
हम रोज अपने कंप्यूटर या मोबाइल फोन से पुराने फोल्डर्स, फाइल्स, डॉक्यूमेंट्स, फालतू के मैसेजेस, पिक्चर्स डिलीट करते हैं। कभी हार्ड डिस्क फुल हो जाती है, तो बहुत कुछ डिलीट करना पड़ता है ताकि सॉफ्टवेयर ठीक से काम कर सके। हम समय-समय पर ऐसा करते रहते हैं ताकि जरूरी मेल्स, फोल्डर्स या फाइल्स हमारे पास रहें, बाकी को रीसाइकिल बिन के हवाले कर देते हैं।
हमारी जिन्दगी भी कंप्यूटर सिस्टम की तरह है, दिमाग में ढेर सारी मेमोरीज होती हैं। अलग-अलग फोल्डर्स में दुख-सुख, घटनाओं-दुर्घटनाओं, उपलब्धियों-विफलताओं, प्यार-विश्वासघात, प्रसन्नता-अवसाद, गर्व-पछतावा, प्रेम-नफरत, सहृदयता-ईर्ष्या, सुरक्षा-असुरक्षा जैसी तमाम स्मृतियां कैद रहती हैं। यहां भी समय-समय पर पुरानी फाइल्स को डिलीट करना होता है, ताकि नयी चीजों के लिए जगह बन सके। हालांकि दिमाग की स्टोरेज अनलिमिटेड होती है, उसकी रैम कभी फुल नहीं होती मगर विचारों-स्मृतियों की अंतहीन भूलभुलैया में कभी-कभी वह हैंग तो हो ही सकता है।
यादों की टेंपरेरी फाइल्स
हम सबके पास अतीत की कई यादें होती हैं, कुछ खुशनुमा तो कुछ बुरी। बचपन का कोई शॉक, ब्रेकअप, दुर्घटना, एब्यूसिव रिलेशनशिप, असमय किसी किप्रयजन की मौत या कोई बड़ा लॉस। इनसे उबरने में लंबा समय लग जाता है, फिर भी गाहेबगाहे ये स्मृतियां कचोटती रहती हैं। हालांकि दिमाग की अच्छी बात यह है कि बुरी मेमोरीज वह खुदबखुद डिलीट करता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि यादों की फाइल्स टेंपरेरी होती हैं और ज्यादातर यादें वक्त के साथ इरेज होने लगती हैं। पिछले कुछ दशकों में न्यूरोलॉजिकल स्कैनिंग टेक्नोलॉजी में जितनी तरक्की हुई है, उसने बुरी यादों को डिलीट करना आसान भी बना दिया है।
सबक - इंसान अतीत में नहीं जी सकता। यादें चाहे जितनी अच्छी या बुरी हों, जीना उसे वर्तमान में ही है, लिहाजा सोच के केंद्र में वर्तमान ही रहे, तो अच्छा है।
मेमोरी की स्टोरेज
जब हम यादों को डिलीट करने के बारे में सोच रहे हैं, तो यह भी जानना जरूरी है कि यादें बनती कैसे हैं। पहले विशेषज्ञ मानते थे कि मेमोरीज किसी खास जगह पर स्टोर होती हैं- न्यूरोलॉजिकल फाइल केबिनेट की तरह। लेकिन शोधों के बाद पता चला कि यादों का सीधा कनेक्शन ब्रेन से है। किसी चीज को याद करने के लिए दिमाग एनकोडिंग, स्टोरेज और रिट्रीवल जैसे स्टेप्स से गुजरता है। दरअसल, दिमाग कई तरह के न्यूरॉन्स या ब्रेन सेल्स से मिलकर बनता है, न्यूरॉन्स एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। कोई भी नयी जानकारी या घटना इन्हीं न्यूरॉन्स के नेटवर्क में जाती है, लेकिन घटनाएं फिल्टर भी होती हैं। मतलब यह कि ब्रेन में मौजूद हिप्पोकैंपस और फ्रंटल कॉर्टेक्स के जरिये दिमाग यह जान पाता है कि कौन सी यादें रखनी हैं, किन्हें बाहर निकाल देना है। एक तरह से हिप्पोकैंपस कंप्यूटर की हार्डडिस्क की तरह काम करता है। एनकोडिंग के जरिए मेमोरी बनती है, फिर इनकी स्टोरेज होती है। पहले स्टेप में घटनाएं शॉर्ट टर्म मेमोरी में स्टोर होती हैं, फिल्टर करने के बाद महत्वपूर्ण चीजें लॉन्ग टर्म स्टोरेज में जमा होती हैं। तीसरी प्रक्रिया होती है रिट्रीवल की, यानी जब हम किसी घटना को याद करने की कोशिश करते हैं तो स्टोरेज में मेमोरी को रिट्रीव या रिकॉल करते हैं।
सबक - दिल-दिमाग को पता होता है कि किस चीज को स्टोर करना है, किसे बाहर करना है। ये चीजें इनबिल्ट हैं तो फिर बहुत कुछ अच्छे-बुरे में दिमाग काे फालतू क्यों खपाया जाए !
शिफ्ट, कंट्रोल, डिलीट

किसी घर में कोई बुरी घटना होती है तो परिजनों की कोशिश होती है कि एक साल के भीतर ही कुछ सकारात्मक हो या कोई आयोजन किया जाए ताकि बुरी यादों से उबरा जा सके। जब कुछ अच्छा होता है, तो बुरी घटनाओं या लोगों के प्रति दृष्टिकोण भी बदल जाता है। रिसर्चर्स की मानें, तो यहां यादों का प्रभावी होना मायने रखता है। यानी अच्छी-बुरी, दोनों तरह की यादें दिमाग में अपना सर्किट बनाती हैं। वैज्ञानिकों ने इंसानों में मेमोरीज ट्रांसफर करने, उन्हें शिफ्ट, कंट्रोल और डिलीट करने में सफलता पायी है। यानी नकारात्मक यादों को उससे जुड़े नर्व सेल्स को उत्तेजित कर दवाओं से मिटाया जा सकता है या इनके माध्यम से मेमोरीज की एडिटिंग की जा सकती है। खासतौर पर डिमेंशिया, डिप्रेशन, अल्जाइमर, एंग्जाइटी, पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस जैसे तमाम मामलों में मेमोरी एडिटिंग जैसे प्रयोग किए जा रहे हैं। हाल की बात करें, तो ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में इसे लेकर बड़ा शोध हो चुका है और इसमें दावा किया गया है कि एक ऐसा प्रोटीन है, जो बुरी यादों को मिटाने में कारगर साबित हो सकता है।
सबक - इंसान चाहे तो बुरी यादों, पछतावे की भावना या गलत निर्णयों से जुड़ी स्मृतियों को ना सिर्फ शिफ्ट या कंट्रोल कर सकता है, जरूरत पड़ने पर डिलीट भी कर सकता है।