Tuesday 11 July 2023 11:49 AM IST : By Pushpa Bhatia

मुक्ति

LIBERTE - Colombe - Chaine

यह एक महज इत्तिफाक ही था कि प्रमोशन के बाद सुधीर को मुंबई पोस्टिंग मिली और उससे भी बड़ा इत्तिफाक यह था कि सरकार की तरफ से हमें फ्लैट भी उसी सोसाइटी में आवंटित हुआ, जहां मेरी प्रिय सखी मधु अपने पति अशोक मित्तल और अपने दोनों बच्चों के साथ रहती थी।

यह कहानी कब शुरू हुई? किताब के पन्ने हवा में उड़ते रहे, पर मैं किसी भी पन्ने को पकड़ नहीं पा रही थी, क्योंकि उड़ने की रफ्तार मेरी पकड़ से भी ज्यादा तेज थी।

शायद पहली बार हम किसी संगीत समारोह में मिले थे। मधु को संगीत से बेहद लगाव था और मेरी तो दुनिया ही संगीत है। मधुलिका नाम बड़ा लगता था, इसलिए मैं उसे घर के नाम से ही पुकारने लगी थी। पहले मधुलिका जी, फिर मधुलिका धीरे-धीरे वह मधु हो गयी। मंझोला कद, रंग ऐसा जैसे सफेद झक रुई की तह लगी हो। मधु एक कंपनी में सीनियर एग्जिक्यूटिव थी। एक दिन मैंने उससे मजाक ही मजाक में पूछा, ‘‘मधु, तू इतनी दुबली-पतली कमसिन सी है कि फूंक मारो तो उड़ जाए। क्या रुआब पड़ता होगा तेरा ऑफिस में?’’

‘‘आ कर देख ले, गश खा कर गिर जाएगी मेरा रुतबा देख कर।’’

‘‘अच्छा, ये बता तेरे बॉस तुझ पर लाइन नहीं मारते?’’ वह मुझे अपना घनिष्ठ मानती थी। बोली, ‘‘नहीं रे, बहुत ही सज्जन पुरुष हैं, व्यवहार भी अच्छा है, काम को भी अच्छी तरह समझते हैं, तारीफ करने में माहिर।’’

आज वही सज्जन व्यक्ति, अशोक मित्तल हमारे सामने खड़े थे। व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली कि सामनेवाले को बांधे ले रहा था। अपना परिचय देते हुए बोले, ‘‘आप लोग नए नए आए हैं इस कॉलोनी में, किसी चीज की जरूरत हो, तो बेहिचक आ जाइएगा।’’ कुछ ही देर में उन्होंने हमें सोसाइटी के ऑफिस, कार्यकर्ताओं और निकटवर्ती मार्केट, मेट्रो स्टेशन और शॉपिंग मॉल आदि से परिचित करवा दिया। मैंने जिज्ञासावश पूछा, ‘‘मधु नहीं आयी?’’

‘‘आप लोगों के स्वागत की तैयारी में व्यस्त है। आज डिनर आप सब हमारे साथ कर रहे हैं ना?’’

जब तक हम दोनों पति-पत्नी ‘हां’ और ‘ना’ की ऊहापोह से बाहर निकलते, अशोक जी ने अपना स्नेहसिक्त निर्णय भी सुना दिया, ‘‘आठ बजे मैं आपकी सेवा में पुन: उपस्थित हो जाऊंगा।’’

हमने बहुतेरा कहा, चार सीढ़ियों का ही तो फासला है, हम पहुंच जाएंगे, पर वे अपनी ही जिद पर अड़े रहे, ‘‘यह तो शिष्टाचार का तकाजा है साहब। आप लोग पहली बार हमारे घर आ रहे हैं, इतना फर्ज तो हमारा भी बनता है।’’

अशोक जी की शिष्टता देख कर मन दंग रह गया, वरना हमने तो सुना था इन महानगरों में लोग अपने पड़ोसी का नाम तक नहीं जानते।

