‘‘हेलो साक्षी, कैसी हो...’’
‘‘मैं ठीक हूं मम्मी... आपका बेसब्री से इंतजार हो रहा है। मेरी डिलीवरी से बच्चे के अन्नप्राशन तक सारे काम आपको संभालने हैं।’’
‘‘सब संभाल लूंगी। तू बस न्यूट्रीशस खाना, इस समय भारी खाना सही नहीं।’’
‘‘हां मम्मी, मंगला बुआ भी ढेर सारी हिदायतें दे गयी हैं...’’
‘‘आयी थीं क्या?’’
‘‘हां, परसों ही तो आयी थीं। आपको फोन नहीं किया क्या उन्होंने... कह रही थीं कि आपसे बात करेंगी। काफी दिनों से फोन नहीं आया...’’
‘‘अच्छा, अभी तक तो नहीं आया...’’ जाने कैसे झूठ उसके मुंह से निकल गया। सच तो यह था कि कल सुबह जीजी की दो मिस्ड कॉल देख कर भी उसने उन्हें फोन नहीं किया।
पिछले कुछ समय से वह एक अटपटी सी खीज के तहत जीजी को नजरअंदाज करने लगी है, जबकि पहले ऐसा नहीं था। मुनीश की बड़ी बहन और अपनी इकलौती ननद मंगला जीजी से उसकी खूब बनती थी। पर इस साल कुछ ऐसा हुआ कि मन में जीजी के प्रति दुर्भाव भर गया। कारण किसी को बताती, तो उसकी स्वयं की परिपक्वता पर प्रश्नचिह्न लगता। खुद भी वह स्नेहमयी ननद के प्रति अपने कुढ़न वाले रवैए का तुच्छ प्रदर्शन सही नहीं समझती।
जीवन में अकसर ऐसे अवसर आते हैं, जब जरा सी बात पर अंतर्मन करीबी रिश्तों के प्रति उदासीनता ओढ़ लेता है। ऐसा अवसर तब आया जब मंगला जीजी उसके बेटे-बहू के साथ उदयपुर आयीं और लॉकडाउन में फंस गयीं।
‘‘मम्मी... मम्मी...’’
‘‘अं... हां...’’ साक्षी की आवाज पर वह चौंकी।
‘‘मम्मी, मूंग दाल के लड्डू बना लाना, ये कई बार याद कर चुके हैं।’’
यह सुन कर ख्यालों को झटकती वह सचेत हुई, ‘‘हां-हां ले आऊंगी... चलो, अब फोन रखती हूं। मुझे बहुत काम है...’’ जया ने बहू से कहा और फोन रख दिया।
आंखें मूंद कर सिर सोफे पर टिकाया, तो स्मृति पटल पर मंगला जीजी एक बार फिर छा गयीं। ‘‘बड़ा मन करता है जया, कुछ दिन तुम लोगों के पास आ कर रहूं...’’ जीजी जब-तब कहतीं, तो वह बोलती, ‘‘जयपुर से उदयपुर है ही कितनी दूर... जब भी शौर्य-साक्षी यहां आएं, उनकी कार में बैठ कर चली आओ। एक ही शहर में रहने का इतना फायदा तो भतीजे से उठाओ...’’
