मधुमेह यानी डाइबिटीज, हमारी मॉडर्न लाइफस्टाइल की देन है। पैंक्रियाज में बनने वाला इंसुलिन अगर किसी वजह से कम बने, ना बने या बने, पर ठीक से अपना काम ना कर पाए तो भोजन के द्वारा लिया गया शुगर ब्लड में मिल जाता है, जिससे डाइबिटीज हो सकती है। इंसुलिन की गड़बड़ी हमारे शरीर में कई तरह की दूसरी गड़बडि़यां पैदा कर देती हैं, जो कई रोगों का कारण बनती हैं। डाइबिटीज का उपचार एलोपैथ के अलावा आयुर्वेद और होम्योपैथ में भी हो सकता है। दिल्ली डाइबिटीज एजुकेशन एंड रिसर्स फाउंडेशन, नयी दिल्ली के चेअरमैन डॉ. अशोक कुमार झिंगन, मुंबई के आयुर्वेदाचार्य डॉ. रवि कोठारी और दिल्ली के सीनियर होम्योपैथ डॉ. एसपी जोशी ने डाइबिटीज से बचने और इसके उपचार के बारे में बताया है।
क्या है प्री डाइबिटीक कंडीशन
डॉ. अशोक कुमार झिंगन कहते हैं कि आज देश में जितने लोग डाइबिटीज के मरीज हैं, उससे तकरीबन डेढ़ गुना ज्यादा लोग प्री डाइबिटीक कंडीशन में हैं। मेडिकल स्टैंडर्ड के मुताबिक हम मान कर चलते हैं कि फास्टिंग शुगर 126 से नीचे और खाना खाने के बाद 180 होना चाहिए। अगर किसी व्यक्ति का खाली पेट शुगर का लेवल 124-125 हो और खाने के बाद 175-176 हो तो यह नॉर्मल लेवल नहीं है। ये वे लोग होते हैं, जिनकी फैमिली हिस्ट्री रही है या हाई ब्लड प्रेशर और हाई कोलेस्ट्रॉल से पीड़ित हैं या मोटे हैं। जो महिलाएं पीसीओडी से पीड़ित हैं, वे भी प्री डाइबिटीक स्टेज में हो सकती हैं। जिन महिलाओं में 16-17 साल की उम्र में वेट बढ़ने लगता है, फेशियल हेअर ग्रोथ होती है, पीरियड्स अनियमित होने लगते हैं तो उनमें मेल हारमोन ज्यादा बनने लगता है और इंसुलिन रजिस्टेंस हो जाता है।
कैसे होती है शुरुआत
पहले इनका फास्टिंग शुगर लेवल बढ़ा हुआ आता है, लेकिन खाने के बाद नॉर्मल आता है। मरीज कहता है कि टेस्ट गलत तो नहीं। इसे मेडिकल में इंपेयर्ड फास्टिंग ग्लूकोज लेवल कहते हैं। दरअसल रात को सोने के बाद हमारे शरीर की प्रक्रियाओं को शुगर की जरूरत होती है, जिसकी सप्लाई लिवर करता है, जो ग्लाइकोजन के फॉर्म में शुगर को स्टोर करके रखता है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन प्री डाइबिटीक कंडीशन वाले मरीजों में लिवर में जितनी शुगर बननी चाहिए, उससे ज्यादा बनने लगती है, इसीलिए फास्टिंग शुगर बढ़ा हुआ आता है।
