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बुत-कदे में तिरे जल्वे ने तराशे पत्थर, जिसने देखा यही जाना कि खुदा बैठा है...    -मुज्तर खैराबादी

इंसानी कल्पना शक्ति ने उस परमसत्ता की कई तसवीरें बना रखी हैं और उसे अलग-अलग नाम दे रखा है। इसी अमूर्त और अनाम को मूर्त रूप देते हैं कलाकार। विडंबना देखिए कि ईश्वर की कल्पना को साकार करते ये रचनाकार इन दिनों मुफलिसी से जूझ रहे हैं। पिछले लगभग 2 वर्षों से कोरोना के कहर ने लोगों की हर गतिविधि को सीमित किया, तो त्योहार भला कैसे अछूते रह सकते हैं। त्योहारों पर प्रतिबंध रहेगा, तो इनसे जुड़े हर काम पर इसका असर पड़ेगा। जाहिर है, मूर्तिकारों व कलाकारों की आजीविका पर भी बन आयी। सालभर की कमाई त्योहारों में करने वाले इन कलाकारों का काम पिछले 2 वर्षों में बहुत सिमट गया है। अब इस वर्ष इन्हें कुछ उम्मीद बंधी है कि कोरोना के मामले घटने के साथ त्योहारों की सज-धज भी लौटेगी और इनके हुनर को नाम-दाम मिलेगा। 

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लौटने लगी हैं बहारें

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दिल्ली और इससे सटे एनसीआर के कई अन्य इलाके इन दिनों त्योहारी मौसम के लिए तैयार होने लगे हैं। शुरुआत गणेशोत्सव से हो चुकी है। अलग-अलग जगहों पर कलाकार काम कर रहे हैं। दिल्ली के मिनी बंगाल कहे जाने वाले सी. आर. पार्क के कालीबाड़ी के अलावा कई अन्य जगहों पर मूर्तियां बनाते कलाकार नजर आने लगे हैं। इनकी आंखों में उम्मीद के कुछ दीये टिमटिमाने लगे हैं। कई जगहों पर बांस के ढांचे तैयार हो रहे हैं तो कहीं घास-फूस, पुआल, मिट्टी आदि से तैयारियां हो रही हैं। मूर्ति तैयार होने के बाद इन पर वॉटर कलर से रंग-रोगन होता है। रंगाई के बाद मूर्ति को कपड़ों, झालरों और आभूषणों से सजाया जाता है। इस काम में कई जगहों पर पूरे परिवार लगे हुए हैं।

Kolkata, West Bengal/India- september 20 2019: Artist making idols of maa durga just before durga puja festival
Kolkata, West Bengal/India- september 20 2019: Artist making idols of maa durga just before durga puja festival
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छोटी मूर्तियों की मांग बढ़ी

अगस्त के आखिरी हफ्ते हम गए दिल्ली के झंडेवालान इलाके में, जहां मेट्रो लाइन पर लगभग एकाध किलोमीटर लंबी पटरी पर कई परिवार मूर्तियों पर रंग-रोगन और सजावट करते दिख जाते हैं। चूंकि उस समय गणेशोत्सव की तैयारियां चल रही थीं, तो हर तरफ रंगबिरंगे गणपति नजर आ रहे थे। त्योहार और अवसरों के हिसाब से ये कलाकार मां दुर्गा, गणेश, विश्वकर्मा, लक्ष्मी, सरस्वती, श्रीकृष्ण,राम दरबार, ब्रह्मा, विष्णु, महेश और भगवान कार्तिकेय जैसी प्रतिमाएं बनाते हैं। विविध आकार, रूप-रंग और अंदाज वाली ये प्रतिमाएं चार-पांच सौ रुपयों से शुरू हो कर दस-बीस हजार रुपए तक मिलती हैं। चार-पांच साल पहले तक यहां कई-कई फिट ऊंची प्रतिमाएं नजर आती थीं, लेकिन अब छोटी मूर्तियां ज्यादा बनायी जाने लगी हैं, क्योंकि अभी लोग खरीदारी के लिए बाहर कम निकल रहे हैं। सामूहिक पूजा और पंडालों पर भी कई तरह के प्रतिबंध हैं। ऐसे में बड़ी प्रतिमाएं नहीं बन रही हैं। कलाकारों को काम भी छिटपुट ही मिल पा रहा है। फिलहाल यहां जोधपुर (राजस्थान) के पाली जिले के कई परिवार इस काम में जुटे हुए हैं। 

