Wednesday 01 July 2020 04:35 PM IST : By Vineeta Shukla

धूप छांव

dhoop-chanv

ससुराल में सबका बर्ताव निशि की समझ से परे था। गोपेश ने तो खुद उसे चुना था, उनके प्रेम पर संदेह कैसे किया जा सकता था। लेकिन यह राधिका कौन थी, जिसका बार-बार नाम ले कर भौजी उसके मन में संशय डाल रही थीं?
नित नए अंखुअाते हुए सपने अांखों को चुभने लगे थे। उम्मीदों के अंकुर जहां फूटे, वहीं पर दफन हो कर रह गए। एक ही झटके में टूट गया खूबसूरत सा भरम। फोन के पैरेलल कनेक्शन पर निशि ने जो कुछ सुना, वह अविश्वसनीय था। कोई अौर कहता, तो वह कतई ना मानती, लेकिन उसके कान धोखा कैसे दे सकते थे। नयी-नयी शादी का रोमांच फुर्र हो चला। फेरों से ले कर अब तक का घटनाक्रम अांखों के अागे डोलने लगा। वधू के रूप में उसका गृहप्रवेश... रस्मोरिवाजों का सिलसिला... परिवारजनों का उछाह... मेहमानों की अावाजाही, हर वक्त की चहलपहल, बतकही, हंसी-मजाक अौर हवा में गूंजते ठहाके। यह सब फिल्म की रील का हिस्सा लगते थे। पति गोपेश से मिला प्रेम अनमोल था। उमंगें ऐसी कि पांव जमीन पर ना ठहरते।
खुशियों को पंख मिले अौर जीवन को नवल संभावनाएं। गोपेश को उसने पसंद किया था। लगन के पहले वर पक्ष की जांच-पड़ताल की गयी थी। होनेवाले वर को जांच-परख कर, ठोंक बजा कर फाइनल किया था। सब कुछ कितना देखाभाला था... फिर चूक कहां हुई? निशि को याद अाया, बहू की रसोईवाला दिन। गोपेश उसकी मदद को अा खड़े हुए थे। अतिथियों को जिमाया जा रहा था। निशि से गोपेश की चुहल को देख भौजी ने अांख दबा कर कहा, ‘‘मैंने पति चुन लिया, तो चुन लिया।’’ किसी फिल्मी डायलॉग सा नाटकीय उनका संवाद था, उनकी बुलंद अावाज व्यंग्य का पुट लिए थी, निशि को कुछ विचित्र सा लगा। यह बात अौर थी कि जब गोपेश ने भौजी को तिर्यक दृष्टि से देखा, तो वे हंस पड़ीं अौर बात अायी-गयी हो गयी।
समस्या तब शुरू हुई जब पगफेरे की रस्म के लिए उसे मायके भेजने की तैयारी थी। एक चुलबुली युवती भागती हुई वहां अायी। दौड़ने के कारण वह बेहाल हो रही थी। सांसें धौंकनी सी चल रही थीं। शीशेदार झरोखों से मुख्य द्वार पर खड़ी हो कर हांफती उस कन्या की झलक मिल गयी। काकी ने भौजी को अांख मारी अौर बोल पड़ीं, ‘‘अा गयी श्याम की राधा।’’ बदले में भौजी रहस्यमय ढंग से मुस्करा उठीं। तब तक वह भीतर अा धमकी। ‘‘गोपेश दा... गोपेश दा...’’ अनियंत्रित सांसों के मध्य उसने पुकार लगायी। उसकी अावाज में कंपन था।
‘‘गोपेश भैया दोस्तन के संग है बिटिया... नई भाभी हैं कमरे में... जाइके मिल लो,’’ जवाब घर के सेवक बदलू काका ने दिया। काका ही उसे निशि के पास ले गए। कुछ पलों तक वह निशि को निहारती रही फिर भाभी कह कर उससे लिपट गयी।
‘‘भाभी, मैं राधिका... अापके लिए फूल गूंथ कर लायी हूं।’’
निशि की अांखों में प्रश्न उभरा। राधिका ने उस जिज्ञासा को पढ़ा, किंतु कोई उत्तर ना दिया। झट अपनी थैली से गजरा निकाला अौर उसके केश सजा दिए।
‘‘बहुत सुंदर हैं ये फूल... बिलकुल तुम्हारी तरह। किस क्लास में पढ़ती हो?’’