प्री डाइबिटीक कंडीशन की सबसे बड़ी विडंबना है कि इसमें मरीज 8 से 10 साल निकाल देता है। शुगर के लंबे एक्सपोजर से हमारे ऑर्गन डैमेज हो जाते हैं। इन पर हुए शोधों से पता चला कि इन्हीं लोगों में हार्ट और रेटिना की प्राॅब्लम ज्यादा होने का जोखिम होता है। इसलिए आजकल सारी कवायद प्री डाइबिटीक को रोकने पर की जा रही है। शोधकर्ताओं ने 15-16 सालों की अवधि के शोध में हाई रिस्क ग्रुप की पहचान की और पाया कि जो लोग माेटे होते हैं, उनमें डाइबिटीज होने का खतरा अधिक होता है। इनकी सलाह है कि अगर मोटे लोग अपना वजन 5 से 7 प्रतिशत कम करें तो लिवर और पैंक्रियाज के आसपास जमा विसरल फैट भी कम हो जाता है और इंसुलिन की सेंसेटिविटी बढ़ जाती है। आजकल नयी दवा आयी है, जो शुगर कम होने के साथ वजन भी कम करती है।
इस कंडीशन से बचाव कैसे
प्री डाइबिटीज कंडीशन को रोकना आज मेडिकल साइंस के लिए प्राथमिकता है, अन्यथा यही प्री डाइबिटीज वाले मरीज हर वर्ष 10 प्रतिशत के हिसाब से डाइबिटीज में बदल जाते हैं। डॉ. झिंगन कहते हैं कि प्री डाइबिटीक कंडीशन के मरीजों को कुछ खास उपाय करने की जरूरत है। उन्हें अपनी डाइट में सुधार लाना होगा। जितनी भी रिफाइंड चीजें हैं जैसे रिफाइंड तेल, रिफाइंड शुगर, रिफाइंड आटा, इन सभी से दूरी बना लें। इस कन्फ्यूजन से बाहर निकलें कि कौन सा तेल खाएं, कौन सा नहीं। सारे तेल व देसी घी खा सकते हैं, बस मात्रा दिन भर में 3 चम्मच यानी महीने भर में आधा किलो से ज्यादा ना हो। मिक्स आटा खाने की जरूरत नहीं है, होलग्रेन की मात्रा खाने में बढ़ाएं। चोकरयुक्त आटा खाएं, बाजरा व ज्वार खाएं, मोटा चावल खाएं।

खानपान के साथ फिजिकल एक्टिविटी भी डाइबिटीज से बचने के लिए बेहद जरूरी है। वर्क फ्रॉम होम जैसे वर्क कल्चर में घर से बाहर निकलना ही बंद होने लगा है। एरोबिक एक्सरसाइज, वॉक, साइकिलिंग कुछ भी करें। वेट रजिस्टेंस एक्सरसाइज करें, इससे इंसुलिन की सेंसेटिविटी बढ़ जाती है। इन उपायों से प्री डाइबिटीक कंडीशन का रिवर्सल तो नहीं, रेमिशन जरूर हो सकता है।
कितनी तरह के डाइबिटीज
करीब 10 प्रतिशत मरीज टाइप 1 डाइबिटीज के होते हैं। किसी एलर्जी की वजह से शरीर में एंटीबॉडीज बन जाती हैं, जिससे पैंक्रियाज के बीटा सेल्स इंसुलिन बनाना बंद कर देते है। इसे टाइप 1 डाइबिटीज कहते हैं। आमतौर पर 5 से 10 साल की उम्र में यह हो सकता है और जीवन भर बना रहता है। इन्हें हर खाने के साथ इंसुलिन के इन्जेक्शन लगवाने होते हैं। लंबे समय तक होने के कारण इससे कई किस्म के रोग होने की आशंका होती है।
टाइप 2 डाइबिटीज के मरीज करीब 90 प्रतिशत होते हैं। डाइबिटीज की यह किस्म उन लोगों में होती है, जिनमें जेनेटिक बैकग्राउंड होता है। कुछ बाहरी कारण जैसे खानपान, आरामपरस्त जिंदगी, मानसिक तनाव भी इसके होने के कारक हैं। यह किसी भी उम्र में हो सकती है। इसमें बॉडी में इंसुलिन या तो बहुत कम बनती है या काम नहीं करती है। इसे इंसुलिन रजिस्टेंस कहते हैं।
