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भैया जी बहुत नाराज थे, आज भी उन्हें मेट्रो में सीट मिलते-मिलते रह गयी थी। भाभी जी वैसे तो भैया जी की बड़ी से बड़ी नाराजगी की रत्तीभर भी परवाह नहीं करती थीं, लेकिन आज मसला कुछ अलग ही था।

कभी पानी का गिलास भैया जी को नहीं पकड़ाने वाली भाभी जी ने आज बड़ी नजाकत से उन्हें पानी का गिलास पकड़ाया तो वे चौंक से गए। पानी पी कर उनका गुस्सा थोड़ा शांत हुआ, पर नाराजगी जस की तस थी। भाभी जी ने अंदाजा लगा लिया कि जब तक ये मेट्रो वाली भड़ास निकाल नहीं लेंगे, इनका मुखारविंद यों ही सूजा रहेगा।

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फौरन से पेश्तर भाभी जी गरमागरम चाय और मठरियां ले आयीं और भैया जी के ऐन सामने विराज गयीं। भैया जी के लिए यह इशारा था कि कहो, जो कहना है, मैं सुन रही हूं। इस योगमुद्रा में भाभी जी पहले भी भैया जी से वो सब उगलवा चुकी हैं, जो भैया जी छिपा कर रखना चाहते थे। आज तो भैया जी को स्वयं ही कुछ कहना है।

भैया जी बोले, ‘‘हमने सोचा था मेट्रो ट्रेन के चलने से हमारे दफ्तर आने-जाने की तकलीफ दूर होगी, लेकिन हुआ है उल्टा। रोज-रोज ना जाने कैसे-कैसे लोगों से सबका पड़ता है, तुम्हें बताऊंगा तो हैरत में पड़ जाओगी।’’

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‘‘रोज तो मेट्रो से जाते हो, आज ऐसा क्या हुआ, जो बिफरे पड़े हो?’’ भाभी जी की उलझन बढ़ती जा रही थी। मन में संशय ऐसा भी उठ रहा था कि कहीं मेट्रो की भीड़ में इनकी किसी महिला से अनचाहे नजदीकियां बढ़ गयी हों और महिला ने इनकी धुनाई ना कर दी हो। लेकिन ऐसा दरअसल हुआ नहीं था, बस भैया जी जिस सीट को पाने के जुगाड़ में पिछले 6 स्टेशन से चाक-चौबंद खड़े थे, वह किसी महिला ने खाली होते ही लूट ली और फिर इनको सीट नसीब नहीं हुई।

आप दिल्ली मेट्रो में सफर करें और ऐसे वाकयात से रूबरू ना हों, मुमकिन नहीं है। और जब आए दिन ऐसे हादसे होंगे तो बंदा खीजेगा ही। लेकिन मेट्रो के सफर करते-करते कुछ ही दिनों बाद भैया जी के अंदर का हिडन टैलेंट फूट कर बाहर आ गया और वे राइटर, रिसर्चर, साइकोलॉजिस्ट, फेस रीडर ना जाने क्या-क्या बन गए।

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मेट्रो में हर सीट के सामने खड़े व्यक्ति का उस सीट के खाली होने पर उसे प्राप्त करने का एकाधिकार होता है।
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मेट्रो के यात्रियों की हरकतों का गहन अध्ययन करने के बाद उन्होंने एकऐ नायाब शोधपत्र तैयार किया है, जो उनके किसी करीबी ने लीक कर दिया। क्यों और कैसे लीक हुआ, इस पचड़े में ना पड़ें, क्योंकि हमारे यहां ना जाने कितने दस्तावेज, प्रश्नपत्र लीक हो जाते हैं और आरोपी का पता नहीं चलता।

