उस दिन दफ्तर में काम ज्यादा था। काफी देर हो चुकी थी। वापस लौटते समय अंधेरा होने लगा था। मैं हड़बड़ी में थी कि लास्ट लोकल मिल जाए, तो मैं अपने घर समय से पहुंच जाऊं। इधर कई दिनों से मैं देख रही थी कि यश्वी रोज ही मेरी प्रतीक्षा करती है। शायद उसे मेरे साथ ही जाना अच्छा लगता होगा। वह एक अजनबी लड़की थी, जो कुछ ही दिनों में बेहद अपनी सी लगने लगी थी। जान-पहचान मात्र कुछ ही दिनों की थी, किंतु कब और कैसे इतने कम दिनों में वह मेरे निकट आ गयी थी, पता नहीं चला। आज तो काफी देर हो चुकी थी। शायद यश्वी ना मिले। फिर बारिश भी काफी तेज हो रही थी। लेकिन स्टेशन पहुंच कर मैंने देखा कि यश्वी उसी परिचित मुस्कराहट के साथ मेरी प्रतीक्षा में स्टेशन की सीमेंट वाली बेंच पर बैठी थी। मुझे देख कर वह उठ खड़ी हुई। हम बिना कुछ बोले ट्रेन में बैठ गए। मुझे वाशी उतरना था और यश्वी को उससे आगे। कहां? नहीं पता।
‘‘तुम्हारा स्टेशन कौन सा है? कभी बताया नहीं तुमने,’’ मैंने आज पूछ ही लिया।
‘‘मुझे मानसरोवर तक जाना होता है,’’ यश्वी आहिस्ता से बोली।
‘‘तुम जॉब करती हो या अभी स्टूडेंट हो?’’ मैंने बातचीत आगे बढ़ानी चाही।
‘‘सब कुछ एक बार में ही जान लोगी क्या?’’ वह हल्के से हंसी। मैं चुप हो गयी। उसे लगा मुझे कुछ बुरा लगा है।
‘‘मैं पढ़ती हूं अभी,’’ उसने बताया। फिर मैंने कुछ भी नहीं पूछा। धीरे-धीरे ही जान-पहचान बढ़ेगी, ऐसा मैंने सोचा। मैं शुरू से देख रही थी कि यश्वी के हाथ में एक उपन्यास रहता था, जिस पर हमेशा कवर चढ़ा रहता था। कभी उसे पढ़ते हुए नहीं देखती थी। बस सीने से चिपकाए रहती थी। उपन्यास के साथ एक बांसुरी भी उसकी मुट्ठी में दबी रहती थी। हालांकि उसके कंधे पर एक बैग भी टंगा रहता था और मैं अकसर सोचती कि यश्वी उस उपन्यास और बांसुरी को अपने बैग में क्यों नहीं रख लेती। फिर मुंबई में इन दिनों मानसून भी आ चुका था। मुझे डर था कि उसका उपन्यास कहीं भीग कर खराब ना हो जाए। लेकिन मैंने अपने भाव कभी उसके सामने प्रकट नहीं किए।
वैसे तो मुंबई लोकल हमेशा ही खचाखच भरी रहती है, लेकिन आज शायद काफी देर हो गयी थी और संभवतः यह उस रूट की लास्ट लोकल थी। फिलहाल आज पूरी ट्रेन लगभग खाली ही थी। कम से कम मैं और यश्वी जहां बैठे थे, वहां से काफी आगे तक कोई पैसेंजर नहीं दिख रहा था। मैंने यश्वी से बात करनी चाही, क्योंकि वह कभी स्वयं से पहल नहीं करती थी।
‘‘तुम बांसुरी बजा लेती हो?’’
‘‘हां, कभी किसी से सीखी थी थोड़ी-बहुत...’’ उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी। मुझे कुछ ऐसा लगा वह अपने में ही गुम रहने वाली लड़की थी। बेहद शांत, अंतर्मुखी। रोज मेरी राह देखती थी, किंतु मुझसे बोलती बहुत कम थी। पता नहीं ऐसा क्यों?
‘‘कुछ सुनाओगी,’’ मैंने उसे पुनः कुरेदा। शायद उसके मन की कोई गुत्थी खुल जाए।
यश्वी होंठों में ही कुछ बुदबुदायी, जो मैं नहीं समझ सकी। लेकिन इस बार उसने मुस्करा कर बांसुरी अपने अधरों से लगा ली। उसने एक बड़ी ही मोहक धुन बजानी आरंभ की। ओह, कैसी मर्मस्पर्शी, मधुर धुन थी यह। लगता था कि कोई बिछड़ा प्रेमी अपने प्रियतम को बड़ी शिद्दत के साथ पुकार रहा हो, याद कर रहा हो। मैं आंखें मूंद कर उस धुन में खो गयी थी कि सहसा यश्वी ने बांसुरी रोक दी।
मेरा स्टेशन आ गया था। यश्वी से विदा ले कर मैं उतर गयी। कुछ दूर जा कर मैंने पलट कर देखा। यश्वी ट्रेन की खिड़की से मुझे जाते हुए देख रही थी। एक मोह की डोर पता नहीं क्यों मुझे यश्वी तक खींचे लिए जा रही थी। फिर एक दिन मैं दफ्तर नहीं गयी। दो दिन छुट्टी पर रही। घर में कुछ मेहमान आ गए थे। उन्हीं में व्यस्त रही। तीसरे दिन जब पुनः ऑफिस से लौटी, तो यश्वी मेरी प्रतीक्षा में थी।
‘‘दो दिन से आयी नहीं?’’
‘‘हां, छुट्टी पर थी। घर में कुछ मेहमान आ गए थे।’’
‘‘अच्छा,’’ वह मुस्करायी।
जब वह मुस्कराती थी, तो ऐसा लगता था कि उसकी आंखें भी साथ ही साथ मुस्कराती हैं। कुछ ना बोल कर भी उसकी मुस्कराहट बहुत कुछ बोल देती थी। मैंने देखा आज उसकी किताब पर कोई कवर नहीं था। मैंने शीर्षक पढ़ा-गुनाहों का देवता।
ओह, यह उपन्यास तो मेरे रोम-रोम में बसा है। प्रणय की अधूरी दास्तान समेटे हुए यह उपन्यास क्या यश्वी को भी उतना ही प्रिय है, जितना कि मुझे। मैं पूछना चाहती थी, लेकिन संकोचवश एक बार फिर चुप रह गयी।
एक दिन दफ्तर से मेरी छुट्टी जल्दी हो गयी, तो यश्वी से मिलना नहीं हो सका। अगली शाम उसने पूछा, ‘‘कल कहां रह गयी थीं?’’
‘‘कल दफ्तर में अधिक काम नहीं था, सो जल्दी वापस चली गयी थी।’’
‘‘अच्छा-अच्छा,’’ वह हंसी, ‘‘पता है, कल तुमको किसी से मिलवाना चाह रही थी।’’
‘‘किससे?’’ मैंने पूछा।

‘‘वही, जिससे मेरा ब्याह होने वाला है,’’ वह फिर से हंसी और उसके गालों में पड़ने वाले गड्ढों पर मैं मुग्ध हो गयी।
‘‘जानती हो, मेरा ब्याह चंदर से होनेवाला है। उसी ने मुझे यह उपन्यास गिफ्ट किया है। और हां, वह बांसुरी भी बहुत अच्छी बजा लेता है। यह उसी की तो बांसुरी है। मैंने छीन ली थी उससे,’’ वह शैतानी से मुस्करायी, ‘‘वैसे तो मेरा नाम यश्वी है, लेकिन चंदर मुझे सुधा कह कर ही पुकारता है। उपन्यास में तो चंदर और सुधा नहीं मिल सके, लेकिन हम लोग जरूर एक होंगे, ऐसा चंदर ही कहता है हमेशा।’’
बेहद कम बोलने वाली यश्वी आज काफी मुखर थी। मैं सोच रही थी कि जीवन में शायद एक और प्रिय सखी मुझे मिल गयी है।
वह दिसंबर की एक गहराती सांझ थी। मुंबई का मौसम भी उन दिनों कुछ ठंडा ही रहता है। हमेशा की तरह लोकल में हम दोनों साथ ही बैठे थे।
‘‘यश्वी, तुमने मुझे आज तक अपना फोन नंबर नहीं दिया, कभी मिलना अगर ना हो सके, तो फोन पर ही बात करें हम लोग,’’ मैंने उससे कहा।
‘‘मैं मोबाइल नहीं रखती साथ में, बहुत डिस्टर्ब करता है,’’ जब यश्वी ने बताया, तो मैंने ध्यान दिया कि इतने दिनों की मुलाकातों में मैंने कभी भी उसके हाथ में मोबाइल नहीं देखा था।
‘‘तुम क्या फेसबुक पर हो यश्वी? अगर मैं तुमको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजूं, तो एक्सेप्ट कर लोगी ना?’’ मैंने बड़ी आशा से उसे देखा।
‘‘नहीं, मैं सोशल मीडिया से भी दूर ही रहती हूं।’’
मुझे आश्चर्य हुआ। आज के भागते-दौड़ते जीवन में यह कैसी लड़की है, जो ना मोबाइल रखती है, ना फेसबुक और इंस्टाग्राम से जुड़ी है।
तभी यश्वी ने मुझे अपने घर का पता दिया और अपने घर आने का आमंत्रण भी दिया। मैंने अपने मोबाइल में उसके घर का पता सेव कर लिया।
‘‘कभी फुरसत निकाल कर जरूर आऊंगी,’’ जब वह ट्रेन से उतर रही थी, तब मैंने चलते-चलते उससे कहा।
उसके चले जाने के बाद मैंने देखा- उसकी सीट पर उपन्यास और बांसुरी दोनों ही छूट गए थे या शायद वह उन्हें साथ ले जाना ही भूल गयी थी। मैंने उन्हें संभाल कर अपने बैग में रख लिया।
फिर कई दिन बीत गए। यश्वी नहीं दिखी। मैं दफ्तर से लौटते समय रोज ही उसे खोजती। उसके घर का पता मुझे रट गया था। उसे याद करते हुए मैंने सोचा उसके घर हो आऊं। क्या पता क्यों नहीं आ रही?
क्रमशः