Monday 24 July 2023 05:33 PM IST : By Dr. Amita Chaudhary

शादी हमारी जनम की बैरन

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जमाना काफी बदल गया है। करीब 3 दशक पहले मुंबई आए, नया-नया शहर, नए-नए लोग। कोई करीबी रिश्तेदार नहीं। विवाह का मौसम कब आया और कब निकल गया, मालूम ही नहीं पड़ पा रहा था। लखनऊ में रहते थे, तो डाकिया रोज 8-10 शादी के कार्ड डाल कर जाता था, जिसके बारे में महीनों पहले से ही सब कुछ पता रहता था। एक-एक दिन में 5-5 फंक्शन।

मुंबई आए तो बड़ा झटका लगा, गड्डी-गड्डी कार्ड गायब, भारी-भरकम साड़ियां लटके-लटके परेशान। अलमारी खोलो तो बोलती थीं, ‘‘बहन, थोड़ी हवा ही दिखा दो बाहर की।’’ ऐसे में एक दिन अचानक पतिदेव ऑफिस से किसी सहकर्मी की शादी का कार्ड ले कर आए। सच बताएं, इतनी खुशी तो अपनी शादी का कार्ड देख कर भी नहीं हुई थी। उस दिन सुबह से ही मन प्रफुल्लित था, दोपहर से ही अपनी शादीवाली मनपसंद गुलाबी बनारसी साड़ी निकाल के तैयार रख ली थी। कार्ड पर समय भी देख लिया- शाम 7 बजे से 9 बजे तक। बस ये ऑफिस से आए और हम लोग 8 बजे तक निकल लिए। माहौल और सजावट देख कर अचंभित रह गए। ऐसा लगा परीलोक में पहुंच गए। हर तरफ फूल ही फूल, फूल से लदे पेड़, किनारे फूल, टेबल पर बीच में फूलों का गुलदस्ता, बीच-बीच में सिर के ऊपर फूलों की लड़ियां लटक रहीं थीं। हम भी बेगानी शादी में अबदुल्ला दीवाना की तरह खुशी से इधर-उधर घूम रहे थे।

खैर, पतिदेव अपने सहकर्मियों से बातचीत में व्यस्त हो गए। हमें भी ऐसी जगहें बहुत पसंद हैं, ‘ना तुम हमें जानो, ना हम तुम्हें जानें’ टाइप। वहां भी आदतानुसार घूम-घूम कर यहां से वहां तक सब देखना शुरू कर दिया। परिवारवाले खूब पहने-ओढ़े थे। रंगबिरंगी साड़ियां पहने चहकती लड़कियां , खाना-पीना अपने पूरे शबाब पर था। देखते-देखते हम फिर खाने के काउंटर पर पहुंच गए। जो लोग खाना खा रहे थे, उनकी टेबल के इर्दगिर्द घूमे। किसे क्या चाहिए, यह भी पूछ डाला। हमारे यहां तो ऐसे ही होता है। कई लोगों ने हमसे कुछ-कुछ मांगा भी। कुछ सजी-संवरी छरहरी, दुबली-पतली लड़कियां भी खाना परोसने में लगी हुई थीं। मन में सोचा कितनी कितनी सलीकेदार लड़कियां हैं। आज तो इनकी शादी यहीं तय हो जाएगी।

सब कुछ मुआयना करने के बाद इतमीनान से एक कुर्सी पर जा कर बैठ गए। अपनी घड़ी में देखा, 9 बज चुके थे। थोड़ी ही देर में कुछ लोग आए, कुर्सियां उठा-उठा कर ले जाने लगे। हमें क्या? कुछ देर बाद देखा हमारे बगल में कोई खड़ा है और हमें घूर कर देख रहा है। हम अचकचा के उठ खड़े हो गए और वह कुर्सी ले कर चलता बना। पीछे देखा, तो वर-वधू और परिवार के खास सदस्यों के लिए खाने-पीने के इंतजाम के लिए टेबल सज रही थी । अब हम जा कर वहीं खड़े हो गए। भीड़ छंट चुकी थी। पूछ-पूछ कर सबको खाना खिलाना शुरू कर दिया। वहां पर खाना खा रहे लोग बार-बार हमसे कह रहे थे, ‘‘खूब छान, खूब छान।’’ समझ में नहीं आया क्या छान कर दे दें। पूड़ी तो छन कर ही आ रही थी। अब क्या तरकारी छान दें, इनको सिर्फ रसा पसंद है क्या? एक महिला हमसे बासुंदी मांग रही थीं। दस बार काउंटर पर देखा। हमको बूंदी कहीं दिखी नहीं। फिर हम उनकी टेबल के पास गए ही नहीं।

