Tuesday 06 July 2021 02:46 PM IST : By Rita Gupta

तेरी उम्मीद तेरा इंतजार

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‘‘बुआ, कल आओ ना मेरे कैंपस,’’ शोभित ने कल फोन पर मनुहार किया था।

‘‘शोभित छुट्टी है, तो तू ही आ जा घर पर, मैं भला तेरे कैंपस में आ कर क्या करूंगी,’’ मैंने टालने की भरसक कोशिश की थी, पर शोभित के सामने एक ना चली।

‘‘आओ ना बुआ, एक जरूरी यानी बहुत ही जरूरी बात है और उसके लिए तुम्हारा आना बहुत आवश्यक है। अच्छा, कैंपस तुम्हें दूर लग रहा, तो सीपी में आ जाओ निरूला में शाम 5 के लगभग। मैं क्लास के बाद वहां पहुंच जाऊंगा। थोड़ी देर हो, तो लौट मत जाना और हां प्लीज फूफा जी को मत लाना। अकेले ही आना,’’ शोभित मानो हड़बड़ी में अपनी बातें कहे जा रहा था।

‘‘...और हां बुअा, अब मम्मी को अभी के अभी रिपोर्ट मत कर देना, ये हमारा सीक्रेट रहेगा।’’ यानी मामला कुछ तो गड़बड़ है, जो शोभित बाबू से मिल कर ही पता चलेगा। मैंने अच्छे बच्चे की तरह उसकी सभी बातों को मान लिया और कैब कर सीपी जाने को निकल पड़ी,ताकि 5 बजे तक पहुंच ही जाऊं।

शोभित, मेरे इकलौते भाई का एकमात्र बेटा, जो दिल्ली में एक प्रतिष्ठित कॉलेज में इंजीनियरिंग के फाइनल इयर का छात्र है, जिसका एक बड़े पैकेज के साथ प्लेसमेंट हो चुका है। बहुत महीनों के बाद उसका इस तरह चहक कर बात करना मुझे भी पुलकित कर गया। मैं भी खुद को रोक नहीं पायी उस कतराभर खुशी की किरण को अंजुरी में भरने के लिए। मैंने ज्यादा दिमाग भी नहीं लगाया कि क्यों बुलाया होगा उसने मुझे, अच्छा-बुरा जो भी कारण हो। अब बुरा घटने की आशंका से डर लगना खत्म हो गया है, किस्मत को समझ लेनी चाहिए कि हद से ज्यादा सताने से डरने की हद भी समाप्त हो जाती है एक सीमा के बाद।

पिछले दो-तीन सालों से शोभित परेशान ही रहा है, उसके हॉस्टल आने के बाद पहले उसके मम्मी-पापा की आपसी मनमुटाव की भनक और फिर पापा की बिगड़ती तबीयत और उनका जाना। घर पर अतिरिक्त स्नेह सुरक्षा में पला-बढ़ा मेरा भतीजा हॉस्टल आते ही हकीकत की धरातल पर हिचकोले खाने लगा था। पहले हॉस्टल में एडजस्टमेंट में दिक्कतें आयीं और बाद में घरेलू फ्रंट पर भी। पिता को खोने के गम से उबरा भी नहीं था कि कैंपस में प्लेसमेंट की हलचल शुरू हो गयी। वह तो भतीजा मेरा काफी इंटेलिजेंट है कि उसकी अच्छी सी कंपनी में नौकरी लग गयी, वरना जिन हालात से वह गुजर रहा था, वह बड़ा ही अवसादपूर्ण रहा था।

इस तरह आज उसका चहकना मेरे मृतप्राय मन-प्रांगण में भी सुरीली तान सी छेड़ गया मानो। उस तान से ताल मिलाती मैं भी कुछ अच्छा सा पहन निकल पड़ी। मेरे मायके का इकलौता चिराग शोभित, उसको देख कर हृदय में मानो खून बढ़ जाता है। कुछ महीनों से जब भी हम मिलते, एक-दूजे से आंसू छिपाने के चक्कर में बातें नहीं कर पाते, नजर नहीं मिला पाते। भाई ना सही, कम से कम सौभाग्य से उसकी निशानी तो है। मन में मैं सोच रही थी कि आज शोभित से पल्लव की कोई बात नहीं करूंगी। पर पल्लव तो हर वक्त मानस पर साधिकार कब्जा किए हुए है, भूलने या याद रखने जैसी कोई गुंजाइश शेष ही नहीं है।

‘‘पल्लव !’’