होली के बाद शौर्य-साक्षी के उदयपुर आने का कार्यक्रम बना है। यह जीजी को पता चला, तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गयीं। शौर्य-साक्षी अपने साथ अपनी मंगला बुआ को भी उदयपुर ले आए।
उदयपुर आ कर सब बहुत खुश थे, पर 3-4 दिनों में सबको कोरोना को ले कर तनाव होने लगा। अनिश्चितता के माहौल में वे सब वापस जाने का निर्णय लेते, उससे पहले ही लॉकडाउन की घोषणा हो गयी।
जो जहां था वहीं थम गया। ‘अपनों के बीच हैं’ यह सोच कर सब संतुष्ट थे। साक्षी-शौर्य का ऑफिस वर्क फ्रॉम होम में तब्दील हो गया।
प्रतिकूल परिस्थितियों में जब बाहरी मदद बंद हो तब काम बढ़ जाना स्वाभाविक था। मंगला जीजी मना करने के बावजूद साधिकार घरेलू कामों में सहायता करवातीं।
साक्षी को घर के काम करने की आदत नहीं है, और कहीं जीजी बुआ सास होने के नाते उससे कोई अपेक्षा ना रखें, इस कारणवश उसने उनके वर्क फ्रॉम होम को सुरक्षा कवच बना कर उन्हें घर के कामों से बचा लिया।
साक्षी कभी रसोई में आती भी, तो ‘‘तुम अपना ऑफिस संभालो... ये सब हम कर लेंगे... कुछ खाने का मन हो तो बता देना...’’ या छुट्टी के दिन, ‘‘मूवी देख लो, आराम कर लो...’’ कह कर वह जीजी के सामने ममतामयी सास का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए साक्षी को रसोई से दूर रखती।
वैसे भी कुछ दिनों के लिए आयी बहू को घर का काम सिखाने की माथापच्ची में उसे कोई तुक नहीं नजर आता। बेवजह की रोकटोक, काम सिखाने का फिजूल प्रयास उसे ससुराल से विमुख ना कर दे, यह सोच कर वह बेटे-बहू को छुट्टियों सा माहौल दे कर भरपूर स्पेस देती। पर जीजी बेचैन हो कहतीं, ‘‘कब तक बहू की मेहमानी करोगी। उसे भी कुछ काम बताया करो।’’
ऐसा नहीं था कि साक्षी हाथ बंटाने का प्रयास नहीं करती, पर वह स्वयं ही उसके अनभ्यस्त धीमे चलते हाथों को देख ऊब जाती और स्वयं काम ओढ़ लेती। वह जानती थी कि लैपटाॅप पर थिरकती उंगलियां घरेलू काम करने में निरी अनाड़ी हैं।
साक्षी और शौर्य अपने कलीग्स के लॉकडाउन की संघर्ष बयानी करते और अपने भाग्य पर अघाते नहीं थकते।
‘‘मम्मी, हम जयपुर में होते तो हमारा क्या होता। अच्छा हुआ, जो यहां आपके पास आ गए।’’ उन दोनों के मुंह से कुछ ऐसा सा सुन कर उसका मनमयूर नाच उठता। सच तो यह था कि काम बढ़ जाने के बावजूद बेटे-बहू के साथ रहने का संतोष अंतर्मन को भिगो देता।
शौर्य की शादी के बाद यह पहला मौका था, जब दोनों उनके साथ इतने दिनों तक रहे थे। ऐसे में वह किसी ऐसे कारण को जन्म देना नहीं चाहती थी, जिससे बच्चों में अपने घर जाने की लालसा जगे।
कुछ दिन तो मजे से रहीं फिर उनको भी अपने बेटे-बहू और पोते से मिलने की चाहत शुरू हो गयी, ‘‘यह लॉकडाउन कब खुलेगा,’’ वे बेचैनीभरे स्वर में कहने लगी थीं। उधर कोरोना को ले कर स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी।
तीसरे लॉकडाउन के आते-आते जब थोड़ी ढील मिली, तब एक दिन शौर्य बोला, ‘‘मम्मी, बुआ कई बार पूछ चुकी हैं कि कब चलेंगे... मेरे ख्याल से हमें अब जाने के बारे में सोचना चाहिए।’’
यह सुन कर ना चाहते हुए भी उसके मुंह से निकला, ‘‘उन्हें ला कर तो मुसीबत मोल ले ली। ना खुद चैन से रहेंगी, ना रहने देंगी... पहले यहां आने को बेचैन थीं। अब यहां रहने का मौका मिला है, तो जाने को छटपटा रही हैं।’’
‘‘अरे, इतने दिनों का सोच कर थोड़े आयी होंगी, क्या जानती थीं कि लॉकडाउन हो जाएगा। हमारा तो चलो ये अपना घर है, पर बुआ... अपनी फैमिली तो मिस करती होंगी।’’
‘‘अब जो भी हो, तुम्हारा वर्क फ्रॉम होम है, फिर ऐसे माहौल में वहां जाने का क्या तुक। खुद भी परेशान रहोगे, हमें भी चिंता में डालोगे। अच्छा ये बता, साक्षी को यहां रहने में कोई प्रॉब्लम तो नहीं...’’
‘‘अरे नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं है। उसकी तो ऐश ही है यहां...’’
