Tuesday 18 July 2023 05:15 PM IST : By Meenu Tripathi

रेजा

Reza

पिछले दो दिनों से रंग-रोगन के लिए बैठक की दीवारों पर खुरचने का काम चल रहा था। दीवार पर होती घिस्स-घिस्स की आवाज से मानसी का मन जाने कैसा-कैसा हो जाता है। समीर से उसने पहले ही करार कर लिया था कि दीवार घिसाई के दौरान वह घर पर नहीं रहेगी।

वैसे इस दौरान घर पर ना रहने की मुख्य वजह आनेवाले नारायणी अवॉर्ड फंक्शन की तैयारी भी थी। कुछ लोगों से मेलमिलाप करना था और कार्यक्रम की रूपरेखा भी बनानी थी। समीर ने वीकेंड में दीवार घिसाई का काम करवा लिया।

आज से रंग-रोगन शुरू हो रहा है, इसलिए मानसी ने अपने कॉलेज से छुट्टी ले ली।

रंग-रोगन की वजह से घर अस्त-व्यस्त था और मन भी। दरअसल हर साल 7 अप्रैल को वह अपनी मां के नाम पर महिलाओं को सम्मानित करती है, मां हमेशा कहा करती थीं ‘जो महिलाएं अपने दम पर कुछ करती हैं, उनका हमेशा सम्मान करना। मैं तो कुछ कर नहीं पायी... ’

‘मैं तो कुछ कर नहीं पायी’ जुमले से आहत हो एक बार उसने मां को टोक दिया, ‘‘यह तुम्हारा वहम है कि तुमने कुछ नहीं किया... मुझे प्रोफेसर और दीदी को इंजीनियर बना कर महिला सशक्तीकरण यज्ञ में अपने हिस्से की समिधा तो तुम कब की डाल चुकीं।’’ यह सुन कर मां के चेहरे पर नूर छा गया।

मानसी के मन में मां के प्रति असीम श्रद्धा और स्नेह भाव रहा है। अकसर उसके मन में आता कि वह मां को सम्मानित करे, पर कैसे? यह तब तक बूझ नहीं पायी जब तक मां रहीं... उनके अचानक चले जाने के बाद जब वह अवसाद से घिर गयी, तब समीर ने हौसला दिया कि मां की याद में ऐसा कुछ क्यों नहीं करतीं, जिससे तुम्हें शांति और संतुष्टि मिले।

तब भंडारा, पूजा-पाठ, अन्नदान सब किया, पर शांति ना पा सकी। तब एक दिन मां की स्मृतियों से वह पल खंगाल कर लायी, जिस पल वे बोली थीं, ‘जो और तें अपने दम पर कुछ करती हैं, उनकी सदा कद्र करना।’ बस इसी मूलमंत्र को उसने गांठ में बांध लिया और निश्चय किया कि मां की पुण्यतिथि पर वह एक महिला को सम्मानित करेगी। इस काम में समीर ने भी भरपूर सहयोग दिया। समीर ने ही अवॉर्ड देने के लिए जमीन बड़े-बड़े साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं में तलाशी। कालांतर में इन्हीं संस्थाओं की शाखा बनी नारायणी संस्था ने अपनी जड़ें जमा लीं। सामाजिक कार्यों से जुड़ी अन्य संस्थाओं ने नारायणी संस्था की क्रियाशीलता देख हाथों हाथ लिया।

यह सब संभव हो पाया समीर और उसके सम्मिलित प्रयास से... पात्र चयन के लिए उनकी पारखी नजर, नेकनीयती, पारदर्शिता, कर्मठता ने कई संस्थाओं का ध्यान खींचा और लोग नारायणी संस्था से जुड़ते चले गए। अवॉर्ड देने के अलावा समृद्ध लोगों से अन्न, कपड़ा, दवाएं जैसी जीवोपार्जन की वस्तुएं ले कर गरीबों तक पहुंचाने में भी नारायणी संस्था ने अहम भूमिका निभायी। भारत-भारती संस्था के कार्यकारी सदस्य बहुत पहले से नारायणी संस्था के अवॉर्ड फंक्शन में सहयोग और फंक्शन के कार्यभार को अपना समझ कर संभालते आए हैं...

