Thursday 11 July 2024 04:27 PM IST : By Preeta Jain

क्या तेरा क्या मेरा

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ढोलक की थाप, आशीर्वाद के गीतों से माहौल खुशनुमा हो रहा था। नाते-रिश्तेदारों की बातचीत हंसी के ठहाकों से सभी आनंदित थे, लेकिन सुप्रिया का मन आज कुछ ज्यादा ही खुशी से झूम रहा था। उसका बेटा अपनी नयी मां यानी उसकी जेठानी शिखा दीदी के आंचल में जा रहा था। सुप्रिया तो बस अपने में ही मगन थी, कितनी भाग्यशाली है वह, उसके बच्चों को 2-2 मां का प्यार मिल रहा है। इतने प्यार, दुलार, संस्कारों से परिपूर्ण उनका परवरिश होगी, इठलाता बचपन बीतेगा।

याद आने लगा सुप्रिया को वह समय, जब वह शादी कर ससुराल आयी थी। जेठानी शिखा ने इतना ध्यान रखा और परिवार के हर सदस्य से ऐसे मिलवाया कि लगा ही नहीं अपरिचितों के बीच आज पहला दिन है। पगफेरे के लिए मायके जाने फिर वापस आने के बाद हर पल उसके साथ रहतीं। जेठानी ने सभी के रहन-सहन, खानपान की आदतों से ऐसे परिचित करा दिया जैसे वर्षों से जानती हो। कुछ भी अजनबी या अटपटा नहीं लगने दिया।

सुप्रिया व वैभव का बाहर घूमने का प्रोग्राम बना, तो हंसी-खुशी उनकी तैयारी करवायी, जबकि वे तो सौरभ भैया के साथ कई महीनों से बाहर घूमने नहीं जा सकी थीं। इतना ही नहीं, जाते-जाते भी यही कहती रहीं, ‘‘सुप्रिया, घूम-फिर कर एंजॉय कर आना। ये दिन बार-बार नहीं आते, बस यादें रह जाती हैं।’’

आने के करीब 2-3 महीने बाद ही सुप्रिया की तरफ से खुशखबरी आ गयी। सभी बहुत खुश थे, क्योंकि शिखा भाभी शादी के 3 साल बाद भी इस सुख से वंचित थीं। पर घर के बाकी सदस्यों के साथ उनकी खुशी देख कर तो ऐसा लग रहा था, जैसे यह खुशखबरी सुप्रिया की ना हो कर शिखा की हो। बार-बार सुप्रिया व अपनी सास के गले लग कर अंदरूनी प्रसन्नता जाहिर कर रही थीं।

कितना ख्याल रखा भाभी ने। जरा भी घर के काम ना करने देतीं। कहतीं, ‘मैं कर लिया करूंगी, किसी भी तरह की टेंशन ना लो, आराम कर, खुश रह।’ दोपहर के समय करीब 4-5 बजे जोर की भूख लगती मन करता कुछ खा लूं। मम्मी जी खाने-पीने का बहुत ध्यान रखतीं, लेकिन शिखा भाभी तो जिन्न थीं। चार बजे नहीं कि कुछ ना कुछ खाने का ले कर कमरे में ही आ जातीं और कहतीं, ‘शिखा फटाफट खा, भूख का अहसास ही ना किया कर।’

मेरे दिन चढ़ने की खबर से सभी पारिवारिक सदस्य उत्साहित व हर्षित थे, लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जो कहीं ना कहीं खुशी कम करने की कोशिश में लगे रहते हैं। उस दिन नीलम बुआ आयी हुई थीं। सुबह से ही भाभी को अकेले घर के काम करते हुए देखे जा रही थीं। सबके बीच इतने प्रेम, अपनत्व, लगाव की शायद उन्हें उम्मीद ना थी। घर की सुख-शांति रास नहीं आ रही थी। आखिरकार शिखा भाभी के खाना परोसते वक्त उन्होंने कह ही दिया, ‘‘इस घर के लिए तूने इतना किया बदले में तुझे क्या मिला, काम और ताने। हर आने-जाने वाला तुझे बेचारगी की नजरों से देखता होगा। छोटी बहू तो आते ही सर्वेसर्वा हो गयी। वह खुशी सुना दी, जो तू 3 साल में ना दे सकी। कितना खराब लगता होगा जब तेरी सास या कोई गोद सूनी होने का सुनाता होगा। खैर ! कोई बात नहीं बेटा, सब्र कर भगवान तेरी भी सुनेगा और गोद भरेगा।’’