मेरा भाई, मेरा जुड़वां, उसके जाने के बाद से जिंदगी कभी पहले जैसे नहीं रही। कैब सिगनल पर अभी रुकी हुई थी, पर मन गतिमान था। भाई को गुजरे कोई सवा साल हुए होंगे, पर हम तो उसके गुजरने के कुछ पहले से ही शोक निमग्न हो गए थे। उसके पहले तो हम खुश थे। जब मौसी की बेटी की शादी में हम सब मौसेरे-ममेरे भाई-बहनों का मेला लगा था, हम बहुत खुश हुए थे। कभी साथ-साथ एक आंगन में गरमियों की छुट्टियां बितानेवाले हम सब देश-विदेश में अपनी-अपनी दुनिया में मगन 
रहते हैं। शादी-ब्याह जैसा मौका तो बहाना हो जाता है मिलने का, अपना बचपन फिर से जीने का, 
अपने भाई-बहनों के चेहरों पर वक्त की कलाकारी देखने का।

सिम्मी की शादी की आपाधापी में भी सबने नोटिस किया पल्लव के लड़खड़ाते कदमों को, उम्र से अधिक बुढ़ाते चेहरे और सुस्ती को। सबको हमेशा हंसानेवाला, सबका मजाक बनानेवाला पल्लव इस बार खामोश सा बस सबको निहार रहा था मानो वहां होते हुए भी नहीं था। हां, इस बार हंसी-मजाक की जिम्मेदारी उसकी जगह उसके बेटे शोभित ने उठायी हुई थी।

अपने नए-नए स्टाइलिश कपड़ों में हमेशा की तरह मेरा भाई सजीला दिख रहा था। मैंने उससे अकेले में एक बार कहा भी, ‘‘क्या बहुत डाइटिंग कर रहे हो, जो सूखते जा रहे हो?’’

वह मुस्कराता हुआ बोला, ‘‘मैंने डाइटिंग कर खुद को मेंटेन किया है, मुटल्ली पल्लवी जल मत।’’

फिर देर तक मैं उसके साथ उलझी रही कि मैं मोटी नहीं। संगीतवाले दिन जब सब भाई-बहन स्टेज पर एक साथ डांस कर रहे थे, तो उस दिन नानी का आंगन मानो डांस फ्लोर बन गया था। वह खुशी अप्रतिम थी, लाख दोस्त हों, पर अपने तो अपने ही होते हैं और अपनों की संगत सबसे प्यारी।

पल्लव बार-बार स्टेज से उतर जाता और एक कुर्सी पर निढाल सा बैठ जाता। मैं देख रही थी सौम्या, मेरी भाभी बार-बार उसे खींच कर लाती, दोनों को एक साथ यों नाचते देख खुशी से मेरी आंखें नम हो गयी थीं। वैसे भी मुझ जैसे इमोशनल फूल लोग सुख-दुख दोनों को आंसुओं से ही प्रकट करते हैं। शादीवाले दिन उससे कुछ विशेष बातें नहीं हो पायीं और अगली सुबह पल्लव और सौम्या की फ्लाइट थी। हम सब रात्रि जागरण के बाद सोए ही थे, तभी वे दोनों जबलपुर के लिए निकल गए थे।
एक झटके के साथ टैक्सी चल पड़ी, ग्रीन सिगनल हुआ होगा। मेरी तंद्रा टूटी, सिम्मी की विदाई के पश्चात यादों की भर-भर गठरियां लादें हम सब विदा हुए। ऐसे पारिवारिक मिलन एक नयी स्फूर्ति, एक नव शक्ति का संचार कर जाते हैं। अपनों के होने का अहसास अदभुत होता है।

शोभित, मैं और उसके फूफा साथ ही एक फ्लाइट से दिल्ली लौटे। लौटते समय शोभित कुछ अनमना और उदास सा दिख रहा था। मुझे लगा कि छोटा ही तो है, पापा-मम्मी से अलग हो हॉस्टल जाने के नाम से उदास होगा।

