Monday 18 September 2023 05:37 PM IST : By Jyotsana Singh

फुस्स...

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सब यही कह रहे थे कि उन्हें मोक्ष मिल गया। दिल किया उसे ही हिला कर पूछूं कि, “सुनो, क्या तुम्हें सच में मोक्ष मिल गया?” इन्हीं विचारों के साथ उसके करीब ही खड़ा था कि लगा जैसे उसका दिल बोल उठा, “बिना तृप्त हुए क्या मोक्ष मिलना संभव है?” उसकी सुर्ख मांग पर नजर गयी। मांग की लाली में छुपा स्याह रंग या तो वह जानती थी या मुझे पता था। तभी बड़े भैया की दबंग आवाज बोझिल वातावरण में गूंज उठी, “टिकटी ले आओ टिल्लू ! सूरज छिपने को है। जिन्हें आना था सब आ चुके। जो नहीं आए, उनका इंतजार नहीं होगा।”
जानता था, भैया की बात के आगे कोई नहीं बोलेगा। मैं भी नहीं बोल पाऊंगा। अगर बोल पाता, तो आज से 7 बरस पहले ही बोला होता। दिल खुद को ही धिक्कार उठा, ‘बुजदिल कहीं के।’ मुझे फिर उसकी बुझी सी हंसी सुनायी दी, “कहीं के क्या, यहीं के, इसी हवेली के।” दिल किया चीख कर कह दूं, ‘ठीक है इसी हवेली का हूं। पर तुमने भी तो मुझे हिम्मत देने के बजाय हर वक्त मेरे कमजोर व्यक्तित्व की धज्जियां ही उड़ायीं।’
भैया फिर से आवाज लगाते, उससे पहले ही मैं टिकटी बांधने में लग गया। मेरे हाथ इस वक्त बिलकुल उसी तरह से कांप रहे थे, जैसे उस रोज कांपे थे, जब तुमने मेरी कमर में अपना हाथ डाल कर मेरा हाथ अपनी कमर पर कसते हुए कहा था, “जीवन का असल अर्थ सीखना है, तो शरम छोड़नी पड़ेगी। मेरे करीब भी आना पड़ेगा।”
खुद को तुम्हारी गिरफ्त से दूर करते हुए मैंने कहा था, “नहीं सीखना है।”
“क्यों, हो गयी फुस्स? कमजोर इंसान !”
“हां !”
मेरे हां कहते ही भैया वहां आ गए थे और पूछ बैठे थे, “क्या हुआ, जो इतनी जोर से ‘हां’ की आवाज निकाल रहे हो?”
“कुछ नहीं भैया !”
बात को वहीं छोड़ कर मैं वहां से हट गया। पता था कि भैया ऊपर आ गए हैं, तो अब कहीं नहीं जानेवाले। उनके बंद कमरे की आहट मेरा चोर दिल दूर से ही ले लेता था। बल्कि आंख बंद करके वह सब देख लेता था, जिसे सोच कर मेरा हृदय सुलग उठता था।
तभी किसी ने मुझे टोका, “टिल्लू भैया, नीचे से रस्सी खींच कर बांधो, नहीं तो टिकटी खुल जाएगी।” बीते वक्त से मैं बिना शोर किए बाहर आ गया। लेकिन उसे आज भी मेरी खामोशी से उतनी ही कोफ्त थी, जितनी उस वक्त होती थी, जब अम्मा उसे हरिद्वार से ले कर आयी थीं। अम्मा को संगीत का अच्छा ज्ञान था, किंतु बाबू जी ने उन्हें कभी गाने नहीं दिया।

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अम्मा के बप्पा ही उनके गुरु भी थे। हरिद्वार में हमारे नाना का बहुत सम्मान था। नाना को अपनी आखिरी सांस तक यह बात खटकती रही कि उनकी बिटिया की जान संगीत में बसती थी, लेकिन हवेली जा कर बिटिया की आत्मा मर गयी। बस शरीर ही रह गया। हीरे-पन्ने के आभूषण से सजी अम्मा को देख कर वे कह उठते थे, “बिटिया, तुमने अपना असली आभूषण हवेली में रेहन रख दिया।”
