Wednesday 23 August 2023 05:52 PM IST : By Dr. Saraswathi Iyer

ख़ुशी ज़िन्दगी की

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आखिरकार लगभग 24 घंटे की लंबी यात्रा के बाद मैं शिकागो पहुंच ही गयी। इमिग्रेशन चेकिंग के बाद अपने सूटकेस और बैग उठा कर मैं बाहर पहुंची, तो तेज बर्फीली हवाओं के बीच एकबारगी तो जैसे कांप गयी। हालांकि मैंने ओवरकोट, मफलर, ऊन का टॉप सब कुछ पहना हुआ था, फिर भी मुंबई में रहनेवालों को इतनी सरदी की आदत भी तो नहीं होती। एअरपोर्ट पर मेरा बेटा अमन अपनी पत्नी रानी और दोनों बच्चों सहित आया हुआ था। मुझे देखते ही बच्चे दादी-दादी कह कर मुझसे लिपट गए। बच्चों की बातें शुरू हो गयी थीं, ‘‘दादी, आपको डर नहीं लगा एरोप्लेन में?’’
‘‘अरे नहीं रे, मैं तो खूब मजे से पिक्चर देख रही थी।’’ 3 साल बाद अपने लाड़ले बेटे अमन को देख कर मैं भावुक हो गयी थी। अमन ने मेरे हाथ से सामान ले लिया और मेरे आंसू देख हंस पड़ा, ‘‘अम्मा, अब नो आंसू ओनली स्माइल। चलो बच्चो बाकी बातें घर पर, बाहर बहुत ठंडी है।’’ अमन ने जब कहा, ‘‘अम्मा, तुम आगे बैठो मेरे साथ,’’ तो मैं पुलकित हो गयी। अपने बेटे की कार में गर्व से आगे बैठ कर मैंने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी। गगनचुंबी इमारतें, साफ-सुथरी चौड़ी सड़कों पर भागती गाड़ियां, रोशनी में नहाया चकाचौंध कर देनेवाला पूरा शहर। घर पहुंच कर मैं थोड़ा लेट गयी और लेटते ही सो गयी। रात को खाना खा कर देर तक मैं अमन, रानी और बच्चों के साथ बातें करती रही। मुंबई से लाई भाकरवड़ी, चकली और पूरणपोली खा कर सब तृप्त हो गए।
‘‘अच्छा अम्मा, कल शुक्रवार है। हम दोनों का कल ऑफिस है। मैं तुमको यहां पास में इंडियन टेंपल में छोड़ देता हूं, वहां कोई फंक्शन है। एक बड़े कथावाचक पंडित जी हरिद्वार से आए हैं। मेरे दोस्त रमेश की मां भी वहां होंगी, मैं आपको मिला देता हूं। आप उनके साथ वहीं रहना। मैं शाम को वहीं से आपको ले लूंगा। फिर तो वीकेंड है हम दो दिन साथ में घूमेंगे-फिरेंगे,’’ अगले दिन का प्लान अपनी अंग्रेजी मिश्रित हिंदी में बता कर अमन सोने चला गया।
अगले दिन सुबह 10 बजे हम शिकागो के प्रसिद्ध बालाजी मंदिर पहुंच गए। शिकागो में बहुत से मंदिर हैं, जिनमें भारतीयों के साथ-साथ अमेरिकी लोग भी जाते हैं। उस भव्य और सुंदर मंदिर का प्रांगण खचाखच भरा था। एक मंच पर पंडित जी भागवत कथा सुना रहे थे। पूजा-अर्चना के बाद मैं भी कथा सुनने बैठ गयी। रमेश की मां को फोन करना तो मैं भूल ही गयी थी। दोपहर में भोजन की भी व्यवस्था थी। अमेरिका में सात्विक सुस्वादु भोजन पा कर मेरी तो आत्मा भी तृप्त हो गयी। भोजन के बाद मैं वहीं एक कुर्सी पर सुस्ताने बैठी ही थी कि अचानक एक भारतीय युवक ने आ कर मेरे पैर छू लिए और मुस्करा कर बोला, ‘‘मौसी, आप यहां कैसे? मुझे पहचाना?’’