‘‘उदास ना हो बच्चा, मैं तो शहर में ही हूं। गरमी की छुट्टियों में तो जबलपुर जाना ही है,’’ मैंने भतीजे के बालों को सहलाते हुए कहा।

‘‘बुआ, आज सुबह जबलपुर जाने से पहले पापा-मम्मी में बहुत झगड़ा हुआ, मैं भी उसी कमरे में था। मुझे मम्मा के लिए बहुत बुरा लग रहा,अब वे पूरे रास्ते रोते हुए गयी होंगी। कल कितनी खुश दिख रही थीं और आज...’’ सिर झुका रुआंसा हो हाथों से मोबाइल को घुमाते हुए शोभित ने कहा, तो एक क्षण को मैं कांप गयी।

फिर सिर झटकते हुए कहा, ‘‘अरे सबके पापा-मम्मी में झगड़े होते हैं, एअरपोर्ट जाने के रास्ते में सुलह भी हो गयी होगी,’’ कहने को तो मैंने कह दिया, पर शोभित की मुख मुद्रा मुझे कुछ चिंतनीय लगी थी।

टैक्सी फिर किसी सिगनल पर रुक गयी थी, ब्रेक के झटकों ने वर्तमान में ला कर अहसान कर दिया।

‘‘उफ ! क्या करूं पल्लव, तुम कभी मानस से कब्जा छोड़ते ही नहीं।’’

उसका जाना मुझे बेहद खला था, मां की कोख से साथ था हमारा। ऐसा लगता है मानो किसी ने मेरे तन से मांस नोच दिया हो। तुम यों हमें बिलखता छोड़ चले गए कि आज तक विश्वास नहीं होता है। सौम्या तो अब तक सहज नहीं हो पायी है, उससे बातें करने में डर लगता है, क्योंकि उसकी रुदन की बाढ़ में मेरी मिट्टी की नकली हिम्मत जल्द ही टूट कर बिखर जाती है। फिर हम दोनों की ही धैर्य की नैया डूबने लगती है।

भाई-बहन से ज्यादा हम दोस्त थे- वह पल्लव, मैं पल्लवी।

सिम्मी की शादी से लौटने के कुछ दिनों के बाद से पल्लव की खराब तबीयत की खबर आने लगी थी। सौम्या हर दिन बताती कि पल्लव की भूख खत्म हो गयी है, बुखार जा ही नहीं रहा। फिर एक दिन मेरे पति ने फोन पर लगभग डांटते हुए कहा, ‘‘अब जबलपुर रहने की कोई जरूरत नहीं, दिल्ली आ कर ढंग से पूरा चेकअप करवा लो।’’

तब जा कर दोनों दिल्ली आए, आते ही उसने एक अस्पताल में खुद अपनी मर्जी से भर्ती ले लिया। उसके जीजा ने उसे कहा भी कि इससे बेहतर और कई अस्पताल हैं, यह अस्पताल तो महिलाओं की बीमारियों के लिए प्रसिद्ध है। पल्लव का तर्क था कि अभी यह भी नहीं पता कि बीमारी है भी कि नहीं या क्या बीमारी है। जांच में जो निकलेगा, उसी हिसाब से दूसरे अस्पताल में चल जाएंगे।

पल्लव का शरीर और मुरझा गया था, उसकी बेचैनी असहनीय थी। अचानक मौसम बदल गया, वसंत के बाद अब पतझड़ आ चुका था। अभी महीना नहीं हुअा था जब हम सब शादी में खुशियों में सराबोर थे। सच वक्त से ज्यादा चंचल कोई नहीं, पलभर में दुनिया पलट जाती है। हम सब पल्लव को थामने की कोशिश में लगे थे और वह हाथ छुड़ाने की। डॉक्टर जांच पर जांच कर रहे थे, पर रोग की जड़ लापता थी। सौम्या केबिन के कोने में बैठ अनवरत रोती ही रहती। उसकी बीमारी की खबर सुन एक-एक कर अपने सगे फिर मिलने आने लगे। वही जिनके मुस्कराते चेहरों को दिल में समेटे शादी समारोह से वापस लौटी थी। पर इस बार सबके चेहरे गमगीन थे। पल्लव भी याद कर-कर सभी को फोन कर मिलने बुला रहा था। सबके हाथ थाम रोता, छोटों को कुछ सलाह देता, बड़ों से आशीर्वाद मांगता।