New Delhi, India - September 29, 2017: Workers making effigy of Ravana on the occasion of Hindu festival of Durga Puja.
New Delhi, India - September 29, 2017: Workers making effigy of Ravana on the occasion of Hindu festival of Durga Puja.
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मौसम के अनुसार बदला हुनर

कलाकार हीरालाल और सूरज बताते हैं कि उनकी कई पीढ़ियां इसी काम में लगी हुई हैं। लॉकडाउन में उनके काम पर पड़े प्रभाव के बारे में वे कहते हैं कि उन्होंने समय की नजाकत को समझते हुए छोटी मूर्तियां बनानी शुरू कीं, जिनकी मांग हमेशा बनी रहती है। यानी जब जैसा मौसम और लोगों का मिजाज, वैसा ही हुनर दिखाते हैं ये कलाकार। इनके एक साथी जो उत्तराखंड के हैं, मूर्तियों को सजाने-संवारने का काम करते हैं। चमकीले बटन्स, लेस, सलमा-सितारे, चिमकी, कुंदन और तरह-तरह के आभूषण वे दिल्ली के सदर बाजार से ले कर आते हैं। इनसे ही मूर्ति को सजाया-संवारा जाता है। एक मूर्ति को बनाने में तीन-चार लोगों की मेहनत होती है। एक कलाकार उसे बनाता है, दूसरा पेंट करता है और तीसरा उसे सजाता है। यों तो एक ही परिवार के लोग सारा काम करते हैं, लेकिन काम ज्यादा हो, तो बाहर से भी लोगों को दिहाड़ी पर बुलाया जाता है। 

Idol making at Kumartuli Kolkata
Idol making at Kumartuli Kolkata

इको फ्रेंड्ली मूर्तियों की मांग 

थोड़ा आगे बढ़ने पर बड़ी मूंछों और कानों में सोने के टॉप्स पहने मुकेश राठौर मिलते हैं। खालिस राजस्थानी पहचान वाले मुकेश पिछले सात-आठ साल से मूर्तियां बना रहे हैं। वे 14 भाई-बहन हैं। उनके कुछ भाई-बहन मूर्तियों को रंगते हैं, तो कुछ उन्हें सजाते हैं। इनके यहां लाल बागवाले गणेश के अलावा पगड़ीवाले गणेश हैं, तो शिव की तरह नीलकंठ आभा वाले और सलेटी रंग के गणेश भी। कुछ मूर्तियां खूब सजी-धजी हैं, तो कुछ बिलकुल सादी और इको फ्रेंड्ली। वे बताते हैं कि दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए पिछले कई वर्षों से इको फ्रेंड्ली मूर्तियों की डिमांड बढ़ गयी है। उनके यहां 500 रुपए से ले कर 1500-2000 रुपए तक की मूर्तियां हैं, क्योंकि ये आसानी से बिक जाती हैं। पहले इनका परिवार घरों के लिए झूमर बनाता था, लेकिन अब तो मूर्तियां बनाने में ही आनंद मिलता है इन्हें। मुकेश बताते हैं कि मूर्तियों के साथ ही वे लोग टेडी बियर, बच्चों के स्वीमिंग पूल जैसी कुछ और चीजें भी बेचते हैं, क्योंकि ऐसे सामान हर सीजन में बिक जाते हैं। मंदी कितनी भी हो, लोग बच्चों के साथ घूमने निकलते हैं, तो उनकी फरमाइशें भी पूरी करनी ही होती हैं। मूर्तियां बनाने के लिए बांसों का एक ढांचा तैयार किया जाता है। इसके बाद सूखी घास और पुआल से इसे एक आकार देने की कोशिश की जाती है। इसके ऊपर गीली मिट्टी लगा कर कलाकार प्रतिमा को ठोस रूप देते हैं। मिट्टी सूखने के बाद इसकी रंगाई होती है। पहले प्रमुख हिस्सों को रंगा जाता है। इस पर चमकीले रंग या लेप भी लगाए जाते हैं। इसके बाद इसे कपड़ों, गहनों, झालरों आदि से सजाया जाता है। अामतौर पर हर साल दूर्गा पूजा की कोई खास थीम होती है, उसी के आधार पर कलाकार देवी की प्रतिमाएं बनाते हैं। 

