Tuesday 04 July 2023 05:21 PM IST : By Rita Gupta

इल्जाम

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भागवंती कोठरी में आयी अपनी नयी मेहमान को आश्चर्य से देख रही थी, जिसे आए लगभग हफ्ता होने को था, पर अभी तक उससे ढंग से परिचय भी नहीं हुआ था। अभी तक भागवंती यही देखती आयी थी कि जो भी नयी कैदी कोठरी में आती, वह कुछ दिन-महीनों ऐसा विलाप करती कि कलेजा मुंह को आ जाए। दीवारों पर, सलाखों पर सिर पटकती औरतें कभी अपने को बेगुनाह कहतीं, तो कभी बाहर छोड़ आयी अपनी दुनिया के लिए रोतीं-चीखतीं। भागवंती के भी खुद के घाव हरे हो टीस देने लगते। अपने ऊपर लगे वे सारे लांछन और उसकी बेगुनाही बड़े से प्रश्नचिह्न का सलीब बन हृदय पर लटक जाते।

पर यह तो मानो किसी रिजॉर्ट में आ गयी हो, ऐसी तान कर सो रही थी मानो यह फर्श नहीं गद्देदार बिस्तर हो। कैदियों की दिनचर्या को भी इतनी सहजता से अपना लिया मानो सब सीख कर आयी हो। इतना पता चला था कि इसका नाम अनीता है और यह भी मर्डर केस में ही आयी है। अनीता ने अभी तक उससे बात नहीं की थी। उसकी बेफिक्री और चैन भागवंती के चैन चुरा रहे थे।

करवट ले कर लेटी अनीता मानो हिल रही हो, ऐसा उसे कई बार लगता। कभी-कभी रात में वह मानो कोई गीत गा रही हो या जोर से हंसने की आवाज आती। दिनभर मुर्दे की भांति पड़ी रहने वाली उसकी कारावास सहवासिनी में रात्रि में मानो विद्युत प्रवाहित हो जाता। कुल मिला कर उसकी उपस्थिति, उसकी रहस्यमयी चुप्पी और हरकतें बिना कुछ बोले ही एक भयभरी सिहरन उसकी रीढ़ में तरंगित कर रही थीं। जबसे उसने जेलर साहिबा को भी उसे डायन कहते सुना था, उसका भय दुगना हो गया था।

उस दिन भोर होने के कुछ पहले भागवंती की श्वान निद्रा को भंग किया एक बेहद धीमी आवाज की उदास तान ने। भागवंती दम साधे सुन रही थी।

पोसल मंयना दइया बोल उड़ी गेल

बोने बोने मंयना कांदय झरोझर भाई बोने बोने

बोने बोने मंयना कांदय झरोझर भाई

ना तोरा काका काकी ना दादी भउजी

बोने बोने मंयना कांदय झरोझर...

जाने किस भाषा में क्या गा रही थी वह, पर उस घोर अंधकार में उसे ना करवट बदलने की हिम्मत हुई, ना कस कर मिंची आंखें खोलने की।

अगले दिन जब रोशनदान से आती धूप चेहरे पर पड़ी, तो मानो रात्रि के भय भूत का दाह हुआ। भागवंती ध्यान से सोयी हुई अनीता को देखने लगी, कोई 33-35 के आसपास की लग रही थी। पैर भी मुड़े ना थे और नाखून भी लंबे ना थे। रंगत सांवला और बदन मंझोले कद का और बेहद कसा हुआ था। चेहरे की लुनाई और मासूमियत उस पर लगे इल्जाम की चुगली कर रहे थे और रात को उसको डायन-चुड़ैल बन जाने की समझ को झुठला रहे थे। अभी भागवंती ऊहापोह में ही थी कि उसने आंखें खोल दी और प्रश्नवाचक निगाहों से उसे घूरा। भागवंती ने झेंपते हुए कहा, ‘‘इतने दिन हो गए, पर तुमने कभी बात तक नहीं की, बस वही तुम्हें देख रही थी...’’