‘‘तुम दोनों मां-बेटा अब देख लो कैसे रहना है, मैं तो अब चला,’’ पल्लव सौम्या को कहता रहता। 

मुझे उसकी इस फालतू सी अप्रासंगिक बातों पर बहुत गुस्सा आता और मैं उसको डांटती, ‘‘जब कुछ हुआ ही नहीं है, तो फिर मरने की बात क्यों करना? पल्लव, तुम मेरी भाभी को बहुत सताते हो,’’ मैं आंसू भरी आंखों को तरेरती हुई कहती।

हॉस्पिटल में एडमिट होने के बाद उसके स्वास्थ्य में और तेजी से गिरावट दर्ज होने लगी थी। कभी अचानक कहीं दर्द, तो कभी एलर्जी, कभी कोई इन्फेक्शन, तो कभी बुखार। भूख तो बहुत दिनों से लगनी बंद थी। शरीर सूखता जा रहा था और उसकी कमजोरी एवं बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

उस दिन सौम्या को जबर्दस्ती घर भेज दिन में मैं भाई के सिरहाने बैठी थी कि देखा वह सुबक रहा है।

‘‘क्या हुआ पल्लव, क्या कहीं दर्द हो रहा है?’’ मैंने घबराते हुए पूछा। उसने मेरी हथेलियों को थाम लिया, उसके ठंडेपन ने मेरी रीढ़ को सिहरा दिया।

‘‘दीदी ! मुझे अब नहीं जीना है, बहुत जी चुका...’’

मैं उससे दो मिनट बड़ी थी, कभीकभार विशेष अवसरों पर ही उसने मुझे दीदी कहा होगा। मैं बिलकुल चौंक कर उसके निस्तेज हो चुके चेहरे को देखने लगी। वह मानो वहां होते हुए भी नहीं था, चमकता चेहरा स्याह पड़ चुका था, शरीर कृशकाय और हंसी खो चुकी थी।

‘‘दीदी, उसके बिना अब और नहीं जी पाऊंगा, सालों साल मैंने उसके बिना जी कर देख लिया। 
अब मैं उसके पास जाना चाहता हूं, अब और ‘सब ठीक है’ का झूठा मुखौटा लगा कर नहीं जिया जाता। पापा ने जो कहा मैंने माना, उनकी खुशी के लिए बाईस-तेइस वर्ष मैंने एक धर्म की तरह गृहस्थी का पालन किया है। सौम्या को कभी अंतर्मन में उतार ही नहीं पाया, क्योंकि मन ना हुए दस बीस। मेरा मन तो सदैव आबाद रहा सुगंधा की सुवास से। पिता जी ने सुगंधा को मेरे जीवन से विलग भले कर दिया, पर वह वास्तव में कभी अलग हुई ही नहीं। अब मन-मानस और मस्तिष्क में निकलने के दरवाजे नहीं होते हैं। हमारे पिताओं ने हमारे शरीर भले दूर-दूर रखे, पर हमारी आत्मा जो वर्षों पहले एक हुई थीं, उन्हें जुदा नहीं कर पाए। मुझे अब उसके पास जाना है, मैं अब और अपनी आत्मा बगैर नहीं रह सकता...’’

पल्लव बुदबुदाते कहे जा रहा था, मैं हतप्रभ हो उस सुनामी के वेग को महसूस कर रही थी, जो अब तक उसके सीने में थी। वर्षों पहले पिता जी ने उसके साथ ही पढ़नेवाली सुगंधा से उसे विवाह की अनुमति नहीं दी थी और अपने दोस्त की डॉक्टर बेटी सौम्या से उसे शादी के लिए बाध्य किया था। वह बीता वक्त धृष्टता से सामने आ खड़ा था, पल्लव का वह गिड़गिड़ाना, पिता के पैरों पर गिर जाना सब याद आने लगे थे। यादों के झंझावात में स्मृतियों के 
कपाट अब चरमराते हुए सिर पटकने लगे। सुगंधा वैसे कोई अनजान थोड़े ना थी, हम तीनों स्कूल के जमाने दोस्त थे। फिर पल्लव और सुगंधा ने साथ ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। जान-पहचान, दोस्ती कब प्यार में बदल गयी, शायद दोनों ही जान नहीं पाए। पर यह प्यार इतनी रूह तक उतरा होगा कि सौम्या, पल्लव की ब्याहता इतने वर्षों तक हृदय द्वार की चौखट पर ही बैठी रह गयी, यह अब महसूस हो रहा है।

