Thursday 20 June 2024 10:18 AM IST : By Kavita Vikas

वसंत लौट रहा है भाग-2

story-vasant

सौरभ की बोर्ड परीक्षाएं आरंभ होने वाली थीं। वह सेल्फ स्टडी कर रहा था। ज्यादातर घर में ही रहता। मेरा भी बाहर जाना छूट गया था। सबद की भतीजी भी 12वीं की परीक्षा दे रही थी। रोहित को भैरुगढ़ गए 2-3 महीने गुजर गए थे। वे 15-20 दिनों में एक बार आ जाते। उस समय मेरा ध्यान केवल उन पर रहता। उनकी पसंद का खाना बनता और खूब खातिरदारी करती। फिर भी जतला देते कि उनके सामने मेरी इच्छा-अनिच्छा का कोई मोल नहीं। सौरभ की परीक्षा के समय उन्होंने लगातार 20 दिनों की छुट्टी ले ली। सौरभ को सेंटर पर ले कर जाना और लाना वही करते। देखते-देखते महीना बीत गया। सौरभ की परीक्षा खत्म होने के बाद वे वापस लौट गए। अब सौरभ का सारा ध्यान प्रतियोगी परीक्षाओं पर था। इस बीच मैंने सबद से मुलाकात की। एक-डेढ़ महीने से हमारे बीच ठीक से बातें नहीं हुई थीं, सो काफी देर तक हमने साथ वक्त बिताया।

समय किसी के रोके भला रुका है। कभी-कभी स्वार्थी बन जाती, सोचती जब तक सौरभ है, बिना किसी जोर-जबर्दस्ती के यहां हूं। एक बार उसके बाहर जाने पर क्या पता रोहित अपने साथ ले जाने की जिद करें। एक-दो महीने की सौरभ की व्यस्तता के बाद आखिर उसे भी सुकून मिल गया। बंगलौर के एक नामी कॉलेज में उसे दाखिला मिल गया। बंगलौर जाने से पहले मैंने रोहित को कहा, ‘‘एक बार भैरुगढ़ चलते हैं। सौरभ को भी चेंज हो जाएगा।’’

रोहित ने बड़े अनमने ढंग से कहा, ‘‘मैं ट्रांजिट कैंप में रहता हूं। एक कमरे में 2 लोग। तुम लोग कैसे रहोगे।’’ यह बात मैं जानती थी, पर इसी बहाने में टोहना चाह रही थी कि सौरभ के बंगलौर जाने के बाद वे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। उन्होंने दो टूक शब्द में कह दिया कि वहां क्वार्टर उन्हें नहीं लेना है। तीन साल यों ही आते-जाते कट जाएंगे, फिर यहीं ट्रांसफर कराने की कोशिश करेंगे। सौरभ को बंगलौर पहुंचाने हम दोनों गए थे। रास्तेभर रोहित ने उसे खूब नसीहत दी। मसलन पैसे नहीं खर्च करना, पढ़ाई में मन लगाना, बाहर का नहीं खाना आदि-आदि। मैं भी उनकी बातों का समर्थन करती।

उसे छोड़ कर वापस दिल्ली आने पर रोहित एक दिन यहीं रहे। इस बार बड़े चुपचुप से थे। लगा कि मुझे ले कर थोड़ा चिंतित हैं। मैंने उनके जाने से पहले खाना पैक करते हुए पूछा, ‘‘कब आएंगे अब?’’

‘‘क्यों? जब मन करेगा आऊंगा, तुम घर पर ध्यान देना और ज्यादा बाहर नहीं निकलना।’’

मन तो किया कह दूं कि इस नसीहत के पीछे क्या कहना चाह रहे हैं, बखूबी जानती हूं, पर सिरफिरे आदमी का क्या ठिकाना क्या कर बैठे, सो चुप लगा गयी। उनके जाने के बाद जैसे कोई काम ही नहीं था। अकेला घर और सन्नाटा। मैंने जम कर रियाज किया। फोन पर सबद को अपना गाना भी सुनाया। वह फोन पर ही अपनी पसंद के गाने की फरमाइश करता। कभी तारीफ करता, कभी गलतियां बतलाता। हम कब इतने करीब आ गए कि पता ही नहीं चला। अब तो कभी-कभी बिस्तर पर पड़े-पड़े रोमांटिक बातें भी होने लगी थीं, जब उसकी पत्नी घर पर नहीं होती। हालांकि आमने-सामने पड़ने पर हम एक-दूजे का खूब आदर करते।