नारायणी संस्था का अवॉर्ड फंक्शन मानसी के लिए पहले स्वांत सुखाय: था, पर तब से इसका फलक बढ़ गया जब से संस्था अवॉर्ड फंक्शन के लिए फंड्स प्राप्त करने लगी।

शुरुआती दौर में एक ही महिला को दिया जानेवाला अवॉर्ड भारत-भारती के सहयोग से 10 महिलाओं को सम्मानित करने लगा। समय के साथ अवॉर्ड फंक्शन को प्रसिद्धि मिली तो महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ीं। भारत-भारती के अध्यक्ष नेमचन्द्र शास्त्री जी अकसर कहते, ‘‘मानसी जी, सोशल मीडिया का जमाना है। एक बड़ा नाम सैकड़ों-हजारों का ध्यान खींच लेता है। मीडिया खुदबखुद प्रस्तुत हो जाता है। इसलिए अवॉर्ड फंक्शन में एक नाम ऐसा जोड़िए, जो भीड़ और ध्यान खींचने में सक्षम हो।’’

उनके सुझाव के मद्देनजर पिछले दो-एक सालों से ऐसी नामवर प्रतिष्ठित महिलाएं, जो समाज को दिशा दे रही हैं, उन्हें बुलाना आरंभ किया गया। उसी कड़ी में इस साल कीर्ति मजूमदार को चुना गया, जो बड़ी एजुकेशनिस्ट हैं और अब राजनीति की ओर कदम बढ़ा रही हैं। वह स्वयं पहुंच गयी उनके पास और दसवें अवॉर्ड के लिए उन्हें न्योता दिया। अपनी कड़कदार सूती साड़ी की ना नजर आनेवाली सिलवटें सुधारते हुए कीर्ति मजूमदार बोलीं, ‘‘मेरे खयाल से यह अवॉर्ड आप किसी डिजर्विंग पर्सन को दें...’’

‘‘आपसे ज्यादा डिजर्विंग और कौन होगा,’’ वह एकदम से चौंक कर बोली, तो कीर्ति मजूमदार के होंठों पर एक अजीब सी मुस्कान आयी।

वहां से लौटते समय भारत-भारती की कार्यकारिणी सदस्य हिमा ने आशंका जतायी कि मैडम लगता नहीं है कि ये आएंगी... और उसका कहा सच हुआ जब दो दिन पहले उन्हें फोन किया, तो सुनने को मिला ‘नहीं आ पाऊंगी।’ कीर्ति मजूमदार नहीं आ रही है इससे सब परेशान हुए... अवॉर्ड फंक्शन को ज्यादा समय नहीं रह गया था सो विकल्प ढूंढ़ना भी समस्या थी। उसे चिढ़ हुई कि क्यों ये नामी लोग स्प्लिट पर्सनेलिटी के होते हैं। नहीं आना था तो उसी समय साफ कह देतीं।

कुछ ऐसा ही पिछले साल निष्ठा श्रीवास्तव ने किया था। जमीन से जुड़ी कही जानेवाली समाजसेवी और साहित्यकार ने आखिर तक स्वास्थ्य संबंधी समस्या बता कर यों ही अटका कर रखा। तब भारत-भारती के सचिव अश्विनी प्रभाकर खबर लाए, ‘मैडम, वे तो उस दिन जयपुर जा रही हैं।’’ उस वक्त भी यही हालत हुई थी। यह तो अच्छा रहा कि अश्विनी जी की नजर सोशल मीडिया पर आयी एक पोस्ट पर पड़ी, जिसमें जयपुर कार्यक्रम की रूपरेखा में मुख्य वक्ता के रूप में निष्ठा श्रीवास्तव का नाम था।

पूछने पर कितनी आसानी से उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की... ‘‘अच्छा, तुम्हारा फंक्शन भी उसी दिन है ! मैं तो जयपुर भी ना जाती, पर पुराने और पारिवारिक संबंधों के चलते जाना पड़ रहा है। उन लोगों ने एअर टिकट करवा दिया। क्या कहें...’’