‘‘मालूम है कि नहीं मैं मर्डर करके आयी हूं, वो भी अपने पति का, सो जरा बच कर रहना मुझसे। डायन हूं मैं डायन,’’ आवाज के खुरदुरेपन और बेरुखी ने उसे हैरत में डाल दिया।

भागवंती उससे परे जा बैठी और नजरें फेर छत ताकने लगी। उसकी धड़कनें बेकाबू हुई जा रही थीं। कुछ क्षणों के लिए वही मनहूस चुप्पी फिर पसर गयी दोनों के बीच। आखिर अनीता ने ही सन्नाटे को तोड़ा, ‘‘अरे तू तो बुरा मान गयी, मैं तो अपना परिचय दे रही थी। अब तो सारी जिंदगी यहीं कटनी है। जिंदगी के उतार-चढ़ाव से बहुत थक चुकी हूं सो बस अब थकान उतारने की इच्छा है।’’

आ कर वह भागवंती के पास बैठ गयी। भागवंती ने उसकी ओर देखा, उसकी नम हो चली आंखों ने उसे द्रवित कर दिया। मानो दुख की दो नदियों की जीवन गंगा का इस छोटी सी कोठरी में संगम हो गया। फिर तो अश्रुधार की विकट लहरों पर दोनों महिलाएं अपनी अपनी संवेदनाअों की नैया ले डूबने-उतराने लगीं।

‘झूठ बोल रही है, कहीं डायन-चुड़ैल ऐसे बोलती हैं, ये ना होगी ऐसी,’ भागवंती ने मन ही मन में मानो खुद को तसल्ली दी।

‘‘मैंने तो कुछ किया ही नहीं था, मुझ पर देवर की बेटी की हत्या का आरोप है, मैं बांझ हूं ना। मैं कैसे उसे छत से नीचे फेंक सकती थी, अपनी शादी के बरसों बाद तो घर में किलकारी गूंजी थी। मैंने उसे बस कलेजे से लगाया था उस दिन, जिस दिन वह चार मंजिल से नीचे गिरी मिली। मेरी सास को वंश चलाने की बड़ी फिक्र थी, मुझ निपूती के बाद जब देवरानी को भी बेटी ही हुई, तो उनका चेहरा उतर गया था। मुझे जेल भेजने के महीनेभर के भीतर ही मेरे पति ने दूसरी शादी कर ली। एक तीर से दो शिकार किया उन लोगों ने,’’ भागवंती संक्षेप में अपना दुखड़ा बता गमगीन हो गयी। उसके बाद घंटों पूर्ववत चुप का ताला लटका रहा। हां, अब अनीता सोयी नहीं, बल्कि घुटनों में सिर घुसाए बैठी हुई थी।

‘‘दीदी...’’ अबकि अनीता के स्वर से वह खुरदुरापन गायब था, ‘‘मैं झारखंड के छोटे से गांव की आदिवासी लड़की हूं। मेरे माता-पिता को एक मोटी रकम और काम का प्रलोभन दे कर एक दलाल ने मुझे 17-18 वर्ष की उम्र में यहां विजय सिंह नामक 50 वर्षीय व्यक्ति के घर काम पर रख दिया था। हमारे गांव से लड़कियां काम करने कई जगहों खासकर दिल्ली जाती रही थीं, जो कभी नहीं लौटती थीं और लोग उन्हें सुखी समझ भूल भी जाते थे।’’

इतना कह अनीता मानो खो सी गयी, भागवंती को लगा कि जरूर उसे अपना बचपन, गांव, घर, गलियां याद आने लगी हों, सो वह भी धीरजपूर्वक उसकी अन्यमनस्कता दूर होने का इंतजार करने लगी। कुछ पलों के बाद वह अपने गुजरे पलों के पन्ने फिर पलटने लगी।

