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सुधीर ने आवाज लगायी, ‘‘अहु, टिकट बुक हो गया है। आज रात 11 बजे की फ्लाइट है।’’ उसने टिकट अहाना को पकड़ा दिए।

अहाना टिकट उलट-पुलट कर देखने लगी।

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‘‘अहु, जाना जरूरी है क्या?’’ उसने उसके चेहरे पर नजर टिका दी जैसे कि उसे सिर्फ ना ही सुनना था।

‘‘मां की आखिरी इच्छा पूरी करनी है,’’ वह भारी मन से बोली।

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‘‘जयपुर में ऐसा क्या बाकी रह गया था मां का? मैं साथ चलूं?’’

‘‘नहीं, मां ने यह काम मुझे सौंपा है इसलिए अकेले ही जाना है।’’

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‘‘तुम पैकिंग कर लो, मै एअरपोर्ट ड्रॉप कर दूंगा,’’ सुधीर कह कर चले गए।

मां को गुजरे अभी 3 महीने हुए हैं। उनके जाने के बाद घर मुरझा सा गया है। मां क्या गयीं, घर की रंगत ही चली गयी। मां भले ही कम बोलती थीं, मगर वे घर की रौनक थीं। सुधीर ऑफिस में देर रात तक काम करते हैं। मैं थक कर ऑफिस से घर लौटती, तो मां चाय की प्याली के साथ तैयार मिलतीं। मेरे हालचाल पूछतीं। हम साथ-साथ खाना बनाते, बातें करते... कभी लगा ही नहीं कि वे मेरी मां नहीं सास हैं। इतना लाड़-चाव तो खुद मेरी मां ने भी नहीं किया था। अकसर मेरी मम्मी मां को डांट कर कहती थीं, ‘‘आपने जरूरत से ज्यादा प्यार करके मेरी बेटी को बिगाड़ दिया है।’’

मुझे गले लगाते हुए मां बोलतीं, ‘‘आपकी बेटी तब तक आपकी थी, जब तक आपके घर में थी। अब तो मेरी बेटी है और है भी बड़ी प्यारी...तो मैं इसे लाड़-दुलार क्यों ना करूं।’’

अपनी खुशनसीबी पर गुमान हो आता मुझे।

एक बार सुधीर ने बताया था, जब उन्होंने पहली बार मेरा जिक्र घर में किया था, ‘‘पापा बौखला से गए थे। उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे मेरी पसंद को सिरे से नकार दिया। मां की बदौलत ही पापा तुमसे मिलने को राजी हुए।’’

‘‘फिर क्या हुआ सुधीर, पापा मुझसे मिल कर खुश हुए ना?’’

‘‘अरे नहीं, तुम्हारे दबे रंग के कारण पापा ने मना कर दिया था। तब मां ने पापा को समझाया, ‘‘रंग-रूप, कद-काठी, स्वभाव, खानदान से ऊपर सबसे बड़ी बात है कि मेरा बेटा उसके प्रेम में है और वह मेरे बेटे से प्यार करती है। बहुत खयाल रखेगी मेरे बेटे का।’’

‘‘खाक ध्यान रखेगी। दो दिन बाद उतर जाएगा यह प्यार का भूत,’’ पापा ने कहा।

‘‘प्रेम कभी खत्म नहीं होता। यह तो एक ऐसा रंग है, जो दिनबदिन गाढ़ा होता है। प्यार ईश्वर का दूसरा रूप है, एक बार जो उसके रंग में रंग गया, उसे किसी और रंग की जरूरत नहीं रहती,’’ मां पापा से लगातार तर्क-वितर्क करती रहीं, उन्हें तब तक मनाती रहीं, जब तक उन्होंने शादी के लिए हां नहीं बोल दिया।

पहली बार ससुराल में जब कदम रखा, तब मां ने मुझे मुंहदिखाई में अपनी दोस्ती गिफ्ट की, ‘‘हम दोनों सास-बहू नहीं दो सहेलियां बन कर रहेंगे।’’ यह एक अनोखी मुंहदिखाई थी। मैंने कभी इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि मेरी सबसे अच्छी सहेली मेरी सास होगी।

एक दिन अचानक पापा हम सब को छोड़ कर चले गए। मां अपने खोल में सिमट कर रह गयीं। बहुत दिनों तक वे चुप सी रहीं। फिर धीरे-धीरे जिंदगी में लौटने लगीं, मगर पूरी तरह नहीं लौट पायीं। वे अकसर पापा के साथ बिताए पलों को याद करतीं।

