Tuesday 19 March 2024 02:26 PM IST : By Rita Kumari

बदलते रिश्ते भाग 3

2

(आगे का भाग) दूसरे दिन वह साहस कर सीधे मामी के घर जा पहुंचा। बरामदे में ही मामी आरामकुर्सी पर आंखें बंद किए हुए लेटी मिल गयीं। उन्हें देखते ही उसके हृदय पर गहरा आघात लगा। इतने दिनों में ही उनकी कंकाल सी बन गयी देह पहचानी नहीं जा रही थी। उसके कदम ठिठक कर वहीं रुक गए। तभी उनकी आंखें खुल गयीं। नजर मिलते ही उनके श्रीहीन चेहरे पर चमक आ गयी। अब वह अपने को ज्यादा रोक नहीं पाया और उनके पैरों के पास बैठ कर उनके घुटनों पर सिर रख कर फूट-फूट कर रो पड़ा। मामी की आंखों से भी आंसू बह निकले। दोनों ने जैसे एक-दूसरे के आंसुओं से ही सारी अनकही बातें कह डालीं। आंसुओं के आवेग के थोड़ा थमते ही उसके सिर पर अपना वात्सल्यपूर्ण हाथ फेरती मामी का पहला सवाल था, ‘‘किसकी बातों का जहर तुझे इस कदर मर्माहत कर गया कि तू घर छोड़ने को मजबूर हो गया?’’

वह कोई जवाब देता, उसके पहले वसुधा दी के स्नेहिल स्पर्श ने उसे चौंका दिया।

‘‘कहां चला गया था रे... हम सबको छोड़ कर? ना... ना... चौंक मत, तुम्हारे घर छोड़ते ही मैं समझ गयी थी, उस रात निश्चित रूप से तुमने हमारी बातें सुन ली थीं, इसलिए घर छोड़ कर चला गया था। माना यह हमारी बहुत बड़ी गलती थी, जो सहज ही प्राप्त तुम्हारे निस्वार्थ प्रेम और समर्पण का हमने मूल्य नहीं समझा, फिर भी बरसों के प्यार के बंधन क्या यों एक झटके में तोड़े जाते हैं? वह भी बिना किसी को कुछ बोले,’’ बोलते-बोलते उनका गला भर्रा गया था। फिर अपने को संभालते हुए बोलीं, ‘‘जब तू चला गया, तब हमारी समझ में आया दुनिया की कोई संपत्ति तुम्हारे प्रेम और समर्पण से बढ़ कर नहीं हो सकती।’’

अपनी बातें समाप्त कर वसुधा दी ने सारी बातें सच-सच मामी को बता दी थीं, जिसे सुनते ही उस जीर्णावस्था में भी मामी उबल पड़ी थीं, ‘‘आज मेरे इतने वर्षों की मेहनत व्यर्थ हो गयी। मेरे लिए इससे बड़ी दुर्भाग्य की और क्या बात हो सकती है कि मेरे ही बच्चे मेरी जायदाद पर नजरें गड़ाए बैठे हैं। शायद मेरी परवरिश में ही कोई कमी रह गयी थी, जो दोनों बहनों ने भाई-बहन के रिश्ते से ज्यादा धन-संपत्ति को अहमियत दी। मैंने अपने तीनों बच्चों को बिना किसी भेदभाव के सींचने में अपना जीवन होम कर दिया। फिर मेरा एक बच्चा मेरा बेटा, गैर कैसे हो गया? दोनों बेटियों की तरह वह भी मेरे दिल से जुड़ा मेरे ही वजूद का हिस्सा है। फिर कैसे बना दिया तुम लोगों ने उसे पराया?’’

1

फिर थोड़ा रुक कर बोलीं, ‘‘मैंने और तुम्हारे पापा ने विवेक को सिर्फ कहने के लिए अपने बच्चों में शामिल नहीं किया था, उसे अपने बेटियों के साथ वारिसों में भी शामिल कर उसे बराबर का हक दिया था, जिसका प्रमाण है तुम लोगों के पापा द्वारा बनायी गयी वसीयत, जिसे मैंने अब तक जगजाहिर नहीं किया था। काश ! तुम लाेगों में भी अपने पापा की तरह उदार विचारशीलता होती,’’ फिर विवेक की तरफ मुड़ते हुए बोलीं, ‘‘विवेक तुम... तुमने अपने आपको क्या समझ रखा है? इतना बड़ा फैसला लेने के पहले तुमने एक बार भी मुझसे बातें करना जरूरी नहीं समझा?’’ मामी की बीमारी से कमजोर, पर गंभीर आवाज में पहले की तरह का ही रोब समाया हुआ था, जिसने तीनों भाई-बहन की बोलती बंद कर दी थी। तब हमेशा की तरह विवेक ने ही बात को संभाला, ‘‘माना हम तीनों ने अपनी-अपनी जगह गलतियां की हैं, बस बिना किसी भेदभाव के हम तीनों को बस एक बार माफ कर दीजिए। अब दोबारा ऐसी गलती नहीं होगी।’’

विवेक का गिड़गिड़ाना देख, क्रोध के अाधिक्य से जड़ हो गयी मामी के चेहरे पर ममताभरी मुस्कान फैल गयी। थोड़ी सी चुप्पी के बाद उन्होंने हंस कर अपनी बांहें फैला दी। बिना देर किए तीनों भाई-बहन जा कर उसमें समा गए। घर का वातावरण खुशनुमा होते ही मामी की सारी बीमारी भी जाने कहां गायब हो गयी।

पराए बच्चे के लिए इतना प्यार और ममता देख विवेक का सिर एक बार फिर उस ममतामयी मां के सामने नतमस्तक हो उठा। काश ! दुनिया की एक प्रतिशत मां भी मामी की तरह सिर्फ एक अनाथ बच्चे को अपने बच्चों में शामिल कर लेती, तो कितनों की जिंदगियां बदल जातीं।