‘‘बीए फाइनल का एग्जाम दिया है,’’ कहते-कहते लड़की की दृष्टि काकी अौर भौजी से जा टकरायी। वह संकोच से भर उठी अौर वहां से चलती बनी। निशि चकित थी। उसके निकलते ही काकी ने ‘हुंह’ कह कर मुंह सिकोड़ लिया अौर भौजी फिर उसी हिकारतभरे अंदाज में बोल उठीं, ‘‘मैंने पति चुन लिया, तो चुन लिया।’’
‘क्या हुअा भौजी... काकी जी, अाप लोग इस तरह का बर्ताव क्याें कर रही हैं? कौन है ये राधिका?’’
 ‘‘ना बाबा... हम नहीं बताएंगे। काहे से जबान खोलो तो घरभर के बुरे बनो,’’ रत्ना भौजी ने पेंच को अौर उलझा दिया था।
‘‘लेकिन भौजी...’’
‘‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं... तुम गोपू से ही पूछना... पर देखो जरा सावधानी से। जब उसका मिजाज सही हो तब, अौर हां थोड़ा जब्त करना, नहीं तो वह जानेगा कि मइके से ही सीख-पढ़ कर बोल रही हो... हमारा नाम बीच में अाना नहीं चाहिए, कहे देते हैं, हां,’’ रत्ना ने अाग लगायी।
विवाह के बाद पहली बार वह नैहर जा रही थी। ऐसे में लड़कियों के पास ढेरों बातें होती हैं, उल्लास के ढेरों रंग होते हैं, जो उनकी मुट्ठी से अाह्लाद बन कर फूट पड़ते हैं। पर यहां दूसरा ही माजरा था। भरेपूरे संयुक्त परिवार में वह अलग-थलग पड़ गयी थी। उसकी ससुराल के हाल जानने को परिजन व्यग्र थे। किसी भांति झूठी मुस्कान अोढ़ कर सबको अाश्वस्त करना पड़ा।
अड़ोसी-पड़ोसी, नातेदार अौर बंधु-बांधव रौनक बढ़ाने का ठेका लिए थे। सखियों की शरारतें अौर महिलाअों की गपशप थमने का नाम ही ना लेतीं। इस सबके बीच वह अकेली... चंद पलों की मोहलत भी नहीं। एकांत मिल भी जाता, तो रत्ना भौजी का जुमला कानों में गूंजने लगता, मैंने पति चुन लिया तो चुन लिया। दिमाग में कीड़ा रेंगता रहता। दाल में कुछ तो काला था। वह सोच में थी। गोपेश से सवाल-जवाब कैसे करे। भागते हुए मन को संभालना कठिन था। अनगिनत प्रश्न उसे घेरे थे। परायी लड़की को हौवा बना कर उस पर थोपने का मतलब। यह राधिका अाखिर थी कौन? उसका निशि से, गोपेश से, उसके मायकेवालों से क्या लेना-देना?