मैं उलझन में थी, चेहरा तो बहुत जाना-पहचाना है, पर याद नहीं आया कि इस युवक को मैंने कहां देखा है।
‘‘मौसी, मैं आपकी इंदौर की सहेली मंजू का बेटा अविनाश।’’
अरे हां ! मैं खुशी से खिल उठी। अवि, इसी नाम से तो उसे हम बुलाते थे ! ‘‘मैं यहां अपने बेटे के घर आयी हूं। तुम बताओ मंजू कैसी है? तुम यहां कब से हो? क्या करते हो यहां? कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’
‘‘अरे मौसी एक मिनट,’’ अवि ने मेरी बातों पर ब्रेक लगाया, ‘‘पहले आप बेटे को फोन करके बोल दीजिए कि आप मेरे साथ हो और मैं आपको रात को आपके घर छोड़ दूंगा। अभी मैं आपको अपने घर ले जाता हूं, वहां आप सबसे मिल भी लेंगी और हम आराम से बैठ कर ढेर सारी बातें करेंगे।’’
मैंने बिना कोई देर किए अमन को फोन लगाया और चल पड़ी अवि के घर। रास्ते भर अवि मुझे अमेरिकन सभ्यता और यहां बसे भारतीय लोगों के बारे में और शिकागो की जीवनशैली आदि के बारे में बताता रहा। मैं उसको सुनते हुए मिशिगन झील के स्वच्छ नीले पानी को और उसके चारों ओर फैली हरियाली को देख कर मुग्ध होती रही।

लगभग 45 मिनट की ड्राइविंग के बाद हम अवि के घर पहुंचे। घंटी बजाने पर एक लंबी, सांवली और सुंदर सी युवती ने दरवाजा खोला और मुस्कराते हुए मेरा अभिवादन किया। जरूर अवि ने उसे फोन पर मेरे आने के बारे में बताया होगा, मैंने सोचा। मुझे आदरपूर्वक सोफे पर बैठा कर वह भीतर चली गयी। सुंदर सलीके से सजा हुआ घर।
‘‘राधिका, दो कप मसाला चाय बनाना। मौसी तुम्हारे हाथ की चाय पहली बार पी रही हैं, खूब अच्छी बनाना,’’ अवि ने आवाज दी। मेरे मन में प्रश्न उठा यह लड़की कौन है? जहां तक मुझे याद है यह मंजू की बहू स्मिता नहीं है, क्योंकि मैं ही तो गयी थी मंजू के साथ उसे देखने। मैं उसका चेहरा कैसे भूल सकती हूं? फिर क्या अविनाश ने दूसरी शादी कर ली है? तब स्मिता का क्या हुआ? कुछ मुझे जम नहीं रहा था। अचानक मुझे लगा अब मुझे घर जाना चाहिए। मैंने अवि को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा, पर अवि तो इतमीनान से जूते खोल रहा था। जूते स्टैंड में रख कर ‘‘मौसी, मैं 2 मिनट में आता हूं’’ बोल कर अवि भीतर चला गया। तब तक वह युवती, जिसे अवि राधिका के नाम से संबोधित कर रहा था, एक ट्रे में चाय और नाश्ता ले कर आ चुकी थी, ‘‘आइए आंटी, चाय पी लीजिए, तब तक वे भी फ्रेश हो कर आ जाएंगे,’’ बड़ी मीठी सी आवाज थी उसकी। मैं अभी भी उलझन में थी, कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या बोलूं। तभी अविनाश आ गया। मेरे चेहरे पर असमंजस के भाव देख वह मुस्करा दिया, ‘‘अरे मौसी, मैंने तो आप दोनों को मिलाया ही नहीं, ये राधिका है मेरी पत्नी, हमने अभी दो साल पहले ही शादी की है।’’
सच कहूं, तो मुझे सुन कर अच्छा नहीं लगा। मैं अपने आपको रोक नहीं सकी। मैंने कुछ तल्खी से अवि से पूछा, ‘‘क्या मंजू और स्मिता को मालूम है ये सब? तुम्हारी तो एक बच्ची भी थी ना? यहां विदेश में आते ही तुम ऐसे बदल जाओगे, मैंने नहीं सोचा था, क्या इसलिए मुझे रास्ते भर यहां की सभ्यता की दुहाई दे रहे थे तुम?’’ मैं तैश में आ गयी थी, आखिरकार मंजू मेरी बचपन की सहेली थी। उसका बेटा किसी लड़की को धोखा दे, मैं यह कैसे देख सकती थी? पर यह क्या ! अविनाश पूर्ववत मुस्करा रहा था, ‘‘आप पहले चाय तो पी लीजिए फिर मैं पूरी कहानी सुनाता हूं।’’
