रिमझिम बरसती बूंदों से आच्छादित गुलाबी शहर ने मेरा स्वागत किया। नानी के घर में मां की पुरानी सहायिका ने मेरे लिए कमरा साफ कर दिया था।
‘‘आप इमरती हैं? मां ने इस नाम का जिक्र अंतिम समय में किया था।’’
‘‘नहीं, मैं सरस्वती हूं। इमरती तुम्हारी मां की सबसे पक्की सहेली है। मालवीय नगर के फ्लाईओवर के नीचे कबूतरों का जमघट लगता है। वहीं पर वह दाना चुग्गा ले कर बैठती है।’’
‘‘आप मुझे उनका पता दे देंगी।’’
उन्होंने हां में गरदन हिलाते हुए कहा, ‘‘कल सवेरे चली जाना,’’ वे वहां से उठने का उपक्रम करने लगीं।
‘‘अगर आपको कोई जरूरी काम ना हो, तो मुझसे बात कर सकती हैं। मुझे मां की जिंदगी के बारे में जानना है,’’ मैंने उन्हें अपना आने का उद्देश्य ना जाने क्यों बता दिया।
‘‘जो राख हो गया, उसमें चिंगारी क्या ढूंढ़नी... मरने वाले के साथ उसकी कहानियां भी मिट जाती हैं अहाना बहू।’’
‘‘लेकिन उनके निशान रह जाते हैं आंटी। मां ने मुझे अधूरा काम पूरा करने का दायित्व सौंपा है।’’
‘‘वह भी जिद की पक्की निकली। अजनबी राहों की अंधेरी कंदराओं में सारी उम्र भटकती रही। वह दौर इश्क की गलियों में विचरने वाला नहीं था, मगर इसे ना जाने कैसे रोग लग गया।’’
‘‘कौन था आंटी वह, आपने उसे कभी देखा?’’
‘‘पता नहीं, मैंने उसे कभी नहीं देखा। मैं तो नेह की शादी पर ही इस घर में आयी थी। पहली बार नेह को ही तब देखा था। नेह को सबने भरपूर प्यार दिया है, कोई कमी नहीं थी। अठारह बरस की रूपवती कन्या थी। दसवीं जमात में पढ़ रही थी। एक दिन बड़े साहब ने अपने मिलने वाले किसी परिचित के बेटे से नेह का रिश्ता पक्का कर दिया। जब नेह को पता चला। वह खूब रोयी-गिड़गिड़ायी, यहां तक शादी से इंकार भी किया, मगर सब बेमानी था।’’
मैं आंटी को चुपचाप सुन रही थी, ‘‘फिर क्या हुआ, क्या नाना जी ने मां की बात मान ली।’’
‘‘वह जमाना वादों और कसमों की लाज रखने का था। स्त्रियों की इच्छा और क्या अनिच्छा- सब बेकार की बातें थीं। बडे़ साहब अपनी बेटी के मोह को दरकिनार कर अपनी बेटी के सात फेरे करवाने में जुट गए। आखिरकार रोती-बिसूरती नेह बिटिया को ससुराल जाना पड़ा।
‘‘एक बार जब शादी हो गयी, तो नेह बिटिया ने उसे पूरे मन से निभाया। अपने परिवार को पहली प्राथमिकता दी। साल में एक बार मायके की दहलीज पर आ कर उसकी सलामती के लिए दीया जरूर जलाने जाती। इमरती और नेह की दोस्ती बेमिसाल थी। दोनों एक रूह दो जिस्म थीं।’’
‘‘मां के बारे में कुछ और बताइए आंटी, कैसा था उनका बचपन... उनकी गतिविधियां?’’