ऐसा नहीं कि मैंने कोशिश नहीं की थी, पर हमारे पापा और सुगंधा के पापा ने बच्चों के प्यार को अस्वीकार कर आपसी खुन्नस निकाली। काश ! कि मां जीवित होतीं हमारी, जो शायद पल्लव के मन को पढ़ पातीं और पापा को समझातीं। बच्चों की छोटी-बड़ी मांग पूरी करने को तत्पर पिता शादी जैसे विषय पर अड़ियल टट्टू बन बैठे। नतीजा पल्लव आज तक दुलत्तियां खा रहा है।

मैं हतप्रभ उसके दिल के उदगारों को सुन रही थी। वर्षों पुरानी यह फांस इतनी गहरी धंसी हुई थी मेरे सहोदर के हृदय में, यह सोच एक अजीब सी विचलन हो गयी। पर... पर पल्लव वहीं रुका रह गया इसका भान ना हुआ कभी। मुझे पल्लव के ब्याह की याद आने लगी...

कैसे परकटे पंछी की तरह वह तड़प-तड़प रोया था, जब पापा ने सौम्या के पापा संग सारी बातें फाइनल कर पल्लव को आदेश दिया था कि वह उससे मिल ले। आज का बच्चा होता, तो शायद फांसी लगा ली होती  या विद्रोह करता। पर तब शायद बच्चे माता-पिता के आगे घुटने टेक ही देते थे, अपनी जिंदगी उनकी अमानत मान। पर यह अमानती जीवन पल्लव को रास ना आया, इतने सालों बाद यह सचाई बड़ी क्रूरता से आंखें चार कर रही थी। 

सौम्या विदा हो कर घर आ गयी थी। बगल के कमरे में रोते पल्लव संग मैंने सुगंधा के सारे फोटो जलाए थे, जो उसके अलबम में थे। साथ ही जला दी थीं मैंने वे चिट्ठियां, जो पल्लव ने मुझे लिखी थीं, जब पापा उसकी बातें नहीं सुन रहे थे। उसने अपनी दिल की बातें तब मुझसे शेअर की थीं। वे चिट्ठियां नहीं दस्तावेज थे उसके और सुगंधा के स्नेह बंधन का। कितने वर्ष तक दोनों ने अपनी भावनाओं को उजागर नहीं होने दिया था। शायद शुरुआत में वे भी बेखबर ही रहे थे अपनी भावनाओं से, वक्त पर यानी जब नौकरी की शुरुआत हुई, तो दोनों ने खुद को एक ही नाव में पाया। सुप्त अहसासों ने अंगड़ाई ली और प्रेम के ताप को महसूस किया दोनों ने, पर पिता जी ने एक बचकानी हरकत समझ उसके प्रेम अंकुरण के नव पल्लवों का विच्छेदन किया था। उसकी जड़ें इतनी गहरे फैली हुई थीं उन दो दिलों में, जिसका उन्हें भान ही नहीं हुआ।

हिंदी फिल्मों की तरह शादी हो गयी। सब ठीक हो गया मान कर हम सब आगे बढ़ चुके थे। एकाध अवसरों के अतिरिक्त मैंने पल्लव को कभी फिर सुगंधा को याद करते नहीं देखा।

पल्लव की शादी के बाद उसी वर्ष सुगंधा भी दुलहन बन विदा हो गयी थी। सबने मान लिया कि जीवन ढर्रे पर आ गया। देखा जाए, तो सब सुख तो था ही। 

फिर एक दिन तब पल्लव ने फोन पर पूछा, ‘‘क्या सचमुच सुगंधा नहीं रही?’’ एक लंबी चुप्पी पसरी रही, यानी भाई आज भी उसकी खबर रखता है।

