Thursday 21 March 2024 02:22 PM IST : By Rupam Mishr

अवध की होली में गंगा-जमुनी तहजीब के रंग

awadh

भारत दुनिया में अनेकता में एकता के प्रतीक और अलग-अलग धर्मों की मिलीजुली संस्कृति का देश माना जाता है। यहां की गंगा-जमुनी संस्कृति में उत्सव और त्योहार साझे होते हैं और गौरतलब है कि यहां के मुसलिम शासक होली के पर्व को खूब उत्साह से मनाते थे। वे होली के दिन केवल गुलाल या अबीर से ही होली नहीं खेलते थे बल्कि गीत, गजल, नज्म, शेर आदि भी उन्होंने होली पर लिखे। अवध के क्षेत्र में कुछ लोकगीत भी प्रचलित हैं, जिनसे पता चलता है कि होली सिर्फ हिंदुओं का ही त्योहार नहीं है, मुसलिम समुदाय भी इसके रंग में डूबता है। कहा जाता है कि अगर किसी देश-काल को समझना हो तो उस युग के कला-साहित्य और इतिहास के माध्यम से ही उसकी संस्कृति को सबसे बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

एक ऐसे दौर में जब कई तरह की सांप्रदायिक ताकतें इस एकता को तोड़ने की कोशिश में जुटी दिखती हैं, सवाल है कि क्या विविध रंगों वाले हमारे देश को किसी एक मजहबी रंग में बांध कर रखा जा सकता है। ऐसे में ये शेर याद आता है- चमन में इख्तिलात-ए-रंगो-बू से बात बनती है/हमीं हम हैं तो क्या हम हैं/तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो।

यह भी तय बात है कि होली कोई एकरंगी त्योहार नहीं है। विविध रंगों और विविध तरह की परंपराओं से इसे मनाया जाता है, हास-परिहास और संगीत मुख्य रूप से इसमें जुड़े हैं, इसलिए इन रंगों की गिनती तब तक पूरी नहीं होती, जब तक उनमें अवध की गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत शामिल न हो। इस तहजीब को अवध के नवाबों ने बहुत ऊंचे और अलग मुकाम तक पहुंचाया। वैसे तो अवध के नवाब सभी त्योहार अपने-अपने अंदाज में मनाते थे लेकिन होली उनके लिए राग-रंग का अलहदा जश्न होता था। प्रसिद्ध शायर मीर तकी मीर ने लिखा है -

होली खेला आसिफ-उद-दौला वजीर,

रंग सोहबत से अजब हैं खुर्द-ओ-पीर।

अवधी होली के राग-रंगों की बात हो और नजीर अकबराबादी का जिक्र न हो तो बात अधूरी समझें। ये सच है नजीर अकबराबादी के अलावा किसी और ने शायद ही होली को इतने खूबसूरत तरीके से शब्दों में कैद किया हो-

जब फागुन रंग झमकते हों

तब देख बहारें होली की,

और दफ के शोर खड़कते हों

तब देख बहारें होली की।

अवध के नवाबों द्वारा अवध की इस होली की परंपरा का असर ही कुछ ऐसा है कि ऊंच-नीच, धर्म-जाति, सम्प्रदाय और अमीरी-गरीबी की ऊंची से ऊंची दीवारें भी होली के रंगों को अपने आर-पार जाने से नहीं रोक पातीं। क्या गांव-क्या शहर, क्या गली-क्या मोहल्ले और क्या चौराहे, जलती होलिकाएं और रंगे-पुते चेहरों में क्या बड़े, क्या बच्चे या बूढ़े, सब हुड़दंग करते होली के रंग में डूबे दिखते हैं। कहा जाता है कि अवध में इस अनूठी परम्परा की नींव ही अवध के नबाबों ने रखी है।

इरफान को इरफान से मिलाओ

इंसान को इंसान से मिलाओ,

गीता को कुरान से मिलाओ

दैर-ओ-हरम में हो ना जंग

होली खेलो हमारे संग।

- नजीर खय्यामी

माना जाता है कि सबसे पहले इस मेल-मिलाप की परंपरा की शुरुआत अवध के तीसरे नबाब शुजाउद्दौला ने रखी थी। नवाब शुजाउद्दौला की एक बड़ी विशेषता यह थी कि उन्हें धार्मिक संकीर्णताएं छू नहीं पाई थीं। उनके बाद उनके पुत्र आसफउद्दौला ने अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित की तो उन्होंने भी इस परंपरा को जारी रखा। बताया जाता है कि वे अपने सारे दरबारियों के साथ फूलों से होली खेला करते थे जिसकी परंपरा आगे चलकर नवाब वाजिद अली शाह के काल तक बहुत मजबूती से चलती रही। आसफुद्दौला की बेगम शम्सुन्निसा उर्फ दुल्हन बेगम को भी, जो ‘दुल्हन फैजाबादी’ नाम से शायरी भी किया करती थीं, होली खेलने का बड़ा शौक था। जब शम्सुन्निसा फैजाबाद में आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनी थीं तो उनका होली खेलने का शौक खूब परवान चढ़ा। वे आसफुद्दौला की सबसे चहेती बेगम थीं। इस विषय में एक रोचक प्रसंग मिलता है, ‘एक बार होली पर आसफुद्दौला शीशमहल में दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो होरिहारों ने दुल्हन बेगम पर रंग डालने की ख्वाहिश जाहिर की। बेगम ने भी उनकी ख्वाहिश का मान रखा। उन्होंने अपनी एक कनीज के हाथों अपने उजले कपड़े बाहर भेज दिए और होरिहारों ने उन पर जी भरकर रंग डाले। फिर वे रंग सने कपडे़ बेगम के महल में ले जाए गए तो वे उन्हें पहनकर खूब खुश हुईं और दिन भर उन्हें पहने घूमती रहीं।’