‘‘अमीर माता-पिता की इकलौती बेटी और बड़े भाई की लाड़ली बहन। पिता राजदरबार में ऊंचे ओहदे पर आसीन। समाज में रुतबा, नाम, इज्जत और पैसा बेशुमार। जिस चीज पर दिल आ जाता, वह चीज नेह की हो जाती। समय रहते नेह की मां ने नेह को गृहकार्य में दक्ष कर दिया। वैसे तो उस समय लडकियों की शिक्षा का कोई महत्व नहीं था, मगर बड़े साहब ने नेह को पढ़ाने में कोताही नहीं बरती। गाहे-बगाहे कब काम आ जाए।’’
मां का जीवन बड़ा ही दिलचस्प था। अरे हां, मुझे अभी याद आया मुझे कल इमरती से मिलने जाना है। मां के पहले प्रेम से अभिवादन करना है। हृदय में प्रेम संगीत के स्वर जो गुनगुनाए थे, उनकी गूंज सुनने का समय आ गया है।
‘‘रात बहुत हो गयी है। जाओ बहू रानी सो जाओ।’’
अगले दिन मैं मालवीय नगर फ्लाईओवर के नीचे खड़ी थी। गुलाबी ओढ़नी में एक निस्तेज काया पास रखे कट्टों से छोटी-छोटी प्लेट में बाजरा, मूंग, मक्का, ज्वार जैसा चुग्गा भर रही थी। कुछ लोग खरीद कर कबूतरों को खिला रहे थे और कुछ सेल्फी ले रहे थे।
‘‘प्रणाम मौसी,’’ मैंने हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया। वह मिचमिचाती आंखों से मुझे देख कर बोली, ‘‘कितने का चुग्गा चाहिए?’’
‘‘चुग्गा नहीं चाहिए, मुझे मां ने आपके पास भेजा है।’’
‘‘तुम अहाना बहू हो,’’ उन्होंने आंखें मलते हुए पूछा। मैंने हां में सिर हिला दिया।
उनकी आंखें पनीली हो गयीं। उन्होंने मुझे अपने अंक में भर लिया और देर तक सुबकती रहीं और ऊपर आसमान की ओर देख कर बोलीं, ‘‘बड़ी जल्दी थी तुझे जाने की नेह। अपने जज्बातों की पोटली को अपने साथ ले जाती। यहां तो तेरे अपने आहत होंगे।’’
‘‘कोई आहत नहीं होगा मौसी, मैं मां की अंतिम इच्छा पूरी करने आयी हूं। आपके साथ अनारगढ़ जाना चाहती हूं। मां की मुक्ति के लिए उन्हें तृप्त करना आवश्यक है।’’
‘‘तृप्ति ! वह वहां भी तृप्त नहीं होगी। सारी जिंदगी भटकती रही है। देह तृप्त होना चाहे, तो समझ आता है। रूह को कैसे तृप्त करें। भावनाओं के रेगिस्तान में भटकता मन आत्मीय स्पर्श से शांत होता है। उसके मन की प्यास वही बुझा सकता था, जिसके लिए वह अनारगढ़ जाती थी। वहां सिर्फ एक अनछुई अनुभूति थी।’’
‘‘कौन था वह?’’ यह मेरा यक्ष प्रश्न था, जो मैंने ना जाने कितने लोगों से पूछा था।
मौसी पुराने दिनों में लौट गयी थीं, ‘‘कहने को कोई नहीं था, मगर एक धुंधली आकृति नेह के मन मंदिर में ऐसी विराजी कि मरते दम तक उससे आजाद नहीं हो पायी। एक जोड़ी आंखों द्वारा किसी को याद करना एक खूबसूरत सी बात लगती थी। नेह को लगता कि प्रेम कहानियां हकीकत की बयानी होती है। वह इस झूठ से बाहर नहीं आना चाहती थी।
‘‘हम दोनों की राजदार डूबती हुई सांझें थीं, जिसमें हम अपने सुख-दुख कहते थे, सपने देखते थे, ख्वाब सजाते थे। सोलह की उम्र रूहानी बातों की थी। यह जो तुम स्मृतियों को कुरेदने यहां आयी हो, वह अंतस में दबी गूंजती आवाज थी, नेह मैं वापस आऊंगा। नेह साहिब को कैसे नाउम्मीद छोड़ देती।
