Friday 19 February 2021 12:23 PM IST : By Meenu Tripathi

आंखें नम हो जाएंगी, आर्मी वाइव्स के जीवन के इन संघर्षों के बारे में जान कर

एक सैनिक की पत्नी ना केवल सैनिक से, बल्कि उसकी वर्दी, ड्यूटी-परिवेश और जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव व चुनौतियों की संभावनाओं से भी गठबंधन करती है। शादी से पहले वह भी बात-बात पर डरनेवाली, संकोच और झिझक से भरी आम महिला होती है, पर सैनिक परिवार में प्रवेश लेते ही उसके भीतर छिपी संभावनाएं उजागर होने लगती हैं और वह आम से खास बनती है। उसका पति आम मनुष्य नहीं, एक सैनिक है, जो सिर्फ पति और पिता नहीं, एक सेनानी भी है, जिसे राजस्थान के सुदूरवर्ती जोखिमभरे स्थानों में लू के थपेड़ों और जहरीले जीवों के बीच 50 डिग्री के तापमान पर अपनी ड्यूटी निभानी पड़ सकती है, तो कभी लेह-सियाचिन की खून जमा देनेवाली सर्द हवाओं के बीच माइनस 40 डिग्री तापमान को सहते हुए प्रहरी बन कर देश की रक्षा में मुस्तैद रहना पड़ सकता है। ऐसे में जितने भी खुशनुमा क्षण उसकी झोली में आते हैं उन्हें वह भरपूर जीती है। काले बक्सों में सहेजी उसकी गृहस्थी खुलती-बंद होती रहती है, पर वह निराश नहीं होती। जब कभी सैनिकों की पत्नियों से पूछा गया कि कब और कैसे उन्होंने विषम परिस्थितियों, चुनौतियों से निपटना सीखा, तो कमोबेश हर तरफ से एक सा ही जवाब आया, ‘‘चुनौतियों, बाधाओं एवं परिस्थितियों ने सब सिखा दिया।’’

सैनिक की पत्नी भी अपने परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए लोक-कल्याणकारी कार्यों में जुटती है। ‘आर्मी वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन (आवा)’ संस्था सैनिक पत्नियों द्वारा संचालित संस्था है। सैनिक पत्नियों के इस योगदान की वजह से सैनिक हर परिस्थिति में अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाते हैं। युद्ध में या युद्ध जैसी परिस्थितियों में शहीद हुए सैनिकों की पत्नियों को विशेष एवं सम्माननीय स्थान देते हुए उन्हें ‘वीर नारी’ का दर्जा दिया गया है। लगभग हर छावनी में प्रत्येक वर्ष अगस्त माह में इन वीर नारियों को विशेष रूप से बुलाया जाता है।

मैं अपनी एवं मित्रों के जीवन की कुछ ना भूलनेवाले संस्मरण आपके साथ साझा कर रही हूं-

कारगिल युद्ध का वह दौर - मीनू त्रिपाठी

फौजी की बेटी और पत्नी होने के कारण कई चुनौतियों ने मन में खासी जगह बनायी है। मुझे याद है जब पहली बार मां बनने का अवसर आया उस वक्त हसबैंड मुझे मेरे मायके छोड़ कर खुद ट्रेनिंग के लिए चले गए थे। पेरेंट्स का साथ था फिर भी इनकी कमी खलती थी। गर्भ में पल रहे बच्चे की सुरक्षा के लिए दोहरी जिम्मेदारी निभाते हुए अकेले ही मिलिट्री हॉस्पिटल में जाना, चेकअप करवाना और बच्चे के जन्म के समय नन्हे-मुन्ने की रुलाई फोन पर उसके पिता को सुनाना आज भी मुझको और इनको भावुक कर जाता है। यों तो पति की कई फील्ड पोस्टिंग आयीं, जिनमें बच्चों को अकेले संभाला और आने वाली चुनौतियों को स्वीकारा, पर कारगिल युद्ध का वह दौर भुलाए नहीं भूलता। अकेले बच्चों के साथ रहने का वह पहला मौका था। उस समय की चुनौतियों का वह दौर आज भी मन में जिंदा है। उस वक्त बड़ा बेटा साढ़े तीन साल का और छोटा पांच-साढ़े पांच महीने का था। आशंकाओं के बीच फा फा (फील्ड एरिया फैमिली एकोमोडेशन जहां दुर्गम इलाकों में तैनात सैनिकों के परिवार रहते है) में रहने वाले कमोबेश सभी परिवार एक ही नाव पर सवार थे। हिचकोले खाती परिस्थितियों की लहरों पर चलती नाव में एक साथ सवार हम एक-दूसरे को सहारा देते हुए आगे बढ़ते रहे। नागालैंड में काउंटर इंसरजेंसी ग्रिड में तैनात पति की पूरी यूनिट कश्मीर मूव कर गयी थी और मुझे कई दिन तक नहीं पता चला कि यूनिट कश्मीर में हैं कहां।