अनिष्ट की अाशंका उसे बेचैन कर रही थी। गोपेश ने खुद उसको चुना। घुटने टेक कर कर फूलों का गुच्छा हाथ में थमा कर प्रेम प्रस्ताव दिया। उनका विवाह प्रेम विवाह था, तो फिर यह उलझन कैसी ! ऐसा अतीत, जो वर्तमान को ग्रास बना रहा था... गोपू के प्यार में दुराव-छिपाव था या कोई छल। पहली बार जब पति से जानना चाहा, तो भावनाएं उमड़ पड़ीं, ‘‘ये राधिका क्या बला है गोपू। हर कोई उसका नाम अापसे क्यों जोड़ता है।’’
सुनते ही गोपेश के तनबदन में अाग लग गयी। उन्होंने उसका हाथ थामा अौर लगभग खींचते हुए रत्ना के पास ले गए। वे कहते जा रहे थे, ‘‘पता है मुझे, ये सब किसका किया-धरा है।’’ रत्ना का सामना होते ही वे फट पड़े, ‘‘भौजी, यह मेरी पहली अौर अाखिरी चेतावनी है... इस घर में राधिका का नाम दोबारा कोई नहीं लेगा।’’
‘‘लल्ला जी, इसमें हम क्या करें... हमसे कैसा बैर।’’ भौजी का मुंह फूल गया अौर कई दिनों तक फूला रहा। इसकी जिम्मेवार वह निशि को मान रही थीं, जबकि उस बेचारी ने उनका जिक्र तक नहीं किया। गोपेश के तेवर देख रत्ना सहम गयी थीं। कई दिनों तक उस विषय पर कोई चर्चा नहीं हुई। निशि को भी लगने लगा कि वह बेकार ही संदेह कर रही थी। वह भी ऐसी स्त्री के कहने पर, जिसके लिए प्रपंच अॉक्सीजन सा था अौर निंदा रस स्फूर्तिदायक टॉनिक।
‘‘निशि बेटा, जरा इधर तो अाअो। देखो तो कौन अाया है।’’ वह विचारों के भंवर में डूबी ही रहती, यदि सासू मां ने बुलाया ना होता। अागंतुकों को देख कर झटका सा लगा। मिठाई का डिब्बा हाथों में लिए राधिका अपनी सहेली के संग अायी थी। नििश को देखते ही वह झट अागे बढ़ी अौर उसके पैर छू लिए। अाग्रहपूर्वक हथेली खोल कर लड्डू भी उसे थमा दिया। संस्कारी निशि कोई तमाशा खड़ा ना कर सकी। सासू मां का लिहाज भी तो करना था। राधिका उसके भावों को पढ़ नहीं पायी अौर गोपू से मिलने स्टडी की तरफ दौड़ गयी। निशि का मन खट्टा हो गया। पैरेलल फोन पर जो कुछ सुना था, वह पुनः उसे कचोट रहा था, ‘‘गोपेश दा,’’ राधिका कह रही थी, ‘‘मेरा जीवन अापकी प्रेरणा से ही सफल हुअा है। अाप वह पारस हैं, जिसके स्पर्श से पत्थर भी सोना हो जाए... जिस पर भी अापकी कृपा हुई...’’
‘‘अब बस करो राधिका,’’ गोपू के स्वर में, दुलार छलक अाया था, ‘‘तुमने वह कर दिखाया है, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी... पूरी युनिवर्सिटी में टॉप करना कोई हंसी-खेल नहीं।’’
‘‘वह तो अापके ही कारण। अापने मुझे पढ़ाया...’’
 ‘‘राधा...’’
गोपेश उसे प्यार के नाम से बुला रहे थे, ‘‘तुम थोड़ी-थोड़ी पागल हो। तुम्हारा यह स्नेह, यह भोलापन बहुत कीमती है मेरे लिए...’’