शिल्प का सम्मान कम हुआ

झंडेवालान के लंबे-चौड़े राजस्थानी परिवार के अलावा हम बात करते हैं फरीदाबाद के सेक्टर 16 स्थित कालीबाड़ी के मूर्तिकार प्रद्युत कुमार पाल से, जो मूर्तियां बनाने के लिए पूरे देश में भ्रमण करते हैं। मूल रूप से पश्चिम बंगाल के बर्धवान जिले के निवासी प्रद्युत कहते हैं, ‘‘कोरोना ने हमारे काम पर बुरा असर डाला है। हम कुम्हार जाति से आते हैं और यह हमारी खानदानी कला है। हमारे दादा जी के जमाने से अब तक इस शिल्प में बहुत बदलाव आए हैं। पहले कला और कलाकारों का लोग सम्मान करते थे, कलाकार भी अपनी कला को ईश्वर की आराधना समझते थे, मगर आज का कलाकार कला को बिजनेस की तरह समझता है। कला उसके लिए पैसा कमाने का जरिया है। हमारी पीढ़ी के लोग कला के प्रति प्रतिबद्ध थे। मेरे दादा जी कहा करते थे कि यह कला है, इसलिए जब मूड हो और पूरे समर्पण के साथ इसमें लग सको, तभी इसे करो। यह भगवान की पूजा है, जिसके लिए पूरी एकाग्रता, तल्लीनता, आध्यात्मिकता और ध्यान चाहिए।’’

प्रद्युत कुमार कहते हैं, ‘‘अब जो हाल है, हमारे बच्चे शायद ही यह काम करना चाहें। मेरे भाई का एक बेटा पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहा है और वह इस काम को नहीं करना चाहता, क्योंकि उसे लगता है कि इससे घर चलाना मुश्किल है। पिछले कुछ सालों से हमारे काम में मंदी ही रही है, जो कोरोना काल में बुरी तरह प्रभावित हुई है। दो-तीन साल पहले तक हमारे पास सितंबर महीने के पहले हफ्ते तक कम से कम 30-35 डिमांड आ जाती थीं। पूजा पंडालों से बहुत काम मिलता था, लेकिन इस साल अभी तक सिर्फ 15 अॉर्डर ही मिले हैं। दुख की बात यह है कि सरकारें हमारे जैसे कलाकारों के बारे में नहीं सोच रही हैं। हमने अपने काम में कहीं कोई कमी नहीं की, कभी ये नहीं सोचा कि किसी का नुकसान हो, लेकिन मार्केट की प्राथमिकताएं अब बदल गयी हैं। पुआल, रस्सी, रंग-रोगन और सजावट के सारे सामान महंगे हो गए हैं, ग्राहक पैसा खर्च करने में बहुत सोचते हैं। ऐसे में कलाकारों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है।’’

यह सच है कि कलाकारों के सामने अभी संकट है। फिलहाल दो से चार फिट तक की प्रतिमाएं ही बिक पा रही हैं। बहुत कम अॉर्डर मिल रहे हैं। कोई भी जोखिम उठाने की हालत में नहीं है। इसलिए ये सभी छोटी-छोटी प्रतिमाएं ही बना रहे हैं, जिन्हें लोग घर में रख सकें। कई कलाकार गुजर-बसर के लिए कोई दूसरा काम भी कर रहे हैं। कोई फूल-पौधे बेच रहा है, तो कोई बच्चों के सामान बेच रहा है। कोई कला के दूसरे माध्यम तलाश रहा है। फिर भी इन्हें उम्मीद है कि स्थितियां बदलेंगी। कोरोना एक दिन चला जाएगा और फिर से जीवन की खुशियां लौटेंगी, लोग पहले की तरह खरीदारी करेंगे, पर्व मनाएंगे।

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