‘‘वह अकेला रहता था। उसकी पत्नी मर चुकी थी। मेरे सामने कोई चारा नहीं था, उसकी बात मानने के सिवा। मेरा और उसका रिश्ता मालिक और गुलाम का ही रहा। जब वह अपनी दुकान या कहीं और जाता, मुझे घर में बंद करके रखता था। मैं यहां दिल्ली में किसी को जानती भी नहीं थी। उन्हीं दिनों दो बातें हुईं, उसे व्यवसाय में बहुत घाटा होने लगा, जिसके चलते उसे अपना मकान तक बेचना पड़ा। दूसरा उन्हीं दिनों मुझमें गर्भवती होने के लक्षण भी दिखने लगे। मकान बेच कर हम किराए के मकान में रहने लगे। नयी जगह पर विजय ने मुझे अपनी पत्नी बताया सबको, बाद में मुझे एक बेटा हुआ। कुछ वर्षों तक वह ठीक ही रहा, गाली-गलौज, मारपीट से ज्यादा कुछ उसने नहीं किया। हम कहीं साथ जाते, तो लोग मुझे उसकी बेटी समझ लेते, वह धीरे-धीरे कमजोर और बूढ़ा हो रहा था। उसको अब मैं जब भी देखती, घृणा और वितृष्णा से भर जाती। अब मैं बाहर जाने लगी थी, उम्र के साथ मुझमें हिम्मत आने लगी थी। टीवी के जरिए भी बहुत कुछ सीख रही थी।

‘‘उन्हीं दिनों मुझे सोरेन मिला था एक दुकान पर, जो संयोग से मेरे गांव का निकला। उसने दुकान में मेरी बोली सुन मुझसे पूछा था कि मैं कहां से हूं। वर्षों बाद मुझे कोई मिला था, जो मेरी तरफ का था। सांवले-सलोने गठीले शरीर के सोरेन ने मुझे सहज ही आकर्षित किया था। वर्षों बाद मुझे अपनी मां की खबर मिली, जो आज भी मेरी राह तक रही थी, पिता जो मेरे जाने के बाद ग्लानि और दुख से चल बसे थे। मैं सोरेन से जल्दी-जल्दी मिलने लगी, उसकी संगत मानो बरसों से अतृप्त बंजर मन पर वर्षा की पहली फुहार सदृश्य लगती। विजय को मेरा खुश रहना, बढ़ता आत्मविश्वास अब चुभने लगा था। उसकी मार-पिटाई से अब मुझे दर्द भी नहीं होता। बुढ़ऊ मारता-पीटता हांफने लगता और मैं मुस्कराती हुई उसे दिनचर्या का हिस्सा मान दूसरे कामों में लग जाती। सोरेन का खुमार मानस पर ऐसा छाया रहता कि बुढ़ऊ की बातें नहीं छूतीं मुझे। इस बीच वह कोई और धंधा करने लगा था, जिसके चलते अलमारी नोटों से भरी रहती। मैं उसमें से पैसे निकाल भी लेती, तो उसे पता नहीं चलता। सोरेन की जब-तब मैं मदद कर देती, उसने वादा किया था कि गांव जाने पर वह मेरी मां को लेता आएगा।’’

‘‘जब तुम्हें इतनी आजादी मिलने लगी, तो तुम अपने गांव घर वापस लौट क्यों नहीं गयीं,’’ भागवंती ने अपनी उत्सुकता की पोटली खोली।

‘‘कोई 14-15 साल हो गए थे विजय के साथ रहते, दस साल के बेटे को ले कर मैं कहां जाती वापस, फिर वह पत्नी के समान ही तो मुझे रखे हुए था। और फिर एक दिन सोरेन मेरी मां को ले कर दिल्ली चला आया। उस दिन बुढ़ऊ विजय ने पहली बार सोरेन को देखा, उसकी अचकचाहट भरी चौंक देखने लायक थी। उस दिन मानो उसे दौरा सा पड़ गया, जानवरों से भी बदतर उसने बर्ताव किया हम तीनों के साथ। सोरेन तो तुरंत उलटे पांव लौट गया, पर मां जिसे मैंने बरसों बाद देखा, उसकी झुर्रियों तक को मैं ठीक से गिन नहीं पायी। रातभर मैं दर्द से कराहती रही, बेबस मां ने भी अपनी बेटी के वीभत्स जीवन की संपूर्ण झांकी उस रात देख ली।

‘‘सच कहूं दीदी, उस दिन मुझे बहुत अफसोस हुआ कि मैंने उस नीच को अब तक छोड़ा क्यों नहीं। हालांकि बहुत हद तक मां भी तो जिम्मेदार थी ही मेरी दुर्गति की,’’ फफक कर रोती अनीता कटे पेड़ की तरह भागवंती की गोद में सिर रख गिर पड़ी।
अगले दिन जेल की दिनचर्या निपटा कर जब दोनों औरतें अकेली हुईं, तो भागवंती की उत्सुकता मुखर हुई, ‘‘तो क्या तूने उसी दिन उसे खत्म कर दिया।’’

