Thursday 16 January 2025 04:36 PM IST : By Archana Gautam ‘Meera’

मिस माया- भाग 2

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मैं सारी बातें, सारे किस्से एक-एक कर मां और मामा-मामी को बताने लगी, ताकि वे मुझ पर यकीन कर पाएं कि यह मिस माया ही थीं, जिन्होंने कुकी के मन में ऐसा भय उत्पन्न कर दिया था।

यह कि एक लड़की मिस माया के बंगले से ले कर कॉन्वेंट तक आधी रात को टहला करती थी, जिसे मिस माया ने ही एक्सॉर्सिज्म के जरिए मुिक्त दिलायी थी।

यह कि एक बार मिस माया के प्लैंचेट से एक मृत पिता ने सीधे-सीधे अपनी बेटी से बात की।

यह कि मृतात्माओं का एक भरापूरा संसार है, जिससे हम अपरिचित हैं और कुछ प्रेतात्माएं तो बहुत सशक्त होती हैं।

यह भी कि मिस माया ने उससे प्रॉमिस किया है कि अगर वह आधी रात को उनके बंगले पर जाए, तो वे उसे लाइव प्लैंचेट दिखाएंगी।

मां मुझ पर बरस पड़ीं, ‘‘तुझे इतना सब पता था, तो पहले क्यों नहीं बताया रावी...’’

‘‘व... वो...’’ मैं हकला कर रह गयी। मामा सिस्टर के पास पहुंचे और सीधे मिस माया के खिलाफ शिकायत की, किंतु चौंकते हुए सिस्टर ने नाम दोहराया, ‘‘मिस माया! सॉरी मिस्टर शिव... हमारे यहां तो इस नाम की कोई टीचर है ही नहीं... इनफैक्ट अच्छी पियानिस्ट अवेलेबल ना होने की वजह से पियानो रूम तो अरसे से बंद पड़ा है।’’ इस अप्रत्याशित उत्तर से हम सब चौंक पड़े। सिस्टर ने हमारी सारी बातें ध्यानपूर्वक सुनी और समझाते हुए कहा, ‘‘हो सकता निशा ने (कुकी का स्कूल का नाम निशा था) अपनी किसी फ्रेंड या किसी वेंडर से इस तरह के उल्टे-सीधे किस्से सुन लिए हों और...’’

मामा सिस्टर की बात से बड़ी आसानी से सहमत हो गए। बस के ड्राइवर ने भी तसदीक की थी कि हेमिंग्टन रोड पर निशा की बस का स्टॉपेज है ही नहीं। भले ही साइकियाट्रिस्ट डॉ. मेहरोत्रा के मुताबिक मिस माया पूरी तरह मनगढ़ंत चरित्र हो, जिसे कुकी ने कहीं से सुन कर विस्तार दे दिया था और जैसा कि उन्होंने घंटों काउंसलिंग में मामा-मामी को समझाया था सिजोफ्रेनिक पेशेंट्स के बारे में लेकिन... किस्से तो थे। कई-कई थे। स्कूल के बाहर खिचड़ी बालों वाला दुकानदार काफी संजीदा व्यक्ति लगा था। मैंने अनुमान लगाया... हो ना हो यहीं से खरीदती होगी रोजाना कुकी वे चॉकलेट्स। मेरे ही कहने पर मामा उसकी दुकान पर मेरे लिए चॉकलेट खरीदने के बहाने मिस माया की बाबत पूछताछ करने लगे। उसने आवाज को जरा दबा कर मामा को बताया, ‘‘साहब, आप मेरा नाम मत लेना, पर कॉन्वेंट वाले इस बात को छिपाते हैं। गुजरे जमाने में यहां एक बंगाली टीचर थी। हेमिंग्टन रोड पर आप जो पीला बंगला देख रहे हो ना, उन्हीं का था। अपने पिता जी के मुंह से सुना है मैंने, बात बहुत पुरानी हो गयी है। एक रात उसी बंगले के हॉल में वह मरी पड़ी थी,‘‘ लगभग फुसफुसाते हुए उसने कहा, ‘‘साहब, भूत-प्रेत बुलाया करती थी और आप तो जानते हो कई प्रेत इतने तगड़े होते हैं कि ओझा-मुनियों तक को मार डालते हैं। रही होगी ऐसी ही कोई बात। अपनी अकाल मृत्यु के बाद वह खुद भी भटकती फिरती है।’’