मां ने मुझे अपने जीवन के हर छोटे-बड़े अनुभव का‌ राजदार‌ बनाया था। गुड्डे-गुड़ियों के खेल से ले कर मेरी शादी तक के तमाम किस्से मां खूब सुनाती थीं। मुझे गुमान था कि मैं मां के मन के सबसे करीब हूं, उनके बेटे से भी ज्यादा। मैं इसी मुगालते में रहती, यदि मां अपने आखिरी दिनों में मुझे यह ना कहतीं, ‘‘अहाना, अनारगढ़ जा कर उसकी सलामती का दीया जरूर जलाना। जयपुर में मेरी बचपन की सहेली इमरती रहती है, वह तुझे ले जाएगी। जाना जरूर, वह मेरा पहला प्यार था,’’ मां की सांसें जवाब दे गयीं और मेरे लिए कशमकश छोड़ गयीं।

मां, यह आपके जीवन का कौन सा अदृश्य हिस्सा था, जिससे आप मुझे आखिरी क्षणों में मिलवाना चाहती थीं। आप मुझे किस आजमाइश में डाल गयी हैं।‌ जिस किस्से को आपने कभी अपने अधरों से बाहर नहीं आने दिया, उसे आप अपने साथ ही क्यों नहीं ले गयीं। मां, सुधीर आपसे बहुत नाराज हैं। कितना फख्र था उन्हें आप पर। वे आपको ईश्वर का दर्जा देते थे और अब ना जाने कितनी शिकायतें हैं आपसे। वे आपको फरेबी कहते हैं। आपने पापा के साथ धोखा किया।

...मां, मेरा मन नहीं मानता कि आपकी जिंदगी में पापा के अलावा कोई और पुरुष था। मैंने देखा था, आप पापा की हर छोटी से छोटी जरूरत का ध्यान रखती थीं। कभी किसी बात पर आपने बहस भी की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। पापा भी तो आपकी हर बात को तवज्जो देते थे। आप दोनों मेड फॉर ईच अदर थे। आप दोनों की केमिस्ट्री देखते ही बनती थी। आप दोनों के दांपत्य जीवन की लोग मिसालें देते थे। आज आप पर खुदगर्जी का आरोप लगा है। क्यों? मां, मैं सच जानना चाहती हूं।

और जैसे मां तक मेरी मौन आवाज पहुंच गयी। उस दिन मां का कमरा साफ करते हुए मुझे उनकी डायरी मिली। उत्सुकतावश पहला पृष्ठ खोला। लिखा था - आज कुछ कहने का मन है। बस इतना ही लिखा था बाकी पूरा पृष्ठ कोरा था, बिलकुल मां के मौन की तरह।

दूसरे पृष्ठ पर लिखा था- आज भी तुम्हारा इंतजार है। डायरी के हर पन्ने पर इसी तरह छोटी-छोटी लाइन लिखी हुई थी, जोकि मेरी जिज्ञासा को और बढ़ा रही थी। यह कैसी कहानी है, जिसमें केवल मां है दूसरा कोई नहीं। आखिरी पन्ने पर लिखा - आज मुसाफिरी खत्म और मंजिल के निकट मैं।

शायद अस्पताल जाने से पहले मां को अपनी मृत्यु का आभास हो गया था, तभी तो डायरी में बिना पते का खत छोड़ गयी थीं। लिखा था-

मेरे प्रिय,

आज सांझ का तारा कुछ ज्यादा ही चमक रहा है। नेह आज तुमसे मिलने तुम्हारे पहलू में आ रही है। अब इंतजार नहीं होता तुम्हारी साहिबा को। बहुत थक गयी है। आज धरा से विदा लेने का दिन है। खुश हूं तुम्हें वहां से देख सकूंगी, जिसे देखना यहां से कभी नसीब नहीं हुआ।

देखो ना आज आसमान कितना साफ है जैसे मेरी राह तक रहा हो। आज रुत बड़ी सुहावनी है। आज बंधन से मुक्त होने का दिन है। आखिरी बार इस कमरे को निहार लेना चाहती हूं। तुम्हारी होने के लिए अपना सब कुछ यहीं छोड़ कर एक कोरा मन ले कर आ रही हूं।

