डब्लूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में 97 करोड़ मानसिक रोगी हैं। पेनडेमिक के बाद इनमें 20 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी है। मेंटल हेल्थ को ले कर अब लोग जागरूक तो हैं, लेकिन महज एक फीसदी लोग इलाज की प्रक्रिया में जा रहे हैं। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि हीलिंग के लिए कई बार सेल्फ थेरैपी भी प्रभावकारी जरिया साबित होती है। इसे औपचारिक साइकोथेरैपी का विकल्प तो नहीं माना जा सकता, लेकिन रोजमर्रा की समस्याओं में इससे मदद मिलती है। विशेषज्ञ इसके कुछ उपाय बताते हैं। जैसे- अपने इमोशंस या विचारों को लिखना, ताकि बिहेवियरल पैटर्न को समझने में मदद मिले। सेल्फ-हेल्प बुक्स पढ़ना- क्योंकि दूसरों के अनुभव भी कई बार प्रेरक हो सकते हैं। थेरैपी टेकनीक्स के बारे में पढ़ना, जैसे- सीबीटी यानी कॉग्निटिव बिहेवियरल थेरैपी। इससे डिप्रेशन, एंग्जाइटी, रिश्तों की समस्याओं और पर्सनेलिटी डिसऑर्डर को समझने में मदद मिलती है। इन दिनों कई ऑनलाइन कोर्सेज या एप भी हैं, जिनकी मदद से अपनी भावनाओं को समझा जा सकता है। यूडेमी और कोर्सेरा जैसे प्लेटफॉर्म पर ऐसे कोर्सेज उपलब्ध हैं। कई एप्स भी हैं, जिनकी मदद से बिहेवियरल पैटर्न को समझा जा सकता है।
मददगार स्किल्स
साइकोथेरैपिस्ट और हाऊ टू बी योर ओन थेरैपिस्ट के लेखक ओवन ओ’केन कहते हैं, ‘‘30 साल के अपने कैरिअर में मेंटल हेल्थ के सर्वाधिक केस मैंने पेनडेमिक के बाद देखे। प्रोफेशनल थेरैपी को ले कर लोगों में भ्रम है। इससे समस्याएं पूरी तरह सही नहीं हो पातीं। लेकिन सेल्फ हेल्प की कुछ टेकनीक्स सीखें तो थेरैपी सेशन में खुद को अभिव्यक्त करने में मदद मिलती है। जैसे, घटनाओं के प्रति अपने रिएक्शन को संतुलित रखना। जीवन हमेशा हमारी योजना के मुताबिक नहीं चलता। घटनाएं क्षणिक हैं, इन्हें स्वीकारते हुए आगे बढ़ना, रिश्तों में बेहतर संवाद की कोशिश, सही टाइम मैनेजेंट करना। मनोवैज्ञानिक रूप से फ्लैक्सिबिलिटी जरूरी है। अगर हम मानते हैं कि ‘ऐसा ही होना चाहिए’, तो कहीं ना कहीं हम इसके उलट नतीजा आने पर स्वीकार्यता की मानसिकता में नहीं होंगे। सोचें कि ‘ऐसा नहीं भी हो सकता है’, तो चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने में मदद मिलेगी। भावनाएं अच्छी-बुरी जैसी भी हों, उन्हें स्वीकार करना। जब हम अपने विचारों को नेगेटिव मानते हैं तो अपने प्रति जजमेंटल होते हैं। जबकि सही नतीजे तक पहुंचने में नेगेटिव फीलिंग्स भी हमारा मार्गदर्शन करती हैं। कोई इमोशन व्यर्थ नहीं होता। अपने मन, विचारों व शरीर के साथ कंफर्टेबल होना भी जरूरी है। ऐसे कई स्किल्स हैं, जो सेल्फ थेरैपी में कारगर होते हैं।’’
रोजमर्रा के तनाव
श्री बालाजी एक्शन मेडिकल इंस्टिट्यूट, दिल्ली में क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट कंसल्टेंट अर्चना शर्मा कहती हैं, ‘‘रोजमर्रा के तनाव कई तरह से प्रभावित करते हैं। नौकरी, रिश्तों, फाइनेंशियल कंडीशन, सोशल मीडिया का दबाव व्यक्ति पर है। इनके लिए हमेशा दवाओं या साइकोलॉजिस्ट का सहारा लेना जरूरी नहीं होता। व्यक्ति को सोचने की जितनी क्षमता मिली है, उससे कहीं ज्यादा क्षमता उसमें कंट्रोल करने की है। यह क्षमता सबके भीतर है। जानें कि तनाव पैदा करने वाले कारक क्या हैं- घर-परिवार-रिश्ते, दफ्तर, सोशल मीडिया। दूसरा चरण है-इनमें ज्यादा स्ट्रेस कौन दे रहा है, तीसरा स्टेप कि क्या इससे निपटा जा सकता है ! जिन्हें बेहतर किया जा सकता है, उनके लिए उपाय तलाशें।’’
एक्शन प्लान
लोग समस्या से घबरा कर उससे भागते हैं। कई लोग इसमें स्मोकिंग करने लगते हैं, ड्रिंकिंग हैबिट में पड़ जाते हैं। कुछ लोग टीवी-मोबाइल का अधिक उपयोग करने लगते हैं, जबकि घर-परिवार व दोस्तों से दूर भागते हैं। कुछ लोग देर रात तक जागते हैं। ऐसी आदतों से समस्या घटने के बजाय बढ़ जाती है। इसलिए तनाव की स्थिति में पहला कदम होना चाहिए कि अपनी दिनचर्या दुरुस्त रखें। ऐसे कार्य करें, जो शांत रखें। जैसे- दिन की शुरुआत योग-ध्यान से करें, नाश्ता हेल्दी हो, कैफीन-चीनी या नमक वाले खाद्य पदार्थ कम लें, आउटडोर एक्टीविटीज बढ़ाएं, सही समय पर सोएं-जागें। स्वस्थ जीवनशैली से अच्छे हारमोन्स का स्राव होगा और दिमाग रिलैक्स फील करेगा। टाइम मैनेजमेंट ठीक करें। कई काम हाथ में लेने के बजाय छोटे-छोटे टारगेट्स सेट करें और उन्हें वक्त पर पूरा करने की कोशिश करें। हॉबी संवारें। टेंशन ऑफिस से जुड़ी है तो यह कामकाजी जीवन का एक हिस्सा है, इसे स्वीकारें। स्थिति ना संभले तो साइकोलॉजिस्ट से सलाह लें।