‘‘हां, सचमुच वह बेटी के जन्म के वक्त ही गुजर गयी, मैं गयी थी पल्लव उसके घर। चलो जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, कितनी कम उम्र लिखा कर लायी थी, वरना आज यह मातम हमारे घर मनता,’’ मैंने सुगंधा की मौत को ज्यादा तवज्जो ना देते हुए कहा, वरना दर्द की अनुभूति गहरी ही थी।

‘‘मौत कभी अच्छी नहीं होती,’’ गंभीर स्वर में उसने कहा था।

मैंने तो पल्लव को यह बताया ही नहीं था कि उसके घर जाने पर उसके पति ने मुझसे क्या पूछा था, ‘‘ओह ! तो आप ही पल्लवी हैं सुगंधा की बचपन की सहेली? क्या वह शुरू से ही ऐसी थी, जिंदगी के प्रति अति उदासीन? जाने मुझे हमेशा क्यों लगता कि वह जिंदगी से खुश नहीं है। हमेशा लगता मानो खुद को जबर्दस्ती धकेलती जी रही हो। सोचा कि मातृत्व के बाद शायद वह खुश रहने लगे, पर एक कर्तव्य की तरह इसे भी निभा वह चल बसी। डॉक्टर भले अत्यधिक रक्तस्राव कारण कहे, पर मुझे लगता है उसकी रूह को मुक्ति मिली।’’

ऐसा क्यों कहा धीरज ने? क्या वह शादी के बाद खुश नहीं थी? क्यों ऐसी बेजार सी हो गयी थी सुगंधा?

उसके पति से इन बातों को सुन मुझे संशय सा हुआ था कि सुगंधा शायद पल्लव संग अपनी दोस्ती भुला नहीं पायी थी, वरना वह तो एक खुशमिजाज लड़की रही हमेशा। अनगिनत लमहे आंखों के समक्ष गुजर गए, जो मैंने, पल्लव और सुगंधा ने बचपन से साथ गुजारे थे, हंसते-खिलखिलाते, चिल्लाते-मुस्कराते हुए।

चलो अच्छा है, पल्लव जीवन में आगे बढ़ गया, अभी दो महीने पहले ही तो मैं बुआ बनी थी, एक बार मन ने फिर संशय का फन काढ़ा था उस वक्त, पर दिमाग ने झट उसे अनगिनत उदाहरणों से कुचल दिया। दिमाग यों ही दिल की बातों को झुठला व्यक्ति को दुनियादारी का मुखौटा पहना देता है। 

मैंने उसके पति धीरज को कुछ कहा तो नहीं, बस डबडबायी आंखों से हार तले उसके बड़े से चित्र को मन में भर लौट आयी, हमेशा के लिए यादों की किवाड़ पर कुंडी लगा। सारे रास्ते लौटते मैं यही सोचती रही पापा ने बिलकुल सही किया, भले जबर्दस्ती ही, कितनी कम उम्र लिखा कर सुगंधा लायी थी। 

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सौम्या हर तरह से एक अच्छी बहू, ननद, मां, डॉक्टर सब साबित हुई, पत्नी धर्म भी तो निभाया ही। पर एक अच्छी पत्नी बनने की राह पूरी तरह मुकम्मल नहीं कर पायी। अब यदि पति पल्लव जैसा रहा, जिसने अपने प्रथम प्रेम की यादों को सर्वदा हृदय में पुष्पित ही रखा, तो वह दिल में पग धरे भी तो किस तरह। यही वह तनाव था, जो पल्लव और सौम्या की गृहस्थी में मुझे हमेशा महसूस तो होता, पर एक आशंकित मन की सोच मान मैं झुठलाती रहती।

...पल्लव की आवाज किसी गहरे कुएं से आती प्रतीत हो रहा था, वह बार-बार अब एक ही बात कह रहा था, ‘‘हमारे पिताओं ने हमारे शरीर भले दूर दूर रखे, पर हमारी आत्मा जो वर्षों पहले एक हुई थीं उन्हें जुदा नहीं कर पाए। मुझे अब उसके पास जाना है, मैं अब और अपनी आत्मा बगैर नहीं रह सकता...’’