‘‘नहीं मुझे पहले सब बताओ, अभी मेरा चाय पीने का मूड नहीं है,’’ मैं अवि से नाराज थी।
अवि आ कर मेरे पैरों के पास जमीन पर बैठ गया, ‘‘ठीक है मौसी, कहानी थोड़ी लंबी है। चाय ठंडी हो जाए, तो मुझे दोष ना देना। चलिए शुरू से बताता हूं, आपको याद है बीएड करने के बाद मुझे भोपाल के सरकारी स्कूल में अंग्रेजी शिक्षक की नौकरी लग गयी थी।’’
‘‘हां मुझे पता है तुम जाने से पहले मुझसे मिलने भी आए थे।’’
‘‘हां मौसी, फिर मैं भोपाल चला गया। सालभर काम करने के बाद मुझे लगा कि आगे पीएचडी कर लूं, तो प्राध्यापक बन सकता हूं, पर तब तक मेरे घरवाले मेरी शादी के लिए हाथ धो कर पीछे पड़ चुके थे। मेरे बहुत मना करने के बावजूद पिता जी ने मेरे लिए वधू तलाशने का काम शुरू कर दिया था। और फिर दादी जी की बीमारी का बहाना करके मुझे इंदौर बुलाना, रिश्तेदारों के बच्चों का उदाहरण देना, ये बतलाना कि कैसे उन लोगों ने मां-बाप की खुशी के लिए चुपचाप शादी कर ली। आखिरकार मैंने सबकी बात मान ही ली। मां की एक बहुत पुरानी सहेली की बेटी स्मिता को पत्नी बना कर घर ले आया। एक वैज्ञानिक पिता और दार्शनिक मां की बेटी स्मिता एक बेहद सुंदर, शांत, मासूम, छुईमुई सी लड़की थी। मैंने सपने में भी इतनी खूबसूरत लड़की की पत्नी के रूप में कल्पना नहीं की थी। मैं निहाल हो गया। पर मुझे नहीं मालूम था कि यह खुशी मेरी क्षणिक ही है, क्योंकि वास्तविक जीवन में स्मिता पूर्णतया अव्यावहारिक थी। मेरी मिलनसार और खुशमिजाज मां और उसकी सहेलियों के सामने तो वह सामान्य बनी रहती थी, पर मेरे सामने आते ही वह गुमसुम हो जाती थी। मैं बहुत परेशान हो गया था। किसी से यह बात मैं कहता, तो शायद कोई मुझ पर भरोसा भी नहीं करता। उसका हमेशा मायके जाने की जिद करना, मुझसे दूरी बनाए रखने की कोशिश करना, मैं उसे समझ ही नहीं पा रहा था। मैं बहुत कोशिश करने के बाद भी उसके साथ कोई मानसिक या शारीरिक तारतम्य नहीं बैठा पा रहा था। संयुक्त परिवार होने के कारण सास-ससुर के लगातार जोर देने पर हमारी एक प्यारी सी बच्ची स्नेहा का जन्म तो हो गया, पर उसके आगे उसने दूसरे बच्चे के लिए साफ मना कर दिया और पूछने पर अलग-अलग बहाने बनाने शुरू कर दिए।

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‘‘आखिरकार उसकी एक बचपन की सहेली से मालूमात करने पर मुझे पता चला कि स्मिता के पिता का देहांत मात्र 36 की उम्र में ही हो गया था और उनकी जगह मां को अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल गयी थी। घर में उसकी दो छोटी बहनें भी थीं, यानी मां और तीन बेटी थीं। पर घर में पुरुष सदस्य के अभाव के कारण तीनों बहनों को शुरू से ही पुरुषों का साथ पसंद नहीं, इसलिए उसकी छोटी बहनों ने भी अभी तक शादी नहीं की है। यह जान कर मैं स्तब्ध रह गया। परिवार और मित्रों के बीच हम एक सफल दंपती और एक अच्छे बेटा-बहू थे, पर हकीकत कुछ और ही थी। मैं हैरान था कि स्मिता इतनी सहजता से यह दोहरा जीवन कैसे जी लेती है?
