Friday 30 June 2023 02:36 PM IST : By Vrinda Mishra

अस्तित्व

astitva

अधूरी हो या पूरी, सबकी अपनी एक कहानी होती है, अपना एक वजूद, अपनी एक शख्सियत ! अंधेरे कमरे के एक कोने में जलती उस छोटी मोमबत्ती की लौ की भी अपनी एक हस्ती है। मनुष्य को हर पग पर एक नयी चुनौती का सामना करना पड़ता है, जिससे लड़ कर या तो वह स्वयं को सिद्ध करे या उनके दबाव में अपने स्व का मौन हनन होता देखे।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह एक चिर लड़ाई है- किसी के होने और ना होने की। उस असीमित आकाश में भी रात की कालिमा में ना जाने कितने ही छोटे-छोटे असहाय सितारे अपने हिस्से का गगन तलाश रहे थे और साथ ही अपने-अपने स्तर पर उस घने कोहरे से लोहा लेते हुए अपने हक की गुहार लगा रहे थे। पर इनमें तो विजयी सिर्फ वही था, जो अपनी मध्यम चांदनी से इस जग को अपने होने का अहसास करा रहा था।

बचपन की खनक से गूंजता वह कमरा आज शांत पड़ा था। रंगबिरंगे सपने और सपनों को दर्शाती तसवीरें उसके और उसकी मां की मुस्कान के रूप में दीवारों पर सजी हुई थीं। पर उसकी वे भूरी आंखें उन तसवीरों की जगह जमीन पर बिखरे कागज को एकटक घूरे जा रही थीं। उन आंखों में ना कोई भाव था, ना ही विचार। शून्य सी उन नजरों में सिर्फ कुछ था, तो एक सवाल।

‘क्यों? आखिर ऐसी क्या तकलीफ दी थी मेरे अस्तित्व ने कि उन्हें मेरा होना तक गवारा नहीं था?’

मन ही मन यह और ऐसे ना जाने कितने ही प्रश्न पिछले 2 घंटे से उसके मन में उथल-पुथल मचा रहे थे। उसकी नजर दीवार पर लटकी घड़ी पर गयी। साढ़े 12 बज रहे थे। मां को सोने के लिए अपने कमरे में गए हुए 2 घंटे हो चुके थे। और इन 2 घंटों में एक बार भी उसकी पलकें नहीं झपकी थीं।

‘‘प्रियांशी, तू ठीक है ना?’’ मां ने उससे अपने कमरे में जाने के पहले एक आखिरी बार पूछा था।

‘‘हां मां, मैं एकदम ठीक हूं। आप चिंता मत करो,’’ उसने एक मुस्कान के साथ अपनी मां का हाथ थामते हुए कहा। उसकी उस पकड़ में एक भरोसा था और एक विश्वास भी।

‘‘अगर तुम्हारा फैसला बदले, तो मुझसे निसंकोच कह देना। मुझे जरा भी बुरा नहीं लगेगा, इसका विश्वास मैं तुझे दिलाती हूं।’’

‘‘मां, मैंने आपसे जो भी कहा, वह बहुत सोच-समझ कर कहा। मैं उन पन्नों को फिर पलट कर पढ़ना नहीं चाहती, जिन्हें कभी मेरे जीवन की पुस्तक में लिखा ही नहीं गया,’’ उसने दृढ़ स्वर में कहा।

उसकी बात सुन कर उसकी मां तो अपने कमरे में सोने के लिए चली गयी, पर उसकी आंखों में नींद का एक कतरा नहीं था। रह-रह कर उसे उसकी मां की बात याद आ रही थीं। आज का दिन उनके लिए कितना सुखद और महत्वपूर्ण था। वर्षों की तपस्या के बाद आज उसकी मां की झोली में एक नयी खुशी जन्मी थी। प्रशासनिक सेवा में उसे नौकरी मिल गयी और इसके साथ ही उसकी मां को उनकी तपस्या का फल भी मिल गया था। आज इसी खुशी में मां ने पूरे कस्बे में मिठाई बांटी थी और आसपड़ोस वालों को दावत पर भी बुलाया था। मां की आंखों में उसे उस दावत की खुशी के अलावा कुछ और भी दिख रहा था, जो शायद उसकी मां के लिए काफी महत्व रखता था, पर वह क्या था यह प्रियांशी समझ ना सकी थी।