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दीपाली और ब्रिगेडियर तिवारी, मीनू और कर्नल प्रवीण त्रिपाठी

जीवन का सबसे कठिन और लंबा समय आज भी मेरे रोंगटे खड़े कर देता है। मैं फिर भी खुशकिस्मत थी, क्योंकि मेरा मायका वहीं पर था और उस कठिन समय पर भाई-बहन और पेरेंट्स के सहारे और सहयोग से कठिन पोस्टिंग के 3 साल बीत ही गए। इतना ही नहीं पास के शहर में रह रहे मेरे सास-ससुर का सहयोग व संबल भी मिलता रहा, जिससे वह कठिन समय सकुशल निकल गया। मैंने अपनी 4 वेडिंग एनिवर्सरीज पर अपने हसबैंड को मिस किया, क्योंकि वे फील्ड पोस्टिंग पर थे। ईश्वर की कृपा से पतिदेव के आने से परिवार पूरा हुआ। इस दौरान मैं यकीनन खुद से रूबरू हुई और मेरे व्यवहार में बहुत से सकारात्मक परिवर्तन आए। छिपी हुई अनेक प्रतिभा उजागर हुईं, जिनमें लेखन प्रमुख रूप से है।

जीवन का सबसे कठिन समय - दीपाली तिवारी

पति-पत्नी गाड़ी के 2 पहिए होते हैं। जब एक पहिया समय-समय पर गायब रहे, तब बड़ा मुश्किल हो जाता है। पति फील्ड पोस्टिंग पर थे। छुट्टी पर जब घर आते तब मेरा नन्हा बेटा उन्हें (हमारी देखादेखी) नाम से पुकारता। मुझे याद है जब मेरे पति कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ रहे थे, उस दौरान कहीं भी किसी मुठभेड़ का जिक्र होता था और सैनिक के शहीद होने की खबर आती थी, तब मन सहम जाता था। ऐसे में गश्त के बाद जब तक पति फोन करके आश्वस्त नहीं करते थे, तब तक मन में डर का काला साया मंडराता रहता था। जीवन का सबसे कठिन दौर तब आया, जब मुझे कैंसर होने का पता चला। उस वक्त हसबैंड एक जरूरी ट्रेनिंग में भाग ले रहे थे और तत्काल नहीं आ सकते थे। उस वक्त मेरे वृद्ध माता-पिता ने मुझे सहारा दिया। कभी-कभी सोच कर बुरा लगता था कि जिस उम्र में माता-पिता को सेवा की आवश्यकता है, वे हमारी देखभाल कर रहे हैं। लेकिन सैनिक जीवन से पैदा हुए आत्मबल के सहारे उस दौर से भी उबरी हूं। जीवन में अनेक उतार-चढ़ावों के बाद सुखमय जीवन का आगमन हुआ।

जब सब कुछ अकेले संभाला - नीलिमा मिश्रा

आज से करीब 25 वर्ष पूर्व मेरे पति की तैनाती कश्मीर के दुर्गम स्थान पर थी। एक तो नया फौजी परिवेश, दूसरा अकेले यात्रा करने में मुझे हिचकिचाहट थी। उस समय पति की इस बात से ‘तुम अब एक सैनिक की पत्नी हो। ऐसी तमाम यात्राएं तुम्हें अकेले करनी होंगी। मुझे कभी छुट्टी मिले ना मिले, तो अपना मनोबल मजबूत रखो’ मुझे हौसला और आत्मविश्वास मिला। यह शायद मुझे आत्मनिर्भर बनाने की पहली ट्रेनिंग थी।

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नीलिमा मिश्रा, रितु कुमार, रुचि शुक्ला

मुझे याद है मेरे देवर की शादी के वक्त पति प्रशिक्षण के लिए गए हुए थे और छुट्टी नहीं मिल सकी थी, उस वक्त मुझे एक साथ दो-दो रोल निभाते हुए शादी की सारी खरीदारी और अन्य व्यवस्थाएं संभालनी पड़ीं, क्योंकि घर के बड़े बेटे की अनुपस्थिति में सास-ससुर मुझ पर ही निर्भर थे। आर्मी का परिवेश आपकी ऐसी ग्रूमिंग करता है कि दिक्कतों का सामना करना आसान हो जाता है। हालांकि विशेष अवसरों पर पति के शामिल ना हो पाने की विवशता को समाज नहीं समझता है और गाहेबगाहे पूछ बैठता है, ‘‘अरे ! ऐसा क्या कि दो दिन भी छुट्टी नहीं आ सके !’’ ऐसे सवाल आपको मानसिक रूप से परेशान करते हैं, क्योंकि सैनिक व उनके परिवारों की स्थितियां अन्य लोगों से बिलकुल भिन्न होती हैं।