अौर नहीं सुन सकी थी निशि। एक तरफ गोपू चाहते थे कि भूल कर भी कोई घर में राधिका का नाम ना ले अौर दूसरी तरफ... बदलू काका ने यों ही बताया था कि राधिका गोपेश से ट्यूशन लेती थी। तीन-चार साल पहले की बात रही होगी। फैजाबाद में गोपू की पहली नौकरी लगी थी। वे निरंजन जी के यहां पेइंग गेस्ट की तरह रह रहे थे। वही पास में राधिका का घर भी था। राधिका के पिता दीनानाथ उसकी पढ़ाई को लेकर परेशान थे। बेटी 12वीं कक्षा में गयी थी। बोर्ड एग्जाम का नतीजा अच्छा अाना चाहिए था। महंगे ट्यूटर की व्यवस्था करना उनकी हैसियत में ना था। उन लोगों के निरंजन जी अौर उनके परिवार से मैत्रीपूर्ण संबंध थे। उसी का ख्याल कर गोपेश राधिका को पढ़ाने लगे थे। राधा ने परीक्षा में संतोषजनक अंक पाए, तो उसका बहुत कुछ श्रेय गोपेश को मिला।
दीनानाथ की पत्नी श्यामली गोपेश का बहुत एहसान मानतीं अौर उनकी खातिर कोई ना कोई व्यंजन बना कर रखती थीं। उनका उस घर में अाना-जाना लगा ही रहता। फिर ना जाने एेसा क्या हुअा कि दोनों परिवारों के बीच मनमुटाव पनप गया। बीच में समझौता जरूर हुअा, लेकिन मां जी अौर गोपू के अलावा वे लोग किसी को नहीं सुहाते। दिल्ली में जॉब मिलते ही गोपेश पुरानी नौकरी छोड़ कर यहां माता-पिता के पास चले अाए थे। उन्होंने ही राधिका को फैजाबाद से बुलाया अौर दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला दिलवा दिया। वह कलावती होस्टल में रहती है अौर कभीकभार यहां अाया-जाया करती है। बदलू काका ने निशि को यह कहानी ऐसे ही तो सुनायी नहीं होगी। वे उसके असमंजस, उसकी तड़प को भांप गए होंगे। काका से ही पता चला कि उसके पति बीच-बीच में उस लड़की की अार्थिक मदद कर दिया करते हैं। लाइब्रेरी से किताबें भी ला कर देते हैं।
गोपू का यह व्यवहार निशि के पल्ले नहीं पड़ा। एक तरफ वे कहते हैं कि घर में कोई राधिका का नाम तक नहीं लेगा अौर दूसरी तरफ...। दिल कसमसा उठा अौर अांखें डबडबा गयीं। पतिदेव राधा के साथ मॉल जा रहे थे। वहीं से वे कोई उपहार खरीदना चाहते थे। शानदार रिजल्ट का उसे इनाम जो देना था। जाते-जाते पत्नी पर उनकी दृष्टि पड़ी। वे स्तब्ध रह गए। छलकते नयनों का उलाहना उनसे छुपा नहीं रह सका। उन्होंने उसे शांत बने रहने का इशारा किया अौर हड़बड़ी में वहां से चल निकले। मॉल से लौटे, तो रात हो चुकी थी। गोपू राधा को होस्टल छोड़ते हुए अाए थे। एक नामी रेस्टोरेंट में उसे ट्रीट भी दी। मां जी को बता रहे थे कि राधिका को स्मार्टफोन दिलवाया था तोहफे के तौर पर। इतना कुछ देख-सुन कर निशि अौर भी विचलित हो गयी। वह बिस्तर पर पड़ी रही। दिखावे को पलकें मूंद ली थीं, पर नींद कहां से अाती।