तब अश्विनी जी ने बताया, ‘‘मैडम, इनके आने की भी फीस होती है... जहां मिलती है, वहीं जाते हैं ये लोग।’’ पर तब प्लान बी तैयार था और लोकल की ही मृणाल स्वामी आने को तैयार हुई।

इस बार भी हूबहू वही स्थिति... पिछले 2 दिन से दिमाग में दसवें नाम को ले कर उठापटक चलने के बाद उषा खरे के नाम पर विचार किया गया। तब उनकी तुनकमिजाजी की भी चर्चा चल निकली, जिसे सुन कर उसके हौसले पस्त हो गए। अश्विनी जी ने बताया कि अव्वल तो वे अपने खर्चे पर कहीं जाती नहीं, तिस पर भी उनके नखरे मुसीबत बन जाते हैं। खुद को मिट्टी से जुड़ा मानती हैं, पर अपने कद और पोजिशन को ले कर बेहद जागरूक हैं...

सब कुछ जानते-बूझते भी ओखली में सिर डालने का मन बनाते हुए
आज सुबह-सुबह ही उन्हें फोन कर दिया। अपेक्षाकृत वह आत्मीय ही लगीं, पर जब प्रायोजन पता चला, तो उन्होंने अफसोस जताया, ‘‘अरे इन्हीं दिनों मुंबई में भी कार्यक्रम है, रायपुर आना कैसे होगा।’’

‘‘कैसे भी करके आ जाइए दीदी, हमारा मान बढ़ जाएगा...’’ मानसी ने इसरार किया तो वह गंभीरता से बोलीं, ‘‘देखो मानसी, यों तो इस स्तर के अवॉर्ड लेने की उम्र और समय बहुत पीछे छोड़ आयी। पर मंशा तुम्हारी अच्छी है, इसलिए थोड़ा सोचने का समय दो... पक्के तौर पर कल तक कुछ कह पाऊंगी। हां, उससे पहले कुछ बेसिक बातें तुम्हारे लिए जानना जरूरी है। अव्वल तो ये मुझे दिया जानेवाला अवॉर्ड उस अवॉर्ड से भिन्न होगा, जो तुम महिला सशक्तीकरण के लिए देती हो। अवॉर्ड का नाम मैं तुम्हें सुझा दूंगी। चूंकि तुम नयी हो इसलिए एक हिंट है कि सिर्फ ट्राॅफी से काम नहीं चलता है। आने-जाने-रहने के अलावा हमारे समय की कीमत भी होती है...’’

‘‘आप बस हां कीजिए, बाकी सब आपके हिसाब से होगा...’’ बेसाख्ता उसके मुंह से निकला, तो बगल में ही बैठे समीर जिनके कानों में फोन से निकलती आवाज जा रही थी उन्होंने कुछ चौंक कर, कुछ अप्रसन्नता से उसे देखा। फोन रखते ही वे बोले, ‘‘तुम कब से दूसरों के हिसाब से काम करने लगीं। उषा खरे को इतना क्यों जरूरी है बुलाना !’’

‘‘जरूरी है,’’ वह ठंडी सांस ले कर बोली, ‘‘बड़ी मुश्किल से नारायणी संस्था ने नाम कमाया है। अब उसकी चमक को बरकरार रखने के लिए कुछ मूल्य तो चुकाना पड़ेगा।’’

‘‘मां की स्मृति में अवॉर्ड फंक्शन अपने मन की शांति के लिए करती हो, पर तुम खासा अशांत हो।’’

समीर को गंभीर देख कर वह माहौल को हल्का करते हुए बोली, ‘‘कहां अशांत हूं। उषा खरे जी का आना बहुत बड़ी बात है। तुम्हारे भरोसे तो बुला रही हूं, शोफर, हेल्पर सब तुम्हें ही बनना है, देखना उनके आने से कितनी भीड़ जुटेगी।’’

‘‘भीड़ जुटाना ही मकसद है, तो क्यों नहीं एक काव्य गोष्ठी कर लेती। कसम से इतनी भीड़ जुटेगी जो संभाले ना जाएगी।’’ समीर अकसर ही काव्य गोष्ठियों का मजाक उड़ाते हैं, वजह भी है... जब भी किसी ऐसे आयोजन में गए हैं, तो पाया है कि पढ़नेवाला ‘बस एक मुक्तक बस एक गजल’ कह कह कर सुनाता ही जाता है।

