आज आकांक्षा अग्रवाल, सधे हुए शब्दों में उत्साह से अपने जीवन की विसंगतियों के साथ-साथ कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, पेटेंट जैसे गूढ़ विषयों की बतौर प्रोफेशनल लॉयर जानकारी देती हैं। यही आकांक्षा जब 1984 में पैदा हुई थीं, तो चारों ओर शंकाओं के बादल घिर आए थे। उंगलियां आपस में जुड़ी हुईं, और भी बहुत कुछ असामान्य था। आकांक्षा का जन्म एपर्ट सिंड्रोम के साथ हुआ था। यह सिंड्रोम एक रेयर जेनेटिक कंडीशन है, जिसमें शिशु की आंखें बाहर की ओर निकली हुई होती हैं और स्कल, फेस, हाथ और पैरों की बनावट में फर्क होता है।
आकांक्षा बताती हैं, ‘‘मेडिकल साइंस के मुताबिक हर साल जीवित पैदा हुए 88,000 बच्चों में इन असामान्यताओं के साथ 1 बच्चा पैदा होता है, लेकिन मैंने आज तक अपने जीवन में सिर्फ 3 बच्चे देखे हैं। ऐसे बच्चे को समाज क्या, परिवार भी स्वीकार नहीं करता। मेरे लिए अच्छी बात यह थी कि मेरे फादर डॉक्टर हैं। उन्होंने देश-विदेश के सबसे योग्य डॉक्टरों से मेरी सर्जरी करायी।। मेरी 26 सर्जरी हुईं। उन दिनों मां-पिता जी के साथ मेरी नानी ने बहुत देखभाल की।’’
संघर्ष को जीवन का साथी मानने वाली आकांक्षा का बचपन वाकई मुश्किलों भरा रहा। चाहे स्कूल में एडमिशन की बात हो या कॉलेज में क्लासेस करना, हर जगह आकांक्षा ने लोगों की हिकारत भरी नजरों का सामना किया, अवहेलना झेली, नकारी गयी, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। स्कूल में एडमिशन के समय कहा जाता था कि इसे स्पेशल स्कूल में भेजो। वे कहती हैं, ‘‘मैंने कभी भी जीवन में हार नहीं मानी। नानी ने मुझे हमेशा सिखाया कि जिंदगी में कभी भी हार नहीं मानना। मुझे किसी भी उलझन से उबरने में बस आधा घंटा लगता है और मैं फिर मैं उसी जोश के साथ काम पर जुट जाती हूं। हर मुश्किल को हंस कर आसां कर लेती हूं।’’
आज सामान्य जीवन व्यतीत कर रही आकांक्षा ने बताया कि मैसूर में एक स्कूल ने एपर्ट सिंड्रोम की एक बच्ची को एडमिशन देने से मना कर दिया था। उस बच्ची का पिता बेटी के नॉर्मल ना होने के कारण उसे छोड़ कर चला गया था। उस बच्ची की मां आकांक्षा से फेसबुक के माध्यम से मिली। आकांक्षा ने उनकी मुश्किलों को समझ कर अपनी हर कोशिश कर स्कूल को कन्विंस किया कि अगर मैं इतना पढ़-लिख सकती हूं, तो यह बच्ची क्यों नहीं। आखिरकार उसका एडमिशन स्कूल में हो गया।
आकांक्षा का एकेडमिक कैरिअर भी काफी उम्मीदों भरा रहा है। बताती हैं, ‘‘मैंने दिल्ली के एलएसआर कॉलेज से सोशियोलॉजी में बैचलर्स किया, फिर मास्टर्स दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से किया। उसके बाद एक लॉ फर्म जॉइन की। वहीं एक बुजुर्ग सहकर्मी ने मुझे प्रोत्साहन दिया कि मैं लॉ करूं। फिर मैंने एलएलबी किया, पर साथ में काम भी करती रही। मैंने महसूस किया कि महिलाओं के लिए लॉ फील्ड बहुत सुरक्षित नहीं है, तो फिर मैंने कॉपीराइट ऑफिस जॉइन किया। वहां से मेरे जीवन को नयी दिशा मिली। मैंने जाना कि मेरा असली पैशन क्या है। मैंने कॉपीराइट, आईपीआर, पेटेंट वगैरह की पूरी जानकारी हासिल की। बीस लोगों की टीम में मैं वहां हमेशा फर्स्ट 3 में रही।’’
कॉपीराइट के बारे में विस्तार से बात करती हुई आकांक्षा कहती हैं, ‘‘कोई लेखक कुछ लिखता है और प्रकाशित कराता है। अगर उसका कॉपीराइट नहीं हुआ, तो कोई और उसे अपने नाम से प्रकाशित करा सकता है। लेकिन अगर लेखक ने कॉपीराइट करा रखा है, तो वह कोर्ट में जा सकता है और कह सकता है कि यह रचना मेरी है और यह इसका कॉपीराइट सर्टिफिकेट और रजिस्ट्रेशन नंबर है। बौद्धिक संपदा भवन में 3 साल के कार्यकाल