आशा के विपरीत बुआ जी की बातें सुन कर भाभी हंसने लगीं और कहा, ‘‘आप अपने ही परिवार को नहीं जानतीं यहां सब कितने अच्छे हैं। पापा जी या मम्मी ने तो आज तक मुझे बहू नहीं समझा, बेटी से भी बढ़ कर प्यार दिया। मन को चुभनेवाली बात मेरे मन में तो आ भी जाए, तो मम्मी अहसास भी नहीं होने देतीं। हमेशा पॉजिटिव सोच के साथ यही समझाती हैं कि तुम्हारे अच्छे किए का फल ईश्वर अच्छे परिणाम में ही देंगे। बुआ जी, हम सब एक ही हैं फिर बच्चे अलग क्याें। हम तो यह जानते हैं घर में नन्हा मेहमान आनेवाला है, जो सभी का लाड़ला-दुलारा होगा, उसकी किलकारियों अठखेलियों से घर रोशन हो जाएगा।’’

नीलम बुआ जी तो भाभी को अपलक देखती ही रहीं। उनका मकसद कुछ और ही था, पर आपसी प्यार, अपनत्व के आगे तो वापस जाने में ही अपनी भलाई समझी।

खैर, नन्ही रिया भी आ गयी। सबकी चहेती बन कभी किसी के तो कभी किसी के हाथों में रहती। मेरे से ज्यादा उसका ख्याल भाभी रखतीं। खाने-पीने से ले कर नहलाना-धुलाना हर काम में अपना सहयोग देतीं। रात को भी उसके रोने की आवाज आती, तो परेशान हो जातीं। उसके सोने तक छुप-छुप कर भागदौड़ करती ही रहतीं।

रिया 3 साल की थी, तो इतना बीमार हुई कि 2-4 दिन हॉस्पिटल में रहना पड़ा। मुझसे ज्यादा बुरा हाल भाभी का था। मुझसे यही कहती रहतीं, ‘‘तू रिया के पास रह उसकी देखभाल कर, बाकी सबका मैं ध्यान रख लूंगी। तुझे कुछ करने की जरूरत नहीं है।’’ और ऐसा था भी। जितने भी मिलने-जुलने वाले लोग हॉस्पिटल आते, उन सबका खाना बना-बना कर भेजतीं। सब कुछ खुद ही संभाल रखा था।

जब रिया ठीक हो घर लौटी, तो मेरे और मम्मी दोनों के ही मुंह से एक साथ निकला, ‘‘लो संभालो अपनी बेटी।’’ फिर हम सभी हंस दिए, क्योंकि भाभी का ना तो रोना बंद हो रहा था, ना ही उसे प्यार करना।

उस एक क्षण मुझे यही अहसास हुआ कि तेरा-मेरा कुछ नहीं होता। ये रिश्ते हम इंसान के हैं, हमारे ही द्वारा बनाए गए हैं। इनमें हम चाहे तो प्यार-लगन या फिर राग-द्वेष ला सकते हैं। पारिवारिक सदस्य जो एक साथ रहते हैं, सभी की भावनाएं, संवेदनाएं, इच्छाएं एक ही रहती हैं। सोच-विचार एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं। जरूरत है दिल से एक होने की, एक-दूसरे से रिश्ता कायम रख सहेजने की। पारिवारिक सदस्यों की आपसी बातों, क्रियाकलापों को ले कर पॉजिटिव ही सोचना चाहिए। जैसा सोचेंगे वैसा ही मान-सम्मान उनके प्रति पनपता है। आज मेरे और शिखा भाभी के बीच देवरानी-जेठानी की दीवार हटा कर जो स्नेह का सेतु बना है, वह आपसी समझ, एक-दूसरे के प्रति त्याग-समर्पण का ही नतीजा है कि मेरे लिए वे जेठानी कम बहन, सखी, शुभचिंतक सभी कुछ हैं।