अपने शोधपत्र में भैया जी ने प्लेटफॉर्म पर पहुंचने और ट्रेन में प्रवेश करने से ले कर पैसेंजरों की जद्दोजहद और पैंतरों समेत आशा-निराशा के भाव का जो शब्दचित्र खींचा है, उनकी कुछ बानगी देखिए- मेट्रो स्टेशन में प्रवेश करने के समय से ही पैसेंजरों का तूफानी दौर शुरू हो जाता है। ई-रिक्शा से उतर कर बेतहाशा दौड़ते हुए लोग 100 मीटर की रेस के धावक लगते हैं, मगर इनको दौड़ कर सीढि़यां फलांगनी है या एस्कलेटर पर धक्कामुक्की करते हुए सबसे पहले प्लेटफॉर्म पर पहुंचना है। लिफ्ट में तब तक घुसते चले जाएंगे, जब तक कि वह ओवरलोड ना हो जाए। सिक्योरिटी गेट के स्कैनर पर उछल-उछल गिरते लंच बॉक्स में खाने का सामान अपनी मूल संरचना बदले जाने से किस्मत को जरूर रोते होंगे।

प्लेटफॉर्म पर दो ट्रेनों के आगमन के मिनट भर के अंतराल में इतनी भीड़ उमड़ जाती है, जितनी पैसा खर्च करके हमारे प्रिय नेता जी अपनी जनसभा में नहीं जुटा पाते। ट्रेन में प्रविष्ट होने के लिए लोगबाग अलबत्ता लाइन में खड़े तो होते हैं, लेकिन ट्रेन के आने पर कोई नहीं देखता कि कौन चढ़ रहा है और कौन उतर रहा। फिर एक बार मेट्रो में एंटर करने के बाद दौर शुरू होता है सीट कैप्चर करने का। जिसे सीट मिल गयी, वह मन में चाहे जितना खुश हो, पर प्रत्यक्ष में निर्विकार दिखने का अभिनय करता है, क्योंकि उसकी नाक के ठीक सामने उस जैसे अनेक प्राणी उसकी सीट की ओर लालायित दृष्टि से देख रहे होते हैं। हर सीट के सामने खड़े व्यक्ति का उस सीट के खाली होने पर उसे प्राप्त करने का एकाधिकार होता है। इस अघोषित नियम का उल्लंघन तब होता है, जब कोई महिला या बुजुर्ग अकस्मात वहां अवतरित हो जाएं।

मानवीय भावनाओं, संवेदनाओं, कुटिलताओं, लाचारगी और चतुराई जैसे भावों के आधार पर मेट्रो में सफर करने वाले यात्रियों का भैया जी ने अपने शोधपत्र में जबर्दस्त वर्गीकरण किया है-

तटस्थ : ये वो यात्री होते हैं, जो हर हाल में एक जैसी भावना रखते हैं। चाहे सीट मिले ना मिले, चाहे उनसे कोई चढ़ते-उतरते समय धक्कामुक्की करे, सहयात्रियों के हर कृत्य को समभाव से स्वीकार करते हुए अपनी यात्रा पूर्ण करते हैं।

तीर-तूफान : इनकी फुरती देखते ही बनती है, चाहे मेट्रो में प्रविष्ट करना हो, सीढि़यां फलांगनी हों या एस्कलेटर पर सबसे पहले चढ़ कर धपाधप कूदते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुंचना हो। ये अपने सहयात्रियों की रत्ती भर परवाह नहीं करते, बस अपनी ही धुन में लक्ष्यभेदी तीर की तरह गतिमान रहते हैं।

चहचहाती बालिकाएं : कॉलेज, कोचिंग में पढ़ने वाली या कॉल सेंटर में काम करने वाली ये चपल बालिकाएं झुंड में मेट्रो में सफर करती हैं और अपना स्टेशन आने तक अनवरत वार्तालाप में संलग्न रहती हैं। मेट्रो में होने वाली एनाउंसमेंट तक इनके आगे पानी भरती हैं। चाहे साथ खड़े अंकल इन्हें घूर कर देखें, इन्हें कोई लेना-देना नहीं रहता। बेसिर-पैर की बातें और गॉसिपिंग की ये धुरंधर होती हैं।

समाधिस्थ : ये वे लोग होते हैं, जिन्हें सीट मिल जाए तो वे सीट पर कब्जा करने के बाद तुरंत इयरबड लगा कर और आंखें मूंद कर ऐसे नजर आते हैं, जैसे समाधि में चले गए हों। किसी जरूरतमंद के लिए सीट खाली ना करनी पड़ जाए, इसलिए ये ऐसा अभिनय करते हैं।