सीढ़ियां चढ़ते हुए अपनी प्रिय सखी से मिलने के लिए मन बेहद उल्लसित था। हमारी गंध जैसे हमारे पहुंचने से पहले ही अशोक दंपती के घर पहुंच गयी थी। मधु बेहद प्यार से मिली। अशोक जी की वाकपटुता अपना सानी नहीं रखती थी, वे बात को ऐसे कहते जैसे उस विषय को उन्होंने अपने भीतर से निकाला हो, ‘‘वसुधा जी, मधु को तो आप जानती ही हैं। शादी से पहले वह अपनी कंपनी में सीनियर एग्जिक्यूटिव थी।’’

‘‘जी।’’

‘‘अब मेरे घर की सीनियर एडमिनिस्ट्रेस है।’’

मधु के चेहरे पर स्मित दौड़ गयी। अशोक जी हंस कर बोले, ‘‘मधु से आपके बारे में इतना सुन चुका हूं कि आपकी पूरी जन्मपत्री ही मेरे पास है।’’ अच्छा लगा था उनका यों परिहास करना।

वातावरण खुशनुमा हो उठा था। खाना समाप्त हुआ। मैं और मधु बरतन समेटने के लिए उठने लगे, तो अशोक जी ने हाथ के इशारे से हमें रोक दिया और स्वयं उठ कर जूठे बरतन रख आए। इतना ही नहीं, उन्होंने बचा हुआ खाना भी डोंगों में पलट कर फ्रिज में रख दिया और टेबल साफ करके हम सबके बीच आ कर बैठ गए।

‘‘भाई साहब, आप दूसरों का बहुत ध्यान रखते हैं,’’ मैंने उनकी प्रशंसा की। वे एक विजयी मुस्कान चेहरे पर ला कर बोले, ‘‘वसुधा जी ! जो इंसान दूसरों की इज्जत नहीं करता, वह अपनी इज्जत क्या करेगा? उसे तो इज्जत की परिभाषा तक मालूम नहीं होगी, विशेष रूप से वे लोग जो औरतों की इज्जत नहीं करते, उनसे मुझे चिढ़ होती है।’’

अशोक जी भाषण की टोन में बोल रहे थे, लेकिन उनका बोलना भाषण नहीं सचाई, ईमानदारी और इंसानियत का तकाजा लग रहा था।

कुछ दिन घर को सुव्यवस्थित करने में लग गए। सुबह उठने के बाद से 9 बजे तक एक के बाद एक इतने काम करने पड़ते थे कि दिमाग चकरघिन्नी सा घूमने लगता। चाय-नाश्ता, लंच, गुड़िया को तैयार करना। मुंबई आने के बाद सुधीर की व्यस्तता भी कुछ इतनी बढ़ गयी थी कि फल, दूध, राशन आदि की शॉपिंग के साथ-साथ बैंक के काम भी मुझे ही निपटाने पड़ते थे। सीढ़ियां उतरते-चढ़ते मधु मुझे कभी दिखायी नहीं दी, हां हाथ में थैला पकड़े अशोक जी से भेंट अवश्य हो जाती थी।

‘‘एक महीने से ज्यादा हो गया हमें इस बिल्डिंग में शिफ्ट हुए, लेकिन मधु एक बार भी हमारे घर नहीं आयी,’’ एक दिन मैंने सुधीर से शिकायत सी की तो बोले, ‘‘तुम ही मिल आना ना किसी दिन।’’

एक दिन रोजमर्रा के काम निबटा कर मैं तानपूरे पर रियाज शुरू करने जा ही रही थी कि किसी ने मुझे पुकारा। मैं बाहर बालकनी में निकल आयी। मधु के सलोने चेहरे के साथ एक युवा चेहरा भी बालकनी से झांक रहा था।

‘‘वसु, अगर बिजी ना हो, तो थोड़ी देर के लिए आ जा। बोर हो रही हूं।’’ मैंने मोबाइल में समय देखा-बारह दस ! यानी लंच के लिए सुधीर के आने में फिलहाल काफी देर थी।

मैंने गुड़िया को अपने साथ लिया और फ्लैट का ताला बंद करके मधु के घर की घंटी बजा दी। यह दूसरा अवसर था, जब मैं उनके घर के अंदर पहुंची थी।

‘‘इस बार आ गयी अगली बार नहीं आऊंगी।’’

‘‘क्यों?’’ मधु ने घबरा कर पूछा।

‘‘इतने दिन हो गए, ना हेलो ना हाय, तू तो वॉट्सएप के मैसेज तक का जवाब नहीं देती...’’ मैंने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा, तो मधु थूक निगल कर कंठ की शुष्कता दूर करते हुए बोली, ‘‘मोबाइल चेक ही नहीं करती।’’

‘‘एक जमाना था जब मोबाइल से नजर ही नहीं हटती थी तेरी... फेसबुक, इंस्टाग्राम... मैसेंजर... पर हमेशा एक्टिव रहती थी। और अब...’’