‘‘वह गिलहरी के साथ अठखेलियां करती, हिरणी की तरह कुलांचे भरती, हवा सी उन्मुक्त उसके पैर तब थमे, जब उसे बताया गया कि उसकी सगाई हो गयी है। आज के जमाने जैसी नहीं ब्राह्मण और नाई ही रिश्ता तय कर आए थे। तुम्हारे नाना ससुर यानी नेह के पापा ऊंचे ओहदे पर थे। अंग्रेजों का हुक्म बजाते थे। उनका सरकार में उठना-बैठना था। पैसों की कोई कमी नहीं थी। सबसे ऊंची हवेली और मोटर कार उनके पास थी। ब्राह्मण किसी अंग्रेज पुत्र से नेह का रिश्ता पक्का कर आए। कार्तिक देवउठनी एकादशी को विवाह निश्चित हुआ। घर में खुशियां लहलहा गयीं। नेह ने गोरे-चिट्टे चांद जैसे मुखड़े वाले सुकुमार के ख्वाब देख लिए।
‘‘अरे बावली, यों सुध-बुध ना खो, ना जाने तू उसकी प्रीत भी है या नहीं,’’ एक दिन मैंने उसे झिंझोड़ा।
‘‘तेरा नाम इमरती है, तुझे मीठी बातें करनी चाहिए। कुनैन जैसी कड़वी बातें तुझ पर नहीं जंचती,’’ उसने इमरती की चोटी खींचते हुए कहा।
‘‘उस दिन भी सांझ का सूरज ढल रहा था। हम अपनी-अपनी बातों के साथ छत की मुंडेर पर आ कर बैठ गयी थीं। मेरी मां नेह के घर खाना बनाती थी। हमारी गरीब स्थिति देख कर बड़े साहब ने अपने घर के एक कोने में हमें आसरा दे दिया था। हमउम्र होने की वजह से हम दोनों में गहरी यारी थी। तुम्हारी मां ने जिसे भी अपना कहा, उसने शिद्दत से उस रिश्ते को निभाया। चाहे मैं हूं या वो। जब भी जयपुर आती थी, अपने परिवार के बारे में ढेर सारी बातें करती थी, विशेषकर तुम्हारे बारे में, तुम उसके कलेजे का टुकड़ा थीं। कहती थी अहाना के रूप में बेटी दे कर ईश्वर ने मेरी ख्वाहिश पूरी कर दी।’’
मां के मन में मेरे प्रति अगाध प्रेम को देख कर मेरी आंखें छलक गयीं। सच है सास के रूप में मुझे मां मिली थी। ‘‘मौसी, आप मां की दिलकश कहानी सुना रही थीं।’’
‘‘हां,’’ वे अपनी आंखें साफ करती हुई बोलीं, ‘‘तुझे तो सब बताना ही है। उस दिन जब मैंने उससे कहा था कि वह तुझसे प्यार करेगा या नहीं, क्योंकि वह ठहरा फिरंगी, तो नेह मुझसे रूठ गयी।’’
‘देख इमरती, अब उसके नाम की लौ इस दिल में जल गयी है। अब यह मरते दम तक नहीं बुझेगी। वो चाहे या ना चाहे, हम मिलें या ना मिलें, मैं उसकी दीवानी हूं। आज के बाद दोबारा इस तरह की बात नहीं करना,’ वह मुंह फुला कर वहां से उठ गयी। अगले दो दिनों तक उसने बात नहीं की।
‘‘यह दिल की लगी है अब नहीं मिटेगी। उसके इश्क का अंदाजा तब हुआ, जब उसने दो दिन तक अन्न-जल ग्रहण नहीं किया। नीलवर्ण आकाश पर तैरते सफेद रूई के बादल और मंद हवा के झोंकों ने उसके प्यार की अहमियत बता दी। उसके दिल का हाल भला मैं कैसे ना समझती, मैं उसकी अंतरंग सखी जो थी।’’
‘‘उस शाम मैंने उसके कमरे का द्वार खटखटाया। उसने कहा, फिर नहीं कहना वह मुझसे मोहब्बत नहीं करेगा। उस रब ने कुछ सोच कर ही मेरा नाम उसके नाम के साथ जोड़ा होगा। जो नाता ईश्वर ने जोड़ा है, उस पर इंकार कैसा।’’
‘‘मैं समझ गयी तेरे इश्क-ए-तराने को। चल इस प्रीत को अमर कर देते हैं।’’
‘‘मतलब?’’ आश्चर्यचकित आंखों में जिज्ञासा तैर गयी थी।
‘‘अनारगढ़ की फिजाओं में...’’