‘‘सच कह रहा हूं, काव्य गोष्ठी की घोषणा कर दो। सुननेवालों से ज्यादा सुनानेवाले आएंगे...’’ समीर की बात याद कर मानसी सहसा मुस्करा पड़ी तभी किसी की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘मैडम, चाय मिलेगा।’’ मानसी चौंकी... सोच-विचार के तंतु बिखर गए।सिर उठा कर देखा, तो सामने रेजा थी। गहरे पक्के रंगवाले चेहरे पर उद्भासित हंसी जो अकसर चाय मांगने पर सहज रूप से आ जाती है।

छत्तीसगढ़ के आसपास दिहाड़ी पर काम करनेवाली महिला मजदूर को रेजा कहते हैं... अमूमन शाम 4 बजे तक इनको चहास लग ही जाती है। मानसी ने उड़ती-उड़ती नजर उस पर डाली... सिर पर हेलमेट, हाथों में दस्ताने, पैरों में मरदाना जूते और बदन में पुरानी धोती और एक जैकेट पहने मानो किसी जंग को निकली हो वो रेजा...

‘‘लाती हूं,’’ कहते हुए मानसी खड़ी हुई और रसोई की ओर चल दी। अवॉर्ड फंक्शन दिमाग से पूरी तरह से निकल चुका था और घर काबिज हो गया था। चाय ले कर वह बैठक में गयी, तो देखा आधे से ज्यादा हिस्से में पुताई हो चुकी थी।

‘‘अरे वाह ! रंग तो बहुत अच्छा आया है।’’ उसने प्रशंसा की तो रेजा खुश हो गयी और जल्दी-जल्दी अपने दस्ताने उतारने लगी। प्लेट में बिस्किट और चाय देख कर वह उतावलेपन से बोतल के पानी से हाथ धोने लगी। रंग के सील्ड डिब्बे को तिपाई सा बना कर उसने बिस्किट की प्लेट उस पर रख दी। उसका सारा ध्यान चाय और बिस्किट पर था, जबकि मानसी का ध्यान रेजा की कलाई पर गोदने से लिखे नाम पर था... ‘लच्छू की जोरू।’ यह गोदना उसके मस्तिष्क में स्मृतियों के द्वार खटखटाने लगा। गोदना दिमाग में इस कदर हावी हो गया कि उसकी खुद की चाय रसोई के स्लैब पर रखी है, यह बात वह भूल ही चुकी थी।

‘‘तुमको पहले कहीं देखा है क्या मैंने?’’ उसने पूछा, तो चुस्कियां भरती रेजा ने बस सिर भर उठाया और फिर निस्पृह भाव से चुस्की भरने लगी।

‘‘पहले आयी हो क्या इस घर में ?’’

‘‘ना बाई जी... हम इधर ना आय हन।’’

‘‘अच्छा ! पर बहुत जानी-पहचानी लग रही हो, तुम्हारा गोदना...’’ बात आधी ही हुई थी कि उसने गोदनावाला हाथ धोती की आड़ में कर लिया, फिर खिसिया कर बोली, ‘‘एके सकल की सात जन होंवे...’’ उसके मुंह से निकला वाक्य मानो इको हुआ हो।

‘‘इसकी सूरतवालियां छह और होंगी बाई जी...’’ उस आदमी ने भी कहा था अपनी जोरू को देख कर।

‘‘अरे हां... याद आया। लालकोठी के पास जो अहाता बना है वहां किराए पर रहते थे हम... वहां देखा है तुम्हें। आज से करीब 12-13... अरे नहीं पूरे 16 बरस पहले। फर्श तुड़वा कर टाइल्स लग रही थी तब तुम्हीं तो आती थी ना अपने आदमी के साथ?’’ मानसी उत्साहित थी, पर वह निर्विकार भाव से अपना ध्यान चाय के कप में लगाए हुए थी।

‘‘तुम थी या तुम्हारे जैसी शायद कोई और ...’’ उसकी उदास सी प्रतिक्रिया से हतोत्साहित हो वह बोली, तो रेजा का धीमा और उत्तेजना हीन स्वर कानों में पड़ा, ‘‘हम ही थे बाई जी। याद आया हमें। उस घर में अपने घरवाले के साथ गए थे...’’