समय अपनी गति से चल ही रहा था। धीरे-धीरे अहसास होने लगा था इलाज होते हुए भी भाभी शायद मातृत्व सुख से वंचित रह जाएंगी। उम्मीद की किरण अब सभी को कम दिखायी देने लगी थी। परंतु भाभी जरा भी अहसास ना होने देतीं अपने अंतर्मन की करुणा व्यथा का। सबके सम्मुख ऐसे चहकती रहतीं जैसे कुछ बात ही नहीं है। वे सब बातों से अनजान हैं, किंतु मैं... मैं तो उनका दर्द, उनकी पीड़ा जान सकती थी। मां बनने के बाद मां ना बन पाने के दुख को समझ सकती थी, मन की उथलपुथल, व्यग्रता पहचान सकती थी।

खैर, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं था। अब समय था कि मैं उनकी मानसिक स्थिति जानते हुए कुछ ऐसा करूं कि केवल दिखावे मात्र के लिए नहीं, वरन वे अंतर्मन से प्रसन्न व संतुष्ट रहें, जीवन की किसी भी खुशी से पीछे ना रह पाएं। मन ही मन एक निर्णय मैंने ले लिया था। वैभव को भी अपने मन की बात कही। एक बार को तो वे बहुत विचलित हुए, पर यही कहा तुम्हारे निश्चय, तुम्हारी बात से मैं सहमत रहूंगा। फिर अपनी बात, अपनी सोच पर अटल रहने का स्वयं से संकल्प करते हुए दैनिक क्रियाकलापों में व्यस्त होती गयी।

उस दिन बारिश होने से मौसम बड़ा सुहावना था। फैक्टरी से सौरभ भैया तथा वैभव दोनों घर जल्दी आ गए। बातों ही बातों में सबका घूमने का प्रोग्राम बन गया। रिया के साथ भैया-भाभी को तल्लीनतापूर्वक खेलते देख मन की थाह जानने के लिए जिज्ञासावश पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप हमेशा ही मेरे बच्चों के माता पिता बन कर रहेंगे?’’

प्रश्न पूरा भी ना हुआ कि भैया ही बोल पड़े, ‘‘शिखा को जानती हो ही कितनी जान बसती है उसकी रिया में, पर मैं कह नहीं पाता ना ही व्यक्त कर पाता हूं, किंतु ना तो अपने और वैभव में कभी अंतर किया, ना ही बच्चों में कर सकूंगा। दो शरीर एक जान ही बन कर रहेंगे।’’ भैया के द्वारा ऐसा सुन मन बहुत खुश हुआ। ऐसा लग रहा था आपसी तालमेल रहने से दिन पर दिन संबंध और मजबूत गहरे होते जाते हैं, विच्छेद की कहीं गुंजाइश ही नहीं रह जाती।

एक दिन सुबह सो कर उठी, तो मन कुछ अच्छा नहीं था। तबीयत ठीक ना होने से अजीब सी बेचैनी हो रही थी। घबराते हुए आननफानन में डाॅक्टर को दिखाया गया, पर आशा के विपरीत जो खबर मिली सबके चेहरे खुशी से चमक उठे, सभी झूम उठे। मैं दोबारा मां बनने वाली थी, नया सदस्य घर में आने वाला था। फिर से मेरी देखभाल होने लगी। शिखा भाभी तो पूर्ववत मेरा ध्यान रख ही रही थीं। आखिरकार मैंने समय आने पर प्यारे से बेटे को जन्म दिया और सबको नए रिश्तों से एक बार फिर बांध दिया। स्वयं भी पुनः मां बनने का अहसास अत्यंत तृप्त कर रहा था। मन मेरा भी खुशी से हिलोरें लेने लगा था। अपने ही अंश को दिनभर प्यार करना, खुद से लगाए रखना दिल को बहुत भाने लगा था। कभी एक सेकेंड अलग रहने की कल्पना से भी डर जाती थी, पर अपना निर्णय, अपने से किया वादा मुझे याद था। अपनी भाभी को भी मुझे खुशी देनी थी, मां बनने की अनुभूति करानी थी। वैभव को मैंने पहले से ही अपने फैसले पर अडिग रहने को समझा दिया था कहीं ना कहीं तो भैया-भाभी की खुशी ही चाहते थे।