खैर, इस पहेली ने उसकी कोई परीक्षा नहीं ली थी। दावत खत्म होने के बाद जब मां उसके कमरे में तेल की बोतल ले कर उसके बालों की मालिश करने आयी, तो एकाएक उनकी आंखों का सारा भेद उनके शब्दों में जाहिर हो गया।

‘‘प्रियांशी, तू जानती है मैंने तेरा यही नाम क्यों रखा?’’ उन्होंने बालों पर हाथ फेरते हुए कहा।

‘‘हां मां, क्योंकि मैं आपकी बेटी हूं।’’

‘‘सिर्फ इसलिए नहीं कि तू मेरी बेटी है, परंतु इसलिए भी कि तू मेरा अंश है। प्रिया का अंश ! एकमात्र अंश ! और मेरी सबसे प्रिय, मेरी प्रियांशी,’’ मां ने ऐसा कहा, तो उसने भी प्यार से अपनी मां की गोद में सिर रख लिया। मां का स्नेह होता ही कुछ ऐसा है कि बच्चा चाहे कितना भी बड़ा क्यों ना हो जाए, उसके लिए मां की गोद ही उसका घर होती है, उसकी दुनिया होती है।

‘‘तू हमेशा से मेरी गुड़िया रही है। तूने कभी मुझसे अपने अस्तित्व या अतीत के बारे में ना कुछ पूछा, ना जानना चाहा। ऐसा शायद इसलिए कि तू समझती थी कि उस बात से मुझे दुख या तकलीफ होगी। मैंने भी तुझे इस विषय में कुछ नहीं बताया, क्योंकि तब तू छोटी थी, परंतु आज तू बड़ी हो गयी है। अपने जीवन का एक नया अध्याय लिखने जा रही है, जहां तू अब अपने वजूद की कहानी खुद लिखेगी, इसलिए मैं तुझे आज वह बताने जा रही हूं, जिससे आज तक सब अनजान हैं।’’

‘‘ऐसी क्या बात है मां?’’ उसने गंभीर हो कर पूछा, क्योंकि आज तक उसने मां के चेहरे पर कई भाव देखे थे, किंतु आज जैसा भाव कभी नहीं पढ़ा था।

‘‘बात तेरी भी है, मेरी भी। बात हमारे अतीत की है। मेरी ग्लानि की और जन्म के बाद तेरी पहली मुस्कान की,’’ मां ने कहना शुरू किया।

‘‘मेरी शादी आज से 27 साल पहले दिल्ली के एक धनाढ्य परिवार में तुम्हारे पिता करण से हुई थी। आरंभ में तो सब अच्छा चल रहा था फिर एक दिन मैं गर्भवती हो गयी। वह हमारा पहला बच्चा था। मैं बहुत खुश थी। मैंने जब करण को यह बात बतायी, तो वह भी बहुत खुश हुआ। कुछ दिन तो सब ठीक चला, फिर मेरी सास ने एक प्रश्न सबके सामने खड़ा कर दिया, ‘‘बेटी हुई तो?’’ इतना कह कर मां चुप हो गयी। प्रियांशी को भी उसकी मां की यह चुप्पी खटकी तो सही, पर उसने बीच में कुछ भी कहना ठीक ना समझा। उसे डर था कि उसके शब्द कहीं इस मौन को अर्थहीन ना कर दे।

‘‘फिर उन्होंने मेरे गर्भ का निरीक्षण करवाने की ठानी,’’ प्रिया ने एक लंबी सांस भरते हुए कहा।