आसफुद्दौला के बाद के नवाबों में से कई को लोग उनके होली खेलने के खास अंदाज के कारण ही जानते हैं। नवाब सआदत अली खां के जमाने में होली का यह गंगा जमुनी रंग तब और गाढ़ा हो गया, जब उन्होंने होली मनाने के लिए राजकोष से धन देने की परंपरा डाली। नवाब वाजिद अली शाह ने होली पर कई ठुमरियां रची थीं। एक और खूबसूरत प्रचलन का जिक्र मिलता है कि अपनी नवाबी के दौर में वे रासलीला की तर्ज पर ‘रहस’ का प्रदर्शन कराते थे, जिसमें वे खुद कृष्ण बनते थे और उनकी चहेती बेगमें गोपियों की भूमिका निभाती थीं। अवध के नवाबों की ये रास परंपरा पूरी दुनिया के लिए एक अनूठी परंपरा है। दुनिया में शायद ही किसी राजा ने गैर धर्म की परंपरा को ऐसे अपनाया हो। उनके धर्म के कुछ कट्टरपंथी इसे लेकर नाराज रहा करते थे और नवाब को काफिर भी कहा करते थे, लेकिन उन्होंने कभी उनकी दलीलें नहीं सुनीं।

अवध के होली प्रसंग में एक रोचक किस्सा बताया जाता है कि कैसे मुहर्रम और होली एक साथ नवाब ने मनायी। जानकारों के अनुसार एक बार संयोग से होली और मुहर्रम एक ही दिन पड़ गए तो अंदेशा हुआ कि होली की खुशी और मुहर्रम के मातम में टकराव न हो जाए। इस अंदेशे के चलते लखनऊ के कई अंचलों में होरिहारों ने मातम करने वालों की भावनाओं का सम्मान करते हुए होली न खेलने का फैसला किया, तो वाजिद अली शाह ने उन्हें इस सदाशयता का ऐसा सिला दिया कि सदियों तक उसे याद रखा गया। उन्होंने कहा, ‘अगर हिंदू-मुसलमानों की भावनाओं का इतना सम्मान करते हैं, तो मुसलमानों का भी फर्ज है कि वे हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करें।’ उन्होंने एेलान करा दिया कि अवध में न सिर्फ मुहर्रम के ही दिन होली खेली जाएगी, बल्कि वे खुद उसमें हिस्सा लेने पहुंचेंगे। उन्होंने सबसे पहले रंग खेलकर होली की शुरुआत की। उनकी एक प्रसिद्ध ठुमरी है- मोरे कन्हैया जो आए पलट के, अबके होली मैं खेलूंगी डटके, उनके पीछे मैं चुपके से जाके, रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के।

अंग्रेजों द्वारा नवाब की बेदखली के बाद 1857 का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ और उनके नाबालिग बेटे बिरजिस कद्र की ताजपोशी के बाद सूबे की बागडोर उनकी मां बेगम हजरतमहल के हाथ आई, तो उन्होंने भी होली के इन गंगा-जमुनी रंगों को फीका नहीं पड़ने दिया। अंग्रेजों के उस जुल्म-सितम के समय में बेगम ने सारे अवधवासियों को एकता के सूत्र में जोड़े रखने के लिए जिस तरह होली, ईद, दशहरे और दीवाली के सारे आयोजनों को कौमी स्वरूप प्रदान किया, उसके लिए कवियों ने दिल खोलकर उनकी प्रशंसा की और उन्हें ‘अवध के ओज तेज की लाली’ कहा गया था।

आज तो कई बार होली के रंगों में भंग पड़ते देखते हैं तो बताते चलें कि लखनऊ में आज भी होरिहारे होली खेलते हुए मुसलिम इलाकों से गुजरते हैं तो वहां उन पर इत्र छिड़का जाता है और मुंह मीठा करा कर स्वागत किया जाता है। वहां आज भी जब वसंत पंचमी के दिन शहर के नुक्कड़ों पर होलिका दहन के लिए रेंडी के पेड़ (खंभ) गाड़े जाते और लकड़ियां जमा की जाती हैं तो शहर के कई इलाकों में मुसलिम समुदाय के लोग सहयोग करते हैं कई बार सारा जिम्मा ही उठाते हैं।

इसी मजहबी एकता की मिसाल है लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले में स्थित संत हाजी वारिस अली शाह की दरगाह, जहां आज भी हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा मिलकर जलायी और खेली जाने वाली सूफियाना मिजाज की होली के रंग एकदम अनूठे होते हैं। संत हाजी वारिस अली शाह के मजार पर खेली जाने वाली इस होली में रंग और गुलाल ही नहीं उड़ते, मिठाइयां और पकवान भी बांटे जाते हैं। दरगाह पर होली मनाने की विरासत अवध में ही नहीं बल्कि अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भी ख्वाजा गरीब से होली खेलने की परंपरा है । बुल्ले शाह ने लिखा है-

होरी खेलूंगी, कह बिसमिल्लाह

नाम नबी की रतन चढ़ी,

बूंद पड़ी अल्लाह अल्लाह।

होली मेल-मिलाप और सौहार्द का त्योहार है। भले ही इसके रंग फीके करने के मौके कुछ लोग तलाशें, देश में ऐसे लोगों की कौम है और रहेगी, जो इन नफरती तत्वों के खिलाफ अनेकता में एकता का गीत गाते हुए अपने-अपने रंगों, त्योहारों, परंपराओं व रीति रिवाजों के साथ भी एकजुट हो खड़े रहेंगे और अंत में घृणा की लगायी जा रही ये आग हारेगी और देश में फिर से सारे रंग साथ में झिलमिलाएंगे ।