अलविदा, तुम्हारी अपनी

वसुंधरा

नीचे लिखा था-

अनारगढ़, मुझे माफ कर देना। इस बार आने में असमर्थ रही। मेरी सांसों ने मेरा साथ छोड़ दिया। मेरे साहिब की सलामती अब तेरे हाथ में है।
खत पढ़ कर मैं निशब्द हो गयी। इतना गहरा और निश्छल प्रेम! ‘मां, आप अव्यक्त कैसे रहीं। मां, आपकी बातें समझ से बाहर हैं। मैं जिस मां को जानती थी, उस मां से अलग आपका यह कौन सा रूप है। मां, मैं आपके अतीत में दफन इस राज का हिस्सा बनना चाहती हूं। नैतिक-अनैतिक के परे जा कर मुझे आपका प्रेम किसी अजनबी पक्षी की तरह लग रहा है, जो कुछ देर आपकी मुंडेर पर ठहरा होगा, फिर उड़ गया। मां, आपने इस प्रेम को सहेज कर कैसे रखा।

मां, आपके जाने के बाद मेरी दुनिया बहुत उदास हो गयी है। आपकी बेहद याद आती है। वीरान सा घर, उदास सा सोफा, मायूस खिड़कियां और हर ओर जिंदगी से तालमेल बिठाने की जद्दोजहद... उफ्फ। आप थीं, तो सब सरल था, सहज था। अब चारों तरफ अफरातफरी है। सुधीर पगला से गए हैं। उदास घर और सुस्त पड़ी दिनचर्या, इस घर को अपनी लय में आने में वक्त लगेगा, मां।

दीवार पर टंगी इस तसवीर में आप पापा और सुधीर के साथ मुस्करा रही हैं। मैं नहीं जानती थी इस तसवीर के उलट आपकी कोई और तसवीर भी है। आपके जाने के बाद आपकी जिंदगी मेरे सामने एक नया अध्याय लिख रही है। कल तक मैं बेपरवाह थी, मगर आज मुझे संजीदा होना पड़ रहा है। इसकी‌ शुरुआत कल के वाकये से हुई। मां, सुधीर ने मुझसे पूछा- क्या मां के अतीत की तरह मेरा भी कोई गुमनाम अतीत रहा है। कोई अफेअर या प्रणय निवेदन या कोई अधूरा ख्वाब? मैं उन्हें क्या कहती। मैं चुप रही। मां, आप इस घर में स्त्री जाति की प्रतिनिधि थीं। आपके कारण आज मुझे भी कटघरे में खड़ा होना पड़ा। आंखें बंद करके भरोसा करनेवाले सुधीर ने मुझे भी प्रश्नों की कतार में ला कर खड़ा कर दिया।

मुझे आज भी याद है आपकी बत्तीसवीं एनिवर्सरी थी। मैं आपके पारिवारिक समारोह में मौजूद थी। उस‌ वक्त मैं सुधीर को जानती तक नहीं थी। मामा-मामी के घर पर उन दिनों कंपनी के इंटरव्यू की तैयारी में व्यस्त थी। मामा जी ने कहा था, ‘अहाना, कुछ अच्छा खाने-पीने का दिल हो और कुछ एंजॉयमेंट करना चाहती हो, तो चलो हमारे साथ। हम लोग पार्टी में जा रहे हैं।’

आपकी पार्टी जानदार थी। मुझे आपके द्वारा पापा जी को सालगिरह विश करने का तरीका अलहदा लगा- बत्तीस वर्ष का साथ मुबारक हो साथी, मुझे बत्तीस वर्ष हरा-भरा रखने के लिए बत्तीस वर्ष भर शुक्रिया। नैहर से विदाई के समय आपने बाउजी से किया था वादा ‘इसे हमेशा खुश रखूंगा’ इस वादे को निभाने का धन्यवाद, धन्यवाद इसलिए भी कि मेरे अंदर बहती अबूझ भावनाओं को सदा संभाला।

आपके बोलने के अंदाज और आपके दिलकश स्वभाव की मैं कायल हो गयी। पापा जी के कहकशों से पूरा वातावरण गुंजित हो उठा। कितने मिलनसार हैं आप दोनों। कच्चे-पक्के रिश्तों को बखूबी सहेज कर रखने वाले, उनकी कद्र करने वाले और एक-दूसरे पर बेइंतहा मोहब्बत लुटाने वाले इंसान से भला कोई कैसे दूर रह सकता है।

घर आ कर मैं खुद की भी नहीं रही। मेरी आंखों के सामने आप दोनों के चेहरे नजर आ रहे थे। मैंने मामा जी से कहा था कि अंकल-आंटी की तरह यदि सास-ससुर मिले, तो मुझे शादी करने से कभी डर नहीं लगेगा। मामा जी मुस्करा दिए थे।
मां आज आपकी जिंदगी की कहानी विद्रोह कर रही है। आज आपकी तलाशी ली जा रही है। सबूत ढूंढे़ जा रहे हैं। मां, यह कैसा केस है, जो आपके जाने के बाद दर्ज हुआ है। अब हर खुशी में मिलावट नजर आ रही है। धूप का रंग सलेटी हो कर दहलीज को मटमैला कर रहा है। अब सागर नीला नजर नहीं आता और आकाश जैसे बेरंग हो चुका है। मुझे लगता है ये सब आपके गुनाह में बराबर के भागीदार हैं। मां, जब हम दो नावों में एक साथ सफर नहीं कर सकते, तो आपने कैसे किया?