उसकी आंखें विस्फारित हो फैल रही थीं। ‘‘नहीं-नहीं, दूसरे दिन जब होश आया, तो खुद को अपनी वृद्ध मां की गोद में पाया। दीदी, शायद वह पल मेरी जिंदगी के सबसे मधुर पलों में एक था। मां 4-5 दिन मेरे साथ रही। उसे अपने उस फैसले पर बड़ा अफसोस होता रहा कि क्यों उसने मुझे दिल्ली भेजा था। वह बता रही थी कि अब गांव के लोग दलालों के झांसे में नहीं आते हैं, पर तब तक नदी में बहुत पानी बह चुका था। अच्छी बात बस यह हुई कि मेरा बेटा जो हमेशा गुमसुम रहता था, वह मेरी मां के साथ खिल सा गया। बेचारे को बाप से अकसर गालियां ही मिला करती थीं।

‘‘इस बीच विजय, सोरेन को ले कर मुझसे हजारों सवाल पूछ चुका था। आतंक के साये में मानो दिन गुजर रहे थे कि एक दिन बुढ़ऊ ने आ कर कहा, ‘‘चल सासू मां, तुझे स्टेशन छोड़ आऊं, मैं टिकट खरीद कर भी ले आया हूं। ऐसे आश्चर्य से क्यों देख रही है, तुम्हारी मां तो मेरी सास ही ना होगी,’’ मुझे प्रश्नवाचक निगाहों से ताकते देख उसने मिश्री घुले शब्दों में कहा।

‘‘कुछ ही देर में वह मां को ले कर स्टेशन चला गया। पंद्रह सालों के बाद मां से मिलना मेरे लिए सपने की ही तरह था। सच कहूं, मां के प्रति अब कोई गिला शेष नहीं रहा था। पर अब बुढ़ऊ विजय के संग रहना मुझे नागवार लगने लगा था। आसक्ति तो कभी थी ही नहीं, परंतु अब विरक्ति और विकर्षण चरम पर थे। सोरेन का मोहपाश मुझे हर वक्त खींचता, मां के आने पर हुए तमाशे के बाद से उससे मिलना नहीं हुआ था। एक दिन मौका निकाल कर उस दुकान पर जा पहुंची, जहां वह काम करता था। बातों-बातों में पता चला कि मां तो गांव पहुंची ही नहीं है।’’

‘‘हो ना हो उसे गायब करने में विजय का ही हाथ हो, क्योंकि आखिरी बार तो उसी के संग निकली थी,’’ सोरेन ने जब ऐसी आशंका व्यक्त की, तो मेरी सहनशीलता जवाब दे गयी,’’ अनीता ने ये कहते हुए थाेड़ा विराम लिया। कुछ देर तक भागवंती के फक पड़े चेहरे को ताकते हुए उसने खड़ी हो लोहे की सलाखों को कस कर पकड़ते हुए कहा, ‘‘उस दिन मैं पूरी तैयारी से लैस हो कर ही अपने नर्क में लौटी। आते ही उसने सोरेन को ले फिर मोटी-मोटी गालियां देनी शुरू कर दीं, पर मैं अनसुनी कर रात का खाना बनाने लगी। उस रात उसने जम कर खाया और कहा भी कि आज खाना बहुत बढि़या बना है। मैंने मुस्कराते हुए उसे सारा खाना खिला दिया। मुझे तो यों भी नहीं खाना था, क्योंकि खाने में मैंने जम कर नशा मिला दिया था।’’
अनीता की कहानी मुकाम तक पहुंचने को थी, रात गहराती जा रही थी, भागवंती अब लेट कर सुनने लगी, मानो जैसे विजय का काम तमाम हो और वह नींद की आगोश में चली जाए।