‘‘पल्लव-पल्लव चुप हो जाओ, सौम्या या शोभित सुनेंगे, तो क्या हाल होगा उनका,’’ मैंने उसके मुंह पर अपनी हथेली रख दी।

‘‘इसी अस्पताल में उसने अपने को आजाद किया था, उसने बरसों मेरा इंतजार किया है। अब मैं उसे और अकेले नहीं छोड़ सकता। मुझे जाना ही होगा,’’ मेरी हथेली को पकड़ अब वह मानो जिद कर रहा था।

फिर मानो छत की तरफ देखते वह भावना शून्य सा हो गया। उसका यह रहस्योद्घाटन कि सुगंधा ने वर्षों पूर्व इसी अस्पताल में अपनी अंतिम सांसें ली थीं, अब मुझे अत्यधिक विचलित करने लगा था। प्रेम के किस रूप की मैं साक्षी बन रही थी। तभी पल्लव को देखा वह बेड के पास की खिड़की के पार शून्य में देखता मुस्करा रहा था। मैं पसीने से लथपथ हो गयी, उसकी वह स्मित, सुकूनभरी तल्लीनता मेरे मन के भय को फड़फड़ाने लगी। मैंने झट से परदा सरका दिया खिड़की का। पर प्राण को बंद खिड़की या दरवाजे से निकलते थोड़े ना रोका जा सकता है, फिर यहां तो मैंने सिर्फ परदा ही सरकाया था। 

‘‘मैडम, चार सौ चौबीस हुए,’’ टैक्सीवाले की आवाज ने मुझे अतीत से वर्तमान में बुला लिया।

मैं कुछ पहले ही पहुंच गयी थी, एक कॉफी का आॅर्डर कर शोभित का इंतजार करने लगी। आसपास नजर घुमायी, सब खुद में तल्लीन, हंसी-मजाक की आवाजें बड़ी अच्छी लग रही थीं। जी कर रहा था मैं भी ऐसे हंसती, ठहाके लगाती, पर अब तो मानो खुशी गुनाह हो गयी थी। पहले ऐसे सार्वजनिक जगहों पर अपरिचितों का चेहरा पढ़ना, उनके बारे में अनुमान लगाना मेरा फेवरिट टाइम पास हुआ करता था। यों ही फिर नजरें दौड़ाने लगी कि मुख्य द्वार से घुसती मुझे वह दिख गयी, वही कद-काठी, रंग-रूप बस बाल घुंघराले, पर उम्र भी वही कैसे?

मैं अपनी पगलाती नजरों को वहां से फेर दूसरी तरफ देखने का प्रयास करने लगी। आंखें तो घूम गयीं अच्छे बच्चों की तरह बात मान, पर दिल वहीं अटका रह गया। क्या पुनर्जन्म सचाई है या वह थ्योरी सच है कि दुनिया में एक जैसे चेहरे के सात लोग पाए जाते हैं। अब बुद्धि को बेवजह विचरण करते छोड़ मैं ठंडी होती कॉफी पर निगाहें टिकाने की कोशिश करने लगी। 

‘उफ, मेरे आंसुओं ने इन्हें अब तक नमकीन बना दिया था। जिंदगी से मिठास ही मानो चली गयी है,’ सोचते हुए मैंने एक क्यूब चीनी और डाल ली।

‘‘बुआ ! ज्यादा चीनी सेहत के लिए ठीक नहीं,’’ कहते हुए शोभित ने पीछे से मेरे गले में बांहों का हार पहना दिया।

‘‘ये देखो मेरे पापा की बहन, उनकी जुड़वां बहन। बस मूंछ की कमी है, वरना ये हूबहू उनकी तरह ही दिखायी देती हैं।’’

शोभित ने ये बातें किससे कहीं, यह देखने के लिए निगाह उठायी, तो पाया कि वह वही है, जिसे दरवाजे पर खड़ा देखा था।

यादों पर लगी कुंडी खुल चुकी थी, आखिरी बार जिसकी तसवीर हार तले देखी थी वह साक्षात सामने थी। कॉफी का कप हाथ से छूट गया और मैं थरथराने सी लगी।

‘‘बुआ, अब इतना ओवर रिएक्ट मत करो। मैंने शादी नहीं कर ली है, अभी करनी भी नहीं है। बस स्मृति को तुमसे मिलवाना था।’’

शोभित हंसते हुए उसका परिचय बता रहा था और मैं सुगंधा की स्मृति से मिल एक बार फिर अतीत के गलियारों में गुम हो चुकी थी।