आज पूरे विश्व में महिला सशक्तीकरण की दिशा में कई कदम उठाए जा रहे हैं, ऐसे में एक और कदम किसी ने उठा लिया, तो क्या फर्क पड़ गया। लेकिन जब बात धुन की पक्की और हौसले की धनी सृष्टि बक्शी की हो, तो फिर आपको सोचना होगा कि इन्होंने ऐसा क्या कर दिखाया कि पूरा विश्व इनकी वाह-वाह कर रहा है। हम बात कर रहे हैं, उस सृष्टि बक्शी की, जिसने दुनिया को यह बताया कि बंद कमरों में बैठ कर पाॅलिसी बनाने से कुछ बदलाव नहीं आता, बल्कि बदलाव लाने के लिए आपको खुद लोगों के बीच में जाना होता है, धूप में तपना, बारिश में गलना और ठंड में ठिठुरना होता है। इसी सोच के साथ सृष्टि ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक की पैदल यात्रा की, जो लगभग 3800 किलोमीटर की थी और जिसे पूरा करने में इन्हें 240 दिन लगे।
शुरुअात के वे दिन
पति के साथ हांगकांग में खुशहाल जीवन बितानेवाली सृष्टि को हमेशा यह बात अखरती थी कि अपने कलीग्स के साथ जब भी वे भारत की बात करती थीं, तो वे लोग हमेशा इसे महिलाओं के लिए अनसेफ ही बताया करते थे। फिर एक बार अखबार में एक गैंग रेप केस के बारे में पढ़ा, जिसमें एक मां-बेटी का सामूहिक बलात्कार किया गया था। अभी तक अपना गुस्सा सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए निकालनेवाली सृष्टि को लगने लगा कि अगर बदलाव लाना है, तो कुछ करके दिखाना होगा।
सृष्टि का कहना है, ‘‘इस घटना के बाद से मुझे लगने लगा था कि मुझे भी महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तीकरण के मुद्दे पर कुछ ना कुछ करना ही होगा। तभी आइडिया आया कि क्यों ना लोगों को जागरूक बनाने और अपने साथ जोड़ने के लिए लंबी वाॅक की जाए, वैसे गुस्सा शांत करने के लिए वॉक करने का सुझाव लोग देते ही हैं,’’ सृष्टि हंसते हुए बताती हैं। और इस तरह शुरू हुआ सृष्टि का वह मिशन, जिसने सृष्टि को चैंपियन फाॅर चेंज का खिताब दिलवा दिया। आज इस हौसले से लबरेज युवती को पूरी दुनिया पहचानती है। सृष्टि पर बनी डॉक्यूमेंट्री वुमन आॅफ माई बिलियन इसी महीने मेलबर्न में होनेवाले इंडियन फिल्म फेस्टिवल में ओपनिंग नाइट फिल्म के तौर पर चुनी गयी है। सृष्टि का कहना है, ‘‘जब आप जॉगिंग, स्केटिंग, साइकिलिंग करते हैं, तो लोग आपके साथ नहीं चल पाते, जबकि जब आप पैदल चलते हैं, तो लोग आपके साथ जुड़ते हैं, बात करते हैं और साथ चलते भी हैं। वैसे भी हमारे देश में लोग अच्छी सेहत और एक-दूसरे से मिलने-जुलने, बतियाने के लिए वॉकिंग करते ही रहे हैं। मेरे साथ 4 साल के बच्चे से लेकर 90 वर्ष के बुजुर्ग सभी ने कदम मिलाए हैं।’’
आशा वर्कर ने दूर की निराशा
सृष्टि ने खुद को इस मिशन के लिए कड़ी ट्रेनिंग के जरिए तैयार किया। हालांकि उस समय यह नहीं पता था कि शारीरिक रूप से एक चैलेंज होने के साथ-साथ यह इमोशनली ज्यादा तोड़ेगा। ‘‘अपने इस सफर में मैंने ऐसे-ऐसे किस्से सुने, हिंसा, प्रताड़ना, शोषण, दर्द के ऐसे चेहरे देखे कि कई बार यह लगा कि यह दुनिया रहने लायक ही नहीं है। मध्य प्रदेश के देवल गांव में एक 13 साल की लड़की को सामूहिक बलात्कार के बाद जिंदा जला दिया गया था। उसके परिवार से मिलने के बाद मैं बहुत परेशान हुई, वह दिन मेरी जिंदगी का सबसे निराशा भरा दिन था।