मेरे संगीत के गुरु जी आसपास के समारोहों पर मुझे गाने की ब्रेक देना चाहते थे। मैंने रोहित से इसकी अनुमति लेनी चाही, पर उन्होंने डांटते हुए इसे नकार दिया। मुझे यह जरा भी नहीं भाया। यह पहला मौका था जब मैंने उनकी आज्ञा के विरुद्ध एक समारोह में गाना गाया। मुझे बहुत प्रशंसा मिली, पर मैंने इसकी खबर रोिहत को नहीं दी। मेरे गुरु की अपनी संस्था थी, जहां पर शहर में त्योहार या विशेष अवसराें पर कार्यक्रम होते। मैंने उनके साथ हर कार्यक्रम में भाग लेने की ठान ली। इससे मेरा अकेलापन भी चला जाता और मेरा अपना टैलेंट भी निखरता। इस बार एक महीने के पश्चात रोहित आ रहे थे। कार्यक्रम के फोटोज तो मैंने छिपा दिए, लेकिन कुछ ट्रॉफी-मेडल आदि नहीं छिपाए। मैं आने वाले तूफान का सामना करने को तैयार थी। बहुत सहा था मैंने, अब और नहीं।

मेरा अंदेशा सही था। सुबह 10 बजे रोहित आ गए। इधर-उधर के हाल-समाचार लेने के बाद उन्हेंने ड्रॉइंगरूम में रखी एक ट्रॉफी के बारे में पूछा। मैंने कहा, ‘‘समूह गान प्रतियोगिता में गुरु जी की टीम प्रथम आयी थी, जिसमें सभी प्रतिभागियों को यह मिला था।’’

‘‘तुमने मुझसे तो जाने की परमिशन नहीं ली थी।’’

‘‘नहीं, इसकी जरूरत नहीं समझी मैंने।’’

इस उत्तर की आशा नहीं थी उन्हें। सो दो टूक फैसला सुना दिया, ‘‘अब नहीं सीखना है गाना-वाना। पर निकल आए हैं तुम्हारे।’’

‘‘मैं तो सीखूंगी, आप रोक नहीं सकते।’’

‘‘क्या, जबान लड़ाती है... वेश्या हो क्या... गाना गाओगी, फिर दस लोग पैसे उछालेंगे तुम पर,’’ कहते हुए उन्होंने थप्पड़ लगाना चाहा। उनके हाथ को पकड़ कर मैंने एक झटके से पीछे ठेलते हुए कहा, ‘‘आप चाहें तो मुझे छोड़ दें, सौरभ का पालन-पोषण मैं कर लूंगी, लेकिन ऐसे व्यक्ति के साथ नहीं रहूंगी, जिसके लिए मैं मात्र एक वस्तु हूं।’’

मेरे बदले हुए इस रूप पर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। काफी देर तक बहस छिड़ी रही। अब मैं सती-सावित्री बन कर सब कुछ सहनेवाली नहीं थी, इसलिए चुपचाप खाना बना कर अपनी एक सहेली के यहां निकल गयी। वहीं से मैंने सबद को फोन मिलाया। मेरी पूरी बात सुन कर उसने कहा, ‘‘वापस जाओगी, तो फिर किसी तरह का हमला तो वे नहीं करेंगे ना। अगर कोई डर हो, तो कहना मैं रात कहीं और ठहरने का इंतजाम कर दूंगा।’’

मैंने कहा, ‘‘नहीं सबद, मैं उनके पास रह कर ही सिद्ध करूंगी कि मैं अपने लिए जो कर रही हूं, उसे करने का पूरा हक है मुझे।’’

‘‘फिर भी, जब भी मेरी जरूरत पड़े, बताना।’’

यही दिलासा तो जीवन के हर उस मोड़ पर मुझे चाहिए था, जब मैंने स्वाभिमान के साथ-साथ मेरी आत्मा को कुचलने में मेरी सास और पति ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उनके हर गलत फैसले को भी मैं सह जाती अगर एक बार भी रोहित ने मुझे अपनी बांहों में भर कर प्यार व ढाढ़स दिया होता।
उस रात रोहित नहीं गए। यों भी अपने लौटने की तिथि कभी नहीं बताते। हमने अलग-अलग कमरे में रात बितायी। सुबह उठने पर सिर भारी-भारी सा रहा। बदन भी गरम था तथा देह में दर्द था। मैंने रसोई में जा कर चाय बनायी और उनके कमरे में पहुंचा दी। मुझे पता था रोहित अपनी ओर से कभी बोलने की पहल नहीं करेंगे, पर मैं भी नहीं बोलने जाऊंगी। नाश्ते में पोहा बना कर मैंने टेबल पर ढक कर रख दिया और स्वयं जा कर लेट गयी। नाश्ते के बाद उन्होंने डाइनिंग रूम से ही आवाज लगायी, ‘‘मैं आज शाम की बस से जा रहा हूं, मेरे कपड़े प्रेस कर दो।’’

मैंने रूखे स्वर में जवाब दिया, ‘‘मेरे सिर में बहुत दर्द है। मैंने गोली भी ली, पर कोई फायदा नहीं हुआ। आप अपने से कर लीजिए।’’

‘‘क्या ! मैं खुद कर लूं और तुम सोयी रहोगी। सचमुच दर्द हो भी रहा है या बहाना कर रही हो?’’