‘‘गर्भ निरीक्षण? पर यह तो गैरकानूनी है ना मां?’’ उसने चौंकते हुए पूछा।

‘‘अहं और धन के लिए कुछ भी गैरकानूनी नहीं होता प्रियांशी !’’ उसकी मां ने उससे एक सपाट स्वर में जीवन की सचाई बताते हुए कहा, ‘‘गर्भ निरीक्षण के बाद हमें पता चला कि मेरे गर्भ में पल रहा शिशु वास्तव में एक कन्या है!’’ कहते हुए उसकी मां ना जाने यादों के किस भंवर में गोते खाने लगीं।

‘‘नन्ही-सी जान थी वह। अपने माता-पिता पर आश्रित ! उसकी रक्षा की जिम्मेदारी उसने आंख मूंद कर अपने मां-पापा पर छोड़ दी थी। पर उसे क्या पता था कि उसके रक्षक ही उसके भक्षक बनने वाले थे। मेरे गर्भ में कन्या के विषय में सुन कर मेरी सास, ससुर और करण- तीनों बहुत निराश हुए थे। पहले तो कई दिनों तक घर में मातम छाया रहा। मेरी जो देखभाल होनी थी वह हुई ही नहीं और फिर एक दिन करण की मां ने मेरा अबॉर्शन कराने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव में मेरी सहमति की मांग किसी ने नहीं की। बस एक फरमान सुना दिया कि मुझे यह गर्भ गिराना ही होगा। मैंने अपनी मां को फोन करके इस विषय में बताया, तो उन्होंने भी 4 बेटियों की मां होने की विवशता बताते हुए मुझे मेरी ससुराल वालों के अधीन छोड़ दिया। फिर... ’’

अपनी मां के उस मौन का अर्थ वह खूब समझ रही थी, ‘‘तुमने पुलिस की सहायता क्यों नहीं ली मां? सरकार ने इस विषय में कई कानून बनाए हैं !’’

‘‘जहां कानून है, वहां कानून तोड़ने वाले भी हैं, बेटा। और फिर उन्होंने मुझे कभी ऐसा मौका ही नहीं दिया कि मैं कहीं मदद की गुहार लगा सकूं। मेरी मां ने मेरी सास को सब बातें जो बता दी थीं। उन्हें मालूम था कि मैं इसके विरोध में हूं। और अकसर एक कमजोर स्वर को कई बुलंद आवाजें दबा देती हैं। कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ था, प्रियांशी।’’ उनकी आवाज में एक बेबसी थी, एक लाचारी भी।

‘‘देखते ही देखते मैं अपनी पहली बेटी की हत्यारी बन गयीं। और सिर्फ एक ही नहीं उसके अलावा मेरी 3 बेटियां समाज के इस भयावह दानव की लालसा का ग्रास बन गयी और मैं हर बार केवल दुख और मन मसोस कर रह गयी। इतने सारे अबॉर्शन के कारण मेरा शरीर भी क्षीण हो रहा था। करण और उसके परिवार की पुत्र कामना मुझसे मेरे तन और मन की बलि ले रही थी,’’ उसकी मां की आवाज में एक हारी हुई मां की बेबसी झांक रही थी।

‘‘मां !’’ अपनी मां का दुख देख कर प्रियांशी के मुंह से निकला।

उसके बालों को सहलाते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘शायद तुम्हारी बड़ी बहनें मेरे इस दर्द को समझ गयी थीं, तभी तो तुम्हारे जन्म के पहले उन्होंने चेतना को हमारी शक्ति के रूप में भेज दिया।’’

‘‘चेतना आंटी?’’ उसने पूछा। इतने वर्षों में मां की कोई सगी-संबंधी के रूप में उसने सिर्फ एक ही नाम को जाना पहचाना था, वह थी उसकी चेतना आंटी और उनका परिवार।