‘‘अभी मेरी जिंदगी में बहुत कुछ होना बाकी था। एक दिन जब मेरे माता-पिता एक शादी में मुंबई गए हुए थे, मैं शाम को ऑफिस से घर आया, तो अचानक स्मिता ने घोषणा की कि उसने आज सुबह ही अपनी मां और दोनों बहनों के साथ किसी संप्रदाय विशेष के गुरु स्वामी जी से दीक्षा ले कर दांपत्य जीवन त्याग दिया है। अब उसका मेरा पति-पत्नी का रिश्ता तो हमेशा के लिए समाप्त हो चुका है, परंतु वह अपनी बेटी के प्रति दायित्वों को पूरा करने के लिए इसी घर में रहेगी, हालांकि मुझसे और मेरे घरवालों से अब उसका कोई नाता-रिश्ता नहीं है। वह मुझसे आज्ञा नहीं मांग रही थी, सिर्फ सूचना दे रही थी। इसके पहले कि मैं कुछ बोलता, मुझे सकते में छोड़ कर और अपना सूटकेस उठा कर मेरी बेटी स्नेहा के साथ स्मिता हमारे घर की पहली मंजिल के कमरे में जा चुकी थी।
‘‘मौसी, मेरे लिए दुख की बात यह थी कि स्मिता ने दीक्षा ले कर अपना सांसारिक जीवन त्याग तो दिया, किंतु उसमें सिर्फ पति और उससे जुड़ी जिम्मेदारियां ही थीं। बेटी के प्रति प्रेम ने उसे अब भी मेरे परिवार से जोड़े रखा था और इस विडंबना से मेरा जीवन अंतर्द्वंद्वों से भर गया। पति तो मैं रहा नहीं, किंतु अपनी बेटी स्नेहा से असीम प्रेम के कारण बस फंसा सा रह गया और बेटी के समझदार होने का इंतजार करता रहा, ताकि उसे एक मित्र की तरह सब कुछ बता सकूं। अब तक मेरे घरवालों को सब कुछ पता चल चुका था। अपनी जल्दबाजी और मेरे साथ की गयी जबर्दस्ती के लिए वे बहुत पछताए। दुखी तो वे भी थे, पर उन्होंने अपना पूरा प्यार स्नेहा पर उड़ेल दिया। स्नेहा ने भी स्थिति को स्वीकार कर लिया था। पर अब जीवन में मेरे कोई रस नहीं रह गया था, बस एक व्यर्थ जिंदगी मैं किसी तरह जी रहा था।
‘‘समय अपनी रफ्तार से जा रहा था। मेरी पीएचडी हो गयी थी। स्नेहा अब 18 वर्ष की हो चुकी थी। मैंने पत्नी सुख के बिना 15 साल से ज्यादा समय गुजार दिया था। पर कुछ मेरे संस्कार थे, तो कुछ स्मिता के प्रति सहानुभूति थी, जो मुझे अपने जीवन की सहजता से जुड़े निर्णय नहीं लेने दे रही थी। पर इंसानियत के चलते और अपनी बेटी के प्रेम के कारण मैंने कभी भी जिम्मेदारियों से मुंह नहीं फेरा। हालांकि मेरे भीतर का अंतर्द्वंद्व और कशमकश मुझे सामान्य जीवन भी तो नहीं जीने दे रहा था। इसी मानसिक उधेड़बुन के दौरान मुझे शिकागो के एक कॉलेज में इंग्लिश के प्रोफेसर का काम मिल गया। अमेरिका जाने से पहले मैंने स्मिता से कानूनी रूप से तलाक लेना चाहा, जिसे बिना किसी नानुकर के स्मिता ने तुरंत मान लिया, मुझे लगा जैसे बरसों से वह इसी का इंतजार कर रही थी। खैर, मैं स्नेहा को ले कर यहां शिकागो आ गया। स्नेहा ने मेरे ही कॉलेज में बीए में एडमिशन ले लिया था। धीरे-धीरे मैं और स्नेहा शिकागो में अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए।