फिर एक दिन जब सभी लोग खाने के बाद साथ बैठे मैंने अपने मन की बात कहनी शुरू की, ‘‘मैंने बहुत सोच-समझ एक फैसला लिया है, जिसमें आप सभी की राय व सहमति अत्यंत जरूरी है। आप सबके बिना मेरी बात अधूरी ही है। चाहती हूं यश भैया-भाभी का बेटा बन कर रहे, उन्हीं की औलाद के रूप में उसकी पहचान हो।’’

अचानक इस तरह की अप्रत्याशित बात से सभी हक्केबक्के रह गए। मम्मी-पापा जी की आंखों में तो उनके कहे बिना मैंने ‘हां’ पढ़ लिया। वे तो समझ ही नहीं पा रहे थे क्या शब्द कहें, कैसे इस पर अपनी प्रतिक्रिया दिखाएं। वे बस मुझे अपलक देखते हुए अपने घर आनेवाली खुशियों का इंतजार करने लगे थे। भैया-भाभी जरूर मेरी बात का विरोध करने में लगे रहे। यही कहते रहे, ‘‘दोनों ही बच्चे हमारे हैं। तुम्हारी गोद में रहें या हमारी, क्या फर्क पड़ता है। इन्हें दोनों ही मां-पिता का प्यार ताउम्र मिलता रहेगा, सदा हम एक ही रहेंगे और ये हमारे बच्चे हमारी जान हमारी खुशियां।’’

दिन इसी ऊहापोह में बीत रहे थे फिर एक दिन मैंने व वैभव ने सबके साथ बातचीत कर अंतिम निर्णय लेने का मन बनाया। आखिरकार भैया-भाभी को हमारी बात माननी ही पड़ी। तय हुआ कि यश जब 9-10 महीने का हो जाएगा, तो एक तो मुझ पर अपनी जरूरतों के लिए कम निर्भर रहेगा, दूसरा एक साल का होते-होते इसके जन्म का भी फंक्शन हो जाएगा। साथ ही सभी रिश्तेदारों के बीच भैया-भाभी को सौंपते हुए जो थोड़ी-बहुत कानूनी कार्यवाही होगी, वह भी पूरी कर दी जाएगी।

कहते हैं ना, जो सोचते हैं वह दिन आ ही जाता है। आज मेरे जीवन का वह अविस्मरणीय दिन आ ही गया, जो मेरे लिए दुख व सुख साथ-साथ लाया था। समझ नहीं आ रहा था रोऊं या हंसू, पर खुशी का अनुपात ज्यादा था, क्योंकि मेरी भाभी आज मां बनने जा रही थी। उनकी एक नयी पहचान होने वाली थी।

तभी मम्मी की आवाज सुन मैं वर्तमान में लौटी। काफी देर से अपने में ही खोयी हुई थी। सभी बातें मुझे याद आ रही थीं। एकाएक मैंने अपने को संभाला और सभी के सम्मिलित स्वर के साथ भगवान के नाम की जय-जयकार करते हुए अपने बेटे यश को उसके नयी मां की गोद में दे दिया। भाभी को आज एक नए रूप में देख कर जो खुशी हो रही थी, उसे बयां करना मुश्किल है, निशब्द है। उनके मां बनने की खुशी महसूस करते हुए उन्हें मन ही मन ढेरों शुभकामनाएं, बधाइयां देते हुए मेहमानों की आवभगत में लग गयी।