अम्मा की मुस्कराहट में छुपा बाबू जी के विरोध का रहस्य नाना कभी नहीं जान पाए। बाबू जी के बाद जब अम्मा मैके की देहरी लांघने बुलायी गयीं, तब उस बार अम्मा ने नाना के साथ मिल कर खूब मेघ मल्हार गाया था। उसी वक्त वो जलजला आया था, जिसने जिंदगियों को मसल कर रख दिया। अम्मा के मैके में सब खत्म हो गया था। वहीं पर अम्मा को बिंदिया मिली थी। अम्मा उसे घर ले आयी थीं। बिंदिया बहुत अच्छा गाती थी। अम्मा ने उसे घर में पूरा सम्मान दिया, साथ ही साथ उसे गीत-संगीत सीखने की आजादी भी दी। वे खुद ही उसकी गुरु बनीं और उसके बिगड़े सुर को लयबद्ध किया। हालांकि उसके बदले में उन्होंने उससे बहुत बड़ी कुर्बानी ले ली थी।
बिंदिया मुझे पहले दिन से अच्छी लगने लगी थी। उसकी काजल लगी बड़ी आंखें और संगीत के साथ झूमता बदन मेरे दिल के हर तार को झनझना जाता था। यह सब मैंने कभी भी किसी को नहीं बताया। मेरे स्वभाव में ही नहीं था कि मैं अपने दिल की बात किसी को कह सकूं, किंतु ना जाने कैसे उसने मेरे दिल की सुन ली और हवेली की सबसे ऊंची अटारी पर मुझे बुला कर मुझसे आलिंगनबद्ध होते हुए कहा, “अम्मा से तुम बात करोगे ‘तिलक कुमार जी’ या उनसे मैं तुम्हें मांग लूं?” पहली बार किसी ने मुझे मेरे पूरे नाम से पुकारा था। नहीं तो यह नाम बस मेरे सर्टिफिकेट में ही सुशोभित है। बाकी सब तो टिल्लू भैया ही पुकारते हैं। यह संबोधन सुन कर जाने कहां से मेरे भीतर साहस आ गया और मैं बिंदिया के शरीर से कस कर लिपट गया। मैंने उसके होंठों को चूमना शुरू किया। चुंबन के साथ मेरी उत्तेजना बढ़ने लगी। मेरे हाथ और होंठ दोनों उसके वक्ष तक जा पहुंचे। उसने भी विरोध नहीं किया और मेरे हाथों को आगे बढ़ने की इजाजत दे दी। मेरी तड़प और उसकी कसक चरम पर पहुंचती, उससे पहले ही बड़े भैया की आवाज मेरे कानों से जा टकरायी और मैं उसे अधूरा और खुद को अधीर छोड़ कर नीचे चला आया। भैया के कड़क स्वभाव से सभी डरते थे। मैं तो बहुत ही डरता था। शायद अम्मा भी डरती थीं। बाबू जी के बाद से भैया ही सब राजकाज देखते थे।
एक रोज अम्मा और भैया में कोई गुप्त मंत्रणा हुई, उसके बाद शादी के नाम से ही भड़क जानेवाले भैया की शादी की खबर फैल गयी। गांव में हवेली की बहुत वाहवाही हुई कि अम्मा ने अनाथ बेसहारा को पहले घर में शरण दी, फिर अपनी बहू बना कर इज्जत बख्शी।
यह सब सुन कर मेरे भीतर का पुरुष बौखला उठा। बड़े भैया से डर लगता था, किंतु अम्मा से तो अपने दिल की बात कह ही सकता था। अम्मा से जा कर पूछा, “अम्मा, बिंदिया का ब्याह भैया से क्यों कर रही हैं? वह तो उनसे बहुत छोटी है।”
मेरी बात सुन कर हरदम पंचम सुर में बोलनेवाली अम्मा ने अपना सुर बदलते हुए कहा, “टिल्लू, हवेली और बड़े भैया की इज्जत का खयाल रखते हुए जो हवेली के लिए जरूरी था, हम वही कर रहे हैं।”
अम्मा के रूखे जवाब के साथ ही वहां भैया भी आ गए। उन दोनों के रुतबे के आगे मेरा प्यार ढंग से सिसक भी नहीं पाया। मेरा दबा हुआ व्यक्तित्व मुझ पर काबिज हो गया। मैं अपना सब कुछ लुटा कर वहां से चला आया। उसी शाम बिंदिया ने मुझसे कहा, “तिलक जी, अम्मा ने मुझसे गुरुदक्षिणा मांग ली है। मैं उन्हें इंकार नहीं कर सकती। यदि आप चाहो, तो हवेली के माथे पर तिलक और बिंदिया एक साथ लगा सकते हो !”