‘‘वहां जाने की इजाजत कौन देगा?’’
‘‘पूछ लिया है मैंने तुम्हारी माई से। और अकेले नहीं जाएंगे इस गांव की सब लड़कियां जा रही हैं अनारगढ़, सब दरवाजे पर प्रतीक्षारत हैं। आज हम सब मिल कर मन्नत मांगेंगे तुम्हारे लिए।’’
‘‘उस रात अनारगढ़ के उस छोटे से मंदिर में सब सहेलियां जमा थीं। वह मंदिर दीयों और साध की उम्मीदों से जगमगा उठा था। उस दिन हवाओं ने प्रणय गीत गाए थे। इस प्रेम कहानी की दास्तान सुनते-सुनते बरसात भी रो पड़ी थी। आज भी उस दौर की सहेलियों के दिल में आषाढ़ की वह रात बसी होगी। जब उल्फत के नगमे गूंजे थे। प्रार्थनाओं में रूमानियत उतर आयी थी। नेह चाहत का दीया थी, विरह में जल रही थी।
‘‘उस दिन मेरी समझ में आ गया था प्रेम में मिलना जरूरी नहीं, वह तो किसी के आने की आहट से पहले ही जन्म ले चुका होता है। नेह प्रेम दीवानी हो गयी। उसकी हर खुशी उसके नाम से शुरू और उसके नाम पर ही खत्म होती थी। उसकी रूह उससे बिछड़ कर पराई हो चुकी थी, यहां तो सिर्फ एक काया शेष थी।’’
मैं मौसी को दिल थामे सुन रही थी। वे मां की अलहदा दास्तान सुना रही थीं।
‘‘उस दौर में मिलना तो दूर बिटिया, नाम तक लेना गुनाह समझा जाता था। उसे नहीं पता था कि उसके होने वाले पिया का क्या नाम है। वह उसे साहिब कहती थी। सोलहवें सावन में कदम रखने वाली नेह उसके लिए बौरा गयी थी। उसकी देह के हर हिस्से में प्रेम बह रहा था। वह मीरा की तरह अलौकिक, निराकार और अदृश्य के प्यार में पड़ गयी थी।
‘‘एक रोज उसने कहा- इमरती, आज दिल घबरा रहा है। तू दुआ कर सब ठीक हो। और दुआएं खाली हो गयी। पैगाम रो पड़े और हवाएं बदहवास हो गयीं। मौसम गुस्से में बौखला गया। आसमां झर-झर बरस रहा था। नेह की मोहब्बत ने अलविदा कह दिया,’’ वे एकदम से चुप हो गयी थीं।
‘‘ऐसा क्या हुआ था मौसी।’’
‘‘वतन के लिए खुशखबरी थी भारत आजाद हो गया। हम स्वतंत्र होने का जश्न मना रहे थे। नेह अपनी जुदाई का रंज अपने सीने में जब्त कर चुकी थी। अंग्रेज अपने वतन लौट गए थे, साथ ही अंग्रेज पुत्र भी। जो रिश्ता अभी ठीक से जुड़ा भी नहीं था, वह हमेशा-हमेशा के लिए टूट गया। बड़े साहब ने दो टूक शब्दों में कहा-वतन आजाद हो गया है। हम परतंत्रता से मुक्त हुए। अब गोरे लोगों से सारे ताल्लुकात खत्म।
‘‘सोलह से अठारह बरस की हो गयी नेह। मन की कसक मन में दबा कर सांसों का बोझ उठाए जीवन जी रही थी। उसके लिए किसी खुशी का अब कोई मतलब नहीं था। एक दिन बड़े साहब फिर से नेह का रिश्ता पक्का कर आए। किसी अंग्रेज दंपती का दत्तक पुत्र था, जिसे वे यहां अनाथ छोड़ गए थे। लड़का पढ़ा-लिखा है, अभी कहीं लिखा-पढ़ी का काम करता है। थोडे़ दिन में खुद का काम कर लेगा। नेह से कहा गया कि पिता की बात का मान रख लेना। उन्हें शर्मसार नहीं करना बिटिया।