में लोग मुझसे सीधे मिलने आने लगे। मेरा काम करने का तरीका उन्हें पसंद आता था। मैं अब तक 25 कॉपीराइट और 22 ट्रेडमार्क रजिस्टर करा चुकी हूं।’’
उनके पिता जी ने संशय जताया था कि क्या वे यह काम स्वतंत्र रूप से कर पाएंगी, तो उन्होंने अपने पिता को भरोसा दिलाया कि उन्हें एक साल का समय दें। अगर वे कर पाती हैं तो ठीक है, वरना पिता जैसा कहेंगे, वे वही करेंगी। उन्हें खुद पर यकीन था और यही यकीन उनके साथ जुड़ कर काम कराने वालों में भी दिखता है। डॉ. सुजाता शर्मा राहत चैरिटेबल ट्रस्ट की फाउंडर हैं। वे मेडिकल साइकोलॉजिस्ट हैं, उन्होंने सिजोफ्रेनिया, बाइपोलर डिस्ऑर्डर और डिप्रेशन जैसे विकारों के उपचार के लिए 11 गेम्स डेवलप किए हैं, जिनका उन्होंने कॉपीराइट कराया है। फिर एक ब्रांड ले कर आयीं, जिसका ट्रेडमार्क रजिस्टर करवाया।
आकांक्षा बेहद प्रोफेशनल तरीके से काम करती हैं, ‘‘जैसे ही कोई क्लाइंट मुझसे जुड़ता है, मैं एक वॉट्सएप ग्रुप बना देती हूं। अगर चार लोग आपके ऑर्गेनाइजेशन में हैं, तो चारों उस वॉट्सएप ग्रुप में होंगे। उस ग्रुप में केस के स्टेप बाई स्टेप प्रोसिजर और काम कितना आगे बढ़ा, इसकी जानकारी अपडेट करती रहती हूं। इससे पारदर्शिता रहती है और क्लांइट को भरोसा रहता है कि उसका काम चल रहा है। वह इन्वॉल्व रहता है। जिस दिन कॉपीराइट या ट्रेडमार्क का सर्टिफिकेट मेरे पास आता है, मैं उसी दिन वॉट्सएप ग्रुप में अपलोड कर देती हूं। मेरे बिजनेस का मूल मंत्र है सिंसियरिटी, ऑनेस्टी और ट्रांसपेरेंसी।’’
आकांक्षा का क्लाइंट से संपर्क करने का तरीका भी अलग है। वैसे तो वकीलों को अपनी पब्लिसिटी करना मना है, लेकिन वे क्या काम करते हैं, यह बता सकते हैं। उन्होंने एक मैसेज बनाया, जिसमें अपने काम के बारे में बताया था। इसका फायदा उन्हें मिला और अभी तक उनके कई क्लांइट बन चुके हैं। इन्हें आसानी से काम मिल जाता हो, ऐसा नहीं है। सबसे पहले तो लोग उनके आम इंसान से फर्क होने के कारण भरोसा नहीं कर पाते कि क्या वाकई वे यह काम कर पाएंगी। कोरोना काल में फोन कॉल्स या वीडियो कॉल्स से ही क्लांइट से बातें हो पाती थीं, जिससे यह भरोसा और देर से बनता था।
कुछ क्लांइट उन्हें ऐसे भी मिले, जो किसी और से सस्ता काम करवाने के चक्कर में अपना केस खराब कर बैठे थे और आखिरकार उन्होंने आकांक्षा से अपना काम करवाया। उनकी फील्ड में कई लोग ऐसे हैं, जो क्लाइंट से एक बार में पूरी फीस ना ले कर टुकड़ों में लेते हैं और अकसर उनसे कहीं ज्यादा वसूल लेते हैं। इस फील्ड की बारीक से बारीक बात पर आकांक्षा ध्यान देती हैं, जिससे क्लांइट का काम कहीं फंसता नहीं है। वे ऐसे ही एक क्लांइट के बारे में बताती हैं कि 1995 की एक कंपनी के लाेग उनके पास ट्रेडमार्क करवाने आए। आकांक्षा को शक हुआ कि इतनी पुरानी कंपनी है, अभी तक ट्रेडमार्क क्यों नहीं कराया। उन्होंने सर्च किया, तो पाया कि वे इसके लिए आवेदन कर चुके थे, जो रिजेक्ट हो चुका था। जब उन्होंने यह बात क्लांइट को बतायी, तो वे इंप्रेस हुए और उन्हें भरोसा हो गया कि उनका काम हो जाएगा। दरअसल, इन कामों में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। ये सारे काम व्यक्ति आमतौर पर स्वयं नहीं कर पाता, उसे प्रोफेशनल की मदद लेनी ही पड़ती है।
सामान्य से इतर व्यक्तित्व की आकांक्षा को कुदरत ने जो नहीं नवाजा, उसे इन्होंने अपनी सकारात्मक सोच से हासिल कर लिया और ऐसे तमाम स्पेशल चाइल्ड व उनके परिवारों के लिए मिसाल बन गयी हैं, जो खुद को या अपने बच्चे को अक्षम मानते हुए उसे आगे बढ़ने की राह नहीं सुझाते हैं। इन्हें देख कर, इनसे मिल कर यही कहा जा सकता है कि किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार...