Friday 26 April 2024 04:45 PM IST : By Abha Yadav

दिसंबर संजोग भाग-2

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जिस पल मैंने यश्वी के घर का द्वार खटखटाया, मुझे कुछ अजीब सी गंध महसूस हुई। मैंने ध्यान नहीं दिया। अपने बैग में यश्वी का सामान टटोला और दोबारा से द्वार खटखटा दिया |

दरवाजा एक युवती ने खोला और ना जाने क्यों उसने मुझसे बिना कुछ पूछे अंदर आने दिया।

‘‘आइए, अंदर आ जाइए।’’

मैं हैरान थी। ऐसा क्या था मुझमें, जो मुझ अपरिचिता को भीतर बुला लिया उसने।

इतने में भीतर से एक सुदर्शन युवक आ गया, ‘‘आपको ही बेबी की देखभाल के लिए भेजा गया है?’’ उसकी आंखों में सवाल थे।

‘‘नहीं-नहीं, मैं तो यश्वी का कुछ सामान...’’ मैं हड़बड़ा गयी थी।

‘‘आप यश्वी की कौन हैं?’’ वह युवक मुझसे पूछ बैठा।

अनायास ही मैं कुछ कुछ सावधान हो गयी। कहीं मैं गलत घर में तो नहीं चली आयी, मुझे संशय हुआ।

‘‘आप क्या चंदर हैं?’’ मैंने पूछा।

‘‘हां, मैं चंदर ही हूं। चंद्रप्रकाश।’’

‘‘मैं यश्वी की सखी हूं। उसका कुछ सामान देने आयी हूं। मेरे पास छूट गया था।’’

पता नहीं चंदर ने मेरी बात सुनी भी या नहीं। वह मुझे कुछ खोया-खोया सा लगा। आधी बात सुनी या पूरी, पता नहीं। इतने में चाय आ गयी थी।

‘‘प्लीज, चाय लीजिए, हां, आप कुछ कह रही थीं,’’ चंदर मानो पुनः दूसरी दुनिया से इस दुनिया में वापस लौट आया था। ऐसा मुझे लगा।

‘‘कुछ बताएंगे यश्वी के बारे में मुझे,’’ मैंने सोचा यश्वी घर में होती, तो फौरन आती। लेकिन हो सकता है कहीं गयी हो। जी में आया तब तक यश्वी के बारे में चंदर से ही कुछ जान लूं।

यश्वी का नाम सुन कर चंदर कुछ उदास हो आया था |

‘‘आप उसकी मित्र हैं ना। उसके बारे में जानने का पूरा हक है आपको, फिर यश्वी की बात करना तो मुझे अच्छा भी लगता है,’’ चंदर धीरे-धीरे बताने लगा। मैं सुन रही थी।

‘‘सन 2014 की बात है। उन दिनों मैं डॉ. शुक्ला के निर्देशन में शोध कर रहा था। उन्हीं दिनों यश्वी से मिलना हुआ था। यश्वी डॉ. शुक्ला की बेटी थी। बेहद भोली और मासूम। वह तब युनिवर्सिटी में पढ़ रही थी। ना जाने कब और कैसे हम एक-दूसरे के निकट आते चले गए। गुनाहों का देवता उसका प्रिय उपन्यास था। और संभवतः वह मेरे नाम से ही मेरी तरफ आकृष्ट होती चली गयी थी। मैं तब यदाकदा बांसुरी बजाता था। शायद अच्छी ही बजाता था।
मेरी बांसुरी पर सौ जान से फिदा थी वह। अकसर बांसुरी की धुन सुनने की फरमाइश किया करती थी मुझसे। कई बार बांसुरी सीखने की असफल कोशिश भी करती थी। जब मेरी तरह नहीं बजा पाती, तो चिढ़ कर मेरे हाथ से बांसुरी छीन लेती थी। कितना बचपना था उसमें। हमारे रिश्ते को परिवारों की स्वीकृति भी मिल चुकी थी। यश्वी
मुझसे कहा करती थी कि ब्याह के बाद मैं उसे ‘सुधा’ के नाम से पुकारूं। हम बहुत ही खुश थे अपने इस रिश्ते में।
एक सुखद भविष्य के सुंदर सपने संजोते हुए हमारे दिन-रात बीत रहे थे। इसी बीच युनिवर्सिटी का एक बदनाम लड़का यश्वी के पीछे पड़ गया। आते-जाते रास्ते में वह उसे परेशान करने लगा। कभी क्लास में, कभी कैंटीन में अकसर जहां भी यश्वी रहती, वह हर जगह पहुंच जाता। यश्वी बहुत डर गयी थी। घर पर इस बात का जिक्र करने से पहले उसने उस गुंडे जेके के बारे में मुझे बताया। जेके के बारे में सुन कर मुझे भी शॉक सा लगा। उसकी बदनामी के चर्चे तो पूरे शहर में थे।