मेरे पीछे-पीछे वे लड़कियां भी दौड़-दौड़ कर खाना परोस रहीं थीं। थोड़ी देर बाद ध्यान गया कि वे सब सिंथेटिक प्लेन गुलाबी साड़ी पहने थीं। हमने सोचा, लड़कियों ने सब सहेलियों के साथ मिल कर ड्रेस कोड तय किया होगा।

सब बड़े खुश थे। अंत में लड़के के जीजा ने हमें बुला कर 21 रुपए दिए। हमने ले लिए, लगा यहां की कुछ रस्म होगी, कुछ नेग होगा। सब कुछ ठीक से चल रहा था। तब तक खाने के सारे काउंटर खाली हो चुके थे। खाना समेट कर एक अंधेरे से कोने में एक टेबल पर रख दिया गया था। वे लड़कियां बोलीं, ‘‘चलिए, अब खाना खाया जाए।’’ हमने सोचा कितनी तमीजदार लड़कियां हैं। साथ जा कर खाना खाया। तब तक देखते क्या हैं, बड़े-बड़े टीन के बक्से वहीं पंडाल में खुल चुके थे। मुश्किल से साढ़े 9 बजे थे। फूल उखाड़-उखाड़ कर सामने के सामने बक्से में रक्खे जा रहे थे । तब समझ में आया ये सब कुछ नकली था। वहीं पर विदाई समारोह भी चल रहा था। सारी लाइटें-झालरें उखड़ चुकीं थीं। करीब-करीब सारी बत्तियां बंद हो चुकीं थीं। लोग चिल्ला रहे थे, ‘‘जल्दी करो, जल्दी करो।’’ भगवान ! जाने काहे की जल्दी थी। वहीं बीचोंबीच एक ट्रक भी आ कर खड़ा हो चुका था। सब भाग-भाग कर उसमें सजावटी सामान भर रहे थे। फूल, फूलदान, लोहे के स्टैंड, बरतन, कुर्सी-मेज आदि। दूल्हा-दुलहन को उठा कर उनकी लाल कुर्सियां भी लदवा दी गयीं। कुछ नहीं समझ में आया, तो दो लोग नकली पेड़ों के नकली तने उन पर लगे नकली फूलों के गुच्छे समेत ले कर भागे। आनन-फानन में मैदान साफ। हम सब भौंचक्के हो कर देख रहे थे। एक तरफ सामान से लदा ट्रक और दूसरी तरफ फूलों से लदी विदाई की कार खड़ी थी।

हम वहीं खड़े थे। कोई वहां थे, हमें बुलाया, हम चले गए। उन्होंने हमारे हाथ में एक लिफाफा थमा दिया। खोल के देखा, रुपए थे। सोचा मुंबई है, यहां पैसे देने का रिवाज होगा। गिना तो उसमें 210 रुपए थे। बड़ी अजीब रकम थी। सोचा 21 रुपए दिए जाते हैं। बाद में जीरो बढ़ाते जाते हैं, तो वही होगा। इसके आगे 2100 /- होता होगा। रुपए हाथ में पकड़े-पकड़े उन्हें देखा। वे भी हमें देख रहे थे। हमारी चकरायी हुई, भ्रमित निगाहों को देख कर बोले, ‘‘आप देर से भी तो आयी थीं ना।’’

अब समझे, यहां टाइम देख कर विदाई की रकम तय की जाती है। ठीक है भाई, जैसा देस, वैसा वेष। पीछे पलट के देखा, गुलाबी साड़ीवाली लड़कियां भी लाइन लगा के खड़ी थीं।

घर आ कर दूसरे दिन सुबह इनसे पूछा, ‘‘आपको विदाई में कितने पैसे मिले?’’