‘‘विवाह के दिन नेह ने मुझसे कहा था। सात फेरों का मतलब यह कदापि नहीं है कि वह मेरे दिल से जा चुका है। मैं वैवाहिक रिश्ता पूरी ईमानदारी से निभाऊंगी, मगर मेरे दिल से उसे निकालना मेरे वश में नहीं है। मैंने उसे चाहा है, वह मेरी रूह में बसा है। मैं हर साल उसकी सलामती के लिए अनारगढ़ में दीया जलाने जरूर आऊंगी और उसका यह क्रम उसकी सांसों के चलने तक टूटा नहीं था। दुनिया से जाने से पहले ही उसने तुम्हें यह काम सौंप दिया। क्या नेह, बहू रानी को काम पर लगा दिया।’’
वाकई मां अद्भुत इंसान थीं। पुरुष प्रेम में असफल होने पर परस्त्री के पास चले जाते हैं या मधुशाला में ठहर जाते हैं। स्त्री अपने प्रेम को दिल के गुल्लक में सजा कर हमेशा के लिए बंद कर देती है।
‘‘मौसी, अनारगढ़ कब जाना है।’’
‘‘आज ही चलते हैं, बहू। आज पूरनमासी है। आज चांद पूरे शबाब पर होगा। पूरनमासी पर मंदिर में प्रणय गीत गाए जाते हैं।’’
मानचित्र में दर्ज अनारगढ़ गांव की हरियाली से आच्छादित था। उसकी प्रकृति में सुकून था। हवाओं में गिटार बज रहा था। उसकी पगडंडियों को पता था कि यहां प्रेम की नदी बहती है। वहां मौन भी गुनगुना रहा था। छोटे से गर्भ गृह में स्थापित राधा-कृष्ण की मूर्ति के सामने मैं हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी। मुझे दिव्य अनुभूति हुई। प्रणय का बिंदु-बिंदु मुझे महसूस हो रहा था और नन्हा सा दीप पथ को आलोकित कर रहा था। जब मैंने दीप प्रज्वलित किया, तब लगा मां का ख्वाब मुकम्मल हो गया। दीये के सामने मैंने हाथ जोड़ दिए-मां आपकी चाहत अमर रहे।
‘‘एक्सक्यूज मी, माचिस मिलेगी।’’
मैंने पलट कर देखा। एक उम्रदराज व्यक्ति हाथों में घी का दीया थामे खड़ा था।
‘‘माचिस नहीं है। आखिरी दियासलाई थी, जिससे मैंने दीया जलाया था।’’
‘‘ओके, नो प्रॉब्लम,’’ वह आगे बढ़ा और हाथ में पकड़े हुए दीपक को नीचे रख दिया। हवा के झोंके के साथ ही मां के दीये की लौ हड़बड़ा कर उसके दीये में जा लगी। दोनों दीयों की लौ एक हो कर जगमगा उठी। हम दोनों ही हतप्रभ रह गए।
‘‘पर्ण, तुझे तेरी साहिबा मिल गयी। तेरी नेह तुझे मुबारक,’’ वह अजनबी कंधे पर लटके हुए बैग को संभालते हुए आकाश में सफेद रुई जैसे बादलों के किसी कतरे को सेल्यूट करने लगा।
मैं जड़ रह गयी। पर्ण तो पापा का नाम... मां... पापा आपकी यह कैसी जुस्तजू थी !