‘‘चंदर, क्या हम जल्दी ब्याह नहीं कर सकते?’’

‘‘पागल हुई हो क्या? अभी मेरी रिसर्च पूरी होने में समय है। उससे पहले हम कैसे ब्याह कर सकते हैं?’’

मैंने उसे प्यार से झिड़का, ‘‘तुम रिजर्व रहो। जेके तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ेगा,’’ मैंने उससे कह तो दिया, किंतु कहीं ना कहीं मैं भी अंदर से डरा हुआ था।

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यश्वी ऊपर से शांत दिख रही थी, किंतु जेके का आतंक उसे खाए जा रहा था। उसे लग रहा था कि एक बार यदि उसका मुझसे ब्याह हो गया, तब जेके उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। मेरे लिए वह अपनी पढ़ाई छोड़ देने के लिए भी तैयार थी।

फिर एक दिन युनिवर्सिटी से लौटते हुए जेके ने स्कूटी सवार यश्वी का दुपट्टा खींच लिया। संतुलन बिगड़ जाने के कारण वह स्कूटी से सड़क पर गिर पड़ी। ज्यादा घायल तो नहीं हुई, लेकिन हाथ-पैरों में खरोंचें और हलकी चोटें लगी थीं उसे। जेके तो मौके पर भाग निकला। यश्वी को कुछ लोगों ने घर पहुंचा दिया। तब रोती हुई यश्वी ने अपनी मां को सब कुछ बताया। फिर कुछ दिन वह युनिवर्सिटी नहीं गयी।’’

चंदर की आंखों से आंसू बह रहे थे। उन्हें बिना पोंछे वह कहता जा रहा था, ‘‘मैं उसे देखने, उससे मिलने उसके घर गया। वह रो-रो कर आंटी से कह रही थी कि उसका ब्याह जल्दी कर दो। उसे आगे नहीं पढ़ना है।’’

‘‘पागल लड़की, ऐसा कहीं होता है,’’ आंटी उसे समझा रही थीं, ‘‘अभी ब्याह कैसे हो सकता है। दिन भी अच्छे नहीं चल रहे हैं। भला श्राद्धों में कोई ब्याह करता है?’’

‘‘नहीं मां, वह लड़का मुझे मार डालेगा। देखो-देखो, वह मुझे क्लास से ही किडनैप कर लेगा, वह मुझे सड़क पर घसीट रहा है मां, मुझे बचा लो। कोई तो बचा लो...’’

यश्वी हिस्टिरिकल सी चीख रही थी। एक नन्ही बच्ची की तरह आंटी से चिपक गयी थी वह। मैं भी वहीं था।

‘‘तुम्हें कुछ नहीं होगा यश्वी, हम सब तुम्हारे साथ हैं,’’ मैंने भी उसे आश्वस्त किया। जैसे-तैसे यश्वी संतुलित हुई। युनिवर्सिटी जाना फिर से शुरू किया उसने।

यहीं पर हम गलत हो गए। हमें लगा था कि युनिवर्सिटी जा कर सहेलियों से मिलेगी, तो उसका मन बदलेगा। लेकिन नहीं।

एक दिन जब वह युनिवर्सिटी गयी, लौटते समय जेके ने शायद एक बार फिर अपने सस्ते प्रेम प्रस्ताव को यश्वी के सामने रखा होगा या भद्दे कमेंट्स किए होंगे, नहीं पता। फिलहाल उस शाम युनिवर्सिटी से लौटते समय जेके ने यश्वी के चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। उफ, गुडि़या सी यश्वी का पूरा चेहरा और शरीर का काफी हिस्सा झुलस गया।’’ चंदर का गला भर आया था। चंदर मानो स्वयं से ही बात करता जा रहा था-

‘‘सालभर इलाज चला उसका। सन 2015 तेजी से बीत रहा था। यश्वी के घाव भर रहे थे, लेकिन अब वह किसी से भी मिलना नहीं चाहती थी सिवाय अपने घर वालों के। यहां तक कि मुझसे भी नहीं। उसे पता था जो नष्ट हो चुका है, वह वापस स्वाभाविक रूप में नहीं लाया जा सकता। मैंने कई बार उससे मिलने की कोशिश की। मैं बताना चाहता था उसे कि मैं आज भी उसे उतना ही प्यार करता हूं, जितना पहले करता था। मैंने उसे अपनी आत्मा की गहराइयों से प्यार किया था। क्या हुआ, जो उसका चेहरा झुलस गया। किंतु यश्वी बाहरी दुनिया से कटने लगी थी। उसने स्वयं को घर के एक कमरे में बंद कर लिया था। केवल आंटी ही वहां जा सकती थीं। मैं उससे मिलने रोज ही जाता, किंतु बाहर से ही वापस लौट आता। यह सिलसिला कई महीने तक चलता रहा, लेकिन यश्वी के शरीर और मन दोनों की ही स्थिति बेहद निराशाजनक थी।

‘‘मुझे याद है वह 15 दिसंबर की शाम थी। उस रोज बड़ी कोशिश करके मैंने उसे दरवाजे की झिर्री से देख लिया था। शायद यश्वी ने भी मुझे देख ही लिया था, क्योंकि उसकी आंखों के आंसू ना बाहर निकल सके, ना भीतर जा पाए थे। उसके हाथों में मेरी ही बांसुरी थी, जिसे बजाने की वह असफल कोशिश कर रही थी। मेरी आंखों में बसा, ठहरा हुआ डर शायद उसने पहचान लिया था।

‘‘वह शाम उसके जीवन की आखिरी शाम थी। उसी रात वह अपने फ्लैट की पांचवीं मंजिल से नीचे कूद गयी। सब कुछ समाप्त हो गया।’’

चंदर की सिसकियां उस सन्नाटे कमरे में गूंज रही थीं।

मुझे चक्कर सा आ गया। स्वयं को संतुलित करते हुए मैंने पानी पिया और कुर्सी का हत्था कस कर थाम लिया। इतने में ही दोनों कमरों के बीच का परदा हवा से हिला और मुझे यश्वी की तसवीर दिख गयी, जिस पर चंदन की माला चढ़ी थी। एक दीया जल रहा था और लोबान की महक वातावरण में फैल रही थी। क्या बस यह लोबान की ही महक थी या कोई और पारलौकिक गंध, जो यहां आते समय मैंने महसूस की थी। मेरे गले में कुछ अटक सा गया था।

चंदर ने स्वयं को संतुलित कर लिया था।

‘‘किसी के चले जाने से जीवन नहीं रुक जाता। मैं भी कब तक शोक मनाता। घर वालों का दबाव था। अगले साल मैंने भी ब्याह कर लिया। संयोग से मेरे ब्याह की तारीख भी 15 दिसंबर ही थी,’’ चंदर की आवाज डूब गयी थी |

‘‘आज भी यश्वी बेहद याद आती है,’’ चंदर मानो स्वयं से ही बोल रहा था।

मैंने दीवार के कैलेंडर में तारीख देखी। आज 15 दिसंबर थी। मैं कांप गयी। इस ठंड में भी मेरी हथेलियां पसीने से तर हो चुकी थीं।

‘‘वह मुझे पिछले महीने कई बार मिली थी,’’ सहसा ही मैंने बताया।

अब चकराने की बारी चंदर की थी।

‘‘कुछ सामान, आपको देने के लिए,’’ मैंने बैग से बांसुरी और उपन्यास निकाल कर टेबल पर रख दिया। कमरे में ना जाने कैसी मादक, मंदिर सी खुशबू फैल गयी थी। कुछ अनजानी, कुछ पहचानी, यह इहलोक की तो नहीं थी? पता नहीं। यश्वी के पास से अकसर ऐसी खुशबू आती थी।

चंदर बावलों की तरह यश्वी की निशानियों को चूम रहा था। पता नहीं प्यार की यह कैसी अनसुलझी पहेली थी। शायद चंदर मुझसे बाद में बात करना चाहे, इसलिए मैं अपना मोबाइल नंबर उसे दे कर मैं चुपचाप वहां से चल पड़ी।

बाहर सन्नाटा पसरा था। मानो मौन के साये में सब कुछ डूब गया हो। हवा बिलकुल शांत थी, शायद इसलिए कि मैं यश्वी को याद कर सकूं। मेरा गला सूख गया था। मैं चल रही थी, चलती ही जा रही थी।

घर लौटते-लौटते काफी थकान हो गयी थी। मुझे लगा कि मैं पैदल ही एक लंबी यात्रा करके वापस लौटी हूं। बिस्तर पर लुढ़कते ही सो गयी थी मैं।

भोर का धुंधलका ही था जब अनायास ही मोबाइल की घंटी बजी। मैं चौंक कर उठी। कोई अनजाना सा नंबर था।

‘‘हेलो...’’

‘‘नमस्कार, मैं चंदर बोल रहा हूं। आप कल मेरे घर आयी थीं।’’

मेरी नींद उड़ गयी थी।

‘‘जी, बताइए।’’

‘‘आपने जो उपन्यास और बांसुरी मुझे दिए थे, क्या वापस ले गयीं आप? बहुत ढूंढ़ा, नहीं मिले,’’ चंदर के स्वर में घबराहट मिश्रित वेदना थी।

‘‘नहीं तो, मैंने तो वहीं आपके सामने टेबल पर रख दिए थे। प्लीज ढूंढि़ए, वहीं मिल जाएंगे,’’ मैंने फोन रख दिया।

मेरी नींद जा चुकी थी। मैं बिस्तर से उठी। प्रात: के 5 बज रहे थे। शरीर में अभी भी आलस्य शेष था कि अनायास ही मेरे कमरे में वही परिचित कस्तूरी सुगंध मह-मह करती महक गयी, जो पिछले दिनों कई बार मैंने महसूस की थी। मैं चौंक गयी। पूरे कमरे में निगाह दौड़ायी। कहीं कोई भी नहीं था। सहसा मैंने अपनी स्टडी टेबल पर देखा और मेरा जी धक से रह गया।

उपन्यास और बांसुरी दोनों वहां रखे थे। मैंने हाथ बढ़ा कर उन्हें छुआ। क्या वे सच में थे या मात्र मेरा भ्रम था। हां, वे सच में वहां थे। एक पत्र भी वहां रखा था। प्रभु का नाम ले कर मैंने उसे खोला। मोती जैसे अक्षर बिखरे थे-

आदरणीया,

मैं बहुत दिनों से दो जहां के बीच भटक रही थी, इस दुनिया की अमानत किसी योग्य पात्र को सौंपने के लिए। ईश्वर की कृपा से आप मुझे मिलीं। मैं इन्हें चंदर तक भी पहुंचा सकती थी, लेकिन चंदर अब मेरा नहीं रहा। ये उपन्यास और बांसुरी हमारे प्यार की निशानी हैं। आपसे विनती है कि प्लीज इनका विसर्जन कर दें। तभी चंदर मुझे भूल सकेगा, मेरी यादों से छुटकारा पा सकेगा... और मैं भी आपकी दुनिया से मुक्त हो कर दूसरी दुनिया मैं
जा सकूंगी।’’

थरथरा उठी थी मैं। मेरे पैर ठक-ठक कांप रहे थे। कुछ दिनों बाद ही बान गंगा सरोवर में जा कर मैंने उसकी अमानत विसर्जित कर दी।

आज कई दिन बीत गए हैं। जब भी लोकल में सफर करती हूं, सहमी, सशंकित सी यश्वी को ढूंढ़ा करती हूं। ना जाने फिर कब टकरा जाए मुझसे, चंदर की किसी दूसरी अमानत को वापस लौटा देने के लिए।