सुनते ही चहक उठी मानसी, ‘‘देखा मैंने पहचान लिया ना तुम्हें। और हां तुम तो बहुत अच्छी हिंदी बोलने लगी हो...’’

‘‘सालों हो गए यहां रहते, अब भी ना सीखेंगे...’’ कह कर वह उठ गयी और जल्दी-जल्दी सामान समेटने लगी। वह बात करने की इच्छुक नहीं लगी।

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शाम को समीर आए, तो चाय पी कर वह मानसी के साथ कॉलोनी के आसपास रोज की तरह सैर पर निकल गए। सैर पर भी रेजा मानसी के दिमाग में छायी रही, ‘‘जानते हो समीर, ये जो रेजा अपने यहां आती है ना... लाल कोठीवाले किराएवाले घर पर अपने आदमी के साथ काम पर आती थी। फर्श तुड़वा कर टाइल्स लगवायी थी तब... याद है?’’ समीर ‘हम्म’ कह कर अपने कदम गिनने लगे, जबकि वह किराए के उस घर में पहुंच चुकी थी।

‘इसकी सूरतवालियां छह और होंगी बाई जी...’’ सांवले रंग का सख्त इकहरी कदकाठी वाला आ दमी फर्श तोड़ते हुए बोला, तो ‘धत्त...’ कह कर इसी रेजा ने आंचल का एक कोना मुंह में दबा लिया और तसले में टूटे फर्श के टुकड़े भरने लगी।

‘‘तैं रहेन दे एला... गड़-गुड़ा जाही तोला।’’ रोड़ी-गिट्टी उसके हाथों में गड़ ना जाए, इसकी फिक्र जताते हुए उसके घरवाले ने उसके हाथ से तसला ले लिया, तो रेजा के चेहरे पर दर्प के साथ लाज और प्रेम के मिलेजुले भाव अनायास छलक आए।

वह तब भी देर तक सोचती रही थी कि सबसे हसीन उम्र जवानी की होती है या यों कहा जाए कि जवानी अपने आपमें सुंदर होती है। ये पक्के रंग की खुरदरे से नैन-नक्शवाली रेजा उस वक्त भी सुंदर नहीं थी, पर उसकी उम्र का जादू था कि उसका घरवाला उसके इर्दगिर्द डोलता रहता था। उसे इन दोनों को देख अच्छा लगता था। एक दिन उसके हाथ में गोदना देख कर वह खूब हंसी थी... ‘‘ये क्या लिखवाया हुआ है, ‘लच्छू की जोरू...’ इतना लंबा लिखवाने में तुझे दर्द नहीं हुआ?’’

‘‘घरवाला के नांव गोदवाए से मान बाड़थे, दरद थोड़े ना होथे दीदी...’’ शर्माते-सकुचाते वह अपने पति के नाम को अपने मान से जोड़ बैठी, तो वह हंस कर उससे बोली, ‘‘और जो कभी पति से लड़ाई हो गयी तो? नाम देख-देख कर कुढ़ेगी...’’

‘‘ओइसनहा दिन कब्भु नई आए दीदी... अब्बड़ धियान रकथें एह मोर,’’ उसकी शरारतभरी मुस्कराती आंखें उसे चुनौती देती हुईं मुस्कराते घरवाले से जा टकरायीं। पति के खुद की फिक्र और ध्यान रखने की बात खुलेआम कहते हुए उसके चेहरे पर दर्प के भाव आ गए थे। सालों बाद भी वह रेजा उसके जेहन से गयी नहीं, इसका पता आज चला।

दूसरे दिन सुबह समीर ऑफिस के लिए निकले ही थे कि रेजा आ गयी... साइकिल खड़ी करके जैसे ही वह बरामदे में घुसी, मानसी ने हुलस कर कहा, ‘‘लच्छू की जोरू चाय पिएगी।’’ यह सुनते ही वह अचकचायी और आंखें नीचे करते हुए बुदबुदायी, ‘‘मोर नांव ललिता आए बाई जी...’’

‘‘क्या...’’ मानसी ने उसके होंठ हिलते देखे पर बात नहीं सुन पायी।

उसने कुछ जोर से दोहराया, ‘‘नाम बता रही थी बाई जी, ललिता नाम है मेरा...’’ मानसी उसके चेहरे को स्नेह से देखते बोली, ‘‘ओह ! तो ललिता नाम है तुम्हारा। वैसे मैं तो तुम्हारे गोदने पर परिहास कर रही थी। इसी गोदने की वजह से तो तुम्हें पहचान पायी... खैर, चाय पियोगी?’’