अपने मनोभाव उड़ेलते उड़ेलते गरजनेवाले मेघ भी बरसने लगे थे... शिकवे-शिकायतों के बीच उत्तेजना में दहकनेवाली आंखें भीग गयी थीं।

‘‘वसु बैठ। मैं तेरे लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ उसने हाथ के इशारे से मुझे बैठने के लिए कहा, फिर चौके की तरफ बढ़ गयी।

छोटे से कमरे में दीवार के पास एक निवाड़ का पलंग पड़ा था। दूसरे कमरे में एक बड़ी खिड़की के पास मेज-कुर्सी, जिस पर किताबें, नोटबुक और कुछ पेन रखे थे। जमीन पर एक मोटा गद्दा बिछा था, जिस पर एक बदरंग सी जयपुरी चादर बिछी थी, साथ ही एक मसनद और दो तकिए रखे थे। मैं असमंजस में थी, क्या एक वरिष्ठ अफसर का घर ऐसा होता है?

उसने चाय की ट्रे जमीन पर रख कर हाथ के इशारे से मुझे बैठने के लिए कहा, फिर अपनी बिटिया का परिचय करवाती हुई बोली, ‘‘ये मेरी बिटिया सुनीति, 12वीं की स्टूडेंट है।’’

‘‘आज औपचारिक परिचय हुआ है आंटी। धीरे-धीरे आपको हमारी खूबियों का पता चलता जाएगा।’’ इतने में उसका बेटा प्रशांत भी कॉलेज से घर आ गया। मधु ने बताया, वह बीकॉम कर रहा था।

दोनों भाई-बहन अपने कॉलेज के किस्से सुना कर हम सबको हंसाते रहे। मेरी गुड़िया ने भी संकोच छोड़ कर खूब पैरोडी की, चुटकुले भी सुनाए। सुनीति खिलखिला कर बोली, ‘‘आंटी ! आप तो हर दिन हमारे घर आ जाया करिए।’’

‘‘हर बार मैं ही क्यों, तुम्हें भी आना पड़ेगा। पड़ोसियों से मेलजोल तो बना ही रहना चाहिए,’’ मैंने हंस कर कहा, तो वह थोड़ी उदास हो गयी, ‘‘आंटी, हम तो आ जाएंगे, पर मां नहीं आ पाएंगी।’’

‘‘क्यों? एक सफल कैरिअर वुमन के लिए एक मंजिल की दूरी नापना इतना मुश्किल तो नहीं होना चाहिए !’’

‘‘वे अकेली कहीं आती-जाती नहीं हैं ना। हमेशा पापा के साथ ही जाती हैं।’’

‘‘भई वाह प्यार हो तो ऐसा,’’ जूठे बरतन उठाते, टेबल पोंछते, बची हुई सब्जियां डोंगों में पलट कर फ्रिज में रखते अशोक जी का चेहरा मुखर हो उठा।

हम सभी इस रसमय वातावरण में सराबोर थे कि अचानक ‘खोलो’ शब्द की गरजदार गूंज के साथ विस्फोट हुआ और सर्वत्र सन्नाटा पसर गया।

‘‘पापा आ गए’’ कह कर सुनीति का सहम कर दूसरे कमरे में खिसक जाना, प्रशांत का सामने टेबल पर फैलायी टांगें समेट कर सीधे बैठ जाना और मधु के चेहरे से यकायक हंसी गायब हो जाना, ये सब एक साथ घटित हुए। इतने सब परिवर्तनों की प्रतिक्रिया मुझ पर भी हुई, उलझन सी महसूस करते हुए मैं उठ खड़ी हुई। दरवाजा खोलते हुए अशोक मित्तल की एक झलक दिखायी दी, जो शराब के नशे में धुत्त सीधे खड़े भी नहीं हो पा रहे थे।