अनीता आगे बता रही थी, उसकी आवाज का खुरदुरापन वापस आ गया था, मानो भागवंती को अब उसके उल्टे पैर और लंबे नाखून बढ़ते हुए से दिखने लगे, ‘‘खाते-खाते बुढ़ऊ नशे में लुढ़क गया। मैंने मटन काटने वाले तेज धार के चाकू से उसकी गरदन को रेत-रेत कर धड़ से अलग कर दिया। बहुत सुकून का अनुभव हो रहा था। पर उसके शरीर को कैसे छिपाया जाए, यह सोचते हुए मैं उसके छोटे-छोटे टुकड़े करने लगी। फिर आराम से घर के कच्चे आंगन में गड्ढा खोद कर उन्हें गाड़ दिया। पूरी रात में यही सब करती रही। सुबह मुंह अंधेरे कटा सिर और बाकी भाग, जिन्हें गाड़ नहीं पायी थी, को थैले में डाल कर एक नाले में बहा आयी। साथ ही बहा आयी अपने बुरे दिन और वीभत्स यादों को भी। जेहन में एक सुकून सा अनुभव होने लगा। वर्षों बाद पहली बार जाना कि उसके बिना जिंदगी कितनी हसीन है। पुलिस थाने जा कर मैंने उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवा दी, टीवी पर मैंने क्राइम सीरियलों से बहुत कुछ सीखा है।’’

‘‘जब सब इतनी आसानी से हुआ, तो तुम गिरफ्त में कैसे आ गयी?’’ भागवंती ने एक जायज सा प्रश्न किया।

‘‘मैंने 14 फरवरी की रात उसे ठिकाने लगाया, कोई महीनाभर मैं चैन से रही कि एक दिन मकान मालिक किराया वसूलने आ टपका। उसे बैठा मैं अलमारी से पैसे निकालने लगी कि वह मुआयना करते आंगन में जा पहुंचा। जाने कैसे उसे आभास हुआ कि वह वहीं की मिट्टी हटाने लगा, जहां उंगलियां गड़ी थीं मुए की। फिर तो मैं पुलिस के सामने टिक ना पायी और विजय की हत्या के इकबालिया बयान के बाद यहां आपके साथ बाकी जिंदगी काटने आ गयी। पता नहीं आपने शायद उस दौरान के अखबार ना पढ़े होंगे, जिसमें मुझे पतिहंता, पापिन और डायन तक कह कर संबोधित किया गया। पर उस ड्रग डीलर विजय की मेरे प्रति किए गए जुल्मों की चर्चा तक नहीं की गयी,’’ इतना कहते-कहते अनीता करवट ले कर लेटने का अनुक्रम करने लगी। तभी भागवंती ने पूछा, ‘‘और तुम्हारा बेटा... सोरेन सब अब किधर हैं।’’

तब तक अनीता अपनी बेफिक्री वाली नींद की आगोश में समा चुकी थी। अनीता के सारे राज उगलवा लेने के बाद भागवंती को अब चैन महसूस हो रहा था। मन के एक कोने में भय भी जाग्रत होने लगा था- ऐसी हत्यारिन के साथ रहना होगा। अंधेरे में उसे फिर उसकी हंसी और कोई गीत सुनायी देने लगी। नींद ना आने का आज यह बहाना हो गया और वह फिर अनीता की नींद से रश्क करने लगी।

उधर दूसरी ओर करवट बदल अनीता सोच रही थी, ‘मैंने लगभग वही कहानी सुनायी, जो पुलिस को सुनायी थी। कम से कम यह सुकून तो है ना कि मेरा बेटा अपनी नानी के साथ रांची में खुश तो रहेगा। चौदह साल जेल की सजा हर मायने में उस सजा से कम तकलीफदेह होगी, जो वह विजय के संग काट कर आयी है। पहली बार तो जीवन में प्रेम का अनुभव हुआ, सोरेन के लिए इतना तो कर ही सकती हूं कि उसकी सजा मैं भुगत लूं, वरना मेरी क्या बिसात, जो मैं इंसान को काट सकूं। विजय की अलमारी में भरे रुपयों से सोरेन गांव से दूर रांची शहर में कोई धंधा अवश्य करके मेरे बेटे को पाल ही देगा। वह सुबह कभी तो आएगी, जब मेरी दोहरी उम्रकैद की मियाद पूरी हो जाएगी,’ बेटे के सुखद भविष्य की कल्पना करते-करते वह नींद के आगोश में समा गयी।