मामा जी के भीतर का सारा आक्रोश जैसे उबल पड़ा था। उन्होंने आपा खो दिया और एकाएक चीख कर दुकानदार का कॉलर पकड़ लिया, ‘‘तो तू ही है वह, जो यहां बच्चियों को बहलाता-फुसलाता है और अपनी दुकानदारी चलाने के लिए तरह-तरह के किस्से सुनाया करता है। जानता भी है तेरी इस दो टके की दुकानदारी के चक्कर में मेरी बेटी मौत से जूझ रही है।’’ आसपास के तमाम लोग जमा हो गए। दुकानदार हैरान-परेशान सफाई दिए जा रहा था, ‘‘अरे साहब छोड़ो मुझे। सही कहते हैं लोग सच बोलने का जमाना नहीं रहा। मैंने हमदर्दी में आपको सच बताया, तो आप मेरी ही जान लेने पर आमादा हो गए।’’ कुछ लोगों ने बीच बचाव कर दुकानदार को उनसे छुड़वा कर उन्हें शांत कराया, तो कुछ एक ने दुकानदार की बातों की पुष्टि भी कर दी। मामा भयंकर क्रोध, आक्रोश और बेबसी की मिलीजुली प्रतिक्रिया में भर कर घर लौटे थे और आ कर कई घंटे अपने कमरे में बंद हो गए थे। दैवी शक्तियों पर भरोसा करने वाली नानी घंटों अपने पूजाघर में विलाप करती रहतीं कि जाने कौन सी और कैसी नकारात्मक ऊर्जा थी यह, जिसने उनकी कुकी को घेर लिया। वे अकसर मां से प्रश्न करतीं, ‘‘तू ही बता रमा, आखिर कुकी ही क्यों? हम सब ने किसी का क्या बिगाड़ा था?’’ मां निशब्द क्रंदन करती हुई उन्हें और मामी काे बस धीरज बंधाती रहतीं।
कुकी की हालत दिनोंदिन बद से बदतर होती चली गयी। वह किसी अनजानी दुनिया में खोती चली गयी। मानो ना खाने की सुध, ना पीने की, ना नहाना-धोना, मामी-मामा पर जैसे वज्रपात हो गया। उसका इलाज महीनों चलता रहा। मैं 2 बार मां के साथ आयी थी यहां। इस सबके बाद मां नहीं चाहती थीं कि मै कुकी को इस हाल में ज्यादा मिलूं। वैसे भी उसने हमें पहचानना बंद कर दिया था। उसके कमरे की दीवारों पर कई ऊटपटांग से डरावने चित्र बने हुए थे... अकसर वह किसी कोने में दुबक कर घंटों कुछ बड़बड़ाती रहती... मुझे मार डालेगी वह... देखो-देखो आ रही है वह... खून... खून कमरे में खून ही खून भरता जा रहा है। वह इतनी आक्रामक हो गयी थी कि उसे घर में संभालना मुश्किल हाे गया था। उसे पूरे इलाज के दौरान कई बार रिहैब ले जाया गया।

मेरी नटखट, प्यारी कजिन कुकी। कितनी मेधावी। कितनी हंसमुख। क्या हो गयी? उसकी यह हालत देख कर कलेजा मुंह को आ जाता।

सबसे छुप-छुपा कर हेमिंग्टन रोड के उस पीले बंगले पर भी गयी थी मैं। उजाड़ वीरान खंडहर से उस बंगले को देख कर आसानी से जाना जा सकता था कि यहां बरसों से कोई नहीं आया और मैं भयाकुल हो वापस लौट आयी।

कुकी फिर लौट कर कभी घर नहीं आयी। रिहैब में ही थी कुकी कि नानी चल बसीं। कुछ डेढ़ बरस तक उसका इलाज चलता रहा। किसी दवा के रिएक्शन से हो गयी उसकी मौत, डॉक्टरों ने पुष्टि की थी। वह चली गयी सदा के लिए और मामा-मामी ने सब कुछ बेचबाच कर शहर ही छोड़ दिया। उसकी मौत के बाद कुछ सालों तक अकसर मुझे डरावने सपने आया करते और सपने में किसी ना किसी रूप में वह कॉन्वेंट जरूर दिखता। शायद ऐसा इसलिए रहा हो, क्योंकि वह कुकी ही थी, जो मेरे सबसे ज्यादा करीब थी। बरसों बीत जाने पर भी कुकी का दुखद अंत मुझे सालता रहा। उससे जुड़ी सारी बातें और यादें मुझे किसी शाप की तरह भयाक्रांत करतीं। वक्त के साथ धीरे-धीरे कर यादें किसी अंधे कुएं में समा गयीं। मैंने डॉक्टर की कही सारी बातों को यथार्थ से जोड़ते हुए जो खाका बुना था, वह डॉक्टरों तथ्यों से तर्कसंगत तो था, परंतु कुकी सारे किस्से इतनी सजीवता से सुनाया करती थी कि मेरे मन का कोई कोना उन्हें झुठला पाने को राजी नहीं होता। मैं बार-बार सोचती और पूरे घटनाक्रम को दोहराती। यह प्रश्न सदा अनुत्तरित रहा। आखिर उस दिन बस की स्ट्राइक, कुकी को स्कूल से लेने के लिए मेरा जाना, दूर पियानो कक्ष के शीशे से परिलक्षित होती वह हमारी ओर पीठ किए बैठी, पियानो बजाती धुंधली सी आकृति और शांत वातावरण को छेड़ती सी पियानो की वह सुरीली धुन। वह सच था या कुकी के जीवंत वर्णन से उपजा मेरा भ्रम !