दो दिन तक मधु के घर से चीख-पुकार की आवाजें सुनायी देती रहीं। बीच-बीच में मधु का आर्तनाद भी सुनायी दे जाता था, जो सुनीति की सिसकियों के स्वर के साथ धीमा पड़ जाता था।

‘‘ये सब तो रोज होता है यहां। बेचारी शरीफ औरत एक दरिंदे के चंगुल में फंस गयी,’’ डस्टिंग करती हुई मेरी मेड ने कहा, तो मैं हतवाक सी उसका चेहरा निहारती रह गयी। अपनी आंखों पर मैं कैसा सम्मोहन का परदा डाले हुई थी। आज यह सम्मोहन परदे को चीरता हुआ बिखर गया, जब मैं मधु से मिलने उसके घर गयी। आंखें सूजी हुईं, शरीर पर नीले निशान। आंखों से छलकते आंसू और गले के रुंधेपन से मधु की पीड़ा स्पष्ट थी, ‘‘क्या कहूं, क्या पूछूं?’’ ऊहापोह के द्वंद्व में उलझा मन जब तक किसी निर्णय पर पहुंचता, मधु का दुख मानो बांध तोड़ कर बह जाने को आतुर हो उठा था। रुंधे गले से बोली, ‘‘तंग आ गयी हूं इस रोज-रोज की चिकचिक से। मामूली सी बात पर ही इनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता है। क्या मजाल, जो इनकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी हिल जाए?’’

‘‘लेकिन अशोक जी ऐसे होंगे, मैं तो कभी सोच भी नहीं सकती थी।’’

ना जाने कहां से हवा का एक झोंका आया और मधु को उसके अतीत में खींच कर ले गया।

‘‘प्रेम विवाह किया था मैंने अशोक मित्तल के साथ, लेकिन जैसे-जैसे परिचय की गांठें खुलने लगीं, वैसे-वैसे मुझे अपने बेमेल विवाह का अहसास होने लगा। ऊपर से शिष्ट और शालीन से दिखनेवाले अशोक मित्तल भीतर से तेजाब फेंकने में माहिर थे।’’

‘‘वो स्त्री के सम्मान के प्रति कही गयी अशोक जी की बातें...’’ मेरा विश्वास मुझे धोखा दे रहा था।

‘‘सब झूठ, दिखावा, एक खूबसूरत धोखा।’’

मधु ने कुछ देर चुप रह कर जैसे खुद पर नियंत्रण किया फिर अपेक्षाकृत संयत स्वर में बोली, ‘‘आज प्रशांत की एक्स्ट्रा क्लास थी। बोला, बस से नहीं अपने स्कूटर से कॉलेज जाऊंगा, वापसी में कोचिंग क्लास जाने में सुविधा रहेगी। बस सुनते ही अशोक जी ने वो कोहराम मचाया कि क्या बताऊं। पहले तो मैं चुपचाप सुनती रही, लेकिन जब वे प्रशांत को घर से बाहर निकालने के लिए आमादा हो गए, तब मैं दोनों के बीच आ कर खड़ी हो गयी। बस फिर क्या था ! वो तमाशा किया कि क्या बताऊं?’’

‘‘लेकिन क्यों करते हैं मित्तल साहब ऐसा? आज तो पति-पत्नी बराबर के हिस्सेदार माने जाते हैं।’’

‘‘माने जाते होंगे, लेकिन मुझे तो इनसे शुरू से हमेशा यही व्यवहार मिला है।’’

हिचकिचाते हुए मैंने पूछा, ‘‘इस तरह के व्यवहार के पीछे कोई आर्थिक कारण तो नहीं?’’