चाय पीने की ललक उसकी आंखों में साफ छलकती देख कर मानसी बोली, ‘‘रुक, बना लाती हूं चाय, पी लो फिर करना काम।’’ कह कर वह रसोई की ओर बढ़ गयी। वापस आयी, तो हाथों में ट्रे थी, जिसमें दो प्याली चाय और तश्तरी में मठरी और बिस्किट थे। ‘‘आज तुम्हारे साथ चाय मैं भी पियूंगी,’’ कहते हुए मानसी ने अपने लिए प्लास्टिक की कुर्सी खींच ली और वह नीचे बैठ गयी, ‘‘तुम्हारा घरवाला कहां है... बच्चे-वच्चे क्या कर रहे हैं,’’ मन में दबी जिज्ञासा ज्यादा देर दबी ना रह पायी।

मानसी ने महसूस किया कि आदमीवाले सवाल पर वह सिमट सी गयी। चाय का घूंट भर कर वह कुछ उदासभरे स्वर में बोली, ‘‘ठीक ही होगा बाई जी।’’

‘‘माने ! तू साथ नहीं रहती क्या?’’

‘‘ना... उसने दूसरी रख ली।’’

‘‘ओह !’’ मानसी अफसोस से घिर उठी। पलभर समझ ही नहीं पायी कि क्या कहे, पर रेजा क्षणिक उदासी के बाद अब सामान्य थी और बता रही थी, ‘‘दूसरी से तीन बच्चे भी हैं, एक लड़का दो लड़की।’’

‘‘पर वह तो तेरा कितना खयाल रखता था। फिर क्यों किया ऐसा?’’

‘‘अच्छी लगी दूसरीवाली सो कर ली। अब वह उसका खयाल करता है।’’

‘‘तुम्हें गुस्सा नहीं आता उस पर?’’

‘‘अब गुस्सा कर लूं या बेटियां पाल लूं।’’

‘‘बेटियां हैं तुम्हारी?’’

‘दो हैं...’’ बेटियों की बात करते हुए उसका चेहरा चमक उठा...

‘‘बड़ीवाली तो दस पढ़ गयी दूसरी आठ में है...’’ उसने बोलना शुरू किया, तो फिर रुकी नहीं।

‘‘दोनों पढ़ने में होसियार हैं। अभी ये काम कर रही हूं... जब बेटियां दफ्तर जाएंगी वहां काम करेंगी, तब थोड़े ना मारी-मारी फिरूंगी काम के लिए।’’ उसकी छोटी-छोटी आंखों में ढेर सारे सपने झिलमिला उठे।

‘‘बड़ी हिम्मतवाली रे तू तो।’’

‘‘क्या बाई जी, हिम्मत तो करनी ही थी,’’ कहते-कहते उसकी आंखें फिर से खाली-खाली सी हो गयीं, ‘‘जो मैं भोगी वो लड़कियां ना भोगें, बस यही इच्छा है। यहां रंगाई-पुताई का काम करके जाऊंगी, तो मॉडल कालोनी की दो मेमसाब का खाना बनाऊंगी। अच्छे पैसे मिल जाते हैं। काम भी बढ़िया है। दोनों मैडमें ऑफिस जाती हैं, इसलिए शाम का काम मिल गया। पैसे जमा करने हैं... बाई जी सुना है बड़ी फीस होती है बड़ी पढ़ाई में!’’ ललिता अपना दिल खोल देने पर उतारू थी... ‘‘पढ़-लिख जाएंगी, तो जीवन संवर जाएगा। मैं तो कहती हूं, जो होता है अच्छे के लिए होता है। बाप होता तो क्या पता अब तक ब्याह दी जातीं... पर नहीं, मेरी बेटियां तो पढ़ेंगी... खूब पढ़ेंगी।’’

मानसी मंत्रमुग्ध सी उसकी बातें सुन रही थी कि तभी मोबाइल बज उठा... स्क्रीन पर उषा खरे का नाम देख कर ललिता को हाथ के इशारे से चुप रहने का संकेत देते हुए वह बोली, ‘‘जी प्रणाम उषा दी...’’