उस दिन मामा जी के मुस्कराने की वजह समझ नहीं आयी थी, लेकिन एक दोपहर आपका आना मुझे अचंभित कर दिया। उस दिन आपने मुझसे कहा था, ‘वैसे तो मेरे बेटे ने तुम्हें जीवनसंगिनी बनाने की ख्वाहिश बता दी है। तुम्हारी आंखों में कोई और शख्सियत हो, जिसे पाना तुम्हारा मकसद हो, तो कह सकती हो। यदि कुछ नहीं है, तो अपनी मरजी अनुसार मेरे बेटे के नाम की अंगूठी पहन सकती हो।’

मां, आपने मुझे जिस तरह प्रपोज किया कि मैं ना नहीं कर सकी थी। वैसे भी उस पार्टी के बाद मैं आप सबकी मुरीद हो गयी थी। आपके संस्कारों के साथ पला-बढ़ा आपका बेटा भी बिलकुल आपके जैसा ही था। कभी-कभी मैं ईश्वर से पूछना चाहती हूं कि क्या मैंने कभी इस से ज्यादा मांगा था।

शादी करके जब मैं इस घर में आयी आपने अपनी मुंहदिखाई में मुझे अपनी सखी बना कर दोस्ती गिफ्ट कर दी। मां, यह अनोखा मुंहदिखाई उपहार था। आपसे बातें करके कभी लगा ही नहीं कि आपकी और मेरी उम्र में एक अरसे का फासला है। आपको प्रेम बांटना आता था और आपने बांटा भी।

मां, पापा सुबह 5 बजे उठ कर पार्क में टहलने जाते थे। यह उनका रोजाना का नियम था। वर्ष के 30 दिन यह दिनचर्या तब टल जाती थी, जब आप 15 दिनों के लिए जयपुर जाती थीं और पापा भी 15 दिन अपनी किसी यात्रा पर जाते थे।

मैंने सुधीर से एक बार पूछा था, ‘‘नाना-नानी अब रहे नहीं, रवि मामा जी लंदन शिफ्ट कर गए। फिर मां जयपुर क्यों जाती हैं?’’

‘‘मां अपने बचपन की पुरानी यादों को जीने जाती हैं। वह उनका मायका भी है,’’ सुधीर बोले।

सुधीर आगे बोले, ‘‘मां कहती हैं माता-पिता भले ही नहीं हैं, मगर मायके में उनकी गंध बसी है। उनकी आत्मा विचरती है। आत्मा के सहारे बेटियां अपने माता-पिता के प्यार के साये में महफूज रहती हैं।

‘‘मां भी ना, अपनी बातों के आगे किसी को टिकने नहीं देतीं,’’ मैं सराहना करते हुए बोली।

‘‘मां की एक सहेली इमरती भी रहती हैं। वे अपनी सहेली से हर साल मिल कर आती हैं और बहुत प्रसन्नचित्त लगती हैं।’’

मां, आपकी सहेली आपकी राजदार थीं। काश ! मैं भी होती। आप जयपुर क्यों जाती थीं। यह बात मैं सुधीर को नहीं समझा पायी।

पापा के कपड़े मां खुद अपने हाथों से धोती थीं। कहती थीं- हाथों से धुले कपड़ों की चमक कभी फीकी नहीं पड़ती। तुम्हारे पापा मेरी बिंदिया की चमक हैं। मैं उन्हें कैसे फीका पड़ने दूं।

पापा पुराने दिनों को याद करके कहते थे कि आज मैं जिस मुकाम पर हूं, उसमें तुम्हारी सासू मां का यानी नेह का बड़ा हाथ है। मेरे अपने मुझसे मुंह मोड़ गए। उस वक्त मेरे पास कुछ भी नहीं था, तुम्हारी मां ने बेहद गरीबी में अपना घर बसाया था। उसने कभी शिकायत का मौका नहीं दिया, ना ही कभी शिकायत की। कभी-कभी हालात ऐसे हो जाते थे कि हमें लगातार दो दिन तक खाने को कुछ भी नसीब नहीं होता था। तब भी नेह ने उफ तक नहीं की। वह हमेशा मुझसे कहती थी कि सब दिन होत न एक समान, अपने दिन भी फिरेंगे। ईश्वर पर भरोसा रखो। अमीर घर में पली-बढ़ी लाड़ली संतान मेरी फाकाकशीं में मेरा साथ निभा गयी।