‘‘तो फिर ठीक है। जब तक तुम दोनों का ऑफिस का काम घर से चल रहा है यहीं रहो। रही बात जीजी की, तो उन्हें जयपुर भिजवाने का कोई इंतजाम कर लेंगे।’’
‘‘अच्छा नहीं लगेगा मम्मी... हमारे साथ आयी हैं, तो साथ ही जाएंगी।’’
शौर्य को जीजी के पक्ष में खड़ा देख वह झुंझलायी, ‘‘वहां साक्षी बिना मेड के संभाल पाएगी घर?’’
‘‘हम दोनों मिल कर मैनेज करेंगे...’’
‘‘जरूरत क्या है मैनेज करने की... यहां बना-बनाया खाना मिल रहा है। उसकी थोड़ी कदर कर लो...’’ उसकी आदेशात्मक झिड़की सुन कर शौर्य चुप हो गया।
जया को जीजी की बेचैनी अब खटकने लगी थी। उसे लगने लगा था उसके और बच्चों के बीच जीजी आ रही हैं।
तीसरा लॉकडाउन के खत्म होते-होते एक बार फिर जीजी ने चलने की इच्छा जतायी, तो शौर्य बोला, ‘‘ठीक है, मैं आज पास के लिए आवेदन करता हूं...’’
यह सुन कर उसका मन दोनों की सुरक्षा को ले कर भय से निचुड़ सा गया... मन के भाव जीजी ने भांप लिए, तो कहने लगीं, ‘‘चिंता क्यों करती है। कोई छोटे बच्चे थोड़े हैं। यहां ना आते, तो क्या होता।’’
‘‘ना आते तो अलग बात थी। ऑफिस के साथ घर का काम... और घर का काम आसान कहां रह गया है। साफ-सफाई में जरा सी चूक हुई, तो मुआ कोरोना...’’ वह भीतर तक सिहर गयी। उस वक्त जीजी ने बच्चों को इतना कमजोर ना बनाने की नसीहतें दे डालीं। शौर्य भी हंसता हुआ बोला, ‘‘दो महीने से आपको सावधानियां बरतते देख रहे हैं। चिंता मत करो। हम अपना पूरा ध्यान रखेंगे।’’
‘‘हां मम्मी, मैं पूरा प्रिकाॅशन रखूंगी,’’ साक्षी भी पीछे नहीं रही।
‘‘और खाना कैसे बनाएगी...’’ उसने पूछा, तो जीजी फिर बीच में कूद पड़ीं।
‘‘अरे बना लेंगे कच्चा-पक्का... जब वे जाने को कह रहे हैं, तो जाने दे, वहां अपने घर में फ्री फील करेंगे...’’
‘‘तो यहां कौन सा बंधन है जीजी... किसी चीज की चिंता नहीं है यहां... वहां तो सारा इंतजाम देखना होगा।’’
देर से सबकी सुन रहे मुनीश भी बोल पड़े, ‘‘जया, जीजी ठीक तो कह रही हैं, तुम व्यर्थ चिंता करती हो...’’
‘हुंह, तुम्हारी जीजी बच्चों की आड़ में खुद का हित साध रही हैं,’ वह कहना चाहती थी, पर चुप रही।
‘‘चिंता से कुछ हल नहीं निकलेगा। और रही काम की बात, तो जो नहीं आता वह सीख लेंगे...’’ जीजी तसल्ली पर तसल्ली दिए जा रही थीं, पर उनकी तसल्ली में छिपी स्वार्थपरता उसके अलावा किसी को नजर नहीं आयी। वह बच्चों की सुरक्षा को ले कर वाकई चिंतित थी। जीजी ना होतीं, तो वह जिद करके बच्चों को कैसे भी रोक लेती।
शौर्य ने सारी औपचारिकताओं के साथ ऑनलाइन आवेदन करके पास बनवा लिया। जिस दिन उन्हें निकलना था उस दिन उनकी गाड़ी में खाना-राशन, सैनिटाइजर समेत ढेर सामान रखवा दिया।
‘‘मस्त रहना। सब ठीक होगा, बेटे-बहू की चिंता में खुद को हलकान ना करना,’’ मंगला जीजी चलते समय बोलीं। वह बाहर से तो मुस्करा दी, पर अंतर्मन में जीजी के प्रति कुढ़न भर गयी।
जयपुर पहुंच कर शौर्य-साक्षी के लिए बिना मदद के घर-गृहस्थी संभालना वाकई टेढ़ी खीर साबित हुआ। वह भी उन्हें ले कर बहुत परेशान रही। फिर हफ्तेभर बाद शौर्य ने बताया कि एक मेड मैनेज कर ली है। वह उनकी सोसाइटी में ही किसी बालबच्चेदार महिला के साथ रहती है। स्पेशल रिक्वेस्ट पर उनका काम कर जाती है। सुन कर उसे चैन आया।
