में हम जब भी वहां जाते थे, हमारे गोरे होने के कारण हम भाई-बहन को औरों की अपेक्षा ज्यादा दुलराया जाता। हमें यहां सब अलग रंग-रूप वाले लोग देख कर बड़ा अच्छा लगता, वरना बैक होम सब एक जैसे लोग देख कर बड़ी बोरियत होती।”
तब सलोनी ने उसे अपने रंग पर किए गए कमेंट्स सुनाए, “मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि हम लोग एक तरफ तो विष्णु भगवान, रामचंद्रजी और कृष्णजी जैसे श्यामवर्ण भगवानों को पूजते हैं, उनकी सुंदरता के गुण-गान करते हैं। वहीं दूसरी ओर काले कॉम्पलेक्शन वालों को पसंद नहीं करते। हमारे घर का यह हाल है कि मेरे डैड को सबसे ज्यादा यही रंज है कि मेरे दोनों भाई-बहन ने अपनी मां का रंग क्यों ले लिया। दोनों गोरे क्यों हो गए !”
इन बातों के बीच पूरा साल बीत गया, तब दोनों को अहसास हुआ कि उनके विचार कितने समान हैं। एक दिन एंटनी ने अचानक सलोनी से पूछ ही लिया, “मैं तुम्हें बहुत चाहता हूं ! शादी करोगी मुझसे?”
सलोनी को पिछले कुछ दिनों से इस प्रश्न का आभास हो गया था। कुछ देर बाद बोली, “हूं... करूंगी तो सही, लेकिन मैं अपना देश नहीं छोड़ूंगी।”
“वह मैंने कब कहा?” एंटनी ने हौले से उसका हाथ अपने हाथ में ले कर, उसकी आंखों में आंखें डाल कर उसे भरोसा दिलाया, “मॉम बनारस छोड़ कर जर्मनी में बस सकती हैं तो मैं हिंदुस्तान में क्यों नहीं रह सकता?”
उसके बाद घटनाचक्र बड़ी तेजी से घूमा। एंटनी के मॉम, डैड और बहन जर्मनी से आ गए। सोमनाथ जी ने अपने शहर में सारे प्रबंध कर डाले और एक महीने के बाद दोनों का विवाह संपन्न हो गया। जब दूल्हा-दुलहन मंडप में फेरे ले रहे थे, वे पास बैठी सावित्री बुआ को याद दिलाना नहीं भूले, “देखा जीजी, मेरी सलोनी ने जो कहा था वह कर दिखाया ना ! उसका हैंडसम-स्मार्ट वर सामने से आया...जर्मनी से, और वह भी सांवला नहीं गोरा !”