उसकी बात सुन कर भी मैं दोबारा अम्मा से बिंदिया के लिए कुछ कह पाने का साहस ना बटोर सका और बिंदिया बड़े भैया की हो गयी।
अपने ब्याह से पहले घर के कोने में बेला रोपते वक्त उसने कहा भी था, “तिलक कुमार जी, आप थोड़ी सी हिम्मत दिखाइए, मैं आपके साथ हूं। हमारे प्यार की खुशबू हवेली के पूरे आंगन में इसी बेला सी फैल जाएगी।”

तभी बेला की तीखी सुगंध ने मेरी तंद्रा भंग की। मैं विचारों के गलियारे से खुद को वापस खींच लाया। बेला की सफेद चादर बिंदिया के लिए आ चुकी थी। बिंदिया को सुहागिन के जोड़े में सजा दिया गया था। उसका रूप इस वक्त भी इतना दमक रहा था कि मेरा दिल किया मैं उससे जा कर लिपट जाऊं और कहूं, “बिंदिया और तिलक का साथ ही सुहाना लगता है। मुझे भी अपने साथ ले चलो !” तभी लगा जैसे वह चिरनिद्रा में होने के बावजूद कुछ गुनगुना रही है। ठीक वैसे ही जैसे विवाह के हफ्तेभर बाद भीगी पलकें लिए वह छत पर कोई गीत गा रही थी। मुझे देख कर बोली थी, “तिलक कुमार जी, मैं कभी पूर्ण नहीं हो पाऊंगी। आपके भैया का व्यक्तित्व रोबीला होते हुए भी पुरुषत्व से विहीन है। यही कारण है कि अम्मा ने गुरुदक्षिणा में अपने नपुंसक बेटे के लिए मेरी बलि ली।”
दिल किया अम्मा और भैया पर चीखूं और पूछूं कि उन्होंने ऐसा क्यों किया।
अम्मा के शब्द कान में शीशे की तरह पिघलने लगे, “जो हवेली और भैया के लिए ठीक है, हमने वही किया है।”
अम्मा का संगीत बाबू जी की वजह से मौन हो गया और बिंदिया की आवाज अम्मा ने गुरुदक्षिणा में ले ली थी। उसके बाद बिंदिया ने कभी गाना नहीं गाया, ना ही किसी से कुछ कहा। उसे देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वह दुखी है। बस जब भी मौका मिलता मुझ पर जहर बुझे तीर चलाने से और अपनी मादक अदा बिखेरने में कभी पीछे नहीं रहती। अकसर वह मुझे देखते ही मेरे कमजोर व्यक्तित्व का मजाक बनाते हुए “फुस्स !” कह कर ठहाका लगाती।
मैं डर जाता कि कहीं मैं रिश्तों की मर्यादा ना भूल जाऊं। मेरा डर मुझ पर इतना हावी होने लगा कि घर में रहते हुए भी उससे बहुत दूरी बना ली थी।
कोई नहीं जानता कि यह कैसे हुआ था। जिस दिन मैंने सेहरा पहना, उसी दिन उसके कमरे में आग लग गयी थी। वह आधे से ज्यादा जल गयी थी। पूरे पंद्रह दिन वह बिस्तर पर तड़प रही थी। आज अपने कष्टों से मुक्त हो कर अनंत धाम पर चली। लोग कह रहे हैं, “बहुत भाग्यवान है, पति के कंधे पर विदा हो रही है। निश्चित ही मोक्ष मिलेगा।”
उठावनी के वक्त भैया के साथ जैसे ही मैंने कांधा लगाया मुझे लगा वह कह रही है, “फुस्स!”
सब ‘राम नाम सत्य है’ कह रहे थे और मैं बुदबुदा रहा था, ‘फुस्स, फुस्स, फुस्स!’