‘‘खुश रहो मानसी। अच्छा, तुम्हारे लिए खुशखबरी ये है कि मुंबईवाला कार्यक्रम छोड़ कर तुम्हारे पास आने का मन बना लिया है। वैसे तुम टिकट तो फ्लाइट से ही करवाओगी, पर ये ध्यान रखना एग्जीक्युटिव क्लास हो, और हां... रहने का प्रबंध देख-समझ कर ही करना। सस्ते के चक्कर में कहीं... समझ रही हो ना। और हां एक बात और वो जो...’’

वो कुछ आगे कहती, उससे पहले ही मानसी उनकी बात काटते हुए सधे हुए शब्दों में बोली, ‘‘दीदी, उस दिन आपकी बात विचारणीय थी कि इस अवॉर्ड को लेने का समय और उम्र अब आपकी नहीं रही। आपका सुझाव सिर माथे पर लेते हुए मैंने निर्णय किया है कि अब यह अवॉर्ड किसी ऐसे को दिया जाएगा, जो उसी योग्य हो। आपकी योग्यता के अनुरूप यह अवॉर्ड नहीं है। आपका कद बहुत ऊंचा है दी... आप निश्चिंत हो कर मुंबई जा सकती हैं।’’

दूसरी तरफ से छाए क्षणिक सन्नाटे को तोड़ती उषा खरे जी कुछ शुष्कता से बोलीं, ‘‘यह बात मुझे तो फोन करने से पहले सोचनी चाहिए...’’

‘‘फोन किया, तभी तो आपके कद का पता चला दीदी।’’

‘‘ठीक है, देर आए दुरुस्त आए, पर दसवां नाम किसका है जरा मैं भी तो सुनूं...’’

‘‘जी वो ललिता है।’’

‘‘क्या करती है?’’

‘‘रेजा है। हमारे घर रंगाई-पुताई का काम कर रही है...’’ सुनते ही दूसरी तरफ सन्नाटा छा गया था, ‘‘हेलो, हेलो उषा जी... माफ कीजिएगा... आपका कीमती समय....’’ आगे की बात टूं...टूं करती फोन कटने की आवाज में खो गयी।

मानसी ठंडी सांस ले कर कुछ पल यों ही बैठी रही, फिर समीर को फोन मिलाया और बताया। उषा खरे का नाम रेजा से रिप्लेस होने की खबर उन्हें चौंका कर उत्साहित कर गयी... पूरी बात सुन कर हंसते हुए बोले, ‘‘वाह ! तुमने तो फ्लाइट, होटल और मोटा लिफाफा सब बचा लिया।’’

‘‘जी नहीं खर्चा नहीं बचेगा। यह धनराशि रेजा की बेटियों के नाम से जमा होगी... दो-तीन साल में प्लस टू के बाद जरूरत होगी तब दे देंगे।’’

‘‘आई एम प्राउड ऑफ यू मानसी... तुमने अपने अवॉर्ड फंक्शन को भटकने से रोक दिया।’’

‘‘आई प्रॉमिस, अब भटकन कभी नहीं आएगी...’’ मानसी ने फोन रख दिया। उसे वही सुकून महसूस हुआ, जो पहली बार उस एक औरत को अवॉर्ड देने में महसूस हुआ था। समीर की कही बात कानों में गूंज गयी, ‘‘उषा खरे को इतना क्यों जरूरी है बुलाना। मां की स्मृति में अवॉर्ड फंक्शन मन की शांति के लिए करती हो, पर तुम तो खासी अशांत हो।’’

उस ने गहरी सांस ले कर महसूस किया कि वाकई मन शांत हो गया था। कोई उद्विग्नता बाकी ना थी। रेजा को देखा, वह योगिनी की भांति पेंट ब्रश के स्ट्रोक मार रही थी, कुछ इस तरह मानो बच्चियों के भविष्य में रंग भर रही हो। वह भी रंग भरना चाहती है रेजा की जिंदगी में... अपनी मां को उनके जीते जी सम्मानित नहीं कर पायी, पर उन बच्चियों की मां यानी ललिता को जरूर सम्मानित करेगी... सोचते-सोचते वह भरपूर मुस्करा दी।