‘‘इसी दौरान एक समारोह में मेरी कॉलेज कमेटी की सदस्य राधिका से मुलाकात हो गयी। सरल-सहज स्वभाव, सदैव सबकी मदद करनेवाली, मिलनसार, हंसमुख राधिका मुझे पसंद आने लगी और बड़ी जल्दी हम घनिष्ठ मित्र हो गए। शायद इसका कारण यह भी था कि हम दोनों की मनोस्थिति और परिस्थिति समान थे। दिल्ली से आ कर वाॅशिंगटन में काम करते हुए राधिका ने एक अमेरिकी युवक पार्कर से शादी की। दोनों के 2 बच्चे भी हुए। परंतु शादी के 2 साल बाद ही पार्कर अपनी पूर्व प्रेमिका क्रिस्टीना के पास चला गया और जल्दी ही उसने राधिका से तलाक ले लिया। इस बात के 5 वर्ष हो चुके थे और अब वह अपने बेटे पार्थ के साथ ही शिकागो में रहती थी।
‘‘उस दिन कॉलेज से आते हुए मैं थोड़ी जल्दी में था, क्योंकि स्नेहा क्रिसमस की छुट्टियों में घर आनेवाली थी। रास्ता साफ था, इसलिए मैं थोड़ी तेज गति से कार चला रहा था। अचानक एक मोड़ पर मेरी कार सामने आ रही एक जीप से टकरा गयी। किसी तरह लोगों ने मुझे कार से निकाला, अस्पताल में भर्ती किया और मुझसे नंबर ले कर स्नेहा को और मेरे कॉलेज को फोन किया। स्नेहा जब तक अस्पताल पहुंचती, तब तक कॉलेज से राधिका और 4-5 लोग वहां आ चुके थे। मैं 10 दिनों तक अस्पताल में रहा और स्नेहा घर पर अकेली थी। उन 10 दिनों में राधिका ने ना सिर्फ मेरी बेटी को संभाला, बल्कि रोज अस्पताल में वह मेरे लिए नाश्ता और खाना भेजती थी। प्रतिदिन शाम को राधिका अपने बेटे पार्थ के साथ मुझसे भी मिलने आती थी। मेरे घर आने के बाद भी कुछ दिन उनका आना-जाना लगा रहा और इस दौरान मां और बेटा दोनों जैसे हमारे परिवार के सदस्य बन गए। मैं तो पहले ही राधिका के व्यक्तित्व से प्रभावित था, राधिका भी कहीं ना कहीं मुझे पसंद करने लगी थी। इसलिए जब मैंने उससे विवाह का प्रस्ताव किया, तो वह भी मना ना कर सकी। बच्चों की सहमति से हमने 15 दिनों में ही यहीं शिकागो के एक मंदिर में एक-दूसरे के गले में माला पहना कर विवाह कर लिया। अगले ही महीने मैं उसे भारत ले गया। मां-पिता जी को मैंने शादी के बारे में बता दिया था। उन्हें कोई शिकायत नहीं थी, उन्होंने हमारा स्वागत किया, फिर वहीं इंदौर में हमने कानूनी रूप से शादी की।