‘‘हां, चेतना से मेरी मुलाकात विधि का विधान ही समझो। अपनी चौथी संतान खोने के बाद मैं अस्पताल में बेसुध बैठी थी और मेरे ही बगल में चेतना भी बैठी थी। करण किसी कारण से मुझे अकेला छोड़ कर बाहर गए थे। मेरे मुख की मलिनता और शरीर की शिथिलता को देख उसे मेरी मनोस्थिति का अंदाजा हो गया था। बातों-बातों में उसने मेरे हृदय की व्यथा जान ली। उस वक्त तो करण के आ जाने के डर से हमने ज्यादा बातें नहीं कीं, किंतु हमने फोन नंबर अवश्य बदल लिए थे। फिर क्या था जब भी मौका मिलता मैं और चेतना एक-दूसरे से फोन पर बात करते। फिर तू मेरी कोख में आ गयी। मुझे पता था कि एक बार फिर वही खेल रचा जाने वाला है। ऐसे में चेतना ने मुझमें साहस और धीरज बांधा। मैं अब एक पांचवीं कन्या की अपराधी नहीं बनना चाहती थी। और इस बार संबल के रूप में चेतना मेरे साथ थी। फिर मुझे उसी डॉक्टर के पास ले जाया गया, जिसने पिछले 4 बार मेरा गर्भपात करवाया था। स्कैन हुआ और मुझे तेरे अस्तित्व का पता चला। उस दिन करण को मुझे अस्पताल में अकेला छोड़ कर जाना पड़ा था काम से। चूंकि डॉक्टर ने पिछली 4 बार मेरा इलाज किया था, तो करण को उन पर भरोसा भी था। करण के जाने के बाद मैंने उस डॉक्टर से एक ऐसा सवाल किया था, जिसने उनकी आत्मा को झकझोर दिया।’’

‘‘कैसा सवाल, मां?’’

‘‘उसके डेस्क पर एक छोटी बच्ची की तसवीर होती थी। मैंने उससे उस फोटो को दिखाते हुए पूछा, ‘अगर कल को कोई बलपूर्वक आपसे आपकी बेटी को मारने को कहे, तो आप क्या करेंगे, डॉक्टर साहब?’ मेरी बात सुन कर वह चौंके, फिर उनकी नजर मेरी कोख और तुम पर गयी। हर बार मेरे गर्भपात की पीड़ा उनके मन में तीर की भांति चुभी और उन्होंने तुम्हें बचाने में मेरी मदद करने की ठानी। उन्होंने एक गलत रिपोर्ट बना दी कि अबकी बार मेरे गर्भ में एक बालक पल रहा है। मेरी सास ने यह खबर सुन कर पूरे मोहल्ले में घी के दीप जलाए थे।’’

‘‘पर मां, झूठी रिपोर्ट?’’ प्रियांशी अचरज में थी।

‘‘किसी अजन्मे से जीने का हक छीनने से तो झूठी रिपोर्ट बनाना ज्यादा सही है ना?’’ उसकी मां की आवाज में एक तजुर्बा परिलक्षित हो रहा था, ‘‘उन्होंने मेरे ससुराल वालों को कह दिया था कि इस वक्त मेरी हालत बहुत नाजुक है और मेरे शरीर को पूर्ण विश्राम और अच्छे भोजन की आवश्यकता है, तभी शिशु स्वस्थ और बलवान होगा। उनकी यह बात सुन कर सारा घर मेरी देखभाल में व्यस्त हो गया। वे 8 महीने मैंने शादी के बाद पहली बार आराम से गुजारे थे। देखते ही देखते मुझे नौवां महीना भी लग गया। उस बार चेकअप करवाने मैं करण के साथ गयी थी। मैंने अचानक उससे जिद की कि मुझे चाट खानी है। अपने बच्चे के मोह में करण मुझे डॉक्टर के यहां छोड़ कर चाट लाने चला गया। उस दिन डॉक्टर साहब ने मुझे मेरी असली रिपोर्ट दी और उनके एक साथी डॉक्टर का पता भी दिया। मैंने सब कुछ वहां आयी चेतना के हवाले कर दिया।’’

‘‘चेतना आंटी?’’