थोड़ी देर में गोपेश भी वहां अा पहुंचे। उसे देख कर वे बोले, ‘‘मुझे पता है डियर, तुम सो नहीं रही, अाज तुम्हें तुम्हारे सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे... चलो उठो... फटाफट मेरे साथ चलो।’’ लेकिन मानिनी निशि रूठी रही अौर सोने का बहाना करती रही। इस पर उन्होंने उसे झिंझोड़ कर उठा दिया अौर खींचते हुए टैरेस तक ले अाए। निशि ने क्रोध में उनका हाथ झटक दिया। वहां उसका भला क्या काम था। टैरेस के कोने में एक कोठरीनुमा कमरा था।
कमरे की सांकल पर पुराने फैशन का जंग खाया हुअा ताला लटक रहा था। एक लंबी सी चाबी से गोपेश ने दरवाजे को खोल दिया। दरवाजा चरमराया, तो निशि की रूह कांप उठी। उसने पति के हाथों को जोर से पकड़ लिया। गोपू ने जेब टटोल कर पहले टॉर्च ढूंढ़ी अौर फिर उसी के सहारे स्विच बोर्ड। बत्ती जलाते ही कमरे में मरियल सी पीली रोशनी छा गयी। उन्होंने तब टॉर्च को एक दीवार पर फोकस कर दिया, ‘‘देखो,’’ वे पत्नी से बोले, ‘‘तुम्हें क्या दिखायी पड़ रहा है,’’ दीवार पर टंगी तसवीर देख कर निशि सिहर उठी। तसवीरवाली लड़की को देख कर जान पड़ता था कि राधिका अपनी किशोरावस्था में वापस चली गयी थी... पारंपरिक पहनावा अौर अाभूषण उस छवि को अौर भी अाकर्षक बना रहे थे। अदभुत साम्य था, उसके चेहरे से इस चेहरे का... फर्क बस इतना कि इस मुखड़े पर जो अांखें चमक रही थीं उनमें नीलापन था, जबकि राधिका की अांखें कंजी थीं। हां, इस कन्या के सुनहरे घुंघराले बाल थे, वहीं राधिका के केश लंबे अौर काले।
‘‘राधिका की फैंसी ड्रेस कॉिम्पटीशनवाली फोटो लगती है,’’ निशि ने हिचकते हुए धीमे से कहा। इस पर गोपेश के होंठों पर एक फीकी हंसी उतर अायी। उन्होंने गंभीरता से कहा, ‘‘कयास लगाना बंद करो। यह मेरी छोटी बहन कनक है, जो... जो अाज से लगभग 7 साल पहले...’’
‘‘कहो गोपू,’’ निशि उद्विग्न थी।
‘‘हमें छोड़ कर चली गयी... हमेशा के लिए,’’ भरे गले से किसी भांति वे वाक्य पूरा कर पाए। रात का सूनापन उन पर हावी हो चला था... एक गहन संवादहीनता उनके बीच पसर गयी। थोड़ी देर पहले जो निशि इतनी उतावली हो रही थी, अब कुछ भी पूछना नहीं चाहती थी। वे धीरे-धीरे शयनकक्ष की तरफ बढ़ चले।
‘‘तो  श्रीमती जी... मामले को अौर खोदा जाए, ताकि अाप उसकी तह तक पहुंच सकें,’’ गोपेश के लहजे में पहलेवाली अकुलाहट नहीं थी, गंभीरता का पुट था।
‘‘नहीं गोपू... मुझे कुछ नहीं पूछना। मैं जान गयी हूं... अाप राधा पर इतने मेहरबान क्यों हैं।’’
‘‘क्योंकि उसकी शक्ल मेरी स्वर्गवासी बहन से मिलती है,’’ गोपेश ने बीच में ही टोक दिया, ‘‘नहीं निशि, बात यहीं तक नहीं है। यही एक कारण होता, तो पिता जी अौर भैया भी उसे पसंद करते... वे लोग तो मानते हैं कि राधा अपने लालची घरवालों से मिल कर मुझे लूट रही है। मेरी कमाई का एक चौथाई हिस्सा उस पर खर्च हो जाता है।’’  
‘‘पर मुझे कोई अापत्ति नहीं, गोपेश।’’
‘‘फिर भी मैं चाहता हूं कि तुम पूरी बात जान लो,’’ गोपेश गंभीर थे। वे अपनी ही रौ में कहते चले गए,’’ मैं राधा को पढ़ाया करता था। शुरू-शुरू में मेरे खाने-पीने का ध्यान रखती। मुझे देखते ही चाय बना लाती। पढ़ाई के बाद मेरे अाराम की व्यवस्था करती,’’ कहते-कहते वे शून्य में ताकने लगे।