सर्वगुण संपन्न - रुचि शुक्ला

आत्मनिर्भर, सहनशील, मेहनती, आकर्षक, खुशदिल और टैलेंटेड कुछ ऐसे ही गुणों से हमें नवाजा जाता है। लोग पूछते हैं कि जब पति दुर्गम क्षेत्रों में होते हैं तब कैसे हम अकेले सारी जिम्मेदारी उठा पाती हैं? कैसे हम जीवन के कटु अनुभवों को भी हंसी-हंसी में बयान करने की हिम्मत दिखाते हैं? तो इसका एक ही जवाब है कि जनाब, हम फौजी की पत्नियां हैं। दिल और संवेदनाएं हममें भी हैं, पर परिस्थितियों के साथ ढलना और विषम परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बैठाने की कला हमें आती है। यह गुण छावनी में रह रहे सैनिकों, उनके परिवारों तथा अपने वरिष्ठ अधिकारियों की पत्नियों के सान्निध्य में प्राप्त होता और निखरता है।

दोराहे पर जिंदगी - रितु कुमार

अगर शक्ति पर्याय है नारी का, तो महाशक्ति है हर सैन्य पत्नी, जो हर मुश्किल और चुनौती के सामने अडिग खड़ी रहती है। हम सब जानते हैं कि सैनिक की पत्नी आत्मनिर्भर व मल्टीटास्क करने में निपुण होती है, पर इंसान होने के नाते कभी-कभी हम स्वयं को आत्मनिर्भरता और बेबसी के दोराहे पर खड़ा पाते हैं। मेरे हसबैंड यूएन मिशन पर गए थे। मैं अकेली अपनी बेटियों के साथ रह रही थी। एक दिन बेटी ने रोना शुरू किया और बहुत बहलाने पर भी वह चुप नहीं हुई। ध्यान दिया, तो देखा उसके दाएं हाथ में कोई हरकत नहीं थी। मैं उस वक्त बहुत घबरा गयी थी। उसे डॉक्टर के पास ले गयी। एक्सरे हुआ, पर ठीक-ठीक कारण पता ना चला। तकरीबन 24 घंटे के बाद उसके हाथ में हरकत हुई, तब अटकी जान जैसे वापस आयी। जब हसबैंड छुट्टी पर आए, तब तक इस बात को 2 महीने बीत चुके थे, पर बेटी के साथ ऐसा क्यों हुआ, इसकी चिंता बरकरार थी। इसलिए कई विशेषज्ञों से संपर्क साधा गया, तब पता चला कि यह नर्वस सिस्टम से जुड़ी समस्या है। ईश्वर की कृपा से वह आज बिलकुल ठीक है, पर 24 घंटे का वह डर आज भी जिंदा है।

मेडिकल इमरजेंसी - डॉ. शेफाली गुप्ता

बात उन दिनों की है जब मेरे पति बॉर्डर के पास तैनात थे और मैं अकेले बच्चों के साथ कोटा में रह रही थी। बेटा इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा था और बेटी की आरंभिक पढ़ाई चल रही थी। मैं भी शिक्षिका के रूप में स्कूल में पढ़ाती थी। अचानक एक दिन मुझसे बैठा नहीं गया और मैं एक तरफ गिर गयी। भयंकर पीठ के दर्द के साथ मुझे किसी तरह मेरी दोस्त डॉक्टर के पास ले गयी, जिसने बताया कि लगातार बैठने के कारण ऐब्सेस हो गया था, जो सर्जरी से ही ठीक होगा। उस कठिनाईभरे समय में पति की अनुपस्थिति में सैन्य सहयोगियों की सहायता ही काम आयी। मेरे पति को छुट्टी नहीं मिल पा रही इसलिए मैंने अपने पेरेंट्स को बुला लिया। इस दौरान बच्चों को कुछ समझ में नहीं आ रहा था, तो नाना-नानी के आने तक मुझे ओआरएस पिलाते रहे। उनकी देखरेख में बच्चों को छोड़ कर 20 दिनों के लिए बंगलुरु जा कर अकेले ही अपनी सर्जरी करा कर वापस लौटी। यह मेरी जिंदगी का सबसे कठिन समय था। अपने फौजी दोस्तों की हौसलाअफजाई से, फौजी बहनों के सहयोग से, माता-पिता के आशीर्वाद एवं देखरेख में, पति से फोन पर संपर्क साध कर अपने आत्मबल को बनाए रखा और इस कठिन दौर से उबर पायी।