पापा उस दिन बता रहे थे कि जीवन के सबसे खराब दिनों में तंग आ कर उन्होंने एक दिन स्वयं को कमरे में कैद कर लिया था। नेह पता नहीं कब से कब तक दरवाजे के पास बैठी रही। वह वहीं बैठी रहती, यदि शाम को मैं दरवाजा नहीं खोलता। वह मेरे लिए प्रार्थना कर रही थी। उस दिन मेरी आंखों में उसके लिए प्यार और सम्मान का आयतन बढ़ गया। मैंने उस दिन उससे वादा किया था कि मैं तुम्हें सदा खुश रखूंगा। मैं जानता था यह ख्वाहिश अधूरी है, मगर उस दिन मैंने अपने लिए गलतफहमी पाल ली। इसी गलतफहमी के चलते मैंने उन दिनों से निजात पायी। अमीरी मेरे पास रेंगती हुई आयी थी। जब-जब मुझे नेह की जरूरत पड़ी, तब-तब उसने मेरा साथ बखूबी निभाया। मुझे एक पल के लिए भी अहसास नहीं हुआ कि वह मेरे साथ नाखुश है।

मां, पापा की बात से मैं भी सहमत हूं। आपके दैव्यमान चेहरे पर हमेशा ही मुस्कान बनी रहती थी। आप हर परिस्थिति में ढल जाती थीं या अपने अनुकूल बना लेती थीं। जो भी आपसे मिलता, आपका हो जाता। आपके मिलनसार स्वभाव के कारण आपसे कोई ना कोई मिलने घर पर आता रहता था। आपकी कितनी सारी सहेलियां थीं और फिर पापा के मिलने-जुलनेवाले, आप कभी मेहमानों की आवभगत करते समय थकती नहीं थीं। कितनी मनुहार से सबको खाना खिलाती थीं। सुधीर के लिए आप परफेक्ट मॉम थीं। आज वे आपको नापसंद करने लगे हैं।

यह कैसी मर्द जाति है, मां। एक अदृश्य सच के सामने आने से बेटा मां से ही घृणा कर बैठा। क्या पापा भी इसी तरह रिएक्ट करते। आप कहती थीं कि पुरुष मासूम बच्चे की तरह है, जिसे समझाने के लिए धैर्य की जरूरत होती है। मां, मुझमें आप जितना धैर्य नहीं है। मुझे सुधीर के प्रति डर लगने लगा है।

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ठीक रात 11:00 बजे फ्लाइट लैंड कर गयी। एअरपोर्ट पर सुधीर ने एक बार फिर मुझे रोकने की नाकाम कोशिश की। वे नहीं चाहते कि मैं मां की आखिरी इच्छा पूरी करूं। उनकी पुरुषवादी मानसिकता आपको दोषी ठहरा रही है। मां, मैं आपसे पूछना चाहती हूं कि आपने सुधीर को यह क्यों नहीं समझाया कि एक स्त्री भी प्यार कर सकती है, उसकी अपनी चाहत होती है। यह तो स्त्री मन की महानता है, जो सात फेरों के बंधन को स्वीकृत करके और उसे शिद्दत से निभाते हुए अपने अतीत को मिट्टी में दफन कर देती है।

मैं बेसब्री से आपके उस रूप को देखना चाहती हूं, जिसमें सतरंगी रूहानी ख्वाब थे। थोड़ी देर में जयपुर आने वाला है। सच कहूं मां, मेरी घबराहट बेहताशा बढ़ती जा रही है। मेरी रूह कांप रही है, जाने क्या सामने आने वाला है। हो सकता है मुझे यहां से लौटते समय कोई अफसोस रह जाए। आपने पापा के साथ जीवन भरपूर जिया है। फिर भी जाने क्यों मन में बैठे उस अदृश्य को उजागर कर आपने अपनी छवि को ही धूमिल कर दिया।

मकड़ी के जालों सा उलझता मां का प्रेम... जिसे केवल मां जानती थीं या जानते थे उनके विशेष अपने, जिसका जिक्र मां ने ठीक मृत्यु से पहले आखिरी क्षण में किया।

क्रमशः

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