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एक दौर था जब संतानहीन दंपति आईवीएफ यानी इन-विट्रो फर्टिलाइज़ेशन को आखिरी विकल्प के तौर पर देखते थे। लेकिन अब यह तकनीक न सिर्फ मातृत्व का रास्ता आसान बना रही है, बल्कि बच्चों को जन्म से पहले बीमारियों से बचाने का भी दावा कर रही है। और इसी में तकनीक का रोल शामिल हो गया है। वही तकनीक जो पूरी दुनिया बदल रही है – आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस।

एआई अब आईवीएफ को सिर्फ इलाज नहीं, बल्कि एक संभावित "चयन प्रक्रिया" बना रहा है। सवाल उठता है — क्या एआई हमें ऐसा डिजाइनर बेबी बनाने की ओर ले जा रहा है, जो न सिर्फ स्वस्थ हो बल्कि 'परफेक्ट' भी हो? और अगर हां, तो क्या ये नैतिक रूप से सही है?

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डॉ. गौरी अग्रवाल, यशोदा अस्पताल की जानी मानी आईवीएफ और सरोगेसी विशेषज्ञ और सीड्स ऑफ इनोसेंस की संस्थापक हैं मानती हैं कि आईवीएफ अब सिर्फ अस्पताल तक सीमित नहीं रहा। “होम आईवीएफ और एआई जैसी तकनीकों से हम दूर-दराज़ के इलाकों में बैठे दंपत्तियों तक इलाज पहुंचा पा रहे हैं। एआई आधारित टूल्स भ्रूण की क्वालिटी को बेहतर ढंग से समझने में मदद करते हैं। एक महिला ने बिहार के पश्चिम चंपारण जिले से होम आईवीएफ के जरिए सिर्फ दो बार क्लिनिक आए बिना जुड़वां बच्चों को जन्म दिया। यह दर्शाता है कि तकनीक कैसे भौगोलिक सीमाओं को तोड़ रही है।”

भ्रूण चयन में एआई की भूमिका

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आईवीएफ के दौरान कई भ्रूण बनाए जाते हैं। पहले डॉक्टर अपने अनुभव और जांच के आधार पर तय करते थे कि कौन सा भ्रूण गर्भ में रखने लायक है। लेकिन अब एआई यह काम और भी सटीकता से कर रहा है।

एआई भ्रूण की तस्वीरें, कोशिकाओं की गति, विकास की रफ्तार और कई बारीक से संकेतों को देखकर यह अनुमान लगाता है कि कौन सा भ्रूण गर्भवती होने और एक स्वस्थ बच्चे में बदलने की सबसे ज्यादा संभावना रखता है। इससे आईवीएफ की सफलता दर बढ़ती है, और परिवार के लिए मानसिक और आर्थिक बोझ कम होता है।

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क्या सच में जन्म से पहले ही बीमारियों का पता संभव?

आईवीएफ में अब जेनेटिक टेस्टिंग भी एक अहम हिस्सा बन गया है। इसमें भ्रूण के डीएनए की जांच कर यह पता लगाया जाता है कि उसमें कोई अनुवांशिक बीमारी जैसे थैलेसीमिया, डाउन सिंड्रोम, सिस्टिक फाइब्रोसिस आदि तो नहीं है।

क्या मानसिक बीमारियों की भी जांच मुमकिन है?

यह एक उभरता हुआ सवाल है। कुछ शोधकर्ता अब भ्रूण में मौजूद जीन की जांच करके यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि उस बच्चे में ऑटिज़्म, डिप्रेशन या अन्य मानसिक समस्याओं की संभावना कितनी है।

हालांकि यह तकनीक अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुई है और न ही इसे नैतिक या कानूनी रूप से हर देश में स्वीकार किया गया है। लेकिन यह जरूर सोचने वाली बात है कि अगर भविष्य में यह संभव हो जाए तो हम कहां तक जाएंगे?

डिजाइनर बेबी – परफेक्शन की खोज या नैतिक संकट?

जब हम भ्रूण की जांच करके यह तय करने लगते हैं कि कौन जन्म ले और कौन नहीं, तो क्या हम प्रकृति के काम में हस्तक्षेप कर रहे हैं? अगर कोई माता पिता मांग करने लगें और डॉक्टर से ये कहें कि उन्हें नीली आंखों वाला, लंबा और बुद्धिमान बच्चा चाहिए, और एआई व जेनेटिक इंजीनियरिंग ऐसा संभव बना दें—तो क्या यह डिजाइनर बेबी बनाने की शुरुआत नहीं होगी?

भारत में भ्रूण लिंग जांच जैसी प्रक्रिया पर पहले से ही प्रतिबंध है। ऐसे में यह नया सवाल और गंभीर हो जाता है।

अगर समाज में "बेहतर" जीन वाले बच्चों को प्राथमिकता दी जाने लगे तो क्या इससे सामाजिक भेदभाव नहीं बढ़ेगा?

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क्या यह इंसानी गरिमा के खिलाफ नहीं है कि हम किसी को जन्म से पहले 'योग्य' या 'अयोग्य' घोषित कर दें?

अगर अनुमान सटीक नहीं हुए तो गलती एआई की या डॉक्टर की ?

एआई की मदद से जन्म से पहले बीमारियों से बचाव करना एक सकारात्मक और जिम्मेदार कदम हो सकता है। लेकिन अगर इसका इस्तेमाल 'परफेक्शन' के लिए होने लगे तो यह एक खतरनाक मोड़ भी बन सकता है।

विदेशों में आईवीएफ और एआई का इस्तेमाल और भारत की स्थिति

अमेरिका, ब्रिटेन और जापान जैसे देशों में आईवीएफ के साथ एआई का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है। वहां क्लिनिक एआई की मदद से ये पता लगाने लगे हैं कि किस भ्रूण में आगे चलकर कोई बीमारी जैसे डायबिटीज़, दिल की बीमारी या मानसिक तनाव होने का खतरा है या नहीं। ब्रिटेन में आईवीएफ से जुड़े नियम एक सरकारी संस्था HFEA देखती है, जो तय करती है कि एआई का उपयोग कब और कैसे किया जाए। चीन में भी एआई और भ्रूण चयन यानी एंब्रयो सिलेक्शन पर खूब रिसर्च हो रही है।

भारत में भी आईवीएफ क्लिनिक अब एआई की मदद लेने लगे हैं, लेकिन यहां इस पर कानून भी हैं। एआरटी (ART) रेगुलेशन एक्ट 2021 और सरोगेसी एक्ट 2021 आईवीएफ से जुड़ी बातों को कंट्रोल करते हैं। भारत में भ्रूण के जीन बदलना या डिजाइनर बेबी बनाना अभी कानूनी रूप से मना है। लेकिन जैसे-जैसे तकनीक आगे बढ़ रही है, हमें ऐसे नियम चाहिए जो तकनीक और नैतिकता, दोनों का ख्याल रखें।

एआई और आईवीएफ का मेल एक नई क्रांति की तरह है। इससे संतानहीन दंपत्तियों को नई आशा मिल रही है, बीमारियों से लड़ने की ताकत मिल रही है और इलाज की पहुंच और बेहतर हो रही है।

लेकिन इसका इस्तेमाल सोच-समझकर, संवेदनशीलता और नैतिकता के साथ करना ज़रूरी है। विज्ञान हमें रास्ता दिखाता है, लेकिन मंज़िल तक जाने का तरीका हमें खुद तय करना होता है।

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