चतुर चाची : थोड़ी उम्रदराज, पर सेहतमंद होती हैं, पर इनका अभिनय भी जोरदार होता है। मेट्रो में घुसते ही महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों से थोड़ा हट कर खड़ी हो कर बार-बार परेशानी के भाव चेहरे पर तब तक प्रदर्शित करती रहती हैं, जब तक कोई खीज कर इनके लिए अपनी सीट खाली ना कर दे। थैंक्यू बोल कर बैठते ही इनके हाथ में फोन आ जाता है और सास-बहू के किस्से चालू हो जाते हैं।

त्यागमूर्ति : कुछ लोग सीट पर बैठते ही इसलिए हैं कि कोई युवती आए और ये अपनी सीट उसे ऑफर करें। ये अल्पसंख्यक ही होते हैं और अकसर सामने खड़े पुरुष सहयात्री द्वारा मन ही मन गरियाए जाते हैं, जो सीट की उम्मीद लगाए खड़ा था।

ढीठचंद : ये वे यात्री होते हैं, जो सीट पर कब्जा करने के बाद अपना गंतव्य आने से पहले आसानी से सीट से उठते नहीं। कोई इनसे सीट मांगता है तो पहले वे पलट कर देखते हैं कि बुजुर्गों व दिव्यांगों के लिए आरक्षित स्टीकर तो नहीं चिपका है। अनारक्षित सीट कंफर्म होने पर ये उठते नहीं, बल्कि निर्लज्ज सलाह देते हैं कि जा कर आरक्षित सीट खाली कराइए।

दरबान : ये यात्री मेट्रो में घुसते ही गेट के दोनों ओर ऐसे खड़े हो जाते हैं, मानो इन्हें बाकी यात्रियों का वेलकम करने की जिम्मेदारी मिली हो।

आशा जगावक : ये लोग सीट पर बैठे होते हैं और हर स्टेशन आने पर ऐसी मुद्रा बनाते हैं कि उतर ही जाएंगे। लेकिन ये सिर्फ सीट की आशा में सामने खड़े थके-मांदे यात्री के मन में मिथ्या उम्मीद जगाते हैं। कभी पानी पिएंगे, कभी फोन बंद कर देंगे, कभी इयरबड निकाल कर बैग में रख देंगे वगैरह-वगैरह। ऐन अपने गंतव्य से कुछ मिनट पहले शांत हो जाते हैं और मेट्रो के रुकते ही फटाक से उठ कर उतर जाते हैं। सामने वाला चौकस ना हो तो कोई दूसरा खाली सीट लपक लेता है।

लव बर्ड्स : दीन-दुनिया से बेखबर ये युवा जोड़े भीड़ ना होने पर भी उसका अहसास लिए एक-दूसरे से चिपक कर अपना सफर तय करते हैं। कभी आंखों में प्यार का खुमार तो कभी तानों की बौछार। इनके लिए भी बाकी सहयात्रियों की उपस्थिति कोई मायने नहीं रखती। इनका प्यार अकसर सोशल मीडिया पर सरेआम होता नजर आता है।

स्त्री विरोधी: ऐसे लोग मेट्रो में किसी महिला को कभी अपनी सीट ऑफर नहीं करते। इनका मानना होता है कि जब मेट्रो में पूरी एक बोगी और हर डिब्बे में कुछ सीटें इनके लिए आरक्षित हैं तो ये बाकी सीटों पर क्यों धावा बोलती हैं। हालांकि इसकी एक वजह यह भी है कि अकसर कोई महिला किसी दूसरी महिला के लिए सीट खाली नहीं करती।

मेट्रो के यात्रियों की अन्य भी कई दुर्लभ किस्में हैं, जिनका जिक्र फिर कभी। अभी तो मेरे मन में उम्मीद जग रही है कि भैया जी को उनके शोधपत्र की वजह से मेट्रो पर पीएचडी करने की पहली डॉक्टरेट की उपाधि ना मिल जाए।

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