टाइप 1.5 डाइबिटीज टाइप या लाडा (लेट ऑटो इम्यून डाइबिटीज ऑफ एडल्ट) टाइप 1 डाइबिटीज का ही वेरिएंट है। इसमें व्यक्ति 25-30 साल तक स्वस्थ रहता है, अचानक उसे शुगर बढ़ जाती है। वेट लॉस हो जाता है। इसमें ओरल मेडिसिन काम नहीं करती, इंसुलिन से आराम आता है।
गर्भवती महिलाओं को गैस्टेशनल डाइबिटीज हो जाती है। बच्चा स्वस्थ हो, इसके लिए टेबलेट नहीं दे सकते, इंसुलिन ही देना पड़ता है। इसमें खाली पेट 90 से नीचे और खाना खाने के घंटे बाद 130 से नीचे रखने की जरूरत है। आमतौर पर डिलीवरी होने पर शुगर नॉर्मल हो जाती है।
किन रोगों का खतरा
जब खाने में एक्स्ट्रा फैट हो तो वह लिवर के आसपास जमा होने लगता है। इससे फैटी लिवर हो जाता है। जब इंसुलिन बने और काम ना करे तो आपका वजन कम होने लगता है। खाने से जो शुगर मिलती है, वह बॉडी के सेल्स में प्रवेश करती है, जिससे हमें ऊर्जा मिलती है। इसके लिए इंसुलिन का होना जरूरी है। इंसुलिन ना होने से यही ग्लूकोज ब्लड में मिल जाता है। बार-बार यूरिन पास करने जाने, वजन कम होने, इन्फेक्शन खास कर प्राइवेट पार्ट्स में इन्फेक्शन होने, महिलाओं में फंगल इन्फेक्शन होने या थकान होने पर व्यक्ति जब जांच कराता है तो पता चलता है कि उसे शुगर है। यह साइलेंट किलर है, जिसका शरीर के सभी अंगों पर असर पड़ता है। स्वस्थ व्यक्ति की तुलना में इनमें स्ट्रोक या पैरालिसिस का जोखिम 2 से 5 गुना, हार्ट डिजीज का 4 गुना होता है। किडनी रोग का 30 से 40 प्रतिशत और नसों की बीमारी का जोखिम 60-65 बढ़ जाता है। 35 प्रतिशत लोगों में सुनाई कम पड़ने, मसूड़े खराब होने व दांत बाहर आ जाने, फ्रोजन शोल्डर की समस्या हो जाती है, वहीं 35 से 65 प्रतिशत में इरेक्टाइल डिस्फंक्शन हो जाता है। इसीलिए अपने शुगर का लेवल 100 से नीचे रखें और खाने के बाद 140 से नीचे रखें। उम्र बढ़ने पर लेवल को थोड़ा ऊपर रखने की जरूरत होती है।
क्या कहता है आयुर्वेद
डॉ. रवि कोठारी कहते हैं कि खाने और काम करने की शैली में बदलाव आने से ही डाइबिटीज रोग होने लगा है। पहले जमाने में 3 टाइम खाते थे तो सब सेहतमंद रहते थे। अब नए डाइट सिस्टम में कहा जाता है कि हर दो घंटे में कुछ ना कुछ खाना चाहिए। यह पूरी तरह गलत है। जब तक भूख ना लगे, तब तक ना खाएं। जब भी खाते हैं तो इंसुलिन बनता है, जो पूरी तरह इस्तेमाल नहीं होता और ब्लड में मिल जाता है। इससे डाइबिटीज हो जाती है। डाइट के साथ एक्सरसाइज भी डाइबिटीज के रोगियों के लिए जरूरी है। दिन भर में तीन बार ही खाएं। चावल खाना छोड़ने की जरूरत नहीं है। मोटा चावल खाएं। कुकर में बना चावल ना खाएं, मांड निकाल कर चावल खाएं।