“तो फिर मेरी नौकरी क्यों छुड़वायी? अच्छी-खासी सैलरी थी। टूर पर जाती, तो टीए-डीए अलग बन जाता था। मेरी पगार से घर की ईएमआई कट जाती थी और इनकी तनख्वाह से घर का खर्च। दफ्तर में मेरा मान-सम्मान था। समय-समय पर प्रमोशन भी मिल रहे थे। बस यही अशोक मित्तल से बर्दाश्त नहीं हुआ। मेल ईगो यू नो। अशोक का इन्फिरियरिटी कॉम्प्लेक्स हमेशा उन्हें मुझ पर हावी होने के लिए उकसाता था। आखिर मैंने नौकरी छोड़ दी। अब हालात ये हैं कि सब्जी, फल, दूध की शॉपिंग खुद करते हैं। डरते हैं, कहीं चार पैसे बचा कर मैं रख ना लूं। इन्हें लगता है जरूरत की चीजें खरीदना भी इन्हें इनकम टैक्स की मुसीबत में फंसा देगा,’’ मधु के श्रीहीन चेहरे पर घृणा के भाव तिर आए थे।

‘‘मधु, एक बात पूछूं?’’

‘‘हां पूछ ना, तू तो मेरी छोटी बहन जैसी है।’’

‘‘ऐसे वैमनस्यता के माहौल में शारीरिक संबंध कैसे निभते हैं?’’

‘‘जिस तरह की जिंदगी मैं जी रही हूं, उसमें किसी तरह की भागीदारी की गुंजाइश ही कहां है? सच कहूं, तो उस वक्त मुझे अपनी स्थिति एक बाजारू औरत से भी गयी गुजरी लगती है।’’

मधु के दुख के अंदरूनी कलह, दुख, क्रोध और घृणा के साथ-साथ उसकी बेबसी का हाल जान कर मन अवसाद से भर उठा। ये कैसा रिश्ता है, जो किसी बेताल की भांति हर पल उसके अस्तित्व का पीछा करता रहता है, हर मोड़ पर उसे डसता है। निर्वहन की खातिर निभाना है, तो बस निभाए चली जा रही है !
कुछ दिनों बाद सुधीर का ट्रांसफर बड़ौदा हो गया। व्यस्तता कुछ ऐसी रही कि फिर मुंबई जाना हुआ ही नहीं। अकेले में मधु का चेहरा कई बार आंखों के सामने आता, तो घबराहट सी महसूस होती। ना जाने किस हाल में है? बच्चे कैसे हैं ! अशोक मित्तल के स्वभाव में कुछ बदलाव आया या हालात और भी बदतर हो गए। अपने कई परिचितों से संपर्क स्थापित करने की कोशिश भी की, लेकिन मेरा हर प्रयास अकारथ ही सिद्ध हुआ।

5 साल का अंतराल चुपचाप दरक गया। एक दिन वर्सोवा बीच पर स्थित वृद्धाश्रम का शिलान्यास करने के लिए सुधीर को निमंत्रण मिला, तो मैं भी उनके साथ चली गयी। मन में एक साध और भी थी कि मुंबई जा कर मधु से भी मिल लूंगी।

आश्रम के विशाल प्रांगण में छोटे से कॉटेजनुमा ऑफिस में हाथ में पकड़े पेन को तेजी से रजिस्टर पर दौड़ाती आश्रम की संचालिका को देख कर मैं हैरान रह गयी। गहरे नीले रंग की साड़ी में उसने सलीके से अपनी दुर्बल काया को छिपा रखा था।

‘‘मधु।’’

मेरी आवाज सुन कर उसके होंठों पर जरा सी दरार पैदा हुई। संतप्त स्वर में बोली, ‘‘आप लोग यहां?’’

‘‘यही प्रश्न तो मैं तुमसे पूछना चाह रही हूं, मधु।’’ उसने अपनी चपरासी महिला को कैंटीन से 2 कप चाय ले कर आने को कहा और फिर मेरे साथ बाहर गार्डन में आ गयी।

‘‘यह गार्डन बहुत सुंदर है ना वसु,’’ मेरे प्रश्न का उत्तर देना उसने टालना चाहा।
कुर्सी पर बैठते हुए मैंने चारों ओर नजर दौड़ायी, फिर पुन: अपना प्रश्न दोहराया। मधु के चेहरे पर कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं उभर आयीं। बोली, ‘‘5 साल पहले अशोक ने एक्सपोर्ट का काम शुरू किया था। मन में एक हल्की सी उम्मीद की किरण कौंधी, शायद अपने बिजनेस में उसे मेरे सहयोग और सहभागिता की जरूरत होगी। लोगों के बीच उठने-बैठने की कूवत थी मुझमें, लेकिन मुझसे ज्यादा उन्हें अपनी मैट्रिक पास पीए कविता पर भरोसा था। सुबह-शाम, रात-दिन उनके मुख से कविता की प्रशंसा सुन कर मन बुरी तरह ऊब गया था। तभी हमारा आखिरी झगड़ा हुआ था। उस दिन के बाद मैंने अशोक मित्तल से कुछ नहीं कहा। बस नए आयाम ढूंढ़ती रही। कुछ एनजीओ से भी संपर्क स्थापित किया। यहां तक पहुंचाने में भी इन्हीं लोगों ने मेरी मदद की है,’’ मधु भीगे स्वर में अपनी कहानी कहती जा रही थी।