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‘‘राधिका ने दोनों बच्चों को बखूबी संभाला। उसने कभी स्नेहा को मां की कमी नहीं होने दी। स्नेहा और पार्थ तो इतने घुलमिल गए हैं जैसे सालों से एक साथ रह रहे हों। माई-बाबू जी तो अब नहीं रहे, पर मेरे परिवार के बाकी सभी लोगों का अपने स्वभाव और व्यवहार से राधिका ने दिल जीत लिया है। साल में एक बार हम सभी इंदौर जाते हैं और भैया-भाभी भी यहां आ कर गए हैं। अब बताइए मौसी, अभी भी आपको लगता है मैं गलत हूं, तो मैं आपसे माफी मांगता हूं,’’ कह कर अविनाश ने हाथ जोड़ दिए, ‘‘अरे मौसी, मैं आप ही से बात कर रहा हूं,’’ अविनाश ने मुझे झकझोरा तो जैसे मैं अचानक होश में आयी। देखा अविनाश मेरे पैरों के पास बैठा हुआ मुझे एकटक देख रहा था, राधिका की नजर भी मेरी ओर ही थी। मेरी आंखें भर आयीं, मुझे याद आया सालों पहले का नन्हा सा अवि। जब मैं उसके घर जाती थी, तो वह जमीन पर बैठ कर अपनी छुक-छुक ट्रेन चलाता रहता था और मेरे चॉकलेट देने पर खुश हो कर ताली बजाता था। इतनी छोटी उम्र में इन बच्चों पर क्या-क्या नहीं गुजरा है। फिर भी इन्हें जिंदगी से कोई शिकायत नहीं ! यह नयी पीढ़ी पता नहीं किस मिट्टी की बनी है और हम पुरानी पीढ़ीवाले यह मान कर चलते हैं कि इस पीढ़ी में सहनशीलता बहुत कम है, समझदारी नहीं है वगैरह-वगैरह।
मैंने स्नेह से अवि के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘नहीं बेटा, माफी किस बात की? मुझे खुशी है कि तुमने किसी भी परिस्थिति में हार नहीं मानी और जीवन में आगे बढ़ते रहे।’’ सामने बैठी राधिका को देख मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘बहू, एक गरम चाय मिलेगी?’’
‘‘हां मौसी क्यों नहीं, चाय के साथ समोसा भी मिलेगा,’’ हंसते हुए राधिका अंदर चली गयी।
‘‘अब चलें बेटा,’’ चाय-नाश्ते के बाद मैंने अविनाश से कहा। ‘‘
अरे मौसी रुको तो, अभी एक और सरप्राइज बाकी है।’’ अविनाश ने राधिका को इशारा किया। वह जल्दी से अंदर गयी और आते समय उसके हाथ में एक नन्ही सी महीनेभर की बच्ची थी। ‘‘मौसी, राधिका की बहुत इच्छा थी कि हमारी एक बच्ची हो और ईश्वर ने हमारी सुन ली। देखो आप भी आ गयीं उसको आशीर्वाद देने। आज की तारीख में इससे अच्छा क्या हो सकता है। अब आप लगे हाथ इसका एक अच्छा सा नाम भी बता दो,’’ कहते हुए उसने बच्ची को मेरे हाथ में दे दिया और दोनों मेरे पैरों पर झुक गए। उस प्यारी सी बच्ची को गोद में ले कर हर्ष के अतिरेक में मैं जैसे रो पड़ी, ‘‘अविनाश, इसका नाम खुशी रखना, ईश्वर करे अब तुम दोनों की जिंदगी में बस खुशियां ही खुशियां हों।’’
‘‘वाओ खुशी ! मौसी वाॅट अ लवली नेम,’’ राधिका एकदम से खुश हो गयी। बच्ची के हाथ में नेग देते हुए ढेर सारा आशीर्वाद उन दोनों को दे कर और जल्दी ही खाने पर आने का वादा करके मैं उठ खड़ी हुई।