जब मैं पहली बार गाड़ी ले कर हाईवे पर निकली - सलोनी कुमार

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डॉ. अनुपमा गुप्ता, डॉ. शेफाली गुप्ता, सलोनी कुमार

पति की अनुपस्थिति में बच्चों के स्कूल और कॉलेज से जुड़े निर्णय अकेले लेने पड़े, तब बहुत मुश्किल होती थी और तब पति की जरूरत शिद्दत से महसूस होती। पतिदेव के बहुत कहने पर मैंने कार चलानी सीखी, पर कैंट के अलावा कहीं और कार चलाने में डर लगता। यह डर दूर तब हुआ जब मैंने बेटी को इंजीनियरिंग के एंट्रेंस एग्जाम दिलाने के लिए मजबूरी में गाड़ी निकाली। परीक्षा केंद्र शहर से दूर होने के कारण हाईवे से गुजरना था। हाईवे पर गाड़ी कभी चलायी नहीं थी सो डर तो लगा, पर उस दिन की आवश्यकता ने मुझे हिम्मत दी और धीरे-धीरे मुझे ड्राइविंग में पारंगत कर दिया।

रुकना नहीं सीखा - डॉ. अनुपमा गुप्ता

बचपन से ही मैं मेधावी छात्रा रही हूं। शादी आर्मी ऑफिसर से हुई। मैं कॉलेज में टीचर थी। सब कुछ ठीक चल रहा था, पर तभी एक दुर्घटना में मेरी कोहनी में बड़ा फ्रैक्चर हुआ। सर्जरी हुई, पर मेरा बायां हाथ सामान्य नहीं रहा। उस मायूसी में पति ने बहुत साथ दिया और उनके प्रोत्साहन पर दोबारा टीचिंग जॉब शुरू किया। जीवन में सब कुछ सही चल रहा था। बेटा भी आर्मी ऑफिसर बन गया था। तभी एक दिन दुर्घटना में मेरे दाएं कंधे के जोड़ का लिगामेंट टियर हो गया। बड़ी ही क्रिटिकल सर्जरी हुई। हाथों में जान ही नहीं रही थी। हताशा के समंदर में डूबती जा रही थी, पर इस विषम परिस्थिति में मेरे फौजी पति और बेटे ने मिल कर मुझे संभाला और हिम्मत बढ़ायी। आज बेटे के प्रोत्साहन पर एक एनजीओ के साथ मिल कर ऑनलाइन टीचिंग में बिजी हूं, इंटरनेट के माध्यम से छत्तीसगढ़ में वंचित समाज के बच्चों को शिक्षा प्रदान कर रही हूं। शिक्षा के क्षेत्र में कई सम्मान भी प्राप्त किए। पतिदेव की एक बात मैंने गांठ बांधी है कि जीवन को समझना है, तो ही पीछे देखो, पर जीवन को जीना है, तो आगे और बस आगे देखो। आज मैं भरपूर जीवन जी रही हूं।

कैसे कर लेती हो इतना कुछ - दीपाली पचौरी

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दीपाली पचौरी

फौजी जीवन का अभिन्न अंग होना एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का निरंतर सामना करना जीवन में बहुत कुछ सिखा जाता है, विशेषकर हर दो साल में आशियाना समेटना और फिर से नयी जगह पर बसाना एवं नए लोगों से सामंजस्य बिठाना मुश्किल काम है। अकसर लोग पूछते हैं कैसे कर लेती हो इतना कुछ? जवाब में मैं बस मुस्करा देती हूं। घर की साज-सज्जा हो, बागवानी या फिर किचन में हुनर दिखाने की बात हो, सैनिक की पत्नी बड़ी सहजता से सब कर लेती है। परिस्थितियों के अनुसार ढलना हमारी खूबी है। पीस स्टेशन का बड़ा सा घर हो या फील्ड में जोड़तोड़ कर बना एक कमरे का मकान, हम हर हाल में उसे घर बना ही लेते हैं, क्योंकि घर का महत्व हमसे अधिक और कौन समझ सकता है।

इन सभी अनुभवों से रूबरू होने के बाद हम यह नहीं कह सकते कि सैनिक की पत्नी कभी भी किसी भी परिस्थिति में डरती नहीं है। डरती तो वह भी है, क्योंकि वह भी हाड़मांस की बनी है। बस वह अपने डर को अपने चेहरे और आंखों तक नहीं पहुंचने देती। वह डरती है, तो इस बात से कि कहीं उसके चेहरे के भाव उसके पति और बच्चों को डरा कर कमजोर ना कर दें। इसलिए वह हर हाल में हंसती-मुस्कराती है। विषम परिस्थितियों में कुछ ना कुछ नया सीखती है। वह तिल-तिल बदलती और निखरती है।