आहत मन से मैं चोट खायी शेरनी की तरह गुर्रायी, ‘‘शरम नहीं आती तुम्हें, 20 साल से तुमने पहचाना नहीं मुझे क्या, अपनी हर बात मनवाते रहे और आज मेरी तकलीफ पर बहाना बनाने की बात कर रहे हो,’’ कहते हुए मैं उसके कंधों को झंझोड़ने लगी। रोहित को इस उत्तर की आशा नहीं थी, उन्होंने आव देखा ना ताव और दो थप्पड़ रसीद दिए। भद्दी सी गालियां देते हुए चिल्लाने लगे, ‘‘अकेले रहते हुए मनमानी करने की आदत लग गयी है। तुम भी मेरे साथ भैरुगढ़ चलोगी।’’

‘‘नहीं, मैं नहीं जाऊंगी। जरूरत पड़ी, तो कोर्ट तक तुम्हें ले जाऊंगी। जिसने आज तक मेरी कद्र नहीं की, उसके साथ तो अब बाकी जिंदगी साथ रहने का सवाल नहीं उठता है।’’ अब तक सुस्त पड़ी जान में अचानक जोश आ गया। पलभर के लिए मैं सिर दर्द और कमजोरी सब भूल गयी। वे बड़बड़ाते हुए सोफे पर बैठ गए। मैंने बाथरूम में अपने आपको बंद कर लिया और देर तक खुले नल के नीचे बैठी रही।

शाम के 3 बज रहे थे। रोहित की 5 बजे की बस होती थी। उनके जाने के समय मैं घर में नहीं रहना चाहती थी। पर्स में कुछ पैसे रख कर मैं चुपचाप बाहर निकल गयी। अपार्टमेंट के गार्ड को फ्लैट की चाबी रख लेने की हिदायत दे कर मैं रिक्शा लेने के लिए खड़ी हो गयी। मुझे पता नहीं था कहां जाना है। वहीं बूथ से सबद को फोन मिलाया। हम उसी पुराने मॉल में मिले, जहां अकसर मिला करते थे। इन सब काम में अच्छा समय लग गया। छह बज रहे थे, रोहित ने जाने से पहले कोई कॉल नहीं की। मैंने गार्ड को ही फोन मिला कर पूछ लिया। उसने बताया रोहित साढ़े 4 बजे निकल गए हैं और फ्लैट की चाबी उसे दे गए हैं। सबद ने मेरे चेहरे से पढ़ लिया था कि कल से मैं बेहद परेशान रही हूं। उसने कहा, ‘‘एक अच्छी जगह ले चलता हूं, जहां आप कुछ देर आराम करिएगा, वरना तबीयत बिगड़ जाएगी।’’

उसने शहर के एक अच्छे होटल में कमरा बुक करवा लिया था। मैं पहली बार इस तरह किसी के साथ आयी थी। मेरी हिचक उसने भांप ली, कहा, ‘‘हम पहली बार तो अकेले नहीं मिले हैं। आपने अपनी भावनाअों और जज्बातों को हर बार मेरे सामने खोल कर अपने आपको हल्का किया है। बताएं ना, क्या हुआ है। क्या कहा है रोहित ने,’’ कहते हुए वह मेरे करीब आ गया और मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया। मैंने उसे तमाम घटनाअों के बारे में बताना आरंभ किया। अपने अपमान का जिक्र करते हुए मैं रो पड़ी। उसने मुझे कस कर अपनी बांहों में जकड़ लिया। प्यार की इस गरमी में मेरे अंदर जमा बर्फ का पहाड़ पिघलने लगा। जाने कब सबद ने लाइट ऑफ कर दी। मेरे रोम-रोम में सिहरन हो रही थी। हम दोनों की सांसें एक हो रही थीं। हम अलग-अलग नहीं थे, एक हो चुके थे। पतिव्रता स्त्री का लबादा ओढ़े एक मुद्दत से अपनी आत्मा को मार चुकी थी। मेरा वसंत लौट रहा था। आज उन सूखी डालियां पर नयी कोंपल खिल जाने को आतुर हो रही थी। मुझे सौरभ की याद आने लगी, अनायास ही मेरे हाथ माफी मांगने की मुद्रा में जुड़ गए। रोहित का धुंधला सा चेहरा सामने आया। मुझमें कोई अपराधबोध नहीं था। मेरी इच्छा के विरुद्ध जा कर भी जब रोहित अपनी दैहिक तुष्टि कर लेते, तो विजयी भाव से कहते, ‘‘उम्र बढ़ने के साथ-साथ तुम जवान हो रही हो। आखिर तुम भी तो इंसान हो। कभी किसी के साथ ऐसी-वैसी हरकत कर भी लेना, तो मुझे ना बताना...’’ देखा रोहित, अहं के बोझ तले क्या बोल जाते थे, तुम्हें पता ही नहीं चलता था। तुम्हारी बात आज भी मान रही हूं कभी नहीं बताऊंगी तुम्हें।

बांहों की जकड़न कम हुई, तो देखा सबद भी गहरी निद्रा में डूब चुका था। लगता था बरसों से वह भी इस सुख की तलाश में था।