करीब 4-5 महीने बाद उसे साक्षी की प्रेगनेंसी की खुशखबरी मिली। मुनीश भी इस बीच रिटायर हो गए, सो शौर्य ने साक्षी की प्रेगनेंसी के सातवें महीने में आ कर लंबे समय तक रुकने का आग्रह किया। इस बीच फोन पर ही हिदायतों और कुशलक्षेम का आदान-प्रदान होता रहा। अब दो दिन बाद वह बेटे-बहू से मिलेगी। घर में नन्हा मेहमान आएगा... यह सोच कर वह मुस्करा पड़ी।
‘‘अरे, यों आंखें मूंदे काहे मुस्करा रही हो, कुछ मुझे भी बताओ,’’ मुनीश ने उसे टोका, तो वह बोली, ‘‘पोता-पोती वाले हो गए हैं, यही सलोना स्वप्न देख रही थी।’’
‘‘तुम्हारा सपना अब दो-ढाई महीने में फलीभूत होनेवाला है। बाजार से कुछ मंगवाना है, तो बताओ...’’ यह सुन कर एक लंबी लिस्ट उसने मुनीश को पकड़ा दी।
दो दिन तैयारी में कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। उदयपुर से जयपुर पहुंचते-पहुंचते रात हो गयी थी। शौर्य और साक्षी उनका बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। रात का खाना सबने साथ खाया। डिनर में मुनीश की पसंद की खीर और जया की मनपसंद पूरनपोली बनायी गयी थी। ‘‘तुम्हारी मेड बहुत अच्छा खाना बनाती है।’’ जया ने कहा, तो शौर्य और साक्षी एक-दूसरे को देख कर मुस्करा दिए।
दूसरे दिन इतवार था। ‘छुट्टी के दिन सुबह-सुबह उठ कर बच्चों को डिस्टर्ब क्यों करूं,’ यह सोच कर वह देर तक लेटी रही।
अंदर से खटपट की धीमी-धीमी आवाजें आने लगी थीं... सुबह से 2-3 बार कॉलबेल भी बज चुकी, पर वह उठी नहीं। आंखें मूंदे वह देर तक सोती-जागती रही कि तभी मुनीश ने उसे हिलाया... ‘‘अरे देखो जरा, ये शौर्य पोंछा क्यों लगा रहा है?’’ यह सुन कर उसकी नींद उड़ गयी... फुर्ती से उठ कर बेडरूम का दरवाजा खोला, तो सामने हॉल में खड़ा शौर्य पोंछे का पानी बकेट में निचोड़ता दिखा।
‘‘ये क्या कर रहा है तू... मेड कहां है तुम्हारी।’’
‘‘गांव गयी है मम्मी... साक्षी की कंडीशन नहीं है ना पोंछा लगाने की... इसलिए मजबूरी है।’’ शौर्य ने हंस कर कहा, तो साक्षी ने भी सफाई दी, ‘‘मम्मी, वह आज शाम तक आ जाएगी। दरअसल उसके भतीजे की शादी थी इसलिए वह अपने गांव गयी थी।’’
‘‘तो बेटा, किसी और को रख लेती...’’ जया के कहने पर साक्षी बोली, ‘‘मम्मी, बड़े नखरे है यहां इनके... कहती हैं परमानेंट रखो तो आएंगी। और मेरी मेड तो इतनी अच्छी है कि उसे निकालने की बात सोच ही नहीं सकती, इसीलिए एक हफ्ता हम दोनों ने मैनेज कर लिया।’’
‘‘अरे ! और कॉलबेल की आवाज सुन कर मैं तो समझी कि मेड आयी होगी,’’ जया के धीमे से कहने पर शौर्य हंसते हुए बोला, ‘‘पेपर वाला-दूध वाला था। और हां, मैं तो इतना धीरे-धीरे बिना आवाज के काम कर रहा था फिर भी आपने देख लिया।’’
‘‘मैंने नहीं, तेरे पापा ने देखा और उन्हें तो इतना धक्का लगा कि मुझे जोर से हिला कर बोले कि देखो, तुम्हारा बेटा पोंछा मार रहा है...’’ नाटकीय अंदाज में शौर्य की फिरकी लेती जया इस बार जोर से हंस पड़ी, तो मुनीश अचकचा कर सफाई देते हुए बोले, ‘‘अरे इतना भी बढ़ा-चढ़ा कर मत कहो। वो तो मैंने इसे कभी काम करते देखा नहीं, तो थोड़ा चक्कर में पड़ गया।’’
‘‘पापा, लॉकडाउन ने हमें सब कुछ सिखा दिया। सही मायने में हमें आत्मनिर्भर बना दिया।’’
‘‘हां मम्मी, पर लॉकडाउन में पोंछा मैंने लगाया है। शौर्य तो झाड़ू लगाते थे,’’ साक्षी बोली, तो शौर्य भी पीछे नहीं रहा, ‘‘झाड़ू लगाने में इसे गरमी लगती थी और पोंछे में इसका वर्कआउट हो जाता था।’’
‘‘अच्छा मम्मी, आज मैं पोहे और ढोकले बना रही हूं,’’ साक्षी ने चाय का कप जया को पकड़ाते हुए कहा तो वह विस्मय से बोली, ‘‘कौन तुम... तुम बनाओगी...?’’