‘‘अाप कहते रहो... मैं सुन रही हूं,’’ पत्नी के अाग्रह पर गोपेश थोड़ा हिचकिचाए अौर बोले, ‘‘यह सब बहुत स्वाभाविक था। वह कनक की हमउम्र थी। मुझसे 7-8 साल छोटी... सो कुछ गलत नहीं लगा।’’
‘‘तो फिर,’’ निशि पूछे बिना नहीं रह सकी।  
‘‘फिर धीरे-धीरे अपने पिता दीनानाथ के सिखाने पर उसके हावभाव बदलने लगे। वे जान कर हम दोनों को अकेला छोड़ देते। किसी ना किसी बहाने उसे मेरे साथ बाहर भेज देते, कभी उसे कॉलेज ड्रॉप करना होता, तो कभी किसी सहेली के घर।’’
‘‘अागे क्या हुअा,’’ रहस्य गहराता जा रहा था अौर निशि की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
‘‘भोलीभाली राधा अपने पिता के बहकावे में अा गयी, जो बिना दहेज के ही मुझे फांस लेना चाहते थे। मैं कनक की परछाईं उसमें देखता था, इसलिए समय रहते उसका इरादा जान ना सका। उसके स्नेह प्रदर्शन को मैं मूरख एक बहन का प्रेम समझता रहा। दीनानाथ के निर्देश पर वह मुझे दादा के बजाय मास्साब कहने लगी, जो मुझे थोड़ा अटपटा जरूर लगा।’’
‘‘लेकिन यह तो बहुत अजीब बात थी।’’  
‘‘लेकिन तब भी मेरी अांखों से भ्रम का परदा नहीं उठा,’’ गोपेश चुप हो गए थे। कहानी पराकाष्ठा को छूने ही वाली थी। पत्नी से उनकी यह चुप्पी सहन नहीं हुई, तो वह उनके पास अा कर बैठ गयी। निशि का अाशय समझ कर गोपू ने मौन तोड़ दिया, ‘‘एक दिन दीनानाथ के परिवार के साथ मैं थिएटर गया। राधिका को जान कर मेरे पास बिठाया गया। कोई प्रेम प्रसंग दिखाया जाता, तो वह मेरी अोर देखती। एक बार तो हद ही हो गयी। जब हीरो ने हीरोइन के गले में बांहें डाली अौर... अौर...’’
‘‘गोपेश अागे कहिए,’’ निशि से गोपू का संकोच सहन नहीं हो रहा था।
‘‘तब राधा मुझसे सटने लगी अौर मुझे उसे जोर से लताड़ना पड़ा।’’ पति-पत्नी कुछ देर अवाक हो कर बैठे रहे। समय की नजाकत देख कर गोपेश अागे बढ़े, ‘‘दीनानाथ जी ने मुझ पर अारोप लगाया कि मैंने ही राधिका को बढ़ावा दिया था, उसकी मति फेर दी। मेरे पवित्र स्नेह का अर्थ बाप-बेटी गलत लगा रहे थे। संयोग से बड़े भैया रत्ना भौजी को ले कर मुझसे मिलने फैजाबाद अाए हुए थे। राधिका ने अपने पागलपन में भौजी के सामने ही घोषणा कर दी, मैंने पति चुन लिया, तो चुन लिया। भैया ने मुझसे साफ-साफ कह दिया कि यदि मैं उस दिन दीनानाथ जी के यहां गया, तो वे यह मान लेंगे कि राधा से विवाह करने में मेरी रुचि है। मैं मुकर गया, तो राधा ने जहर खा कर जान देने की कोशिश की।’’
 ‘‘अरे,’’ निशि की पुतलियां विस्मय से फैल गयीं, ‘‘अागे क्या हुअा।’’ अागे गोपू मुस्कराए, ‘‘तुम्हारी तरह उसे भी कनक की तसवीर दिखानी पड़ी।’’
‘‘मैं समझ गयी गोपू,’’ कहते हुए निशि पति से लिपट गयी। उन्हें अब अौर कुछ कहने-सुनने की अावश्यकता नहीं थी।