‘‘हां, मैं चेतना से नाना बहानों से अकेले बाहर मिलती और अपने गहने, कपड़े और पैसे उसे दे देती। उस दिन अस्पताल में भी मैंने चेतना को आखिरी सामान के रूप में सारी रिपोर्ट और कपड़े दे दिए थे। दो दिन बाद जब करण अपने काम से शहर से बाहर जाने वाला था, तब उसी शाम को उसके जाने के बाद मैं वॉक के बहाने घर से निकली। बाहर थोड़ी दूर पर चेतना मेरा इंतजार कर रही थी। उसने मेरा टिकट और बाकी सारा इंतजाम करवा दिया था। उस शाम मैं उस नरक को छोड़ कर तेरे साथ एक नयी जिंदगी की शुरुआत करने यहां मणिपुर आ गयी। मैं जानती थी वे इतनी दूर खोजने नहीं आएंगे और मैं यहां चैन से तुझे वह परवरिश और जिंदगी दे पाऊंगी, जो मेरी 4 बेटियों से छीन ली गयी थी। यहां आ कर मैंने अपनी हस्तकला और ज्ञान को अपने जीवन का आधार बनाया। तेरे साथ जीवन के कई वर्ष हंसी-खुशी निकल गए। मैंने तुझे हर वो खुशी दी, जो मैं दे सकती थी। सिवाय तेरे परिवार के... प्रियू, इस चिट्ठी में मैंने तेरे पिता के उस घर का पता लिखा है, जिसे मैं छोड़ आयी थी। आज तू बड़ी हो गयी है इसलिए अब यह तेरा फैसला है। तू चाहे तो जा कर उनसे मिल, अपने होने का उन्हें भान करा, अपना वह परिवार भी पा ले,’’ उसकी मां ने एक कागज का छोटा सा टुकड़ा उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा।

प्रियांशी काफी देर तक अपनी मां के हाथ में उस सफेद चिट्ठी को देखती रही, जिसमें उसके अतीत के काले अक्षरों का नाम लिखा था। फिर उसने उसकी मां के हाथ से वह कागज लिया और उसे टुकड़ों में फाड़ दिया।

‘‘ये क्या प्रियांशी?’’ उसकी मां ने चौंकते हुए उससे पूछा।

‘‘जिन्होंने कभी मेरा अस्तित्व ही नहीं चाहा, उन लोगों के बारे में मुझे कुछ नहीं जानना, मां। मैं तो वैसे भी उनके लिए नहीं हूं ! फिर उन्हें मेरे अस्तित्व का ज्ञान क्यों कराना। जैसे हमारे लिए उनकी जिंदगी में जगह नहीं थी, उसी तरह हमारे जीवन में भी उनके लिए जगह नहीं है।’’ उसके इस निर्णय को सुनने के बाद उसकी मां अपने कमरे में चली गयी थी।

उसका निर्णय अब भी तटस्थ था। पर एक सवाल उसके मन-मस्तिष्क में अब भी कौंध रहा था। आखिर ऐसा कैसा विश्वास कि वह किसी के अस्तित्व पर बोझ बन जाए? संतान तो संतान होती है फिर चाहे लड़का हो या लड़की ! क्या बिगाड़ा था उसकी 4 बहनों ने उसके परिवारवालों का, जो उन्हें इस तरह मौत दे दी गयी ! क्या यह अंधविश्वास और पुत्र लालसा किसी के जीवन से बढ़ कर है?

खैर ! जो भी हो। अब यह तय था कि उसके जीवन में इन टुकड़ों की और उन टूटे रिश्तों की कोई जगह नहीं थी। उसके अस्तित्व और उसके स्व: में रिश्तों की कालिख वह लगने नहीं देगी। वह चांद है, धुंध चाहे कितना भी पर्यटन कर ले, वह चमकेगी और अपने हिस्से का आकाश अपने नाम लिखेगी।