इससे पहले कि मैं अपना मिशन बीच में छोड़ने के फैसले पर पहुंच पाती, एक आशा वर्कर से मुलाकात हुई, जिसके शरीर पर पिटाई के निशान थे। उसने अकेले में आ कर मुझसे कहा, ‘‘आपको पता है ना मेरे साथ क्या हुआ है। आपको देख कर मुझे यह लगता है कि आज के बाद मेरे साथ यह कभी नहीं होगा।’’ उसकी कंपकंपाती आवाज में मेरे लिए एक भरोसा था, जिसने मेरी निराशा को आशा में बदल दिया।
चाहे कन्याकुमारी हो या कश्मीर या फिर विदेश हर जगह हिंसा की एक ही भाषा है। हमारे देश में एक राज्य दूसरे राज्य के मुकाबले ज्यादा पढ़ा-लिखा हो सकता है, ज्यादा अमीर हो सकता है, लेकिन हर जगह मुद्दा वही है, घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना, बलात्कार, लैंगिक असमानता, एसिड अटैक, अल्कोहल एब्यूज हर जगह देखने को मिले। कई लड़कियों ने रोते-रोते जब अपने साथ हुई हिंसा की कहानी बतायी, तो रोंगटे खड़े हो गए।
सशक्तीकरण का लाइटबल्ब
‘‘महिलाओं को सशक्त बनाने में डिजिटल और फाइनेंशियल इंडिपेंडेंस का भी बहुत बड़ा योगदान है। मुझे इसका महत्व तब महसूस हुआ,जब मैं हांगकांग में रहते हुए बंगाल की एक महिला सुचित्रा से मिली। वह घरेलू हिंसा से तंग आ कर हाॅन्गकाॅन्ग आयी थी और किसी घर में बतौर मेड काम करती थी। फोन पर उसने कुकरी से जुड़े वीडियोज देखने शुरू किए और कुछ ही महीनों में हजारों वीडियोज देख डाले और आज वह एक सफल शेफ है। वह अब पार्टी और इवेंट्स आॅर्गेनाइज करती है, जिसमें वह हर तरह का खाना बना सकती है। इस एक घटना को मैं अपनी जिंदगी का लाइटबल्ब मोमेंट कह सकती हूं, जिसने मुझे यह सिखाया कि सिर्फ लड़कियों को पढ़ाना ही काफी नहीं है,बल्कि उन्हें आज के समय में डिजिटली और फाइनेंशियली स्ट्राॅन्ग बनाना भी जंरूरी है। इसी तरह तमिलनाडु की एक महिला मुझे मिली, जिसने परिवार के भरण-पोषण के लिए वाॅट्सएप ग्र्रुप बना कर कपड़े बेचने शुरू किए और आज वह रेडीमेड गारमेंट्स की अपनी दुकान चला रही है। सृष्टि जब लोगों से मिलती हैं, तो उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्ते तो करती हैं, साथ ही दोनों हाथों को मोड़ कर एक साइन भी बनाती हैं। इसका मतलब है कि वी आर इक्वल यानी हम समान हैं। लड़के- लड़कियों के बीच कोई भेदभाव नहीं है।
यों बन गया कारवां
अपने इस सफर में सृष्टि को ऐसे लोग भी मिले, जिन्होंने उनके आइडिया की खिल्ली उड़ायी और ऐसे भी लोग हैं, जो उनके साथ जुड़ कर उनकी मदद करते रहे। तेलंगाना के आईएएस आॅफिसर से ले कर अाशा वर्कर्स, आंगनवाड़ी वर्कर्स और पुलिसवाले, सभी ने समय-समय पर सृष्टि को आंखें खोलनेवाले अनुभव दिए। दर्द बांटने की इस प्रक्रिया में कुछ लोग ऐसे जुड़े, जो अब इनके सफर को अगले मुकाम पर ले जाने में साथ चल रहे हैं। एसिड अटैक सर्वाइवर प्रज्ञा, जो आज खुद एसिड अटैक की शिकार महिलाओं की मदद कर रही हैं। इन लोगों को कोई नौकरी नहीं देता, जबकि कई वादे किए जाते हैं। घरेलू हिंसा की शिकार संगीता, जिसके पिता ने शादी से एक दिन पहले उसकी सारी किताबें जला दी थीं, लेकिन आज वह एक सफल सर्जन है और हमारे साथ मिल कर बदलाव लाने को तत्पर है। 3800 किलोमीटर चलने के बाद सृष्टि का मकसद अब एक अरब स्टेप्स पूरा करने का है, जिसमें आप भी डिजिटली जुड़ सकते हैं। फिलहाल ये लोग हैदराबाद की एक आॅर्गेनाइजेशन मोवो के साथ जुड़ कर काम कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य महिलाओं को आॅटो, डिलीवरी सर्विसेज में शामिल करवाना है।