इन्होंने पूछा, ‘‘कौन से पैसे?’’

हमने बताया, ‘‘हमें तो मिले 210 रुपए।’’

‘‘कब मिले?’’

हमने पूरी बात बतायी। इन्होंने सिर पीट लिया, गुस्से से लाल-पीले हो रहे थे, बोले, ‘‘क्या करती हो यार, मेरे ऑफिस का मामला है। ये तो कहो कोई पहचानता नहीं था। किसी ने पहचान लिया होगा तो? कहेंगे चौधरी साहब की वाइफ ये करती हैं पार्ट टाइम? हद है भाई।’’ हमारी कुछ समझ में नहीं आया, पूछा, ‘‘हमने क्या किया?’’

बोले, ‘‘वहां पर सब तुम्हें हेड सर्वर समझ रहे होंगे। यहां खाना सर्व करने के लिये बैरों की जगह लड़कियां आती हैं। ज्यादातर उनका ड्रेस कोड प्लेन गुलाबी साड़ी होता है। और खबरदार आगे से जो यह गुलाबी साड़ी पहन कर किसी शादी में गयीं और भूल कर भी खाने के आसपास फटकीं।’’

हम भौंचक्के रह गए। फिर इनको कतई नहीं बताया कि लड़केवालों से 21 रुपए भी ले कर आए हैं। वहां हमें ‘हेड बैरिन’ समझ लिया गया था और अब ये मुंबइया शादी मेरी ‘जनम की बैरिन’ बन चुकी थी।

अब हम मुंबइया शादी को काफी समझ चुके थे। संभल-संभल कर शादियों में जा रहे थे। वो गुलाबी बनारसी साड़ी पूरी तरह से पैक करके रख दी थी। अन्य रंगों की साड़ियां पहन कर जा रहे थे। अब हम बहुत समझदार हो गए थे। साथ में अलग-अलग रंगों की दो-चार साड़ियां और ले कर जाते थे। जरा सा भी दिखा कि खाना परोसनेवाली लड़कियों ने मेरे रंग की साड़ी पहनी हुई है, तो फौरन बदल लेंगे। चार-पांच बार ऐसा चलता रहा।

एक दिन ये ऑफिस से आए, बोले, ‘‘जल्दी चलो, शादी में जाना है।’’ हम भी फटाफट तैयार हो गए। पहुंचे, तो काफी भीड़भाड़ थी। किसी तरह हम लोग वर-वधू और उनके परिवार के पास पहुंचे। जबर्दस्ती मुस्कराते हुए बधाई दी, फोटो खिंचायी। अब कुछ तो कहना था। ये जिससे बात कर रहे थे, हमने उनसे कहा, ‘‘आपकी बहू बड़ी सुंदर है।’’

उन्होंने हमसे कहा,‘‘ये मेरी बेटी है।’’

इन्होंने वहीं हमको घूर कर देखा ।

वापस आते समय कार में बैठते ही इन्होंने बोला, ‘‘हद करती हो, ताम्बे जी की बेटी की शादी थी और तुमने बहू के गुणगान शुरू कर दिए।’’

हमने कहा, ‘‘बताना चाहिए था ना।’’

इन्होंने कहा, ‘‘तुम सुनती कहां हो। कार्ड रखा था गाड़ी में, वह तो पढ़ लेतीं।’’

हम बिलकुल रुंआसे हो चुके थे। क्या पढ़ लेते, मराठी में कार्ड छाप कर रखा था और हमने ध्यान भी नहीं दिया था।

अब हम मुंबइया शादियों में करनेवाली सावधानियों से आजिज आ चुके थे, लेकिन हमने फिर भी हिम्मत नहीं हारी। अब हमने सोचना और सोच-समझ के जाना छोड़ दिया था। हादसे होते रहे, हम जाते रहे।