‘‘तो तू क्या सोच रही है, अशोक जी और कविता के बीच कुछ चल रहा था?’’

‘‘नहीं कह सकती। लेकिन जिस इंसान को इनकम टैक्स की मुसीबत में फंसने के डर से जरूरत की चीजें खरीदने में भी डर लगता था, अब लाखों का सामान भी कविता को देने में हिचकिचाहट महसूस नहीं होती है। इस तरह अलग-अलग हिस्सों में कोई व्यक्ति अलग-अलग बर्ताव कैसे कर सकता है? मैं यह नहीं कहती अशोक मेरी जरूरतें पूरी नहीं करते, क्योंकि आज भी मैं उनके जीवन में बीवी नाम की ऐसी ‘वस्तु’ हूं, जिस पर कानूनन उनका ही अधिकार है, लेकिन अब इस तरह सिर्फ कानूनी हकदार बने रहना मेरे लिए नामुमकिन हो गया था।’’

‘‘दोनों बच्चों के विषय में तूने क्या सोचा है?’’

“बच्चों के विषय में सोचते-सोचते तो अशोक मित्तल के साथ 30 साल गुजार दिए मैंने। एक बार उड़ना सीखे, तो दोनों इस घर में वापस लौटना ही नहीं चाहते। रोज-रोज की लानत-मलानत से वे भी तो तंग आ गए होंगे। सुनीति अपने इंजीनियर पति के साथ खुश है। प्रशांत ने भी अपने लिए लड़की ढूंढ़ ली है। आज नहीं तो कल उसका भी विवाह हो जाएगा। समाज में अपनी प्रतिष्ठा के लिए अशोक मित्तल मुझे फिर बुला लेंगे और फिर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगे,’’ कहते-कहते उसका स्वर प्रकंपित हो उठा।

आजीवन अपमान, अवहेलना, तिरस्कार भुगतने के बाद भी मुझे ना पत्नीत्व का सुख मिला, ना ही मातृत्व का। उम्र के इस पड़ाव पर घर की रानी होने का गौरव महसूस करने के बजाय पति के साथ एक ही छत के नीचे तलाकशुदा का सा जीवन कब तक जीती मैं? आखिर मेरा कसूर क्या था?

मधु मेरे कंधे पर सिर रख कर देर तक सिसकती रही। मैं उसकी पीठ पर हाथ फेर कर उसे दिलासा देती रही, पुचकारती रही।

‘‘मैं अब निर्भीक हो कर जीना चाहती हूं, वसु। मेरे बच्चों को जब भी मेरी जरूरत होगी मैं उनके पास जाऊंगी, जरूर जाऊंगी।’’

कुछ दिन मैं और सुधीर आश्रम परिसर में ही निर्मित गेस्ट हाउस में रहे। फिर एक अनोखी घटना ने हम सबको हिला दिया। एक कार दुर्घटना में अशोक मित्तल की मृत्यु हो गयी। मधु को ले कर हम तुरंत मुंबई पहुंचे। मधु एक बार फिर भूचाल से घिर गयी।

इतने बड़े बिजनेसमैन की मौत का नजारा किसी त्योहार से कम नहीं था। मधु की शुष्क आंखों ने पति की मौत का राजसी ठाठबाट संयत मन से देखा। लोगों की संवेदना, मान, सम्मान बटोरती मधु को मैं भारी मन से देखती रह गयी। पुरुष द्वारा क्रिएट की गयी इन सारी दर्दनाक परिस्थितियों को ताउम्र झेलती मधु ने जिस मुक्ति की कामना की थी, वह उसे अपने आप मिल गयी थी, मगर किस ढंग से?