‘‘लो, कल तो खीर और पूरनपोली इतने स्वाद से खायी...’’ शौर्य ने मुस्करा कर कहा, तो जया का मुंह हैरानी से खुला रह गया।
‘‘वैसे मेरी मेड बहुत अच्छा खाना बनाती है, पर कल रात का खाना मैंने बनाया था,’’ जया के गले में गलबहियां डालते हुए साक्षी ने कहा, तो जया भावुक हो बोली, ‘‘कब सीखा खाना बनाना...’’
‘‘लॉकडाउन के दौरान...’’
‘‘पर लॉकडाउन में तो मेड आती थी ना...’’
‘‘कहां मम्मी, वो तो आपसे झूठ बोला था। हम लोग यहां आ तो गए, पर दो दिन में ही घर का काम करने में हालत खराब हो गयी... आपका फोन आता और हम अपना दुखड़ा रोते, तो आप हमसे भी ज्यादा दुखी-परेशान हो जातीं, इसलिए झूठ कह दिया कि मेड आने लगी। जबकि सच यही था कि रो-धो कर सारा काम खुद ही करना पड़ा।
‘‘उन दिनों फ्रेंड्स इंस्टाग्राम में खाने की नयी-नयी डिशेज डाल रहे थे, तो हमने भी यूट्यूब देख कर ट्राई किया। पहले तो खूब खराब बनाया... कभी जला, तो कभी कच्चा खाया। फिर ठीकठाक बनने लगा। घर के काम भी हमने बांट लिए... धीरे-धीरे लगा सब इतना भी मुश्किल नहीं है।’’
साक्षी बता ही रही थी कि सहसा मुनीश उसके हाथों में दो हजार रुपए थमाते हुए बोले, ‘‘ये रखो बहू, तुम्हारे हाथ की बनायी रात की खीर का शगुन...’’
‘‘हां-हां ले लो, शादी के बाद की पहली रसोई में तो तुमने बस कलछी घुमायी थी...’’
शौर्य के मजाक पर साक्षी हंसते हुए बोली, ‘‘आजकल तो मेरी बड़ी कमाई हो रही है। परसों मंगला बुआ मेरे हाथ का खाना खा कर मुझे 500 रुपए दे गयी हैं...’’
जीजी का जिक्र आते ही जया का अंतर्मन भीग सा गया... लगा वे बोल रही हैं, ‘तेरी बहू तो बड़ी कामकाजी हो गयी है। यही बताने के लिए फोन किया, पर तूने तो उठाया ही नहीं...’
‘‘हम लोग पहुंच गए हैं, जरा जीजी को बता तो दें...’’ कहते हुए जया ने मोबाइल हाथ में लिया कि तभी शौर्य बोला, ‘‘वैसे, शगुन तो मुझे भी मिलना चाहिए। मैं भी कामकाजी हो गया हूं...’’ यह सुन जया नेह से उसको निहारती हुई बोली, ‘‘मंगला जीजी से जरा बात कर लूं, तब तक तू सोच ले तुझे शगुन में क्या चाहिए।’’